Vidyapati ke Pad Class 12 Antra
कवि परिचय :
जन्म - सन् 1380 ई.।
स्थान - बिहार के मिथिला अंचल के मधुबनी जिले का 'बिसपी' (बिस्पी) गाँव। जन्म और मृत्यु के बारे
में सही एवं प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। विद्यापति मिथिला के राजा शिवसिंह
के अभिन्न मित्र, राजकवि
और सलाहकार थे। मिथिला के कई राजाओं के आश्रय में विद्यापति रहे। निधन -1460 ई.।
साहित्यिक परिचय - भाव-पक्ष-विद्यापति भक्ति और श्रृंगार के कवि हैं। वह
हिन्दी साहित्य के मध्यकाल के ऐसे कवि हैं जिनकी पदावली में जनभाषा में जनसंस्कृति
की व्यंजना हुई है। राधाकृष्ण के प्रेम के माध्यम से उन्होंने लौकिक प्रेम के
विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। उन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं की भक्ति तथा
प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन अपने पदों में किया है। उनके पदों में प्रेम और
सौन्दर्य की निश्छल और प्रगाढ़ अनुभूति का सफल तथा प्रभावपूर्ण चित्रण हुआ है।
शृंगार उनका प्रधान रस है। वयः सन्धि, नख-शिख वर्णन, सद्यः स्नाता एवं नायिका के अभिसार का
चित्रण विद्यापति के प्रिय विषय हैं। विद्यापति को मैथिल कोकिल तथा अभिनव जयदेव
कहा जाता है। उनकी वाणी में कोयल जैसी मधुरता है।
कला-पक्ष - विद्यापति अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। उनका
संस्कृत, अवहट्ट
(अपभ्रंश) तथा मैथिली पर पूरा अधिकार था। उन्होंने इन तीनों भाषाओं में रचनाएँ की
हैं। वह साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे। वह
आदिकाल और भक्तिकाल की संधि के कवि थे। उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और शृंगार
तथा 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' में दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य
परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में मिथिला क्षेत्र के लोक व्यवहार
तथा संस्कृति का सजीव चित्रण है। उनकी पंक्तियाँ वहाँ के मुहावरे बन गई हैं।
पद-लालित्य, मानवीय
प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग उनके पदों को मनोहर बनाते हैं।
कृतियाँ - (i) संस्कृत
रचनाएँ - 1.भू-परिक्रमा, 2. पुरुष परीक्षा, 3. लिखनावली, 4. विभागसार, 5. शैव सर्वस्वसार, 6. गंगा वाक्यावली, 7. दुर्गा भक्ति तरंगिणी, 8. दान वाक्यावली, 9. गयापत्तलक, 10. वर्षकृत्य, 11. पांडव विजय, 12. मणि मंजरी।
(ii) अवहट्ट
(अपभ्रंश में रचित) रचनाएँ - 1. कीर्तिलता 2. कीर्तिपताका।
(ii) मैथिली
भाषा में रचित रचना-पदावली।
विद्यापति के पद
सप्रसग व्याख्या -
पद
1. के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए
नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।।
एकसरि
भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि
अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।
मोर
मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल
तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल।।
विद्यापति
कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत
तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।।
शब्दार्थ :
- के = कौन।
- पतिआ = पत्रिका (चिट्ठी)।
- लए जाएत = ले जायेगा।
- हिए नहिं सहए = हृदय सहन नहीं कर पाता।
- असह दुख = असहनीय दुःख।
- भेल साओन मास = सावन का महीना आ गया।
- एकसरि = अकेला।
- मोहि रहलो न जाय = मुझसे रहा नहीं जाता।
- अनकर = दूसरों का।
- दुख दारुन = दारुण दुख।
- जर्ग = संसार (लक्षणा से संसारीजन)।
- के पतिआए = कौन विश्वास करेगा।
- हरि = श्रीकृष्ण।
- हर लए गेल = हरण करके ले गये।
- मधुपुर = मथुरा।
- अपजस = अपयश।
- लेल = लिया।
- गाओल = गाया है।
- धनि = स्त्री (राधा)।
- धरु = धारण करो।
- आओत - आयेंगे।
- मनभावन = श्रीकृष्ण।
- एहि = इस।
- कातिक मास = कार्तिक के महीने में।
सन्दर्भ : प्रस्तुत पद मैथिल कोकिल विद्यापति द्वारा रचित 'पदावली' से लिया गया है जिसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'पद' शीर्षक से संकलित किया गया है। प्रसंग विरहिणी नायिका राधा को कोई
पत्रवाहक नहीं मिलता जो उसका विरह सन्देश मथुरा चले गये कृष्ण को जाकर पहुँचा दे।
अपनी इस विरह विकलता को वह सखी से कह रही है।
व्याख्या : राधा कहती है.
हे सखी! मुझे तो ऐसा कोई नहीं दिखाई देता जो मेरी पाती को प्रियतम के पास ले जाकर
उन्हें मेरी विरह वेदना से परिचित करा दे। इस श्रावण मास का असहनीय दुःख अब मेरा
हृदय सहन नहीं कर पा रहा है। प्रियतम के बिना सूने हुए इस भवन में मुझसे अकेले रहा
नहीं जाता। हे सखी! दूसरे के दारुण दुःख पर भला संसार में कौन विश्वास करता है? प्रिय के वियोग में मुझे जो भयंकर दुःख
झेलना पड़ रहा है उसे तो बस मैं ही जानती हूँ।
कोई और मेरी वेदना पर विश्वास भी न करेगा। प्रियतम श्रीकृष्ण तो हरि हैं, उन्होंने अपने 'हरि' नाम को सार्थक ही किया और मेरा मन 'हरण' करके ले गये। कैसा आश्चर्य है कि जो मन
मेरा अपना था, वह
मेरा अपना न रहा और उनके साथ चला गया? गोकुल को छोड़कर उन प्रियतम कृष्ण ने
मथुरा में बस कर कैसा अपयश ले लिया ? विद्यापति कवि कहते हैं कि सखी राधा को
समझाते हुए कहने लगी कि तुम्हें धैर्य धारण करना चाहिए और प्रिय के आने के सम्बन्ध
में आशा बनाये रखनी चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि तेरे मनभावन प्रियतम इस
कार्तिक मास में अवश्य आ जायेंगे।
विशेष :
1. राधा की विरह वेदना का निरूपण होने से
वियोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति है।
2. विद्यापति के काव्य से ही राधा-कृष्ण
के प्रेम का प्रारम्भ हिन्दी में माना जाता है।
3. जग के पतिआए में वक्रोक्ति अलंकार है, 'हरि हर' में छेकानुप्रास अलंकार है।
4. 'हरि' शब्द का साभिप्राय प्रयोग किया गया है।
'हरि' का अर्थ है जो हरण कर ले, श्रीकृष्ण ने राधा का मन हरण कर लिया
इसलिए 'हरि' शब्द का प्रयोग साभिप्राय है।
5. मैथिली भाषा, वियोग श्रृंगार रस, माधुर्य गुण, कोमलकान्त मधुर पदावली और तत्सम शब्दों
का प्रयोग दर्शनीय है।
2. सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह
पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।।
जनम
अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।
सेहो
मधुर बोल सवनहि सूनल मुति पथ परस न गेल।।
कत
मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।।
लाख
लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत
बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहुन पेख।।
विद्यापति
कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।
शब्दार्थ :
- कि पुछसि = क्या पूछती हो।
- अनुभव = प्रेम का अनुभव।
- सेह = वही।
- पिरिति = प्रीति।
- अनुराग = प्रेमभाव।
- बखानिअ = वर्णन करने योग्य।
- तिल-तिल = क्षण-क्षण पर।
- नूतन = नवीन।
- जनम अबधि = जीवन भर।
- निहारल = देखा।
- नयन न तिरपित भेल = नेत्र तृप्त नहीं हुए।
- सेहो = वह।
- मधुर बोल = मधुर वचन।
- सवनहि = कानों ने।
- सूनल = सुने।
- मृति पथ = कानों के रास्ते।
- परस न गेल = स्पर्श तक न हुआ।
- कत = कितनी ही।
- मधु जामिनि = मधुयामिनी (मधुर रातें)।
- रभस गमाओलि = आमोद-प्रमोद (कामक्रीड़ा) में व्यतीत कर दी।
- तइओ = फिर भी।
- हिअ जरनि न गेल = हृदय नहीं जुड़ाया।
- कत = कितने ही।
- बिदगध जन = चतुर लोग।
- काहुन पेख = किसी ने नहीं देखा।
- प्रान जुड़ाइते = मेरे प्राण शीतल हो गये।
- लाखे न मीलल रक = लाखों में एक भी न मिला।
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिल कोकिल विद्यापति द्वारा रचित 'पदावली' से उद्धृत की गई हैं। इन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'पद' शीर्षक के अन्तर्गत संकलित किया गया
है।
प्रसंग : सखी जब नायिका से यह पूछने लगी कि प्रेम का अनुभव कैसा होता है तब
नायिका ने कहा कि प्रेम की अनुभूति शब्दों से परे है। प्रेम में नित नबीनता का भाव
होता है तथा सदैव अतृप्ति बनी रहती है। कृष्ण के रूप-सौन्दर्य को देखने, उनकी मधुर बातें सुनने एवं उनके साथ
कामक्रीड़ा करने से कभी मुझे तृप्ति नहीं मिलती। प्रेम वही होता है जिसमें निरन्तर
अतृप्ति हो, प्रिय
से मिलने की नवीन आकांक्षा हो। विद्यापति ने इस पद में इसी वृत्तान्त का वर्णन
किया है।
व्याख्या : सखी के प्रश्न के उत्तर में नायिका ने कहा- हे सखी! प्रेम के
अनुभव के विषय में तुम जो मुझसे पूछती हो, तो मैं क्या कहूँ? प्रेम का यह अनुभव शब्दातीत है। मैं तो
उसी प्रेम और अनुराग को बखानने योग्य मानती हूँ जिसमें क्षण-क्षण पर नवीनता रहती
है अर्थात् प्रेम में नित नूतनता का गुण विद्यमान होता है और कभी तृप्ति नहीं
मिलती। हे सखी! मेरा पूरा जन्म हो गया। मैं प्रियतम कृष्ण के रूप को देखती रही
क्रिन्तु मेरे नेत्र आज भी अतृप्त हैं।
उन्हें देखने की वही आकांक्षा मेरे नेत्रों में आज भी है जो पहले दिन थी।
उनके मधर वचन जीवन-पर्यन्त सनती रही लेकिन आज भी उनकी वाणी सुनने की आकांक्षा
कानों को इस प्रकार है जैसे वे मधुर वचन कानों ने कभी सुने ही नहीं। मैंने कितनी
ही मधुयामिनियाँ प्रियतम के साथ कामक्रीड़ा करते व्यतीत कर दी लेकिन आज भी मुझे
लगता है कि मैं कामक्रीड़ा से अछूती हूँ। प्रिय के साथ कामक्रीड़ा करने की वही
आकांक्षा मन में है जो पहली बार इस मन में थी। लाख-लाख युगों से प्रियतम कृष्ण को
हृदय में बसाये हुये मेरे प्राण अभी तक नहीं जुड़ाए, वे अभी तक अशान्त हैं।
कितने ही चतुर सुजान
रसिकों ने प्रेम का अनुभव किया है किन्तु कोई भी उस अनुभव को शब्दों में व्यक्त
नहीं कर पाया, क्योंकि
मेरे विचार से प्रेम शब्दातीत होता है। विद्यापति कवि कहते हैं कि नायिका सखी से
कहने लगी कि मुझे तो लाखों में से एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो यह कहे कि प्रेम से
मेरे प्राण जुड़ा गए या मुझे तृप्ति मिल गई। वस्तुत: अतृप्ति ही प्रेम की सबसे
बड़ी पहचान है।
विशेष :
1. प्रेम
का सबसे बड़ा गुण है अतृप्ति, इसी बात को विद्यापति ने इस पद में प्रतिपादित किया है।
2. श्रृंगार रंस की व्यंजना
इस पद में है।
3. जनम
अबधि............तिरपित भेल में विशेषोक्ति है।
4. मैथिली भाषा, कोमलकान्त मध तुर पदावली तथा गेय छन्द
है।
5. प्रेम और सौन्दर्य की सबसे
बड़ी विशेषता है उसका चिर नवीन होना। संस्कृत के महाकवि 'माघ' ने लिखा है
क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया। हिन्दी के रीतिमुक्त धारा
के कवि घनानन्द ने भी लिखा है। रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों
निहारिए। हे सुजान! आपके सौन्दर्य की यह कैसी अनोखी रीति है कि जब-जब इसे देखता
हूँ, यह
नया-नया सा लगता है।
3. कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि
सुनि, कर
देइ झाँपइ कान।।
माधब, सुन-सुन
बचन हमारा।
तुअ गुन सुन्दरि अति भेल दूबरि - गुनि-गुनि प्रेम तोहारा।।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ, पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठिकरि, चौदिस हेरि-हेरि नयन गरए जल-धारा।।
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन
चौदसि-चाँद-समान।
भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति लखिमादेइ-रमान।।
शब्दार्थ :
- कुसुमित = फूलों से लदे।
- कानन = वन।
- हेरि = देखकर।
- कमलमुखि = कमल जैसे मुख वाली।
- मूदि रहए = बन्द कर लेती है।
- दु नयान = दोनों नेत्र।
- कलरव = कूक।
- मधुकर धुनि = भौंरों की गुंजार।
- करदेइ = हाथ लगाकर।
- झाँपइ = ढक लेती है।
- माधब = कृष्ण।
- हमारा = हमारे।
- तुअ गुन = तुम्हारे गुणों।
- अति भेल दूबरि = अत्यन्त दुर्बल हो गयी है।
- गुनि-गुनि = स्मरण करके।
- प्रेम तोहारा = तुम्हारे स्नेह को।
- धनि = स्त्री (नायिका)।
- कत बेरि = कितनी बार।
- बइसइ = बैठती हो।
- उठड़ न पारा = उठ नहीं पाती।
- कातर दिठि करि = पैनी दृष्टि से।
- चौदिस = चारों दिशाओं में।
- हेरि-हेरि = देख-देखकर।
- गरए = गिरती है।
- तोहर बिरह = तुम्हारे विरह में।
- तनु छिन = शरीर क्षीण होता है।
- चौदसि-चाँद-समान = चतुर्दशी के चन्द्रमा के समान।
- नरपति = राजा शिवसिंह (विद्यापति के आश्रयदाता)।
- लखिमादेइ = लक्ष्मणा देवी (राजा शिवसिंह की रानी)।
- रमान = रमण करते हैं।
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिल कोकिल विद्यापति द्वारा रचित 'पदावली' से ली गई हैं जिन्हें 'पद' शीर्षक के अन्तर्गत हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग : विरहिणी नायिका की विरह दशा का वर्णन करती हुई कोई सखी नायक
श्रीकृष्ण से कहती है कि पुष्पित वन और कोयल की कूक उसे लेशमात्र नहीं सुहाती, वह अत्यन्त दुर्बल हो गई है, पृथ्वी पर बैठ जाये तो उठ भी नहीं
पाती। नायिका की इसी विरह विकल दशा का वर्णन विद्यापति ने इस पद में किया है।
व्याख्या : दूती ने जाकर श्रीकृष्ण से कहा- हे कृष्ण! तुम्हारे विरह में
नायिका राधा अत्यन्त विकल हो रही है। वह कमलमुखी जब पुष्पित उपवनों को देखती है तो
दोनों नेत्र बन्द कर लेती है और जब कोयल की मधुर कूक और भौरों का मधुर गुंजार
सुनती है तो दोनों हाथों से कान ढक लेती है। उसे यह सब लेशमात्रं भी नहीं सुहाता।
हे कृष्ण! मेरी बात को ध्यान से सुनो। तुम्हारे गुणों पर मुग्ध वह विरहिणी
राधा तुम्हारे विरह में अत्यन्त दुर्बल हो गयी है और निरन्तर तुम्हारे ही बारे में
सोचती रहती है। कितनी ही बार वह पृथ्वी पर बैठ जाती है किन्तु दुर्बलता के कारण
अपने आप उठ भी नहीं पाती। तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा करती हुई वह राधा कातर
(पैनी) दृष्टि से चारों दिशाओं में देखती रहती है और उसकी आँखों से अश्रुधारा
प्रवाहित होती रहती है। तुम्हारे विरह में उसका शरीर उसी तरह प्रतिक्षण क्षीण होता
जा रहा है जैसे चतुर्दशी का चन्द्रमा प्रतिदिन छोटा होता जाता है। विद्यापति कवि
कहते हैं कि मिथिला के राजा शिवसिंह रानी लक्ष्मणादेवी पर मुग्ध हैं और उनके साथ
रमण करते हैं।
विशेष :
1. विरहिणी नायिका की वियोग दशा का
मार्मिक चित्रण होने से इस पद में वियोग श्रृंगार रस की पुष्टि हुई है।
2. कमलमुखि में उपमा अलंकार है, सुन-सुन, छन-छन, गुनि-गुनि, हेरि-हेरि में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
है, धरनी
धरि........ उठइ न पारा में अतिशयोक्ति अलंकार है, 'चौदसि चाँद समान' में उपमा अलंकार तथा अनुप्रास अलंकार
है।
3. राधा कृष्ण के प्रति यहाँ भक्ति-भाव
नहीं है अपितु वे सामान्य नायक-नायिका मात्र हैं।
4. विद्यापति ने परिमाण की दृष्टि से भी
शृंगारी पदों की रचना प्रचुरता से की है अतः उन्हें भक्त कवि न मानकर शृंगारी कवि
मानना ही अधिक समीचीन है।
5. इस पद में कोमलकान्त मधुर पदावली युक्त
मैथिली भाषा का प्रयोग हुआ है। माधुर्य गुण है। गेय छन्द 'पद' में रचना हुई . है। वियोग शृंगार रस का
उद्दीपक चित्रण है।
Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1. प्रियतमा के दुःख के क्या कारण हैं?
उत्तर : प्रियतमा (विरहिणी नायिका) इसलिए दखी
है क्योंकि प्रियतम (नायक) पास नहीं है। सावन के महीने को नायक के बिना काट पाना
उसके लिए कठिन हो रहा है। प्रिय के बिना अकेला भवन उसे काटने को दौड़ता है।
प्रियतम कृष्ण उस विरहिणी नायिका का मन अपने साथ हरण करके ले गए। वह सखी से कहती
है कि मेरे दुःख को मेरी पीड़ा को भला दूसरा कैसे जान पाएगा, इसे तो वही जान सकता है जिसने मेरे
जैसा विरह दुःख झेला हो। इस प्रकार प्रियतमा के दुःख का मूल कारण है प्रियतम का
परदेश गमन जिससे उसे विरह दुःख झेलना पड़ रहा है।
प्रश्न 2. कवि'नयन न तिरपित भेल' के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस
मनोदशा को व्यक्त करना चाहता
अथवा
'जनम अबधि हम रूप निहारल
नयन न तिरपित भेल' उक्त
काव्य पंक्ति के आधार पर विद्यापति की नायिका की मनोदशा का वर्णन अपने शब्दों में
कीजिए।
उत्तर :प्रेम में कभी
तृप्ति नहीं मिलती। मन सदैव अतृप्त रहता है। नायिका (राधा) के नेत्र आज भी नायक
(कृष्ण) के दर्शन को व्याकुल हैं। उसके नेत्र कभी भी प्रिय की सांवली-सलोनी सूरत
को देखकर तृप्त नहीं होते। यह अतृप्ति उसके प्रेम की परिचायक है। नायिका के मन में
नायक के रूप दर्शन की लालसा है, यही कवि इस पंक्ति के माध्यम से व्यक्त करना चाहता है।
प्रश्न 3. नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का
कारण अपने शब्दों में लिखिए। .
उत्तर : सखी ने जब नायिका से प्रेम के अनुभव के
बारे में पूछा तो नायिका ने कहा कि प्रेम में सदैव अतृप्ति रहती है। लाखों लोगों
में से मुझे एक भी न मिला जो यह कह सके कि प्रेम से मेरे प्राणों को तृप्ति मिल गई
है। अतृप्ति ही प्रेम की पहचान है। नायिका के मन में नायक के दर्शन की, उसकी वाणी सुनने की तथा उसके साथ
रसकेलि करने की वही लालसा आज भी विद्यमान है जो पहले दिन थी। भले ही नायिका.राधा
ने कृष्ण के साथ पूरा जन्म बिताया हो पर उसके प्राण प्रेम से तृप्त नहीं हुए।
अतृप्त लालसा ही प्रेम की परिचायक होती है, इसी कारण नायिका के प्राण तृप्त नहीं
हुए हैं।
प्रश्न 4. 'सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन
होए' से
लेखक का क्या आशय है?
उत्तर :वही प्रेम और
अनुराग बखानने योग्य है जिसमें क्षण-क्षण पर नवीनता का अनुभव हो अर्थात् प्रेम की
एक विशेषता है-नित नवीनता। संस्कत के कवि माघ ने कहा है "क्षणे-क्षणे
यन्नवतामपैति अर्थात् जिस रूप में क्षण-क्षण पर नवता (नव्यता, नयापन) प्रतीत हो, वही रूप रमणीय कहा जाता है। इसी प्रकार
जिस प्रीति में कभी पुरानापन न आए, जो सदैव नयी-नयी सी लगे वही प्रीति
बखानने योग्य है। नायिका और नायक जिस प्रीति में सदैव नव्यता की अनुभूति करें वही
प्रीति बखानने योग्य होती है।
प्रश्न 5. कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर
क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :वसन्त ऋतु आने पर
कोयल कूकने लगी है और खिले हुए पुष्पों पर भ्रमर गुंजार करने लगे हैं। कोयल की यह
कूक और भ्रमरों की यह गुंजार उस विरहिणी नायिका को तनिक भी नहीं सुहाती क्योंकि
उसका प्रियतम परदेश गया है इसीलिए वह इस कूक और गुंजार को सुनकर अपने कान बन्द कर
लेती है। यहाँ प्रकृति का चित्रण उद्दीपन रूप में किया गया ... है क्योंकि
वसन्तागमन पर नायिका का विरह और भी बढ़ गया है।
प्रश्न 6. कातर दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को
ढूँढने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त किया है?
उत्तर : विरहिणी नायिका कातर दृष्टि से अपने
प्रिय को चारों ओर खोजती है किन्तु जब प्रिय कहीं नहीं दिखता तो उसकी आँखों से
आँसू गिरने लगते हैं। इस भाव को कवि ने निम्न शब्दों में व्यक्त किया है कातर दिठि
करि, चौदिस
हेरि-हेरि। नयन गरए जल-धारा।
प्रश्न 7.निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए
-
तिरपित, छन, बिदगध, निहारल, पिरिति, साओन, अपजस, छिन, तोहारा, कातिक।
उत्तर :
- तद्भव - तत्सम
- तिरपित - तृप्त
- साओन - श्रावण
- छन - क्षण
- अपजस - अपयश
- बिदगध - विदग्ध
- छिन - क्षण
- निहारल - निरखा (निरख)
- तोहारा - तुम्हारा
- पिरिति - प्रीति
- कातिक - कार्तिक
प्रश्न 8. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए -
(क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे
मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग
के पतिआए।।
(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल
नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल सवनहि सूनल
सृति पथ परस न गेल।।
(ग) कुसुमित कानन हेरि
कमलमुखि, मूदि
रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झापइ कान।।
उत्तर :
(क) प्रियतम के बिना
विरहिणी नायिका से घर में अकेले रहा नहीं जाता। हे सखी! दूसरे के दारुण दुःख का
संसार में कौन विश्वास करता है? अर्थात् प्रिय के बिना मैं जिस वेदना को झेल रही हूँ उसको किससे कहूँ, कौन है जो मेरी विरह व्यथा पर यकीन
करेगा?
(ख) नायिका (राधा) कहती है। हे सखी!
जन्म भर मैंने प्रियतम (श्रीकृष्ण) के रूप को देखा परन्तु मेरे नेत्र तृप्त नहीं
हए। आज भी मेरे नेत्रों में प्रियतम श्रीकृष्ण को देखने की वही उत्कट लालसा है जो
पहले दिन थी। इसी प्रकार उनके मध पुर वचनों को मैं न जाने कब से सुन रही हूँ पर
ऐसा लगता है कि कानों ने उनके वचन कभी सुने ही नहीं अर्थात् आज भी मेरे कान
श्रीकृष्ण की मधुर वाणी सुनने को लालायित हैं।
(ग) वसन्त ऋतु आ गई है। वन-उपवन फूलों
से लद गए हैं। प्रकृति की इस वासन्ती सुषमा को देखकर वह अपने दोनों नेत्र बन्द कर
लेती है क्योंकि प्रिय के वियोग में ये खिले हुए फूल उसे अच्छे नहीं लगते अपितु
उसके विरह को और भी तीव्र कर देते हैं। इसी प्रकार कोयल की कूक और भ्रमरों की
गुंजार भी उसे नहीं सुहाती। भ्रमर की गुंजार और कोयल की कूक सुनकर इसीलिए वह अपने
दोनों कान बन्द कर लेती है। प्रकृति का चित्रण यहाँ उद्दीपन रूप में किया गया है।
योग्यता विस्तार -
प्रश्न 1. पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के
काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर :
1. विद्यापति ने अपने काव्य में 'मैथिली' भाषा का प्रयोग किया है। यह हिन्दी की
उपभाषा बिहारी हिन्दी की एक बोली है। इस भाषा का प्रयोग करने से ही विद्यापति को
मैथिल कोकिल कहा जाता है। इसका एक उदाहरण देखिए के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम
पास।
2. भाषा में कोमलता का समावेश है -
प्रियतम के स्थान पर 'पिअतम' शब्द का प्रयोग इसी कारण किया गया है।
3. विद्यापति के ये पद संगीतात्मकता में
ढले हैं। इन्हें गाया जा सकता है अर्थात् उनकी भाषा में गेयता का गुण विद्यमान है, जैसे - सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
4. विद्यापति की भाषा में सरसता एवं
मधुरता का समावेश है। भाषा में कठोर वर्गों का प्रयोग-ट, ठ, ड, ढ, ण तथा द्वित्व वर्णों क्क, च्च, ट्ट आदि का निषेध है, जैसे - जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न
तिरपित भेल।
5. विद्यापति के पदों में शृंगार की
प्रधानता है। श्रृंगार रस का उपयुक्त माधुर्य एवं प्रसाद गुण विद्यापति की कविता
में प्रचुरता से पाया जाता है, यथा कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि मूदि रहए दु नयान।
प्रश्न 2. विद्यापति के गीतों का आडियो रिकार्ड
बाजार में उपलब्ध है, उसको
सुनिए।
उत्तर :
छात्र-छात्राएँ बाजार से
विद्यापति की सीडी या आडियो रिकार्ड लेकर उनके गीत सुनें।
प्रश्न 3.
विद्यापति और जायसी प्रेम
के कवि हैं। दोनों की तुलना कीजिए।
उत्तर :
विद्यापति ने नायक -
नायिका के प्रेम का चित्रण राधा-कृष्ण के माध्यम से किया है, जायसी ने राजा रत्नसेन और राजकुमारी
पद्मावती के प्रेम का चित्रण किया है। दोनों ने ही नायिका के नख-शिख सौन्दर्य का
वर्णन किया है जिसमें अलंकारों का सहारा लिया गया है। दोनों ने ही श्रृंगार के
वियोग पक्ष पर अधिक ध्यान दिया है। विद्यापति ने अपना काव्य मैथिली भाषा
में लिखा है। जायसी सूफी कवि थे। अन्य सूफी कवियों के समान जायसी ने अपनी रचनाएँ
अवधी भाषा में लिखी हैं। विद्यापति को आदिकाल और भक्तिकाल की सन्धि का कवि माना
जाता है, जबकि
जायसी भक्तिकाल की निर्गुण धारा के सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा के कवि थे।
Important Questions and Answers
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. कवि विद्यापति के संकलित पदों में से
प्रथम पद में किसका वर्णन है?
उत्तर : कवि विद्यापति के संकलित प्रथम पद में
विरहिणी नायिका के भावों का वर्णन है।
प्रश्न 2. राधा को जीवन भर किससे तृप्ति नहीं हुई?
उत्तर : राधा को जीवन भर कृष्ण प्रेम से तृप्ति
नहीं हुई।
प्रश्न 3. कवि विद्यापति ने किस पद में वसन्त का
चित्रण उद्दीपन रूप में किया है?
उत्तर : कवि विद्यापति ने तीसरे पद में वसन्तं
का चित्रण उद्दीपन रूप में किया है।
प्रश्न 4. विरह में राधा का शरीर किसके समान
क्षीण होता जा रहा है?
उत्तर :विरह में राधा का
शरीर चतुर्दशी के चन्द्रमा के समान क्षीण होता जा रहा है।
प्रश्न 5. रानी लक्ष्मणादेवी पर मुग्ध होकर कौन
रमण करते हैं?
उत्तर : रानी लक्ष्मणादेवी पर मुग्ध होकर राजा
शिवसिंह रमण करते हैं।
प्रश्न 6. कवि विद्यापति के अनुसार नायक और
नायिका कौन हैं?
उत्तर : कवि विद्यापति ने नायक कृष्ण को और
नायिका राधा को माना है।
प्रश्न 7. कवि विद्यापति की कुछ महत्वपूर्ण
कुतियाँ बताओ?
उत्तर : कवि विद्यापति की कुछ महत्वपूर्ण
कृतियाँ हैं- कीर्तिलता, पुरुष-परीक्षा, भू-परिक्रमा
आदि।
प्रश्न 8. दूसरे पद में कवि ने किसका वर्णन किया
है?
उत्तर : दूसरे पद में कवि ने ऐसी नायिका का
वर्णन किया है जो जन्म-जन्मान्तर से अपने प्रियतम के रूप का पान करके भी स्वयं को
अतृप्त ही अनुभव करती है।
प्रश्न 9.तीसरे पद में कवि ने किसका वर्णन किया
है?
उत्तर : तीसरे पदं में कवि ने नायक के वियोग
में संतप्त ऐसी विरहिणी का चित्रण किया है जिसे नायक के वियोग में प्रकृति के
आनंददायक दृश्य भी कष्टदायक प्रतीत होते हैं।
प्रश्न 10. प्रथम 'पद' में विशेष क्या है?
उत्तर :इस 'पद' में मैथली भाषा का सुंदर प्रयोग किया
गया है। इस 'पद' में वियोग रस विद्यमान है। कवि की भाषा
लयात्मक, काव्यात्मक
एवं भावानुसार है। यह एक छंद युक्त पद है।
प्रश्न 11. दूसरे 'पद' में विशेष क्या है?
उत्तर : 'पथ परस' और 'नवनहि सूनल' में अनुप्रास अलंकार है। इस 'पद' में वियोग रस विद्यमान है। यह एक
छंद-युक्त पद है।
प्रश्न 12. के पतिआ लए जाएत रे, मोरा पिअतम पास। पंक्ति का क्या
अभिप्राय है?
उत्तर : वर्षा ऋतु आ गई है, नायिका को अपने नायक की याद सताने लगी
है और वह अपने नायक को वापस आने, का संदेश भेजना चाहती है।
प्रश्न 13. जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित
भेल।। इस पंक्ति का क्या अभिप्राय है?
उत्तर :उपरोक्त पंक्ति में
राधा (नायिका) अपने सखियों से बात कर रही है और कहती है कि मैंने अपने पूरे जीवन
भर अपने नायक कृष्ण का रूप निहारा है, परंतु मेरी आँखों की प्यास नहीं बुझी अर्थात्
जो सच्चा प्रेम होता है, उसमें
व्यक्ति कभी तृप्त नहीं हो पाता है।
प्रश्न 15. सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ
तिल तिल नूतन होए।।
प्रस्तुत पंक्तियों का
भावार्थ लिखिए।
उत्तर : प्रस्तुत पंक्तियों में सखियाँ राधा से
उनके अनुभवों के बारे में पूछ रही है। राधा कहती है कि सखी मुझसे मेरे अनुभव के
बारे में जितनी बार पूछेगी उतनी बार वह पल-पल नया होता जायेगा। अर्थात् उसका वर्णन
नहीं किया जा सकता है।
लयूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1.'कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहुन
पेख' के
द्वारा कवि क्या कहना चाहता है? .
उत्तर : कवि कहना चाहता है कि प्रेम में
निरन्तर अतृप्ति रहती है। यह एक ऐसी अनुभूति है जिसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है।
कितने ही विदग्ध (चतुर) जनों ने प्रेम की अनुभूति की है पर जब उनसे प्रेम का अनुभव
सुनाने के लिए कहाए। यह तो गंगे का गुड़ है। नायिका ने अपनी सखी से कहा- हे सखी, तू मुझसे प्रेम के बारे में जो अनुभव
बताने का अनुरोध कर रही है, उसका
क्या जवाब दूं ? मेरे
पास इस अनुभव को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं हैं।
प्रश्न 2. नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का
कारण अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर : नायिका कहती है कि कितने ही चतुर
व्यक्तियों ने प्रेम का आनन्द लिया पर लाखों में से एक भी ऐसा नहीं मिला जो यह कह
सके कि प्रेम से उसके प्राण जुड़ा गये (शीतल हो गए)। सच तो यह है कि प्रेम प्राणों
की अतृप्ति का ही दूसरा नाम है। जीवन भर नायिका कृष्ण (नायक) को देखती रही, उनकी बातें सुनती रही पर आज भी उनका
रूप दर्शन करने की तथा उनकी वाणी सुनने की तीव्र उत्कंठा उसके मन में है। उसके
प्राण आज भी उनसे मिलने को व्याकुल हैं। उसके प्राणों की यह अतृप्ति नायक कृष्ण के
प्रति उसके उत्कट प्रेम की परिचायक है।
प्रश्न 3. वसन्त ऋतु का क्या प्रभाव नायिका पर
पड़ता है?
उत्तर : संयोग काल में जो वस्तुएँ सुखकर होती
हैं, वियोग
काल में वही विरह को बढ़ाने वाली हो जाने से दु:खदायक लगने लगती हैं। यही कारण है
कि विरहिणी नायिका को वसन्त ऋतु अच्छी नहीं लगती। वह उसे प्रिय की याद दिलाकर उसकी
वेदना बढ़ा देती है। वसन्त ऋतु आ जाने से उपवनों में फूल खिल गए हैं जिसे देखकर
नायिका अपनी आँखें बन्द कर लेती है। कोयल की कूक और भ्रमरों की मधुर गुंजार भी
नायिका को अच्छी नहीं लगती इसलिए वह अपने दोनों कान बन्द कर लेती है। वसन्त का
चित्रण यहाँ उद्दीपन रूप में किया गया है। वसन्त की यह सुषमा विरहिणी नायिका के विरह
को उद्दीप्त कर रही है।
प्रश्न 4. 'सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए' के द्वारा नायिका क्या कहना चाहती है?
उत्तर :विरहिणी नायिका
प्रिय (श्रीकृष्ण) के परदेश (मथुरा) चले जाने से अत्यन्त व्याकुल है, उसे चैन नहीं पड़ता। वह अपनी दारुण
वेदना सखी से कहती है और यह भी कहती है कि दूसरा व्यक्ति उसके दुःख को तभी समझ
सकता है जब वह इस पीड़ा से स्वयं गुजरा हो। अर्थात् 'जाके पांव न फटी बिवाई सो का जाने पीर
पराई।' मेरे
(नायिका के) विरह दुःख को कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है अन्यथा संसार के लोगों की
तो यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वे दूसरे के दारुण दुःख की क्रथा पर विश्वास नहीं
करते।
प्रश्न 5. 'सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन
होए' का
भाव-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :प्रेम में अतृप्ति
और नवीनता अनिवार्य मानी गयी है। वही प्रेम और अनुराग बखानने योग्य है जिसमें
क्षण-क्षण पर नवीनता का अनुभव होता है। नायिका सखी से कहती है कि नायक श्रीकृष्ण
के रूप को मैं जन्म भर देखती रह मेरे नेत्र तृप्त नहीं हुए। आज भी इन नेत्रों को
उनके रूप दर्शन की लालसा है और कानों को उनके मधुर वचन सुनने की तीव्र उत्कंठा है।
नायिका का यह कथन नायक के प्रति उसके उत्कट प्रेम का परिचायक है।
प्रश्न 6. 'भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति
लखिमादेइ-रमान' का
भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : विद्यापति मिथिला के राजा शिवसिंह के
मित्र, दरबारी
कवि थे। लक्ष्मणादेवी राजा शिवसिंह की रानी (पत्नी) थीं। इस पंक्ति में कवि ने अपने
आश्रयदाता के नाम की छाप लगाते हुए कहा है कि विद्यापति कहते हैं कि राजा शिवसिंह
लक्ष्मणादेवी के पति हैं और इस गीत में व्यक्त मर्म को भलीभाँति समझते हैं।
प्रश्न 7.एकसरि भवन पिआ बिनु रे, मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे, जग के पतिआए।।
प्रस्तुत पंक्तियों का
भावार्थ लिखिए।
उत्तर : उपरोक्त
पंक्तियों में कवि नायिका के दुःख का वर्णन कर रहे हैं। नायिका कह रही है कि वह इस
बड़े भवन में अपने प्रियतम के बिना नहीं रह सकती है। नायिका अपने सखियों से कह रही
है- 'मेरे
इस कठोर दुःख को कोई समझने वाला है? अर्थात् मेरा यह असहनीय दुःख किसी को
क्यों समझ नहीं आ रहा है।
प्रश्न 8.हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।।
पंक्ति का क्या अभिप्राय है?
उत्तर : उपरोक्त
पंक्ति के माध्यम से कवि कहते हैं कि नायिका अपनी सखी से पूछती है कि मेरा पत्र
लेकर मेरे नायक के पास कौन जायेगा? क्या ऐसा कोई नहीं है जो मेरे इस पत्र
को मेरे प्रियतम कृष्ण के पास पहुँचा दे। इस सावन के महीने में विरह वेदना का
असहनीय दुःख मुझसे झेला नहीं जा रहा है।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. विद्यापति के पद' कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर : यहाँ विद्यापति के तीन पद संकलित हैं
जो उनकी 'पदावली' से लिए गए हैं। प्रथम पद में विद्यापति
ने विरहिणी नायिका के हृदयोद्गारों को अभिव्यक्ति दी है। वह अपने प्रिय के पास
अपना विरह सन्देश भिजवाना चाहती है। हृदय अपार वेदना सह रहा है। सावन के इस महीने
में उससे अकेले रहा नहीं जाता। प्रिय श्रीकृष्ण उसका मन अपने साथ ही ले गये। गोकुल
छोड़कर वे मथुरा में जाकर बस गए और उन्होंने गोपियों को दुःख देने का अपयश लिया।
नायिका की विरह कातर वाणी सुनकर सखी उसे धैर्य बँधाती है कि इस कार्तिक मास तक
तुम्हारा प्रिय अवश्य लौट आएगा।
दूसरे पद में प्रेम की महत्ता का
प्रतिपादन है। प्रेम में कभी तृप्ति नहीं मिलती और मन अतृप्त रहता है। राधा कहती
है कि पूरा जीवन मैंने कृष्ण के दर्शन किए तथापि आँखों को आज भी उनके दर्शन की
प्यास है, कानों
को आज भी उनके मीठे बोल सुनने की ललक है और कृष्ण के साथ अनेक मधुर रातें व्यतीत
करने के बाद भी उनके साथ रसकेलि करने को मन आज भी लालायित है।
तीसरे पद में वसन्त का चित्रण उद्दीपन
रूप में किया है। कुसुमित उपवन को देखकर नायिका आँखें बन्द कर लेती है। कोयल की
कूक, भ्रमरों
की गुंजार सुनकर कान बन्द कर लेती है। कृष्ण के बिना उसे यह सब अच्छा नहीं लगता।
कोई सखी नायक से जाकर नायिका की इस विरह दशा का वर्णन करती है कि वह तुम्हारे विरह
में दिनोंदिन क्षीण (दुर्बल) हो रही है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।
प्रश्न 2. 'मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल' के काव्य-सौन्दर्य (भाव-पक्ष और
कला-पक्ष) पर प्रकाश
डालिए।
उत्तर : भाव-पक्ष-विरहिणी नायिका (राधा) सखी से
कहती है कि हे सखी! वे श्रीकृष्ण (नायक) मेरा मन हरण करके अपने साथ ले गए । कैसा
आश्चर्य है कि जिस मन को मैं अपना समझती थी, वह उनके साथ चला गया। भाव यह है कि
कृष्ण के बिना अब मेरा मन नहीं लगता, मेरा मन तो उन्हीं के साथ चला गया है।
कृष्ण ने मेरा मन चुरा लिया है।
कला-पक्ष - 'मोर मन' तथा 'हरि हर' में छेकानुप्रास है। प्रस्तुत पंक्ति
की रचना मैथिली भाषा में हुई है। भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त, भावानुकूल तथा मधुर है। उसमें सरसता और
कोमलता है। कवि ने गेय पदावली में रचना की है। वियोग शृंगार रस का प्रभावपूर्ण
वर्णन है।
प्रश्न 3. 'जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित
भेल' के
भाव एवं कला-पक्षीय काव्य-सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : भाव-पक्ष, राधा अपनी सखी से कह रही है कि मैंने
जन्म भर अपनी इन आँखों से कृष्ण के सौन्दर्य का दर्शन किया तथापि ये नेत्र तृप्त
नहीं हुए। आज भी मेरे नेत्रों में कृष्ण के सौन्दर्य दर्शन की वही लालसा है जो
पहली बार थी। यह अतृप्ति ही प्रेम की परिचायक है। हर बार मुझे वह सौन्दर्य
नया-नया-सा लगता है। इसमें प्रेम की गम्भीरता का चित्रण है।
कला-पक्ष - देखने पर भी नेत्र तृप्त
नहीं होते में विशेषोक्ति अलंकार है क्योंकि कारण होने पर भी कार्य नहीं हो रहा।
यहाँ मैथिली भाषा का प्रयोग है। विद्यापति ने कोमलकान्त पदावली युक्त मधुर भाषा का
प्रयोग इस पद में किया है जिसमें गेयता का तत्त्व विद्यमान है। इस पंक्ति में
वियोग भंगार रस है। 'निहारल
नयन न' में
छेकानुप्रास अलंकार है।।
प्रश्न 4. 'तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन–चौदसि
चाँद समान' के
काव्य-सौन्दर्य (भाव एवं कला-पक्ष) पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : भाव-पक्ष - कोई दूती नायक श्रीकृष्ण के
पास जाकर विरहिणी नायिका राधा की विरह दशा का वर्णन करती हुई कहती है कि तुम्हारी
वह विरहिणी दिनों-दिन इस प्रकार क्षीण होती जा रही है जैसे चौदहवीं का चन्द्रमा
दिनोंदिन घटता जाता है। कवि ने विरह-पीड़ा से क्षीण होती नायिका (राधा) का वर्णन किया
है।
कला-पक्ष - वियोग के कारण आने वाली
शारीरिक कृशता (दुर्बलता, क्षीणता)
का उल्लेख करते हुए कवि ने वियोग विकल राधा का चित्र अंकित किया है। चौदसि चाँद
समान में उपमा अलंकार के साथ-साथ बिम्ब विधान भी किया गया है। 'चौदसि चाँद' में छेकानुप्रास है तथा 'छन-छन' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
माधुर्यगुण है तथा गीतिकाव्य की गेयता विद्यमान है। कवि ने कोमलकान्त पदावली युक्त
मधुर मैथिली भाषा का प्रयोग किया है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित पंक्तियों का
काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए -
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि
मूदि रहए दुनयान कोकिल कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर
देइ झापड़ कान।
उत्तर : भाव-पक्ष - कवि ने विरहिणी नायिका की
उद्दीप्त विरहावस्था का चित्रण किया है। वसन्त ऋतु में वन में वृक्षों को फूलों से
लदा हुआ देखकर नायिका अपने दोनों नेत्र बन्द कर लेती है। वह उन फूलों को देखना
नहीं चाहती। कोयल की मधुर ध्वनि तपा भौंरों की गुनगुनाहट भी वह नहीं सुनना चाहती
और अपने कान बन्द कर लेती है। फूलों का खिलना तथा कोकिल और भ्रमरों का बोलना उसके
विरह को बढ़ाने वाला है।
कला-पक्ष - कसमित कानन' तथा 'कोकिल कलरव' में छेकानुप्रास अलंकार है। 'धुनि सुनि' में ध्वन्यात्मकता का सौन्दर्य है।
भाषा में कोमलता, भावानुकूलता
तथा माधुर्य है। माधुर्य गुण है। वियोग श्रृंगार रस है। प्रकृति का उद्दीपन के रूप
में चित्रण किया गया है। खिले हुए पुष्पों का सौन्दर्य तथा कोकिल-भ्रमर की मधुर
ध्वनि नायिका को अच्छी नहीं लग रही। ये सब उसके विरह को बढ़ा रहे हैं।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न -
प्रश्न :विद्यापति का साहित्विक परिचय
दीजिए।
उत्तर : साहित्यिक परिचय - भाव-पक्ष-विद्यापति
भक्ति और श्रृंगार के कवि हैं। श्रृंगार उनका प्रधान रस है। वयः सन्धि, नख-शिख वर्णन, सद्यः स्नाता एवं नायिका के अभिसार का
चित्रण विद्यापति के प्रिय विषय हैं। विद्यापति को मैथिल कोकिल तथा अभिनव जयदेव
कहा जाता है। उनकी वाणी में कोयल जैसी मधुरता है।
कला-पक्ष - विद्यापति का संस्कृत, अवहट्ट (अपभ्रंश) तथा मैथिली पर पूरा
अधिकार था। उन्होंने इन तीनों भाषाओं में रचनाएँ की हैं। उनकी पदावली के गीतों में
भक्ति और श्रृंगार तथा ' कीर्तिलता' और ' कीर्तिपताका' में दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य परम्परा का प्रभाव दिखाई देता है।
उनकी रचनाओं में मिथिला क्षेत्र के लोक व्यवहार तथा संस्कृति का सजीव चित्रण है।
पद-लालित्य, मानवीय
प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग उनके पदों को मनोहर बनाते हैं।
कृतियाँ : (i) संस्कृत रचनाएँ - 1. भू-परिक्रमा, 2. पुरुष परीक्षा, 3. लिखनावली, 4. विभागसार, 5. शैव सर्वस्वसार, 6. गंगा वाक्यावली, 7. दुर्गा भक्ति तरंगिणी, 8. दान वाक्यावली, 9. गयापत्तलक, 10. वर्षकृत्य, 11. पांडव विजय, 12. मणि मंजरी।
(ii) अवहट्ट
(अपभ्रंश में रचित) रचनाएँ-1. कीर्तिलता 2. कीर्तिपताका।
(iii) मैथिली
भाषा में रचित रचना पदावली।
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