सूरसागर के
भ्रमरगीत से चयनित कुछ पद: सूरदास
SURDAS |
जन्म-सन् १४८३ ई. मृत्यु – सन् १५६३ ई.
जीवन परिचय-
सूरदास का जन्म दिल्ली के निकट सीही नामक गाँव में हुआ था।
रूनकता(आगरा) के
गऊ घाट पर उनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई। उन्होंने सुरदास को वल्लभ
सम्प्रदाय में दीक्षित किया तथा भागवत कथा सुनाई। जिसके आधार पर कवि ने उच्च कोटि
के साहित्य का सृजन किया। सूरदास ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुन्दर
चित्रण किया है।
वे भक्ति ,श्रृगांर
एवं वात्सल्य के अनुपम कवि हैं। सूरदास की प्रमुख रचनाएँ तीन मानी जाती है-
1.सूरसागर,
2. सूर
सारावली
3. साहित्य
लहरी।
इनमें से सूरसागर इनकी अक्षय कीर्ति का आधार ग्रन्थ है।
सूरदास
अष्टछाप के शीर्ष कवि है। कृष्ण
के लोकरंजक रूप को काव्य का आधार बनाकर उन्होनें जयदेव और विद्यापति की गान
परम्परा को आगे बढाया।
सूरदास का काव्य हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।उनके
बारे में सच ही कहा गया है-
सूर सूर तुलसी ससि, उडुगण
केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम, जहँ
तहँ करत प्रकाश ।।
इस
पाठ में सूरसागर के भ्रमरगीत से छह पद लिए गए है।श्रीकृष्ण ने विरह-वेदना
से व्यथित गोपियां को सान्त्वना देने हेतु उद्धव को भेजा।
उद्वव उन्हें निर्गुण ब्रह्य एवं योग का उपदेश देते है। तभी
वहाँ एक भौंरा आता है। गोपियाँ भ्रमर के बहाने उद्वव को जवाब देती हैं। उन्हें
कडवी ककडी के समान योग का उपदेश अरूचिकर
लगता है। उनके लिए मिलन और विरह दोनों स्थितियों में श्रीकृष्ण से लगाव लाभदायक
है। मथुरा काजल की कोठरी के समान है। उनकी आँखें कृष्ण-दर्शन
को व्याकुल है। वे निर्गुण ब्रहा के रूप,रंग,निवास,माता-पिता
आदि का ब्यौरा जानना चाहती है। कृष्ण की याद दिलाने वाले वन उपवन लता वितान,
यमुना आदि विरहकाल में भीषण संतापदायक बन गए है।
(1)हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सो उर यह दृढ करि पकरि।।
जागत सोवत सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जकरी।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करूई ककरी।।
सोई व्याधि हमैं लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हें लैं दीजै जिनके मन चकरी।।
कठिन शब्दार्थ - हारिल- एक हरे रंग का तोते से मिलता-जुलता
पक्षी जो हर समय पंजे में टहनी पकडे रहता है। लकरी-लकडी,
वृक्ष की टहनी। बच-बचन,वाणी।
क्रम-कर्म,
कार्य। नंदनंदन-श्रीकृष्ण । उर-
ह्रदय । सौंतुख- साक्षात्।
करूई- कडवी।
ककरी- ककडी।
व्याधि- झंझट,रोग।
चकरी-चकई
नाम का खिलौना, चंचल।
व्याख्या- गोपियाँ उद्वव से कहती हैं- हे
उद्वव! श्रीकृष्ण
हमारे लिए हारिल की लकडी के समान है। जैसे हारिल पक्षी अपने पंजों में पकडी हुई
टहनी को एक बार के लिए भी अपने से अलग नहीं करता,
उसी प्रकार हमारे कृष्ण प्रेमी हाथों से कृष्ण का ध्यान एक
पल के लिए भी नहीं हट पाता है। जागते, सोते
,स्वप्न
में और प्रत्यक्ष में हमारे ह्रदय निरन्तर कृष्ण - कृष्ण की ही रट लगा रखते है। हम एक क्षण
के लिए कृष्ण का वियोग सहन नहीं कर सकती है। आपके योग साधना के उपदेश कान में पडते ही ह्रदय उसी तरह वितृश्णा से भर जाते है। जैसे कडवी ककडी
चखते ही मुंह कडवाहट से भर जाता है। हे उद्वव! आप
कडवी ककडी जैसे इस योगरूपी रोग को हमारे लिए ले आये हैं। हमने आज तक इस
व्याधि को नहीं देखा है , न
सुना है, और
न कभी इसे किया है। उद्वव आप इस योग के रोग की शिक्षा उन लोगों को दीजिए जिनके मन
अस्थिर है। जिनमें दृढ प्रेम भाव का अभाव है।
(2) हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।
जो ब्रजनाथ मिलै तो नीकों,नातरू जग जस गायो।।
कहँ वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ वैं कमला के स्वामी संग मिली बैठीं एक
पाँती।।
निगमध्यान मुनिज्ञान अगोचर, ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहों धौं मुक्ति कौन की दासी ?
जोग -कथा,पा लागों ऊधों ना कहु बारम्बार।
सूर स्याम तजि और भजै जो तांकी जननी छार।।
कठिन शब्दार्थ - दुहूँ
भाँति- दोनों
प्रकार से। ब्रजनाथ- श्री कृष्ण । नीको- अच्छा। नातरू- नहीं तो। जस-यश । बरनहीन- अवर्ण,
हीनवर्ण वाली। लघुजाती- छोटी
जाति की ,ग्वालिन।
कमला-लक्ष्मी।
इक पाँती- एक
पंक्ति में, साथ।
निगमध्यान- वेदों
का अध्ययन या ज्ञान। अगोचर-अज्ञात, पहुंच
से बाहर। घोश- गोपालकों
की बस्ती। ता-उस।
पालागां-पैर
लगती हूँ। तजि- त्याग
कर। भजै-ध्यान
करे। ताकी-उसकी।
जननी -माता।
छार- राख,
धूल, तुच्छ।
व्याख्या - गोपियाँ
कहती है - उद्ववजी! हमें
कृष्ण से प्रेम करने पर कोई पछतावा नहीं है। हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू है।
यदि हमारे निश्कपट प्रेम से प्रभावित होकर कृष्ण हमें फिर से दर्शन दे तो बहुत ही अच्छी बात है। यदि ऐसा नहीं भी
हो तो भी संसार में उनका यश गाने का सुफल
तो हमें मिलेगा ही। संसार देखेगा कि इस
प्रेम प्रसंग में किसका कैसा व्यवहार रहा ? हम
तो गोकुल गाँव की ग्वालिन है। वर्ण और जाति दोनों में ही छोटी है। कृष्ण उच्च जाति
के है। भला उनसे प्रेम करने का हमको क्या अधिकार था पर मथुरा की एक दासी,
उन लक्ष्मी के स्वामी नारायण के अवतार,
श्री कृष्ण के साथ बराबरी से एक पंक्ति में बैठा करती है।
यह कैसा बडप्पन हुआ ? उद्वव! आप
तो ज्ञानी है। तनिक बताइए जिस परब्रह्म श्रीकृश्ण
को बेदों के अध्ययन कर्ता , ध्यानस्थ
योगी और ज्ञानी मुनि जन भी प्राप्त नहीं कर पाते,
वे ही कृष्ण गोपों की बस्तीयों में आकर क्यों रहे ?
केवल
गोप गोपिकाओं की भक्ति और प्रेम के कारण वह निराकार -निर्गुण ब्रह्म सगुण साकार होकर इस ब्रज
भूमि में अवतरित हुआ है। अब आप सब छोडकर यही बता दीजिए कि आप जैसे ज्ञानी और योगी
जिस मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं,
वह किसकी दासी है? वह
भक्ति की दासी है। हम ब्रजवासी प्रेम और भक्ति के उपासक है। हमें मुक्ति की
आकांक्षा नहीं । अब आपके पैर छुकर हमारी यही प्रार्थना है कि आप अपनी योग कथा को बार
बार न सुनाएँ। हमारा तो स्पष्ट और दृढ मत
है कि श्रीकृष्ण को छोड जो व्यक्ति किसी
अन्य की उपासना करता है, वह
अपनी माता को ही तुच्छ बनाकर लजाता है।
(3)बिलग जनि मानहु,
ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे।।
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भँवारे।
तिनके संग अधिक छवि उपजत कमलनैन मनिआरे।।
मानहु नील माट तें काढे लै जमुना जाय पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम-गुन न्यारे।।
कठिन शब्दार्थ-
बिलग,- बुरा,
अन्यथा। जनि-मत, नहीं।
काजर की कोठरि- काजल
की कोठरी, कलंकित
करने वाला स्थान। आवहिं-आते हैं। ते-वे। सुफलकसुत- अक्रुर जो बलराम और कृष्ण को मथुरा लिवा
ले गए थे। मधुप-भौंरा,
रस लोभी। भँवारे-भौंरा जैसा,
फूल से फूल पर मंडराने वाला। छवि-शोभा।
कमलनैन- कमल
जैसे नेत्र वाले कृष्ण । मनिआरे-मणि, या
रत्न जैसी दमक वाले। नील- एक पौधे से निकाला जाने वाला नीला रंग। माट-वस्त्र
रंगने या धोने का बडे मुंहवाला मिट्टी का बर्तन। काढे -निकाले
। पखारे-धोए,
साफ किए । ता गुन- उस गुण या कारण से। स्याम- सांवली।
भई- हो
गई है। कालिंदी-यमुना।
गुन-गुण।
न्यारे -सबसे
अलग, अनोखे।
व्याख्या- गोपियाँ योग और ज्ञान सिखाने आए उद्वव पर मधुर
व्यंग्य करते हुए कह रही है- हे उद्वव! आप बुरा मत मानना। हमें तो ऐसा लगता है वह
मथुरा नगरी काजल की कोठरी के समान है। वहाँ से निकलकर आने वाला हर व्यक्ति काला ही
होता है। आप काले है, बलराम
और कृष्ण को बहकाकर ले गए वह अक्रुर भी काले थे। यह हमारे ऊपर मंडराता मधु का लोभी,
फूल फूल का रस चखने वाला भौंरा भी काला है। यह भी,
लगता है मथुरा से ही आया है अथवा वह कृष्ण भी जो पहले
गोपियों पर प्रेम जताया करते थे और अब कुब्जा पर मोहित हो रहे हैं मथुरा से ही लाए
गए थे। सच तो यह है कि वह रत्न जैसी कान्ति वाले कमल के समान नेत्रधारण करने वाले कृष्ण,मथुरा
के काले लोगों में ही शोभा पाते हैं। वह उन्हीं के बीच रहने योग्य है। ऐसा लगता है
जैसे, इन्हें
नील के माट से निकाल कर यमुना में धोया गया है। इसी कारण यह यमुना भी सांवली हो गई
है। आपके परममित्र उन श्री कृष्ण के गुणों का कहाँ तक वर्णन करें। वे तो सबसे
न्यारे हैं, विलक्षण
चरित्र वाले है।
(4)अँखियाँ हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनी रूखी।।
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहीं झूखी।
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी।।
बारक वह मुख फेरि दिखाओं दुहि पय पिवत पखूती।
सूर सिकत हठि नाव चलायो ये सरिता है सूखी।
कठिन शब्दार्थ -
भूखी- अत्यन्त
लालायित। रूपरस- सुन्दरतारूपी
आनन्द। रांची - रंगी
हुई ,डूबी
हुई। बतियाँ- बातें,
उपदेष। रूखी-नीरस। अवधि-लौटकर आने का समय। गनत-गिनते
हुए। इकटक-अपलक,
टकटकी लगाए हुए। मग-मार्ग। जोवत-जोहते हुए,
देखते हुए। एती-इतनी। झूखी-झूंझलाई,झीखी,
क्षुब्ध। जोग-संदेसन-योग के संदेषों से। अकुलानी-व्याकुल
हैं। दुःखी- दुखी
हो रही है। बारक-एकबार।
फेरि- फिर
से, देबारा।
दुहि- दुहकर।
पय-दूध।
पतूखी- पत्ते
से बना दोना। सिकत-रेत, बालू।
हठि-बलपूर्वक,
अविवेक से। सरिता-नदियां,
गोपियों के हद्य। सूखी-जलरहित।
व्याख्या-
उद्वव द्वारा हठपूर्वक बार-बार श्री कृष्ण द्वारा भिजवाए गए योग साधना के संदेश को सुनाए जाने पर गोपियां उनके विवके पर तरस
खाते हुए कहती हैं - हे उद्वव ! क्या आप अभी तक नहीं समझ पाए कि हमारी
आंखे प्रिय श्री कृष्ण के दर्षन के लिए लालायित है। इनकी भूख आपके नीरस योग और
ज्ञान के उपदेशों से कैसे बुझ सकती है। कल तक जो आंखे श्री कृष्ण के अनुपम
स्वरूप के रस में डूबी रहती थी। वे आपके
इन नीरस उपदेशों से कैसे संतुष्ट हो सकती है। जब हम श्री कृष्ण के मथुरा से लौटने
की अवधि का एक एक दिन गिन रही थी। हमारी आंखे टकटकी लगाकर उनके आगमन के मार्ग को
देख रही थी, तब
भी ये इतनी नहीं खीझी थी। पर आज आपके इन योग के संदेशो को सुन सुनकर हमारी आंखे
अत्यन्त व्याकुल हो रही है। ये अत्यन्त दुख रही है। अब आप इन योग और ज्ञान के
संदेशो और उपदेशों को बन्द कीजिए। बस एक बार हमें हमारे प्राणप्रिय श्रीकृष्ण के उस मुख के दर्शन करा दीजिए,।
जिससे वह पत्तो के दोनों में दूध दूहकर
पिया करते थे। हमें मथुराधीश ,
योगी और ज्ञानी श्रीकृष्ण नहीं चाहिए। हम तो उसी कृष्ण की
आस लगाए बैठी है, जो
गोपियों से हिलमिलकर रसमय क्रीडा और लीलाएं किया करते थे। सुरदास जी कहते है कि
गोपियां कहती है कि हे उद्वव आप रेत में नाव क्यों कर चला रहे हो,
हमारे ह्रदय प्रेमरस रूपी नदी के समान है जो श्रीकृष्ण के दर्शन से ही संतुष्ट होगे ।
(5)निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर! हँसि समुझाय,
सौंह दै बुझति साँच ,न हाँसी।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन, भेस है कैसो, केहि रस में अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गाँसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठग्यो सो सूर सबै मति
नासी।।
कठिन शब्दार्थ-
निर्गुन, गुणरहित,
निराकार ईश्वर। बासी-निवासी,
रहने वाला। मधुकर-भौरा। सौंहदै-सौगन्ध दिलाकर। बुझती- पूछती
हूँ। साँच-सच।
हाँसी-हँसी
मजाक। जनक -पिता।
जननि-माता।
नारि-पत्नी।
बरन-रंग।
भेस-वेषभूशा।
अभिलासी-चाहने
वाला, रूचि
रखने वाला। गाँसी- कपटपूर्ण
बात, झूठ।
ह्वै-होकर।
ठग्यो सो- ठगा
हुआ सा, चकित।
मति-बुद्वि,
चतुराई। नासी-नष्ट हो गई,
व्यर्थ हो गई।
व्याख्या-
गोपियों को बार बार निराकार ईश्वर की आराधना का उपदेष देने वाले उद्वव का मुँह बंद
करने के लिए गोपियाँ उनसे ‘‘निर्गुण‘‘
का पुरा परिचय ही पूछ डाला। उन्होनें कहा- ‘‘हे
उद्वव!‘‘
हमें आपका उपदेश स्वीकार है। इस निर्गुण से मन लगाने को
तैयार हैं परन्तु उसका पुरा परिचय तो हमें बताइए। वह आपका निर्गुण किस देश का
रहने वाला है। हे मधुकर (कृष्ण का प्रतीक) बुरा न मानों हमें हँस कर बताओं। हम तुम
से हँसी नही कर रही। सचमुच ही हम उस निर्गुण से परिचित होना चाहती है। बताओं उस
निर्गुण का पिता कौन है ? उसकी
माता कौन है? उसकी
पत्नी का नाम क्या है और उसकी दासी कौन है ?उसका
रंग रूप और वेशभूशा कैसी है, यह
भी बताओं की उसे किस रस में रूचि है ? परन्तु
यह ध्यान रखना कि यदि तुमने झूठ या कपटपूर्ण बातें कही तो उसका फल तुम्हें अवश्य
भोगना पडेगा। ‘‘ गोपियों
की इन बातों या प्रश्नों को सुनकर उद्वव मौन हो गए। उनको उत्तर देते नही बना,
निर्गुण ब्रह्मा के माता,
पिता, दासी
और रूप,रंग
का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बेचारी ज्ञानी उद्वव ब्रज की गोपियों के सहज प्रश्नों
से परास्त होकर चुप हो गए।
(6)बिन गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पूंजैं।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भई
भुंजैं।।
ए,
ऊधो, कहियो माधव सों विरह कदन
करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत अँखियाँ भई बरन
ज्यों गुंजैं।।
कठिन शब्दार्थ- बैरिन- शत्रु,
कष्टदायिनी। कुंजैं-वृक्षों का समूह। विषम-भंयकर।
पुंजैं-समुह।
बृथा-व्यर्थ।
खग-पक्षी।
अलि-भौंरा।
गुंजैं- गुंजार
करना। पानि-पानी।
घनसार-कपूर।
संजीवनि- बादल
(संजीवनी
,जीवदायिनी)।
दधिसुत-चन्द्रमा,।
भानु- सूर्य।
भई-होकर,
बनकर। भुंजैं-जला रही है। माधव -श्रीकृष्ण।
कदन करि- मारकर,
घेर कश्ट देकर। लुंजैं-अशक्त,
लुंज-पुंज। मग-मार्ग,
आगमन। जोवत- देखते हुए। बरन-वर्ण,
रंग। गुंजैं-गुंजा या रत्ती,
जिससे पहले सोना और रत्न तोले जाते थे। इसका रंग लाल और रूप
आंख जैसा होता था।
व्याख्या-
गोपियाँ उद्वव से कहती हैं- हे उद्वव! आप क्या जानें कि कृष्ण के वियोग में
हमारा जीवन कितना कष्टमय हो गया है।आज श्री कृष्ण के पास न होने से ब्रज के वनों
की वे कुंज जहाँ हमने प्रिय कृष्ण के साथ विहार किए थे,
शत्रुओं के समान हमें अप्रिय और कष्टदायिनी लगती हैं। जो
लताएँ त बतन मन को शीतलता प्रदान किया करती थी,
अब भंयकर अग्नि के समूह के समान जला देने वाली लग रही है।
कल कल शब्द में बहती यमुना, कलरव
करते पक्षी, कमल
पुष्पों का खिलना और पुष्पों पर भौंरों की गुंजार ,यह
सारे दृश्य हमें व्यर्थ प्रतीत हो रहें हैं। इन्हें देखकर हमारा मन अब हर्षित नहीं
होता। वायु, जल,
कपूर , बादल
और चन्द्रमा कि किरणें , ये
सभी शीतलता प्रदान करने वाली वस्तुएँ आज प्रचण्ड सूर्य के समान हमें जलाने वाली बन
गई हैं। हे उद्वव! आपसे
हमारा अनुरोध है कि आप मथुरा जाकर निर्मोहीं कृष्ण से कहना कि उनके वियोग ने हमें
प्राणान्तक कष्ट देकर विकलांग सा बना दिया है। हम जीवित ही,
मृततुल्य हो गए है। उनहें बताना कि उनके आगमन के पथ को एकटक
देखते रहने के कारण, हमारी
आँखें गुंजा के समान लाल होकर दुःख रही है।
कठिन शब्दार्थ
हरि- श्रीकृष्ण हारिल- एक
प्रकार का पक्षी
जकरी- जकडी हुई करूई
ककरी-कडवी
ककडी
तिन्हैं- उन्हें चकरी- फिरकी
राची-रंगी हुई झूखी- दुःख
से पछताई(खीजी)
पतूखी- पत्तलों का दोना बारक- एक
बार।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
(1) सूरदास
की भक्ति मानी जाती है -
(अ) सखा
भाव की (ब) दास्य
भाव की
(स) माधुर्य
भाव की (द) कान्ता
भाव की
(2) सूरदास
ने अँखिया को भूखी बताया है-
(अ) प्राकृतिक
सौन्दर्य की (ब) सुरमा
लगाने की
(स) नींद
लेने की (द) हरिदर्शन
की
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
(1) उद्धव
को गोपियों ने ऐसे कौन से प्रष्न किए कि उद्धव ठगा - सा रह गया ?
(2) हारिल
पक्षी की क्या विषेषता हैं? बताइए।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
(1) गोपियों
को उद्धव का योग (जोग) संदेश
किसके समान लग रहा है?
(2) ‘‘मानहु
नील भाट ते काढें लै यमुना पखारे।‘‘ पंक्ति
में कौनसा अलंकार है ? परिभाषा
लिखिए।
व्याख्यात्मक प्रश्न
(1) सूरदास
के पदों में वर्णित प्रेमभक्ति भावना का वर्णन कीजिए।
(2) अँखियाँ
हरि-दरसन
...........................................
सरिता है सूखी।
MAHESH KUMAR BAIRWA LECTURER
GSSS DIDWANA,DAUSA
MAHESH |
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