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kavi dev कवि देव का जीवन परिचय देव का जन्म इटावा (उ.प्र.) मे सन् 1673 में हुआ था। उनका पुरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। देव के अनेक आश्रयदाताओं में औरंगजेब के पुत्र आजमशाह भी थे परंतु देव को सबसे अधिक संतोष और सम्मान उनकी कविता के गुणग्राही आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। उन्होंने उनकी कविता पर रीझकर लाखों की सम्पत्ति दान की। उनके काव्य ग्रन्थों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से रसविलास, भावविलास, काव्यरसायन,भवानीविलास आदि देव के प्रमुख ग्रन्थ माने जाते हैं। उनकी मृत्यु सन् 1767 में हुई। देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। रीतिकालीन कविता का सबंध दरबारों
,आश्रयदाताओं से था इस कारण उसमें दरबारी संस्कृति का चित्रण अधिक हुआ है। देव भी
इससे अछूते नहीं थे किंतु वे इस प्रभाव से जब जब भी मुक्त हुए, उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के सहज
चित्र खींचे। आलंकारिकता और श्रृंगारिकता उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
शब्दों की आवृति के जरिए नया सौंदर्य पैदा करके उन्होंने सुंदर ध्वनि चित्र
प्रस्तुत किए है। पाठ में संकलित कवित्त सवैयों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक
चित्रण देखने को मिलता है वहीं दूसरी ओर प्रेम और प्रकृति के प्रति कवि के भावों
की अंतरंग अभिव्यक्ति भी। पहले सवैये में कृष्ण के राजसी रूप सौंदर्य का वर्णन है
जिसमें उस युग का सामंती वैभव झलकता है। दूसरे कवित्त में बसंत को बालक रूप में
दिखाकर प्रकृति के साथ एक रागात्मक सबंध की अभिव्यक्ति हुई है। तीसरे कवित्त में
पूर्णिमा की रात में चाँद -तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन है। चाँदनी रात की
कांति को दर्शाने के लिए देव दूध में फेन जैसे पारदर्शी बिंब काम में लेते हैं, जो उनकी काव्य-कुशलता का परिचायक है। कवित्त एक प्रकार का छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण
में 16, 15 के विराम से 31 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में 'गुरू' वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये 8, 8, 8 और 7 वर्णों पर 'यति' रहना आवश्यक है।[1] जैसे- उदाहरण- आते जो यहाँ हैं बज्र
भूमि की छटा को देख, सवैया एक छन्द है। यह चार
चरणों का समपाद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26
अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया
कहने की परम्परा है। इस प्रकार सामान्य जाति-वृत्तों से बड़े और वर्णिक दण्डकों से
छोटे छन्द को सवैया समझा जा सकता है। उदाहरण- मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस
मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि
को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन। जो खग हौं तो बसेरो
करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥ सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं। जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥ नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं। ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥ कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं। माहिनि तानन सों रसखान, अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥ टेरि कहौं सिगरे
ब्रजलोगनि, काल्हि
कोई कितनो समझैहैं। माई री वा मुख की
मुसकान, सम्हारि
न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं॥ कठिन
शब्दों के अर्थ • पाँयनी- पैटों में • नूपुर - पायल • मंजु- सुंदर • कटि-कमर
• किंकिनि- करधनी, पैटों में पहनने
वाला आभूषण। • धुनि - ध्वनि • मधुराई-
सुन्दरता • साँवरे- सॉवले • अंग- शरीर •
लसै- सुभोषित • पट- वस्त्र • पीत- पीला •हिये-हदय पर • हुलसै-
प्रसन्नता से विभोर • किटीट- मुकुट • मुखचंद
- मुख रूपी चन्द्रमा • जुन्हाई- चाँदनी • द्रुम - पेड़ • सुमन झिंगुला- फूलों का झबला। •
केकी-मोर • कीर- तोता • हलवे-हुलसावे-
बातों की मिठास • उतारो करे राईनोन-जिस बची को नजर लगी हो
उसके सिर के चारों ओर राय नमक घुमाकर आग में जलाने का टोटका। • कंजकली- कमल की कली • चटकाटी-चुटकी • फटिक (स्फटिक)- प्राकृतिक क्रिस्टल • सिलानी-शीला
पर • उदधि- समुद्र • उमगे- उमड़ना •
अमंद- जो कम ना हो • भीति- दीवार • मल्लिका-बेल की जाती का एक सफेद फूल • मकरंद- फूलों
का रस • आरसी- आइना
Savaiya (सवैया)
पाँयनि नूपुर मंजु बजै , कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। साँवरे अंग लसै पट पीत , हिये हुलसै बनमाल सुहाई। माथे किरीट बड़े दृग चंचल
, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई। जै जग
– मंदिर – दीपक सुंदर , श्रीब्रजदूलह
“देव” सहाई।।
भावार्थ –यहाँ पर कवि देव ने श्री कृष्ण के मनमोहक
रूप-सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि कृष्ण के पैरों में पायल और
कमर में करधनी बंधी है जिनसे अत्यधिक मधुर ध्वनि निकल रही है। उनके सांवले शरीर पर
पीले वस्त्र और गले में सुंदर पुष्पों की माला सुशोभित हो रही है। कवि देव आगे कहते हैं कि
श्री कृष्ण के सिर पर मोर मुकुट है और उनकी आंखें बड़ी-बड़ी व चंचल है। उनका मुख
चंद्रमा के समान है और उस पर उनकी मंद-मंद मुस्कुराहट ऐसी प्रतीत हो रही हैं जैसे
चारों ओर चंद्रमा की किरणें फैली हुई हों। अगली पंक्तियों में कवि
देव कहते हैं कि जिस प्रकार एक दीपक पूरे मंदिर को रोशन करता है और अंधेरे को दूर
भगाता है। ठीक उसी प्रकार संसार रूपी मंदिर में श्री कृष्ण एक दीपक की भाँति
शोभायमान है।जो अपने ज्ञान के प्रकाश से इस पूरे संसार को रोशन कर रहे हैं और सबकी
सहायता भी करते हैं । कवि देव कहते हैं कि हे !! ब्रज के दूल्हे कृष्ण , आप अपने
भक्त देव की भी सहायता करें। काव्य सौंदर्य – “कटि किंकिनि कै
धुनि की मधुराई” यहाँ
पर “क” वर्ण की आवृत्ति बार बार हुई
है। और “साँवरे अंग लसै
पट पीत , हिये
हुलसै बनमाल सुहाई“ में “प” और “ह” वर्ण की आवृत्ति बार बार हुई है। इसीलिए इन दोनों
पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है। “मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई” और “जै जग – मंदिर – दीपक सुंदऱ” में रूपक अलंकार
है। कवित्त 1. डार द्रुम
पलना बिछौना नव
पल्लव के , सुमन झिंगूला
सोहै तन छबि
भारी दै । पवन झूलावै
, केकी – कीर
बतरावै “देव”
, कोकिल हलावै – हुलसावै कर
तारी दै।। पूरित पराग
सों उतारो करै
राई नोन , कंजकली नायिका
लतान सिर सारी
दै । मदन महीप जू को
बालक बसंत ताहि , प्रातहि जगावत
गुलाब चटकारी दै।।
भावार्थ – उपरोक्त पंक्तियों में
कवि देव ने बसंत ऋतु को कामदेव के बच्चे (नवजात शिशु) के रूप में दर्शाया है। जिस
प्रकार जब किसी घर में बच्चा जन्म लेता हैं तो उस घर में खुशी का माहौल छा जाता
है। घर के सभी लोग उस बच्चे की देखभाल में जुट जाते हैं। और उसे अनेक प्रकार से
बहलाने व प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। घर की बुजुर्ग महिलाएं समय समय पर नमक
और राई से उसकी नजर उतारती हैं।और सुबह के समय उसे बड़े प्यार से जगाया जाता हैं।
ताकि वह रोये नही। ठीक उसी प्रकार
जब कामदेव का नन्हा शिशु बसंत आता है तब प्रकृति अपनी खुशी किस-किस तरह से प्रकट
करती है। यहाँ पर कवि उसी का वर्णन कर रहे हैं। बसंत ऋतु के
आगमन से पेड़ों में नये-नये पत्ते निकल आते हैं।और डाली-डाली रंग बिरंगे फूलों से
लद जाती हैं। मंद मंद पवन (हवा) बहने लगती हैं। इसी को देखकर
कवि देव कहते हैं कि बसंत एक नन्हे शिशु के रूप में आ चुका हैं। पेड़ों की डालियों
उस नन्हे शिशु का पालना (झूला) हैं और उन डालियों पर उग आये नए-नए कोमल पत्ते उस
पालने में बिछौने के समान है। रंग बिरंगे फूलों का ढीला ढाला झगुला (वस्त्र) उस
नन्हे शिशु के शरीर में अत्यधिक शोभायमान हो रहा है। हवा उसके पालने को झूला रही
है और मोर व तोते अपनी-अपनी आवाज में उससे बातें कर रहे है। कोयल भी प्रसन्न होकर
तालियां बजाकर-बजाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही हैं। कवि देव कहते
हैं कि कमल की कली रूपी नायिका जिसने अपने सिर तक लता रूपी साड़ी पहनी है , वह अपने
पराग कणों रूपी नमक , राई से बसंत रूपी नन्हे शिशु की नजर
उतार रही हैं। (बसंत माह में फूलों के पराग कण हवा से दूर-दूर तक फैल जाते हैं। ) कवि देव कहते
हैं कि यह बसंत रूपी नन्हा शिशु कामदेव महाराज का पुत्र है जिसे सुबह होते ही
गुलाब की कलियाँ चुटकी बजाकर जगाती हैं। दरअसल गुलाब की कली पूरी खिलने से पहले
थोड़ी चटकती हैं। काव्य सौंदर्य – इस पूरे कवित्त
में कवि ने मानवीकरण अलंकार का सुंदर प्रयोग किया हैं। जैसे “पवन झूलावै
, केकी – कीर बतरावै
‘देव’ ” और “प्रातहि जगावत गुलाब
चटकारी दै” आदि
।
कवित्त 2. फटिक
सिलानि सौं सुधारयौ
सुधा मंदिर , उदधि
दधि को सो
अधिकाइ उमगे अमंद। बाहर
ते भीतर लौं
भीति न दिखैए “देव” , दूध
को सो फेन
फैल्यो आँगन फरसबंद। तारा
सी तरुनि तामें
ठाढ़ी झिलमिली होति , मोतिन
की जोति मिल्यो
मल्लिका को मकरंद । आरसी
से अंबर में
आभा सी उजारी
लगै। प्यारी
राधिका को प्रतिबिंब
सो लगत चंद।।
भावार्थ –पूर्णमासी की रात को जब पूरा चन्द्रमा अपनी चाँदनी बिखेरता
हैं तो आकाश और धरती बहुत खूबसूरत दिखाई देते हैं। और हर जगह झीनी और पारदर्शी
चांदनी नजर आती है । कवि ने यहां पर उसी चाँदनी रात का वर्णन किया हैं। पूर्णमासी
की चांदनी रात में धरती और आकाश के सौंदर्य को निहारते हुए कवि कहते हैं कि चांदनी
रात में सारा संसार दूधिया रोशनी में नहाया हुआ ऐसा दिखाई दे रहा है जैसे यह संसार
स्फटिक की शिला (पत्थर) से बना हुआ एक सुंदर मंदिर हो। कवि की
नजरें जहां तक़ जाती हैं वहां तक उन्हें चांदनी ही चाँदनी नजर आती हैं। उसे देखकर
कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा हैं जैसे धरती पर दही का समुद्र हिलोरा ले रहा हो। और
चांदनी रूपी दही का समंदर उन्हें समस्त आकाश में भी उमड़ता हुआ नजर आ रहा है।
चांदनी इतनी झीनी और पारदर्शी हैं कि कवि की नजरों उसे स्पष्ट देख पा रही हैं। कवि आगे
कहते हैं कि धरती पर फैली हुई चांदनी की रंगत किसी फर्श पर फैले दूध के झांग़ के
समान उज्जवल है । और उसकी स्वच्छता और स्पष्टता दूध के बुलबुले के समान झीनी और
पारदर्शी हैं। कवि को इस
चाँदनी रात में आकाश के तारे भी सुंदर सुसज्जित खड़ी किशोरियों (युवा
लड़कियों) की भाँति लग रहे हैं । और उन
सुंदर किशोरियों को देखकर कवि को ऐसा लग रहा है जैसे कि मोतियों को चमक मिल गई या
फिर मल्लिका के फूलों (बेले के फूल) को रस मिल गया हो। कवि कहते
हैं कि संपूर्ण वातावरण इतना उज्जवल हो गया है कि पूरा आकाश किसी दर्पण की भाँति
दिखाई दे रहा है। जिसमें चारों तरफ रोशनी फैली हुई है। और उस दर्पण में पूर्णमासी
का पूरा चांद ऐसा लग रहा है जैसे वह चाँद नही , बल्कि राधारानी का प्रतिबिंब हो। काव्य सौंदर्य – यहाँ पर कवि
ने चाँद की तुलना राधा से न कर , उसके प्रतिबिंब से की हैं। अर्थात कवि ने राधारानी को चाँद से
भी श्रेष्ठ बताया हैं। इसीलिए यहाँ व्यतिरेक अलंकर हैं। प्रश्नोत्तर Question 1: कवि ने 'श्रीबज्रदूलह'
किसके लिए प्रयुक्त किया है और
उन्हें ससांर रूपी मंदिर दीपक क्यों कहा है? ANSWER: देव जी ने 'श्रीबज्रदूलह' श्री कृष्ण भगवान के लिए प्रयुक्त किया है। देव जी के
अनुसार श्री कृष्ण उस प्रकाशमान दीपक की भाँति हैं जो अपने उजाले से संसार रुपी
मंदिर का अंधकार दूर कर देते हैं। अर्थात् उनकी सौंदर्य की अनुपम छटा सारे संसार
को मोहित कर देती है। Question
2:पहले सवैये में से उन
पंक्तियों को छाँटकर लिखिए जिनमें अनुप्रास और रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है? ANSWER:(1) अनुप्रास अलंकार (i) कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। में 'क' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है। इसलिए यहाँ
अनुप्रास अलंकार है। (ii) साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई। इस पंक्ति
में 'प', 'व', 'ह' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है इसलिए यहाँ अनुप्रास
अलंकार है। (2) रुपक अलंकार (i) मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई। इस पंक्ति
में श्री कृष्ण के मुख की समानता चंद्रमा से की गई है। उपमेय में उपमान का अभेद
आरोप किया गया है। इसलिए यहाँ रुपक अलंकार है। (ii) जै जग-मंदिर-दीपक-सुंदर इस पंक्ति
में संसार की समानता मंदिर से की गई है। इसके कारण उपमेय में उपमान का अभेद आरोप
है इसलिए यहाँ रुपक अलंकार है। Question
3:निम्नलिखित पंक्तियों का
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए - पाँयनि
नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई। साँवरे
अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई। ANSWER:प्रस्तुत पंक्तियाँ देवदत्त द्विवेदी द्वारा रचित सवैया से
ली गई है। इसमें देव द्वारा श्री कृष्ण के सौंदर्य का बखान किया गया है। देव जी कहते
- श्री कृष्ण के पैरों में पड़ी हुई पायल बहुत मधुर ध्वनि दे रही है अर्थात् बज
रही है और कमर में पड़ी हुई तगड़ी (कमरबन्ध) भी मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रही है।
श्री कृष्ण के साँवले सलोने शरीर पर पीताम्बर वस्त्र (पीले रंग के वस्त्र) सुशोभित
हो रहा है और इसी तरह उनके गले में पड़ी हुई बनमाला बहुत ही सुंदर जान पड़ती है।
अर्थात् श्री कृष्ण पीताम्बर वस्त्र व गले में बनमाला धारण कर अलग ही शोभा दे रहे
हैं। उक्त पंक्तियों में सवैया छंद का सुंदर प्रयोग किया गया है। ब्रज भाषा के
प्रयोग से छंद में मधुरता का रस मिलता है। उक्त पंक्तियों मे कटि किंकिनि, पट पीत, हिये हुलसै में 'क', 'प', 'ह' वर्ण कि एक से अधिक बार आवृत्ति के कारण अनुप्रास की अधिकता
मिलती है। Question
4:दूसरे कवित्त के आधार पर
स्पष्ट करें कि ऋतुराज वसंत के बाल-रूप का वर्णन परंपरागत वसंत वर्णन से किस प्रकार
भिन्न है। ANSWER:(1) दूसरे कवियों द्वारा ऋतुराज वसंत को कामदेव मानने की
परंपरा रही है परन्तु देवदत्त जी ने ऋतुराज वसंत को इस परंपरा से भिन्न एक बालक के
रुप में चित्रित किया है। (2) वसंत ऋतु को यौवन का ऋतु माना जाता है। कविगण इसके यौवन की
मादकता और प्रखरता से भरपूर होने के कारण इसको मादक रुप में चित्रित करते हैं।
परन्तु इसके विपरीत देवदत्त जी ने इसे एक बालक के रुप में चित्रित कर परंपरागत
रीति से भिन्न जाकर कुछ अलग किया है। (3) वसंत ऋतु का वर्णन करते समय परंपरागत कवि प्रकृति के
विभिन्न उदाहरणों द्वारा जैसे फूल, पेड़, वर्षा, तितली, ठंडी हवा, भौरें, विभिन्न तरह के पक्षियों का चित्रण कर उसके सौंदर्य व मादकता को
और सुंदर रुप प्रदान करते हैं। परन्तु इसके विपरीत देवदत्त जी ने यहाँ प्रकृति का
चित्रण, ममतामयी माँ
के रुप में कर भिन्न रुप दिया है। (4) वसंत ऋतु के परंपरागत वर्णन में सभी पक्षी वसंत आगमन में
उल्लास से भरपूर दिखाए जाते हैं। परंतु इसमें वह स्वयं उल्लासित न होकर बालक को
प्रसन्न करने में लीन दिखाए गए हैं। (5) परंपरागत वसंत ऋतु में नायक- नायिका को प्रेम क्रीड़ा में
मग्न दर्शाया जाता है परन्तु देवदत्त जी के वसंत ऋतु में कमल रुपी नायिका को उसकी
नज़र उतारते हुए दर्शाया गया है। Question
5:'प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी
दै' - इस
पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। ANSWER:प्रस्तुत पंक्तियाँ देवदत्त द्विवेदी द्वारा रचित सवैया से
ली गई है। इसमें वसंत रुपी बालक का प्रकृति के माध्यम से लालन पालन करते दर्शाया
गया है। इस पंक्ति
का भाव यह है कि वसंत रुपी बालक, पेड़ की डाल रुपी पालने में सोया हुआ है। प्रात:काल (सुबह) होने
पर उसे गुलाब का फूल चटकारी अर्थात् चुटकी दे कर जगा रहा है। तात्पर्य यह है कि
वसंत आने पर प्रात:काल गुलाब के फूलों का वसंत के समय सुबह चटकर खिलना कवि को ऐसा
आभास दिलाता है मानो वसंत रुपी सोए हुए बालक को गुलाब चुटकी बजाकर जगाने का प्रयास
कर रहा है। Question
6:चाँदनी रात की सुंदरता को
कवि ने किन-किन रूपों में देखा है? ANSWER:देवदत्त जी आकाश में चाँदनी रात की सुंदरता अपनी कल्पना के
सागर में निम्नलिखित रुपों में देखते हैं - (1) देवदत्त जी आकाश में फैली चाँदनी को आकाश में स्फटिक शिला
से बने मंदिर के रुप में देख रहे हैं। (2) देवदत्त के अनुसार चाँदनी रुपी दही का समंदर समस्त आकाश
में उमड़ता हुआ सा नज़र आ रहा है। (3) उनके अनुसार चाँदनी समस्त आकाश में फैली हुई ऐसी प्रतीत हो
रही है मानो आकाश रुपी आँगन में दूध का फेन (झाग) फैल गया हो। (4) देवदत्त कहते हैं आकाश के सारे तारे नायिका का वेश धारण कर
अपनी सुंदरता की आभा को समस्त आकाश में बिखेर रहे हैं। (5) देवदत्त के अनुसार चाँदनी में चाँद के प्रतिबिंब में राधा
रानी की छवि का आभास प्राप्त होता है। Question7:'प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद' इस
पंक्ति का भाव स्पष्ट करते हुए बताएँ कि इसमें कौन-सा अलंकार है? ANSWER:चन्द्रमा सौन्दर्य का श्रेष्ठतम उदाहरण है परन्तु कवि ने
यहाँ इस परम्परा के विपरीत राधिका की सुन्दरता को चाँद की सुन्दरता से श्रेष्ठ
दर्शाया है तथा चाँद के सौन्दर्य को राधिका का प्रतिबिम्ब मात्र बताया है। यहाँ चाँद
के सौन्दर्य की उपमा राधा के सौन्दर्य से नहीं की गई है बल्कि चाँद को राधा से हीन
बताया गया है, इसलिए यहाँ
व्यतिरेक अलंकार है, उपमा अलंकार
नहीं है। Question8: तीसरे
कवित्त के आधार पर बताइए कि कवि ने चाँदनी रात की उज्ज्वलता का वर्णन करने के लिए
किन-किन उपमानों का प्रयोग किया है? ANSWER:कवि ने चाँदनी रात की उज्जवलता का वर्णन करने के लिए
स्फटिक शीला से बने मंदिर का, दही के समुद्र का व दूध जैसे झाग आदि उपमानों का प्रयोग कर
कवित्त की सुंदरता में चार चाँद लगा दिया है। Question
9:पठित कविताओं के आधार पर
कवि देव की काव्यगत विशेषताएँ बताइए। ANSWER:(1) देवदत्त की काव्यगत विशेषताओं में उनकी भाषा का महत्वपूर्ण
स्थान है। उनकी भाषा बेहद मंजी हुई, कोमलता व माधुर्य गुण से ओत-प्रोत है। अपने इन गुणों के
कारण ही वे ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि कहे जाते हैं। (2) उनके काव्यों की भाषा में अनुप्रास अलंकार का विशेष स्थान
है। जिसके कारण उनके सवैये व कवित्त में अनुपम छटा बिखर जाती है। उपमा व रुपक अलंकार का भी बड़ा सुंदर प्रयोग देखने
को मिलता है। (3) देवदत्त ने प्रकृति चित्रण को विशेष महत्व दिया है। वे
प्रकृति-चित्रण में बहुत ही परंपरागत कवि हैं। वे प्रकृति चित्रण में नई उपमाओं के
माध्यम से उसमें रोचकता व सजीवता का रुप भर देते हैं। जिससे उसमें नवीनता का
स्वरुप प्राप्त होता है उदाहरण के लिए उन्होंने अपने दूसरे कवित्त में सारी
परंपराओ को तोड़कर वसंत को नायक के रुप में न दर्शा कर शिशु के रुप में चित्रित
किया है। Question
10:अपने घर की छत से पूर्णिमा
की रात देखिए तथा उसके सौंदर्य को अपनी कलम से शब्दबद्ध कीजिए। |
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