सब परेशान और त्रस्त है.............
यह कैसा अजीब सा डर है, ज़िन्दगी बेबस और पस्त हैं।
कैदगाहो में कैदी सा जीवन, सब परेशान और त्रस्त है।
हैं यह किसके जुर्म की सजा,भले-बुरे सब अभागे बने,
साया हैं या बुरी छाया हैं, जिससे दुनिया सारी ग्रस्त हैं।
आलिंगन , हाथ मिलाना, चरण छुना जहर सा हो गया,
मिलना जुलना भी जानलेवा ,अपने में ही सब व्यस्त हैं।
टीवी,मोबाइल की दुनिया ही हकीकत सी लगने लगी है,
वर्चुअल-डिजिटल दुनिया के, होते जा रहे अभ्यस्त हैं।
दिन-दुःखी,निर्बल,मेहनतकश की हाय,बेअसर ही होती,
भष्टाचारी सदा रहते अभय, कैसे बने हुए अलमस्त हैं?
गरीबों के कबीले भूखे मर भी जायें,आँसू भी नहीं आते,
भिखारी से बदतर बने हम,हम भी कैसे बेहया गृहस्थ हैं?
शहरों से बेदर होकर अब,भूखे-प्यासे लौट रहे हैं गाँव,
राह में काँटे बबूल ही रहबर,कहाँ फल-छाया के दरख़्त हैं।
चार पुडी,कुछ आलू, बाँट कर जख्मों पर मरहम लगाते,
मीडिया,अखबारो की सुर्खियाँ,ऐसे मसीहा-सरपरस्त हैं।
महल निर्दयी रहे हमेशा, झोपड़ियाँ के दर्द से अन्जान हैं,
जिसके पैर ना फटी बिवाई ,अहसास उसे क्या, कष्ट हैं?
"महेश" इसांनियत के जनाजे पे तुली, ये दुनिया भ्रष्ट हैं।
अफ़सोस भीअब क्या करना, गर दूनिया हो जाए नष्ट है।
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