TEACHING & WRITING BY MK

इस ब्लॉग पर मेरी विभिन्न विषयों पर लिखी गई कविता, कहानी, आलेख और शिक्षण सामग्री का प्रकाशन किया जाता है.

KABIRDAS KE PAD RBSE/NCERT CLASS 11 FULL EXPLANATION

 


संत कबीरदास : संक्षिप्त   परिचय 

अन्य नाम :                कबीरा ,कबीर साहेब 
जन्म :                        सन 1398 (लगभग)
जन्म भूमि :                लहरतारा ,काशी (उ० प्र०)
मृत्यु :                        सन 1518 (लगभग)
मृत्यु स्थान :               मगहर (उ०प्र०)
पालक माता-पिता :      नीरू एवं नीमा 
पत्नी :                         LOYI  लोई  
पुत्र/पुत्री :                     कमाल,कमाली 
कर्मस्थान :                 काशी,बनारस 
मुख्य रचनाएं :            साखी,शब्द ,रमेनी 
भाषा :                        अवधी,सधुक्कड़ी,पंचमेल खिचड़ी  
शिक्षा :                        निरक्षर 

संत कबीरदास : विस्तृत   परिचय 

    संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।

जन्म

    कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

 मृत्यु

    कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान् उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं I 

माता-पिता

    कबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। "नीमा' और "नीरु' की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था।

वैवाहिक जीवन

    कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या 'लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।

पद - 01 

अरे इन दोहुन राह ना पाई

हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन देवई

वेश्या के पाँयन तर सोई यह देखो हिन्दुआई।।

मुसलमान के पीर , औलिया मुर्गी मुर्गा खाई खाई ,

खाला केरी बेटी ब्याहे , घर ही में करे सगाई।।

बाहर से एक मुर्दा लाए , धोए धाए चढ़वाई।

सब सखियां मिली जेवन बैठी , घरभर करे बड़ाई

हिन्दूवन की हिंदूवाई देखी तुरकन की तुरकाई

कहे कबीर सुनो भाई साधु , कौन राह है जाई।।

कठिन शब्दार्थ :- दोहुन दोनों , गागर -घड़ा , पीर गुरु , औलिया अनुयायी , खाला मौसी, रिश्तेदार जेवन जिमन, भोजन करना।

प्रसंग प्रस्तुत पधांश संत कवि कबीर द्वारा रचित एवं पारसनाथ तिवारी द्वारा संपादित कबीर वाणी से लिया गया है .इस पद में कबीर ने हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए बाह्य आडम्बर व कुरीतियों की आलोचना की है .

व्याख्या : - कबीर कहते है कि इन दोनों अर्थात हिंदू व मुस्लिमों ने ईश्वर  प्राप्ति के सही मार्ग को नहीं पाया है। कबीरदास हिन्दूओं के बारे में चर्चा करते हुए कहता है कि ये हिंदू लोग अपनी बडाई स्वयं ही करते रहते हैं और अपनी पानी की मटकी अर्थात् बर्तन इत्यादी को किसी को भी छूने तक नहीं देते है। क्योंकि इनके अंदर छुआछुत की भावना अत्यधिक होती है और ये स्वयं को अन्य से ऊँचा मानते हैं, कबीर दास जी कहते हैं कि उच्च वर्ण के बनने वाले ये हिंदू वेश्या  के पैरों पर गिरते रहते हैं अर्थात वेश्याओं  के कोठों पर उनके साथ रमण करते है या करने के इच्छूक रहते है। उस समय इनकी श्रेश्ठता व उच्च वर्ण के बनने की भावना कहाँ चली जाती है ?

    मुसलमानों की चर्चा करते हुए कबीरदास जी कहते है ये मुसलमान वैसे तो पीर-फकीरों के भक्त व शिष्य  बनते फिरते हैं वहीं दूसरी ओर मुर्गा-मुर्गी को मार कर खाते हैं। जीव हत्या के समय इनकी आध्यात्मिकता कहाँ चली जाती है ? कबीरदास मुसलमानों की विवाह पद्वति पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ये लोग अपनी मौसी की बेटी जो की रिश्ते  में बहिन ही लगती है से विवाह कर लेते है और घर में पति -पत्नी का सम्बन्ध जोड लेते है। कबीर दास जी आगे कहते है कि ये लोग किसी निर्जीव को नहला धुला कर पूजते हे, इसे कैसे उचित माना जा सकता है ? उसी के नाम पर सब मिलजुल कर भोजन कर उसकी खूब बडाई भी करते है। कबीर दास जी का स्प्ष्ट  कहना है कि मैंने इन दोनों अर्थात हिन्दुओं  का हिन्दूपन और मुसलमानों की मुसलमानी अच्छी तरह से परख/जांच कर ली है। ये सिर्फ धर्म के नाम पर ढोंग रचते हैं व बाहरी दिखावा करते है। इसलिए हे सज्जनो! सुनो और स्वयं निर्णय करो की ईश्वर प्राप्ति हेतु तुम्हें किस रास्ते पर चलना है ? इस पद साहेब ने तात्कालिक वर्ण व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष किया है। आडम्बरों की इस उलझन में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ने राह नहीं पाई है। यह उलझन आडम्बर के कारण पैदा होती है। साहेब ने स्पष्ट किया है की आडम्बर धर्म नहीं हैए मानवता ही सच्चा धर्म है जिसमे किसी आडम्बर के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ पर गौर करने योग्य है की कबीर साहेब ने कौन राह है जाई  से कटाक्ष किया है की कौनसा धर्म उचित है, हिन्दू , मुस्लिम सिख इसाई या  इन सभी धर्मों के अनुयाई अनुचित आचरण में लगे हैं, इस पर पर साहेब ने बताया की

    मानवता का मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ है। मानव को मानव समझना, जीव को जीव समझना ही सबसे बड़ा धर्म है।

विशेष –

1-पद में कबीर ने हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्माचरण पर प्रहार करते हुए बाह्य आडम्बर व कुरीतियों की आलोचना की है .

2-पद में अनुप्रास अलंकार की पुन:आवृति हुई है  

पद - 02

बालम, आवो हमारे गेह रे।

तुम बिन दुखिया देह रे।

सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।

दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।

अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।

कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।

है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवासों कहै सुनाय रे।

अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।

कठिन शब्दार्थ :- बालम : प्रेमी / पूर्ण परमात्मा। गेह रे : घर।

दुखिया देह : तुम्हारे बिना मैं दुखी हूँ। /जीवात्मा परमात्मा के दर्शन के बगैर अधूरी है।

मोकों लगत लाज रे : मुझे शर्म आती है क्योंकि तुम मेरे पास नहीं हो।

कैसा सनेह रे : यदि मुझसे दिल नहीं लगाया है, तुम मेरे पास नहीं हो तो स्नेह झूठा ही है। / यदि जीव पूर्ण परमात्मा को प्राप्त नहीं करता है तो उसकी भक्ति अधूरी ही है।

कामिन : प्रेमिका , पिवासों : प्रिय से।

प्रसंग प्रस्तुत पधांश संत कवि कबीर द्वारा रचित एवं पारसनाथ तिवारी द्वारा संपादित कबीर वाणी से लिया गया है .इस पद में कबीर खुद को स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रियतम से घर लौटने की आकांक्षा व्यक्त करते है .

व्याख्या कबीर कहते हैं की हे प्रियतम ! तुम्हारे बिना मेरा शरीर विरह-व्यथा से पीड़ित है .तुम मेरे घर आकर मेरी पीड़ा को दूर करो . अर्थात कबीर की साधक आत्मा प्रियतम (भगवान) के बिना दू:खी है और वह भगवान को अपने घर अर्थात अपने ह्रदय में बसा कर अपनी विरह व्यथा को दूर करने की प्रार्थना करते है .साधक कबीर का अपने प्रियतम (भगवान) से कहना है कि मेरी पीड़ा यह है कि मैं ही नहीं ,बल्कि दुसरे लोग भी मुझे तुम्हारी पत्नी कहते है .यह सुनसुन कर मुझे शर्म आती है . अब तुम्ही बताओ की तुम मेरे पति होते हुए भी कभी मेरे घर अर्थात ह्रदय में नहीं आये , कभी मुझे अपने दिल से नहीं लगाया ,तब भला यह कैसा प्रेम है?

    कबीर आगे कहते है की विरह में मेरी दशा ऐसी हो गई ही की न तो मुझे घर अच्छा लगता है और न ही जंगल .यहाँ तक की मुझे अच्छी तरह नींद भी नहीं आती है और न ही खाना अच्छा लगता है . मेरा दिल धैर्य धारण भी नहीं कर पा रहा है.जिस प्रकार कामिनी को अपना प्रियतम अच्छा लगता है और प्यासे को पानी अच्छा लगता है , उसी  प्रकार तुम भी मुझे प्रिये लगते हो .अंत में कबीर कहते है की मेरे आस-पास तो कोई ऐसा परोपकारी व्यक्ति भी नहीं है जो तुम्हे मेरा हाल जाकर कहे अर्थात मेरी विरह व्यथा तुम्हे बताये. हे प्रियतम ! तुम्हारे विरह में मेरी दशा ऐसी हो गयी है कि अब तो तुम्हे देखे बिना जीवित रहना दूभर हो गया है ,अर्थात जीवन समाप्त होने वाला है .

    कबीर साहेब निर्गुण भक्ति धारा को मानने वाले हैं लेकिन यहाँ पर प्रेम को साकार बताया है। सांसारिक सबंधों का उदाहरण देकर निराकार प्रेम को प्रतीकात्मक रूप से परिभाषित किया गया है। ईश्वर को पति मानकर उसे अपने पास बुलाने से भाव यही है की आत्मा परमात्मा के दर्शन की प्यासी है। ईश्वर के दर्शन के लिए मन व्याकुल है और नैन प्यासे हैं। इस दुखिया को दर्शन दो मेरे स्वामी। इस पद में स्त्री को आधार बना कर बिरह को दर्शाया गया है। यहाँ पर बिरह से भाव ईश्वर की प्राप्ति और जतन से सबंधित है। जैसे कोई अपने अविनाशी  प्रिय की याद में तड़पता है वैसे ही यह जीव अपने मालिक की प्राप्ति के लिए व्याकुल है। अपने प्रिय से जुदा हो चुकी स्त्री कहती है की सभी लोग मुझे तुम्हारी नारी कहते हैं, इससे मुझे लाज आती है क्योंकि तुम तो मुझसे दूर हो।

         यदि सच्चा दिल नहीं लगाया है तो प्रेम कैसा स्नेह कैसा ? भाव है की यदि अपने मालिक के प्रति सच्चा समर्पण नहीं है तो इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता है। बिरह के कारन उसे अन्न भी अच्छा नहीं लगता है। ना उसका चित्त कहीं पर लगता है। वह रुदन कर रही है, दुखी है और उसके नयन दर्शन के प्यासे हैं। जैसे प्यासे व्यक्ति को पानी की जरूरत होती है वैसे ही उसे अपने प्रिय के दर्शन की प्यास है। कोई उस प्रिय से कह दे की बिना उसे देखे प्राण निकलने को हैं।

विशेष

(1)    ब्रह्मा रुपी प्रियतम से मिलने की तीव्र इच्छा अभिव्यक्त हुई है .

(2)    दुखिया देह” ,”कोई कहै ,धरै न धीर” , जिव जायआदि में अनुप्रास अलंकार है.

(3)    बालमऔर तुम्हारी नारी में कबीर ने स्वम् को ब्रह्मा की पत्नी के रूप में बताकर आध्यात्मिक या रहस्यात्मक भावाभिव्यक्ति की है .

(4)    सधुक्कड़ी भाषा की प्रयोग है .

प्रश्नोत्तर 

प्रश्न  1: 'अरे इन दोहुन राह न पाई' से कबीर का क्या आशय है और वे किस राह की बात कर रहे हैं?

उत्तर : कबीर जी इस पंक्ति में हिन्दुओं और मुस्लमानों के लिए बोल रहे हैं। उनका अर्थ है कि ये दोनों धर्म आंडबरों में उलझे हुए हैं। इन्हें सच्ची भक्ति का अर्थ नहीं मालूम है। धार्मिक आंडबरों को धर्म मानकर चलते हैं। कबीर के अनुसार ये दोनों भटके हुए हैं।

प्रश्न  2: इस देश में अनेक धर्म, जाति, मज़हब और संप्रदाय के लोग रहते थे किंतु कबीर हिंदू और मुसलमान की ही बात क्यों करते हैं?

उत्तर : जिस समय की बात कबीर करते हैं, उस समय भारत में हिंदू और मुस्लिम दो धर्म विद्यमान थे। जैन, बौद्ध आदि धर्म हिन्दू धर्म की ही शाखाएँ हैं। अतः उन्हें उस समय कबीर ने अलग-अलग करके नहीं देखा है। वैसे भी इनमें मतभेद नहीं होता था। हिन्दू तथा मुस्लिम दो धर्मों के ही मध्य आपस में लड़ाई हुआ करती थी। अतः कबीर ने इन दोनों की ही बात की है।

प्रश्न  3: 'हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई' के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं? वे उनकी किन विशेषताओं की बात करते हैं?

उत्तर : कबीर देखते हैं कि दोनों ही धर्मों में विभिन्न प्रकार के आडंबर विद्यमान है। दोनों स्वयं को श्रेष्ठ बताते हैं और आपस में लड़ते हैं। देखा जाए, तो दोनों ही व्यर्थ में समय गँवा रहे हैं। कबीर कहते हैं कि हिन्दू किसी को अपने बर्तनों को हाथ नहीं लगाने देते। यही लोग वैश्यों के चरणों के दास बने रहते हैं। अतः इनकी शुद्धता और श्रेष्ठा बेकार है। मुस्लमानों के बारे में कहते हैं कि वे जीव हत्या करते हैं। उसे मिल-जुलकर खाते हैं। यह कहाँ की भक्ति है। अतः इन दोनों की इन विशेषताओं का वर्णन करके वे उन पर व्यंग्य करते हैं।

प्रश्न  4: 'कौन राह ह्वै जाई' का प्रश्न कबीर के सामने भी था। क्या इस तरह का प्रश्न आज समाज में मौजूद है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : यह प्रश्न बड़ा जटिल है। प्राचीनकाल से लेकर अभी तक मनुष्य इसी दुविधा में फँसा हुआ है कि वह किस राह को अपनाए। आज के समाज में भी यह प्रश्न विद्यमान है। भारत जैसे देश में तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि धर्म विद्यमान हो गए हैं। सब स्वयं को अच्छा और श्रेष्ठ बताते हैं। सबकी अपनी मान्यताएँ हैं। मनुष्य इनके मध्य उलझकर रह गया है। उसे समझ ही नहीं आता है कि वह किसे अपनाए, जिससे उसे जीवन की सही राह मिले।

प्रश्न  5: 'बालम आवो हमारे गेह रे' में कवि किसका आह्वान कर रहा है और क्यों?

उत्तर : प्रस्तुत पंक्ति में कबीर भगवान का आह्वान कर रहे हैं। वे अपने भगवान के दर्शन के प्यासे हैं। अपने भगवान के दर्शन पाने के लिए उन्हें अपने पास बुला रहे हैं।

प्रश्न  6: 'अन्न न भावै नींद न आवै' का क्या कारण है? ऐसी स्थिति क्यों हो गई है?

उत्तर : कबीर भक्ति में लीन हो चुके हैं। उनके लिए उनके भगवान ही सबकुछ हैं। वे अपने भगवान को पति तथा स्वयं को उनकी पत्नी रूप में मानते हैं। अपने प्रियतम से विरह की स्थिति में उन्हें कुछ नहीं भाता है। प्रभु मिलन को प्यासे कबीर को इस स्थिति में भोजन अच्छा नहीं लगता और न नींद आती है।

प्रश्न  7: 'कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे' से कवि का क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कबीर कहते हैं कि कामिनी औरत को प्रियतम (बालम) बहुत प्रिय होता है। प्यास से व्याकुल व्यक्ति को पानी बहुत प्रिय होता है। ऐसे ही भक्त को अपने भगवान प्रिय होते हैं। कबीर को भी अपने भगवान प्रिय हैं और वे उनके लिए व्याकुल हो रहे हैं।

प्रश्न  8: कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि हैं और यह पद (बालम आवो हमारे गेह रे) साकार प्रेम की ओर संकेत करता है। इस संबंध में अपने विचार लिखिए।

उत्तर : कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि हैं। वे ईश्वर के मूर्ति रूप को नहीं मानते हैं परन्तु सांसारिक संबंधों को अवश्य मानते हैं। प्रेम में उनका अटूट विश्वास है। प्रेम कभी साकार या निराकार नहीं होता। वह बस प्रेम है। एक भावना है, जो मनुष्य को असीम आनंद की प्राप्ति देता है। अतः वह बालम आवो हमारे गेह रे में वह अपने ईश्वर को प्रेमी या पति के रूप में लेते हैं। अतः वह प्रतीत तो साकार प्रेम की तरह होता है लेकिन सत्य यह है कि वह निर्गुण रूप ही है।

प्रश्न  9: उदाहरण देते हुए दोनों पदों का काव्य-सौंदर्य और शिल्प-सौंदर्य लिखिए।

उत्तर : प्रथम पद में कवि ने व्यंग्य शैली को अपनाया है। हिन्दुओं तथा मुस्लमानों के धार्मिक आंडबरों पर करारा व्यंग्य किया है। ऐसे कटाक्ष किए हैं कि लोग निरुत्तर हो जाएँ। वे दोनों के प्रति निष्पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने धार्मिक झगड़े की ओर संकेत किया है। इस तरह वह दोनों धर्मों में व्याप्त आडंबरों को समाप्त कर अपने सामाजिक दायित्व को भी निभाते दिख जाते हैं। इसकी भाषा बहुत ही सरल तथा सुबोध है। अलंकारों का सहज आना उनके पद के सौंदर्य को बड़ा देता है। इसके अतिरिक्त उदाहरण देकर उदाहरण शैली का प्रयोग किया है।

यह पद रहस्यवाद की छवि प्रस्तुत करता है। यहाँ पर ईश्वर को प्रियतम के रूप में संबोधित किया गया है। यहाँ पर साधक की परमात्मा से मिलने की तड़प का सुंदर वर्णन है। साधक का प्रयास रहता है कि वह अपने परमात्मा को पाने का निरंतर प्रयास करता रहे। उसकी स्थिति प्रेमिका जैसी हो जाती है। विरह उसकी साधना में बाधक के स्थान पर मार्ग बनाने का कार्य करती है। अतः साधन इस रास्ते पर चलते हुए स्वयं को धन्य महसूस करता है। यहाँ पर प्रियतम और प्रिया के साकार प्रेम को माध्यम बनाया गया है। जो प्रेम के महत्व को दर्शाता है। इस पद की भाषा भी सरल है। इसमें कवि ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त इसमें परमात्मा को प्रियतम और स्वयं को प्रिया दिखाने के कारण प्रतीकात्मकता का सुंदर प्रयोग हुआ है। इसमें भी अनुप्रास अलंकार का प्रयोग देखने को मिलता है।

प्रश्न 10 : कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए।

उत्तर : 'संत कबीरदास' जी भक्तिकाल के ज्ञानमार्गी शाखा के मुख्य कवियों में से एक माने जाते हैं। इनका जन्म काशी में 1398 ई. में हुआ था। इनके जन्म के विषय में यह धारणा है कि इनकी माता एक ब्राह्मण परिवार से थीं व विधवा थीं। एक बार एक साधु के द्वारा दिए गए संतान के वरदान के प्रभाव से उनका गर्भधारण हो गया। लोक-लाज की निंदा के भय से ब्राह्मण स्त्री ने जन्मे बच्चे को 'लहरतारा' नामक तालाब के किनारे छोड़ दिया। उसी समय वहाँ से एक मुस्लिम दंपत्ति 'नीमा' 'नीरू' गुज़र रहे थे। वे निसंतान थे। इस दंपत्ति ने बच्चे को अल्लाह का आशीर्वाद मान अपना लिया। दोनों ने बच्चे का बड़े जतन से लालन-पालन किया। बड़े होकर ये 'कबीर' के नाम से विख्यात हुए। कबीरदास ने आगे चलकर पिता के व्यवसाय को अपनाया। कबीर का विवाह 'लोई' नामक स्त्री से हुआ और उनसे उनके दो संतानें हुई। पुत्र का नाम 'कमाल' तथा पुत्री का नाम 'कमाली' रखा गया। कबीरदास ने सारी उम्र 'राम' नाम का भजन किया। कबीरदास के राम नाम को अपनाने के पीछे एक रोचक घटना है। कहा जाता है, एक बार कबीर पंचगंगा घाट पर सीढ़ियों पर से गिर पड़े। उसी समय वहाँ से स्वामी रामानंद गंगा स्नान के लिए सीढ़ियों पर से जा रहे थे। अंधेरे में अचानक किसी के पैरों के नीचे आ जाने से उनके मुँह से राम-राम शब्द निकल गया। कबीर जी ने इसी मंत्र को गुरु का दीक्षा-मंत्र मानकर उसे अंगीकार कर लिया और स्वामी जी को अपना गुरु मान लिया। वह सारी उम्र राम नाम को ही भजते रहे। परन्तु कबीर के यह राम, राजा राम से अलग थे। कबीर के अनुसार उनके राम मनुष्य रूप में न होकर धरती के हर कण-कण में विद्यमान हैं। वह निर्गुण-निराकार है।


कबीरदास सारी उम्र भगवान का भजन करते रहे। उन्होंने धार्मिक आडंबरों
; जैसे- व्रत, रोजे, पूजा, हवन, नमाज आदि का भरसक विरोध किया। उनके अनुसार ईश्वर इन पांखडों से प्राप्त नहीं होता। वह तो सच्ची भक्ति तथा मन की पवित्रता से प्राप्त होता है। उनके अनुसार ईश्वर को प्राप्त करना हो, तो मंदिर व मस्जिद में न ढूँढकर अपने ह्दय में ढूँढना चाहिए। उनके अनुसार गुरु ईश्वर प्राप्ति का रास्ता होता है। उसके माध्यम से ही ईश्वर को पाया जा सकता है। उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया व आपसी बैर को भुलाकर प्रेम से रहने का उपदेश दिया। उन्होंने जाति-पाति के नाम पर होने वाले भेदभाव का भी कड़ा विरोध किया। कबीदास जी अनपढ़ थे परन्तु उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों व नीतिपूर्ण बातों को लेखन का जामा पहनाया।

कबीरदास की भाषा साधारण जन की भाषा थी। उनकी भाषा को
'सधुक्कड़ी' 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। उनकी भाषा में ब्रज, पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, अवधी व राजस्थानी भाषाओं का मिश्रण देखने को मिलता है। कबीर ने अपनी बात 'सबद' 'साखी' शैली में कही है। कबीर की एकमात्र रचना 'बीजक' के रूप में मिलती है। इसके तीन अंग है- साखी, सबद व रमैनी।

कबीरदास जी की मृत्यु 1518 ई. के करीब मगहर में मानी जाती है। हिन्दू धर्म में मान्यता थी कि मगहर में जिसकी मृत्यु होती है
, वह नरक में जाता है। अत: कबीरदास जी ने अंत समय में वहीं जाकर रहने का निर्णय किया और वहीं अपने प्राण त्याग दिए। कबीरदास उन व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने मात्र उपदेश नहीं दिया अपितु उसे जीवन में उतार कर समाज के समाने मिसाल कायम की।

रैदास
'रैदास' भक्तिकाल के कवियों में से एक कवि माने जाते हैं। यह एक महान संत थे। इन्होंने कबीरदास जी की तरह मूर्तिपूजा, हवन, तीर्थ आदि आडंबरों का विरोध किया है। यह ब्रजभाषा के कवि थे। परन्तु इनकी भाषा में खड़ी बोली, राजस्थानी, उर्दू-फ़ारसी, अवधी आदि शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। इन्हें रविदास के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म स्थान कासी माना जाता है। इनकी माता कलसा देवी थी तथा पिता संतोख दास जी थे। अपने पिता से इन्हें जूते बनाने का व्यवसाय प्राप्त हुआ था। यह जूते बनाते थे परन्तु इससे इनकी भक्ति पर कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। अपने कार्य के प्रति समर्पित थे। जो जूते बनाते थे, उन्हें संतों और जरूरत मंद लोगों को बाँट दिया करते थे। यही कारण था कि इनके माता-पिता ने इन्हें घर से निकाल दिया। कार्य के मध्य यह किसी को नहीं आने देते थे। इनके कारण ही यह मुहावरा प्रचलित हुआ कि मन चंगा तो कटौत में गंगा। उनके अनुसार भगवान सबको समान रूप से देखते हैं। तभी तो उनके जैसे नीच कुल के व्यक्ति को उन्होंने अपने प्रेम से भर दिया है और अपने चरणों में स्थान दिया है।

 

kabirdass,kabirdas-ke-pad,hindi-class-11,rbse-hindi,
कबीरदास 


प्रस्तुती 
महेश कुमार बैरवा (व्याख्याता)
दौसा ,राजस्थान 

 

 

 

 







SHARE

कुमार MAHESH

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

  • Image
  • Image
  • Image
  • Image
  • Image
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment