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CHAPTER-2 CLASS-X (Ram-Lakshman-Parshuram-Samvad)

Ram-Lakshman-Parshuram-Samvad
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 जीवन परिचय-

महाकवि तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 (सन् 1532) में बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। यह सरयूपारीण ब्राह्मण थे। तथाकथित अशुभ नक्षत्र में जन्म और इनके स्वरूप की विचित्रता के कारण इनके माता-पिता ने इनको त्याग दिया। इनका पालन-पोषण मुनिया नामक सेविका ने किया। इनके गुरु महात्मा नरहरिदास माने जाते हैं। इनका विवाह रत्नावली नामक गुणवती स्त्री से हुआ, किन्तु वैवाहिक जीवन अधिक नहीं चल पाया। तुलसीदास जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ रामचरितमानसकी रचना अयोध्या में प्रारम्भ की किन्तु बाद में यह काशी के निवासी हो गए। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इनका देहावसान हो गया। तुलसी संवत् 1680 (सन् 1623) में दिवंगत हो गए।

Ram-Lakshman-Parshuram-Samvad
TULSIDAS


साहित्यिक परिचय-

तुलसीदास भक्त कवि थे। आपकी भक्ति दास्यभाव की थी। आपकी कीर्ति का आधार हिन्दू धर्म का लोकप्रिय ग्रन्थ रामचरितमानस है। आपने इस ग्रन्थ द्वारा समाज के सभी वर्गों में समन्वय बनाने की चेष्टा की है। इस ग्रन्थ में भगवान राम के जीवन चरित का वर्णन है। तुलसीदास जी ने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में सुन्दर रचनाएँ की हैं।

रचनाएँ-

आपकी प्रमुख रचनाएँ-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली, बरवै रामायण, पार्वतीमंगल, वैराग्य संदीपनी रामाज्ञाप्रश्न, जानक़ीमंगल, रामलला नहछू आदि हैं।

पाठ परिचय

लक्ष्मण परशुराम संवादनामक काव्यांश आपके महाकाव्य रामचरितमानस से संकलित है। महाराज जनक द्वारा आयोजित धनुष यड्समें राम ने शिव धनुष को भंग कर दिया। मुनि परशुराम यह समाचार पाकर अत्यन्त क्रोध से भरे हुए वहाँ आए। उनकी दर्प और क्रोध से भरी बातों के कारण उनका लक्ष्मण से विवाद हो गया। परशुराम ने लक्ष्मण को बहुत कठोर वचन कहे और लक्ष्मण ने भी उन पर व्यंग्य बाण चलाए। अंत में राम की विनयशीलता और मुनि विश्वामित्र के समझाने पर परशुराम का क्रोध शान्त हुआ। इस अंश में कवि ने व्यंग्यमयी और रोचक शैली में घटना को प्रस्तुत किया है।

Ram-Lakshman-Parshuram-Samvad
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पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ।

(1)

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥

आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥

सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसंबाहु सम सो रिपु मोरा॥

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥

सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परंसु धरहि अवमाने॥

बहु धनुहीं तोरी लरिका। कबहूँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥

एहि, धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

रे नृप बालक काल बस, बोलत तोहि न सँभार॥

धनुही सम त्रिपुरारि धनु, बिदित सकल संसार॥

कठिन-शब्दार्थ-संभुधनु = शिव का धनुष। भंजनिहारा = तोड़ने वाला। केउ = कोई। आयसु = आज्ञा। काह = क्या। मोही = मुझे। रिसाइ = क्रोधित होकर। कोही = क्रोधी। अरि करनी = शत्रु जैसा काम। करिअ = की है। लराई = लड़ाई। सहसबाहु = सहस्रबाहु नाम का एक राजा जिसका परशुराम ने वध किया था। रिपु = शत्रु। मोरा = मेरा। बिलगाउ = अलग खड़ा हो जाए। बिहाइ = छोड़कर। समाजा = सभा, समूह। न त = नहीं तो। परसु धरहि = फरसा धारण करने वाले, परशुराम से। अवमाने = अपमानित करते हुए। धनुहीं = छोटे-छोटे धनुष। तोरीं = तोड़ डार्ली। लरिकाईं = बचपन में। असि = ऐसा। रिस = क्रोध। गोसाईं = स्वामी, आदरसूचक संबोधन। ममता = मोह, प्यार। केहि हेतु = किस कारण। भृगुकुलकेतू = भृगुकुल की ध्वजा अर्थात् परशुराम। नृप बालक = राजकुमार। तोहि = तुझे। सँभार = चेत, होश, ध्यान। त्रिपुरारि धनु = शिव का धनुष। बिदित = ज्ञात, प्रसिद्ध। सकलं = सारा॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग प्रस्तुत काव्यांश कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के बालकाण्ड से संकलित है। इस अंश में राम परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए विनम्र वाणी में निवेदन कर रहे हैं किन्तु परशुराम भड़क उठते हैं और कठोर वचन कहते हैं। इससे लक्ष्मण के साथ उनका विवाद हो जाता है।

व्याख्या-शिव-धनुष के तोड़े जाने से कुपित परशुराम को शांत करने के लिए राम ने विनम्रतापूर्वक कहा-हे नाथ! इस धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा। आपका क्या आदेश है, मुझे बताइए? यह सुनकर क्रोधी स्वभाव वाले मुनि परशुराम क्रोध से भरकर बोले-सेवक वह होता है जो सेवा का कार्य करे किंतु धनुष को तोड़ने वाले ने तो शत्रु जैसा

आचरण करके लड़ाई का काम किया है। जिसने भी यह शिव-धनुष तोड़ा है वह सहस्रबाहु के समान मेरा घोर शत्रु है। वह व्यक्ति इस राजाओं के समाज से अलग होकर सामने आ जाए, नहीं तो सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएँगे।

परशुराम के इन क्रोधयुक्त वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कराए और उनका निरादर करते हुए कहने लगे-हमने बचपन में न जाने कितनी धनुषियाँ तोड़ी होंगी पर आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इस धनुष पर आपकी विशेष ममता किस कारण है? लक्ष्मण के व्यंग्य-वचन सुनकर भृगुवंश की ध्वजा रूप परशुराम ने क्रोधित होकर कहा-अरे राजकुमार ! तू काल के वशीभूत है तभी तुझे बोलते समय ध्यान नहीं कि तू क्या कह रहा है? क्या सारे संसार में प्रसिद्ध यह शिव का धनुष उन धनुषियों के समान हो सकता है?

विशेष-

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक अवधी है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है।

(2) सम्पूर्ण अंश में व्यंग्यमयी शैली का प्रयोग हुआ है।

(3) छंद चौपाई और दोहा हैं।

(4) शान्त और रौद्र रस की संयुक्त योजना हुई है।

(5) ‘काह कहिअ’, ‘सेवकु सो’, ‘सहसबाहु सम सो’, ‘सुनि मुनि बचन लखनआदि में अनुप्रास अलंकार है। जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहुं सम सो रिपु मोरा॥में भृगुकुलकेतूमें उपमा अलंकार है।

(6) पात्रों के चरित्र पर उनके संवादों से पूर्ण प्रकाश पड़ रहा है।

 

(2)

लखन कही हसि. हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥

का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के. भोरें॥

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥

बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥

सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

मातु पितहि जनि सोचबस, करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन, परसु मोर अति घोर॥

 

कठिन-शब्दार्थ-हसि = हँसकर। जाना = समझ में। का = क्यो। छति = हानि। जून = पुराना, जीर्ण। तोरें = तोड़ने से। नयन = नवीन, नया। भोरें = भ्रम में, धोखे में। छुअत = छूते ही। काज = कारण, काम। करिअ = करते हो। कत = क्यों। रोसू = क्रोध। चितई = देखकर। परसु = फरसा। ओरा = ओर, तरफ। सठ = मूर्ख, धूर्त। सुभाउ = स्वभाव। बोलि = जानकर। बधउँ नहिं = नहीं मारता। जड़ = मूर्ख। बाल ब्रह्मचारी = बचपन से संयमपूर्ण जीवन बिताने वाला। कोही = क्रोधी। बिस्व बिदित = संसार भर में ज्ञात। क्षत्रियकुल = क्षत्रियों के वंश का। द्रोही = शत्रु। भुजबल = भुजाओं के बल पर, पराक्रम से। भूप = राजा। बिपुल = बहुत। महिदेवन्ह = ब्राह्मणों को। भुज = भुजा, हाथ। छेदनिहारा = काटने वाला। बिलोकु = देख ले। महीपकुमारा = राजा का पुत्र, राजकुमार। जनि = मत। सोचबस = शोकमग्न, दु:खी। करसि = करे। महीसकिसोर = राजपुत्र। गर्भन्ह के = गर्भ में स्थित। अर्भक = भ्रूण, बच्चे। दंलन = नष्ट करने वाला। अति घोर = अत्यंत भयंकर।

 

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश कविवर तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानसमहाकाव्य से संकलित है। यहाँ लक्ष्मण परशुराम के क्रोधपूर्ण वचनों का अपने व्यंग्यों के द्वारा उपहास कर रहे हैं। परशुराम उन्हें बार-बार धमकियाँ दे रहे हैं।

 

व्याख्या-लक्ष्मण ने हँसते हुए परशुराम से कहा- हे देव! हमारी समझ से तो सब धनुष एक जैसे ही होते हैं। एक पुराने धनुष को तोड़ने से किसे हानि या लाभ हो सकता है? राम ने इसे नए के भ्रम में परखा था। यह तो राम के छूते ही टूट गया। अतः इसमें राम का कोई दोष नहीं है। हे मुनिवर ! आप बिना कारण ही इतना क्रोध क्यों कर रहे हैं? यह सुनते ही परशुराम ने क्रोधित होकर अपने फरसे की ओर देखा और बोले- अरे मूर्ख! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मैं तो तुझे बालक जानकर नहीं मार रहा हूँ। तू मुझे केवल एक साधारण मुनि समझ रहा है। मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रिय वंश का शत्रु हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल से धरती को कितनी ही बार राजाओं से रहित किया है और उनके राज्यों की भूमि को अनेक बार ब्राह्मणों को दान किया है। अरे राजपुत्र! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को ध्यान से देख ले॥

अरे राजकुमार ! अपने माता-पिता को शोकमग्न मत कर। मेरा यह भयंकर फरसा गर्भ में स्थित बच्चों को भी नष्ट कर देता है। मेरे फरसे से भयभीत क्षत्राणियों के गर्भ गिर जाते हैं।

विशेष-

(1) साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है। शब्दों का चयन पात्रों और परिस्थिति के अनुरूप है।

(2) व्यंग्य और उपहासपूर्ण शैली का प्रयोग है।

(3) रौद्र रस तथा हास्य रस की सफल योजना है।

(4) ‘हसि हमरे’, ‘काज करिअ कत’, ‘सठ सुनेहि सुभाउतथा बालकु बोलि बधउमें अनुप्रास अलंकार है। छुअत टूटमें अतिशयोक्ति अलंकार है।

(5) संवाद दोनों पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले हैं।

 

(3)

बिहसि लखनु बोले मृदबानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फँकि पहारू॥

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि डरि जाहीं॥

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥

बधे पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारे॥

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ, छमहु महामुनि धीर।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि, बोले गिरा गभीर॥

शब्दार्थ-बिहसि = हँसकर। मृदु = कोमल, नम्र। मुनीसु = महान मुनि। महाभट = महान योद्धा। मानी = प्रसिद्ध। कुठारू = फरसा। चहत = चाहते हो। पहारू = पहाड़। कुम्हड़बतिया = एक पौधा जो उँगली समीप ले जाने से ही पत्तियाँ सिकोड़ लेता है, छुईमुई, निर्बल व्यक्ति। कोउ = कोई। जे = जो। तरजनी = अँगूठे के पास वाली उँगली, तर्जनी। सरांसन = धनुष। बाना = बाण। भृगुसुत = भृगु ऋषि के वंशज। जनेउ = जनेऊ, ब्राह्मण द्वारा कंधे पर धारण किया जाने वाला धागा, यज्ञोपवीत। बिलोकी = देखकर। सहौं = सह रहा हूँ। रिस = क्रोध। रोकी = रोककर। सुर = देवता। महिसुर = ब्राह्मण। हरिजन = भगवान के भक्त। गाई = गाय। कुल = वंश। सुराई = शूरता, वीरता। बधे = मारने से। अपकीरति = अपयश। मारतहुँ = मारने पर भी। पा = पैर। परिअ = पड़ेंगे। कोटि = करोड़ों। कुलिस = वज्र। सम = समान। बचनु = शब्द, वाणी। ब्यर्थ = बेकार। धरहु = धारण करते हो। धीर = धैर्यवान। सरोश = क्रोध से। भृगुबंसमनि = भृगु के वंश में श्रेष्ठ, परशुराम। गिरा = वाणी। गभीर = गहरी, भारी।

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश कविवर तुलसीदास की प्रसिद्ध रचना रामचरितमानसके बालकाण्ड से उद्धृत है। इस अंश में शिव का धनुष तोड़े जाने से रुष्ट परशुराम का लक्ष्मण से विवाद प्रस्तुत हुआ है। लक्ष्मण हँस-हँस कर परशुराम पर व्यंग्य कस रहे हैं और परशुराम भड़क-भड़ककर लक्ष्मण को गम्भीर परिणामों की धमकियाँ दे रहे हैं।

व्याख्या-लक्ष्मण ने हँसते हुए कोमल वाणी में कहा अहा महामुनि ! आपको तो निश्चय ही महान योद्धा मानना पड़ेगा अथवा आप तो निश्चय ही माने हुए महान् योद्धा हैं। आप बार-बार मुझे अपना फरसा दिखाकरे डराना चाह रहे हैं। आप तो फेंक से पहाड़ को उड़ा देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखिए कि हम भी कोई छुईमुई के पौधे नहीं हैं जो आपकी तर्जनी उँगली दिखाने से सिकुड़ (डर) जाएँगे। हम आपके इस गर्जन-तर्जन से डरने वाले नहीं हैं। आपको क्षत्रियों की भाँति फरसा, धनुष-बाण आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किए देखकर मैंने अभिमानपूर्वक कुछ बातें कह दीं, पर अब ज्ञात हुआ कि आप महर्षि भृगु के वंशज हैं। आपका जनेऊ बता रहा है कि आप ब्राह्मण हैं। इसी कारण आपकी सारी उचित-अनुचित बातों को मैं क्रोध को रोककर सुन रहा हूँ। हमारे वंश में देवता, ब्राह्मण, भक्तजन और गांय पर वीरता दिखाने की परंपरा नहीं है। क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है।

और इनसे हार जाने पर अपयश मिलता है। आप ब्राह्मण होने के नाते पूज्य और अबध्य हैं, अतः आप हमें मारेंगे तो भी हम आपके चरणों में ही पड़ेंगे। आपकी तो वाणी ही करोड़ों वज्रों के समान कठोरे है फिर आप ये धनुष-बाण और कुठार व्यर्थ धारण करते हैं। हे मुनिवर ! आपके वेश को देखकर मैंने अनुचित बातें कह दीं उन्हें क्षमा कर दीजिए, क्योंकि आप तो बड़े धैर्यवान और क्षमाशील हैं। लक्ष्मण की ये व्यंग्यमयी बातें सुनकर भृगुवंश में श्रेष्ठ परशुराम क्रुद्ध होकर गंभीर वाणी में कहने लगे।

विशेष-

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक अवधी है। कवि ने प्रसंग को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए सटीक शब्दों का चयन किया है। कुम्हड़बतियाजैसे आंचलिक शब्द का भी प्रयोग हुआ है।

(2) शैली व्यंग्य और उपहासपूर्ण है।

(3) ‘मुनीसु महा’, ‘कछु कहा’, ‘कोटि कुलिसमें अनुप्रास अलंकार है तथा कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारामें उपमा अलंकार है।

(4) ‘वीरतथा रौद्ररस की सफल व्यंजना हुई है।

(5) दोनों ही पात्र शील की सीमाओं से बाहर जा रहे हैं।

(4)

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल काले बस निजकुल घालकु॥

भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहऊँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥

तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥

सूर समर करनी करहिं, कहिन जनावहिं आपु॥

विद्यमान रन पाइ रिपु, कायर कथहिं प्रतापु॥

शब्दार्थ-कौसिक = विश्वामित्र। मंद = मूर्ख, बुद्धिहीन। कुटिल = टेढ़ा। काल बस = मृत्यु के वश होकर। घालकु = नष्ट करने वाला। भानु बंस = सूर्यवंश। राकेस = चन्द्रमा। कलंकू = कलंक, दाग। निपट = निरा, अत्यंत। निरंकुस = स्वच्छन्द, अनुशासनहीन। अबुध = मूर्ख, अज्ञानी। असंकू = निडर। काल कवलु = मृत्यु का ग्रास , मृत। छन माहीं = क्षणभर में। खोरि = दोष। हटकहु = रोक लो। जौं = यदि। चहहु = चाहते हो। उबारा = बचाना। प्रतापु = प्रभाव, पराक्रम। रोषु = क्रोध। सुजसु = कीर्ति, यश। अछत = रहते हुए, होते हुए। को = कौन। बरनै = वर्णन करना। पारा = समर्थ, कर पाना। आपनि = अपनी। करनी = कार्य। बहु = बहुत। बरनी = वर्णन की है। पुनि = पुनः, फिर से। कहहू = कहिए। जनि = मत। रिस = क्रोध। रोकि = रोककर। दुसह = असहनीय। सहहू = सहिए, सहन कीजिए। बीरबती = वीरों के व्रत का पालन करने वाला। धीर = धैर्यवान। अछोभा = क्रोध न करने वाला। गारी देत = गाली देते हुए। सूर = शूर, वीर। समर = युद्ध में। जनावहिं = जताते हैं। रिपु = शत्रु। कायर = डरपोक। कथहिं = कहते हैं, सुनाते हैं।

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश कविवर तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानसमहाकाव्य के बालकाण्ड से संकलित है। इस अंश में लक्ष्मण के अपमानजनक व्यंग्य वचनों से क्रोधित परशुराम विश्वामित्र से उन्हें समझाने के लिए कह रहे हैं तथा लक्ष्मण उन्हें और उकसा रहे हैं।

व्याख्यापरशुराम ने विश्वामित्र से कहा-हे विश्वामित्र! यह बालक लक्ष्मण बुद्धिहीन और कुटिल स्वभाव वाला है। यह काल के वश में होकर अपने कुल का भी नाश कराएगा। यह सूर्यवंश रूपी चन्द्रमा में कलंक के समान है। यह अत्यन्त स्वच्छन्द, मूर्ख और निडर है। यह क्षणभर में मेरे हाथों मारा जाएगा। मैं पुकार कर कह रहा हूँ कि फिर मुझे दोष मत देना। यदि आप इसे बचाना चाहते हैं तो इसे हमारे प्रताप, बल और क्रोध का परिचय कराके रोक लीजिए। यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा-हे मुनीश्वर! आपके रहते हुए आपके यश का वर्णन और कौन अच्छी प्रकार कर सकता है।

आपने अब तक अपने मुँह से अपने कार्यों की खूब प्रशंसा की है फिर भी यदि आपको संतोष न हुआ हो तो और कुछ कहिए। आप अपने क्रोध को मन में दबाकर असहनीय दुःख मत सहिए। आप तो वीरता का व्रत धारण करने वाले हैं, धैर्यवान हैं और क्षुब्ध न होने वाले हैं। आप इस प्रकार गाली देते शोभा नहीं पाते हैं। शूरवीर युद्ध में खुद वीरता का प्रदर्शन किया करते हैं वे अपने मुँह से अपनी प्रशंसा नहीं करते। कायर लोग ही युद्ध में शत्रु को सामने देखकर अपनी वीरता की डींग हाँका करते हैं।

विशेष-

(1) पद्यांश की भाषा साहित्यिक, प्रवाहपूर्ण और पात्रों तथा प्रसंग के अनुरूप है।

(2) शैली व्यंग्य और उपहास से परिपूर्ण है।

(3) वीर और रौद्र रस की रोचक व्यंजना हुई है।

(4) ‘कुटिल काल’, ‘निपट निरंकुस’, ‘रिस रोकितथा करनी करहिं कहि ……………………..’ आदि में अनुप्रास अलंकार है। भानु बंस राकेस कलंकूमें रूपक तथा उपमा अलंकार है।

(5)

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार-बार मोहि लागि बोलावा॥

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेऊ कर घोरा॥

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥

न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि, मुनिहि हरिअरइ सुझ।

अयमय खाँड न ऊखमये, अजहुँ न बूझ अबूझे॥

शब्दार्थ-कालु = मृत्यु। हाँक जनु लावा = मानो हाँक कर ले आए हों, बलपूर्वक ले आए हों। मोहि लागि = मेरे लिए। बोलावा = बुला रहे हों। सुधारि = अच्छी तरह, सँवारकर। धरेऊ = उठा लिया, ले लिया। कर = हाथ। घोरा = भयंकर। जनि = मत, नहीं। देइ = दें। कटुबादी = कड़वा बोलने वाला। बधजोगू = मारने योग्य। बिलोकि = देखकर, जानकर। बाँचा = बचाया, छोड़ दिया। यह = यह। मरनिहार = मरने योग्य। भा= हो गया। साँचा = सच में। छमिअ = क्षमा कर दो। गनहिं. = गिनते हैं, ध्यान देते हैं। साधू = सज्जन। खर = पैना, धारदार। अकरुन = करुणारहित, निर्दय। कोही = क्रोधी। आगें = सामने। गुरुद्रोही = गुरु का अपमान करने वाला। उतर = उत्तर। सील = शील, सज्जनता। न त = नहीं तो। एहि = इसको। गुरहि = गुरु से। उरिन = ऋण से मुक्त। होतेउँ = हो जाती। श्रम = परिश्रम। थोरें = थोड़ा-सा। गाधिसूनु = गाधि के पुत्र, विश्वामित्र। हरियरे = हरा ही हरा। सूझ = दिखाई दे रहा है। अयमय = लोहे की। ऊखमय = ईख की, गन्ने से बनी। अजहूँ = अब भी। बूझ = जाना, समझा। अबूझ = अज्ञानी, नासमझे॥

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानसमहाकाव्य के बालकाण्ड से संकलित है। लक्ष्मण अपने व्यंग्यपूर्ण कथनों से परशुराम को निरंतर उत्तेजित और क्रुद्ध कर रहे हैं। विश्वामित्र उनसे शांत होने का अनुरोध कर रहे हैं।

व्याख्या-लक्ष्मण ने परशुराम से कहा- आप तो मानो मृत्यु को अपने साथ हाँककर ले आए हैं। इसीलिए बार-बार उसे मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण के ऐसे कठोर और व्यंग्यमय वचन सुनकर परशुराम ने अपने भयंकर फरसे को सँभालकर हाथ में ले लिया। वह कहने लगेअब लोग मुझे इस बालक का वध करने पर दोष न दें। यह कटु वचन बोलने वाला लड़को मारने योग्य ही है। मैंने इसे बालक जानकर अब तक बहुत बचाया परन्तु अब यह वास्तव में मरने योग्य ही है।

बात बढ़ती देखकर विश्वामित्र ने परशुराम से कहा-मुनिवर ! सज्जन लोग बालकों के गुण-दोषों पर अधिक ध्यान नहीं देते इसलिए आप इसे क्षमा कर दीजिए। इस पर परशुराम ने कहा- मेरे हाथ में धारदार फरसा है और मैं बड़ा निर्दयी और क्रोधी हूँ। मेरे सामने घोर अपराधी और मेरे गुरु का अपमान करने वाला खड़ा है। वह बार-बार मुझे उत्तर पर उत्तर देता जा रहा है। इतना होते हुए भी मैं इसे आज बिना मारे छोड़ रहा हूँ तो केवल आपके शील-स्वभाव के कारण। नहीं तो अब तक मैं इसे कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिश्रम से अपने गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता।

यह सुनकर विश्वामित्र मन ही मन हँसे और सोचने लगे कि मुनि परशुराम को अब भी हरा ही हरा सूझ रहा है। यह इन राम-लक्ष्मण को भी उन साधारण क्षत्रियों जैसा समझ रहे हैं जिनको इन्होंने सहज ही मार गिराया था। इनको पता नहीं कि ये राजकुमार गन्ने के रस से बनी खाँड़ न होकर लोहे की खाँड़ हैं। इनसे पार पाना असम्भव है। अज्ञानवश मुनि सच्चाई को नहीं समझ पा रहे हैं।

विशेष-

(1) काव्यांश की भाषा मुहावरेदार और व्यंग्य तथा रौद्र रस के अनुरूप है।

(2) परशुराम के क्रोधावेश का बड़ा सजीव और स्वाभाविक वर्णन हुआ है।

(3) रौद्र रस के अनुभवों का प्रकाशन बड़ां सजीव है।

(4) ‘बाल बिलोकि बहुत’, ‘गुन गनहिं नतथा केवल कौसिकमें अनुप्रास अलंकार है। बार-बारमें पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

(6)

कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥

माता पितहि उरिन भए नीकें। गुरु रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥

भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥

मिले न, कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥

अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥

लखन उतरे आहुति सरिस, भृगुबर कोपु कृसानु॥

बढ़त देखि जल सम बचन, बोले रघुकुल भानु॥

शब्दार्थ-सील = स्वभाव, व्यवहार। बिदित = ज्ञात, विख्यात। उरिन = ऋण से मुक्त। भए = हुए। नीकें = अच्छी तरह। गुरु रिनु = गुरु का ऋण। सोचु = चिंता। बड़ = बड़ा। जी = हृदय। सो = वह। हमरेहि = हमारे। माथे काढ़ा = मत्थे मढ़ दिया, हम पर निकाल दिया। चलि गए = बीत गए। बड़ = बहुत। बाढ़ा = बढ़ गया। आनिअ = ले आईए। ब्यवहरिआ = हिसाब लगाने वाला, गणना करने वाला। तुरत = तुरंत, अभी। कटु = कड़वे। सुधारा = सँभाल लिया। भृगुबर = परशुराम। मोही = मुझे। बिप्र = ब्राह्मण। बिचारि = जानकर। बचउँ = बेच रहा हूँ, छोड़ रहा हूँ। नृपद्रोही = राजाओं या क्षत्रियों से द्वेष रखने वाला। सुभट = अच्छे योद्धा। रन = युद्ध। गाढ़े = दृढ़, लड़ाकू। द्विज देवता = ब्राह्मण देवता। घरहि के = घरे के ही। बाढ़ = बढ़े हुए, श्रेष्ठ बने हुए। रघुपति = राम। सयनहिं = नेत्रों के संकेत से। नेवारे = रोका, मना किया। आहुति = अग्नि को भड़काने वाली सामग्री। संरिस = समाने। भृगुबर कोपु = परशुराम का क्रोध। कृसानु = अग्नि। रघुकुल भानु = रघुवंश में सूर्य के समान तेजस्वी, राम।

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश कवि तुलसीदास जी के द्वारा रचित रामचरितमानसनामक महाकाव्य के बालकाण्ड से लिया गया है। इस प्रसंग में लक्ष्मण परशुराम के बड़बोलेपन पर व्यंग्य करके उन्हें चिढ़ा रहे हैं। उनके सीमा से बाहर, कठोर वचनों को लोग अनुचित बता रहे हैं और राम उन्हें संकेत से चुप हो जाने को कह रहे हैं।

व्याख्या-लक्ष्मण ने परशुराम से कहा-आप कितने शील स्वभाव वाले हैं, यह बात सारा संसार जानता है। माता-पिता के ऋण से तो आप बड़ी अच्छी तरह मुक्त हो गए लेकिन गुरु का ऋण बाकी रह जाने से आपके मन में बंड़ी चिंता थी। आपने उस ऋण को हमारे माथे मढ़ दिया। दिन भी बहुत हो गए इसलिए इस ऋण का ब्याज भी काफी बढ़ गया होगा। अब आप किसी हिसाब लगाने वाले को बुला लीजिए। आपका जितना ऋण निकलेगा मैं तुरंत थैली खोलकर चुका हूँगा। लक्ष्मण के इन कटु व्यंग्य वचनों को सुनकर परशुराम ने अपना फरसा सँभाल लिया। वह लक्ष्मण पर प्रहार करने को उद्यत हो गए। यह देख सारी सभा हाहाकार करने लगी।

इतने पर भी लक्ष्मण चुप नहीं हुए और बोले- हे भृगुवंशी! आप मुझे फरसा दिखाकर डराना चाहते हैं। अरे क्षत्रियों के शत्रु ! आप ब्राह्मण हैं इसीलिए मैं आपसे युद्ध करने से बच रहा हूँ। आपका अभी तक युद्ध में अच्छे योद्धाओं से पाला नहीं पड़ा। आप घर में ही वीर बने हुए हैं। लक्ष्मण को अभद्र वचन कहते सुनकर सभी लोग उनके व्यवहार की निन्दा करने लगे तब राम ने नेत्रों के संकेत से लक्ष्मण को अधिक बोलने से मना किया। परशुराम की क्रोधरूपी अग्नि को लक्ष्मण के उत्तर आहुति के समान भड़का रहे थे। तब क्रोधाग्नि को बढ़ते देखकर राम ने जल के समान शीतल वचन बोलकर परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया॥

विशेष-

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक और प्रवाहपूर्ण है। माथे काढ़ना, घर के ही बड़े होना आदि मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा भावों को व्यक्त करने में समर्थ है। पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग है।

(2) छंद चौपाई तथा दोहा हैं।

(3) रस वीर और रौद्र हैं।

(4) ‘ब्याज बड़ बाढ़ा’, ‘बिप्र बिचारि बचउँमें अनुप्रासहाय हायमें पुनरुक्ति प्रकाश, ‘लखन उतर आहुति सरिस’, ‘जल सम वचनमें उपमा तथा रघुकुल भानुमें रूपक अलंकार है। मात पितहिं उरिन भए नीकेमें वक्रोक्ति अलंकार है।

केवल ज्ञान ही ऐसा अक्षर तत्व है जो कहीं भी,

किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का

साथ नहीं छोड़ता l “

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कुमार MAHESH

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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