हिन्दी
साहित्य की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर भक्तिकाल के महान समाज सुधारक
थे। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछुत,
धार्मिक आडम्बर,
ऊँच-नीच एवं बहुदेववाद
का कडा विरोध करते हुए ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु‘
के मूल्यों को स्थापित किया। कबीर की प्रतिभा में अबाध गति
व तेज था। उन्हें पहले समाज-सुधारक बाद में कवि
कहा जाता है।
आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहा है। कवि ने अपनी सपाटबयानी
एवं तटस्थता से समाज-सुधार के लिए जो
उपदेश दिए उनका संकलन उनके शिष्य धर्मदास ने किया।
कबीर
की रचनाओं के संकलन को बीजक कहा जाता है। बीजक के तीन भाग है-साखी, सबद व रमैनी। संत
काव्य परम्परा में उनका काव्य हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।
पाठ्य
पुस्तक में चयनित कबीर के दोहे सदाचार एवं श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को अपनाने की
प्रेरणा देते है । जीवन में त्याग की महत्ता है। मानव को हंस की तरह नीर-क्षीर विवके रखना चाहिए। अभिमान त्यागने में सार है। साधु
की पहचान जाति से नहीं उसके ज्ञान से होती है। सत्संगति सार्थक होती है। दुराशा
सर्पिणी के समान घातक होती है। वाणी में कोयल की मिठास होनी चाहिए।
(1) कबीरदास
त्याग तो ऐसा कीजिए,
सब कुछ एकहि बार।
सब प्रभु का मेरा नहीं, निहचे किया विचार।।
निहचे- निश्चय।
इस दोहे में कबीर ने आदर्श त्याग के महत्व और स्वरूप का
परिचय दिया है।
व्याख्याः-कबीर कहते हैं कि मनुष्य को एक बार दृढ
निश्चय करके अपना सब कुछ त्याग देना चाहिए।उसकी यह भावना होनी चाहिए की उसे
प्राप्त सारी वस्तुएँ और उसका शरीर भी उसका अपना नहीं है।यह सब कुछ ईश्वर का है।
ईश्वर को सर्वस्व समर्पण करके मोह और अंहकार से मुक्त हो जाना ही आदर्श त्याग है।
सुनिए गुण की बारता, औगुन लीजै नाहिं।
हंस छीर को गहत है, नीर सो त्यागे
जाहिं।।
बारता-बात, महत्व।
औंगुन -अवगुण,बुराइयाँ।लीजै-लीजिए।छीर-दूध(गुण) नीर-जल(अवगुण)
इस दोहे में कबीर लोगों के गुणों को ग्रहण करने और अवगुणों
का परित्याग करने का सन्देश दे रहें है।
व्याख्याः-कबीर कहते हैं कि बुद्विमान पुरूष को गुणों
अर्थात् अच्छे विचार,
अच्छा आचरण और अच्छे व्यक्तियों की संगति का
महत्व समझते हुए उनको ग्रहण करना चाहिए। जो निन्दनीय और अकल्याणकारी विचार(अवगुण) हैं उनसे दूर रहना चाहिए। जैसे हंस दूध और जल के मिश्रण में
से दूध को ग्रहण करके जल को त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य को गुणों
को ग्रहण करते हुए अवगुणों को त्याग देना चाहिए।
छोडे जब अभिमान को,
सुखी भया सब जीव।
भावै कोई कछु कहै,
मेरे हिय निज पीव।।
अभिमान-अंहकार।भया-हुआ।जीव-प्राण,आत्मा।भावै-अच्छा लगे।हिय-हद्य में।निज-अपने।पीव-प्रिय, ईश्वर ।
इस दोहे में कबीरदास जी सच्चा सुख और प्रिय परमात्मा की
प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग करना आवश्यक बता रहे हैं।
व्याख्याः- जीव अर्थात् आत्मा को परमात्मा से दूर और
विमुख करने वाला अहंकार अर्थात् ‘‘मैं‘‘ का भाव है।कबीर कहते हैं कि जब उन्होंने
अहंकार को त्याग दिया तो उनकी आत्मा को परम सुख प्राप्त हुआ क्योंकि अहंकार दूर
होते ही उनका अपने प्रिय परमात्मा से मिलन हो गया। कबीर कहते हैं कि कोई चाहे कुछ
भी कहे परन्तु अब उनके हद्य में उनके प्रियतम परमात्मा निवास कर रहे हैं और वह सब
प्रकार से सन्तुष्ट है।
जाति न पूछो साधु की ,
पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का,
पडा रहन दो म्यान।।
मोल करो-मूल्य लगाओ, मूल्यांकन
करो। म्यान-तलवार को रखने का खोल,कोष।
इस दोहे में कबीर ने साधु की श्रेष्ठता का मापदण्ड उसके
ज्ञान को माना हैं, न कि उसकी जाति को।
व्याख्याः- कबीर कहते हैं कि किसी साधु से उसकी जाति
पूछकर उसका मूल्यांकन करना साधुता का अपमान है। साधु की श्रेष्ठता और उसका सम्मान
उसके ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। ज्ञान की अपेक्षा जाति को महत्व देना ठीक
वैसा ही है जैसे तलवार खरीदने वाला म्यान के रूप-रंग के आधार पर तलवार का मूल्य लगाए। ऐसा
व्यक्ति मूर्ख ही माना जाएगा। काम तो तलवार की उत्तमता से चलता है। म्यान की
सुन्दरता से नही।
संगत कीजै साधु की ,कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते,
सो भी कंचन होय।।
साधु-सज्जन,संत।निष्फल-व्यर्थ,,बेकार।पारस-एक कल्पित पत्थर या
मणि जिसके छू जाने से लोहा सोना हो जाता है। परस-स्पर्ष ,छूना। सो-वह। कंचन-सोना।
इस दोहे में कबीर ने सत्संगति की महिमा का वर्णन किया है।
व्याख्याः- कबीर कहते हैं कि मनुष्य को सदा अच्छे
व्यक्तियों या महापुरूषों की संगति करनी चाहिए। साधु से संगति कभी व्यर्थ नहीं
जाती। उसका सुपरिणाम व्यक्ति को अवश्य प्राप्त होता है। लोहा काला-कुरूप होता है, किन्तु पारस का स्पर्श होने
पर वह भी अति सुन्दर सोना बन जाता है। यह सत्संग का ही प्रभाव है।
मारिये आसा सांपनी, जिन डसिया संसार।
ताकी औषध तोष हैं, ये गुरू मंत्र
विचार।।
मारिये-मार डालिए, त्याग
कर दीजिए। सांपनी,-सर्पिणी। डसिया-डसा है, वष
में किया है।ताकौ- उसकी। औषध- दवा, उपचार। तोष- संतोष। गुरू मंत्र-गुरू की षिक्षा,
अचूक उपाय।
इस दोहे में कबीर ने आशा (किसी से कुछ अपेक्षा रखना) को सर्पिणी के समान बताते हुए उससे बचने का उपाय गुरू उपदेष
को बताया है।
व्याख्याः- कबीर कहते है कि आषा या इच्छा रखना दुर्बल
मानसिकता का लक्षण है।आशा एक सर्पिणी है जिसने सारे संसार को अपने मधुर विष से
प्रभावित कर रखा है। यदि सांसारिक मोह से मुक्त होना है और ईश्वर की कृपा पानी है
तो इस सांपिन को मार डालो अर्थात् किसी से कुछ भी आषा मत रखो। इस आशा सर्पिणी के
विष (प्रभाव) से रक्षा करने का एक ही गुरू मंत्र है वह है, सन्तोषी स्वभाव का बनना।सन्तोषी व्यक्ति कभी
आशाओं का दास नहीं रहता। क्योंकि वह हर स्थिति में संतुष्ट रहा करता है।
कागा काको धन हरै,
कोयल काको देत।
मीठा शब्द सुनाय के,
जग अपनो करि लेत।।
व्याख्याः- कबीर कहते हैं कि लोग कोयल को बहुत प्यार
करते हैं और कौए से दूर रहना चाहते हैं, इसका कारण क्या हैं? क्या कौआ किसी का धन छीन लेता है और कोयल
किसी को धन दे दिया करती है? ऐसा कुछ भी नहीं है। यह
केवल वाणी का अंतर है। कौए की कर्कश काँव-काँव किसी को अच्छी नहीं लगती परन्तु कौयल अपनी मधुर वाणी
से सारे जगत् की प्यारी बनी हुई है। सबका प्रिय बनना है तो कटु और अप्रिय मत
बोले।सदा मधुर वाणी का प्रयोग करो।
जन्म- सन् 1532 ई. मृत्यु - सन् 1623 ई.
उत्तर
प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गाँव में जन्में तुलसीदास का बचपन अत्यन्त
कठिनाइयों में बीता। कष्टों के दौर से गुजरकर उन्होने गुरू नरहर्यानन्द व शेष
सनातन से शिक्षा ग्रहण की। वे अपनी पत्नी रत्नावली से अति स्नहे रखते थे ,लेकिन एक दिन
रत्नावली द्वारा उत्प्रेरित किए जाने पर उनके हृदय में रामप्रेम जाग्रत हो गया।
तुलसीदास
ने अवधी तथा ब्रज भाषा में कई ग्रंथों की रचना की। ‘रामचरितमानस‘
उनकी कीर्ति का आधार ग्रंथ है। अन्य प्रसिद्ध ग्रंथों में
विनयपत्रिका ,कवितावली,दोहावली,
गीतावली, कृष्ण-गीतावली,
बरवै रामायण तथा रामलला नहछू प्रमुख हैं।
तुलसी
के काव्य में समन्वय की भावना सर्वोपरि है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से
आदर्श समाज की जो कल्पना प्रस्तुत की है, वह
कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकती । तुलसी का काव्य भारतीय समाज का आदर्श पथ प्रदर्शक
है।
पुस्तक में संगृहीत
तुलसी के दोहे मानवता की सीख देते हैं। कामक्रोधादि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए।
मानव जीवन की सार्थकता परमार्थ में है। मनुष्य अच्छी संगत से अच्छा व बुरी संगत से
बुरा बन जाता है। सबसे हिल मिलकर रचना चाहिए। वक्त प्रतिकूल हो तो मौन रहना
श्रेयस्कर है। बुरे समय में धीरज, धर्म
,विवके, साहित्य,
साहस, सत्यव्रत
व परमात्मा में भरोसा रखना चाहिए।
1.काम क्रोध मद लोभ रत, गृह्यसक्त दुःख रूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मुढ परे भव कूप।।
शब्दार्थ- काम- कामनाऐं/भोग की इच्छा। मद- अहंकार। रत- लगे हुए। किमि- कैसे। रघुपतिहिं- भगवान राम को। मूढ-मूर्ख। भव कूप- सांसारिक विषय/संसार रूपी कुआ।
संदर्भ व प्रसंग-
प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक में संकलित तुलसीदास रचित दोहों से लिया गया है।
इस दोहे में रामभक्त तुलसी बता रहे हैं कि काम ,क्रोध
लोभ आदि विकारों में और पारावारिक मोह में फंसे मूर्ख लोग कभी भगवान राम की महानता
नहीं जान सकते।
व्याख्या- तुलसी कहते है कि लोग तुच्छ भोगों क्रोध , लोभ, अहंकार
आदि दुर्गुणों से ग्रस्त हैं तथा घर परिवार के मोह को नहीं त्याग सकते। वे संसार
रूपी कुऐं में पडें मूर्ख कभी भगवान राम की महिमा और कृपा का लाभ नहीं पा सकते।
2.कहिबे कहँ रसना रची, सुनिबे कहँ किए कान।
धरिबे कहँ चित हित सहित, परमारथहिं सुजान।।
शब्दार्थः- कहिबे कहँ- कहने या बोलने के
लिए। रसना-जीभ/वाणी। धरिबे कहँ- धारण करने या रखने
के लिए। चित-चित।
परमारथहिं-सर्वोत्तम
वस्तु को/आत्मकल्याण को।
व्याख्याः-
कवि कहते है कि विद्याता ने मनुष्य को बोलने के लिए जीभ या वाणी दी है,
सुनने के लिए कान दिए है, और
कल्याणकारी बातों या षिक्षाओं को धारण करने के लिए चित दिया है। इन सभी अंगों की
सार्थकता इसी में है कि मनुष्य इनका उपयोग सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य अर्थात आत्मकल्याण
में ही करें। सांसारिक विषयों के उपभोग में इनकी क्षमताओं को नष्ट न करें।
3.तुलसी भलो सुसंग तें, पोच कुसंगति सोइ।
नाउ,
किन्नरी तीर असि, लोह बिलोकहु लोइ।।
शब्दार्थ - भला - अच्छा। पोच- बुरा। सुसंग-सत्संग।सोइ-वही। नाउ- नौका। किन्नरी-एक प्रकार की वीणा।
तीर -बाण।
असि-तलवार।
लोह-लौहा।
बिलोकहु- देखों।
लोइ- नेत्र।
व्याख्याः-
कवि तुलसी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्संग करने पर भला और प्रषंसनीय हो जाता है
वहीं कुसंग में पडने पर बुरा और निंदनीय हो जाता है।नौका और किन्नरी वीणा के
निर्माण में काम आने वाला जो लोहा सबको अच्छा लगता है। वहीं बाण और तलवार बनाने
में काम आने पर हानिकारक होने के कारण प्रशंसा का
पात्र नहीं रहता । यह सत्संग और कुसंग का ही परिणाम है।
4.राम कृपा तुलसी सुलभ, गंग सुसंग समान।
जो जल परै जो जन मिलै, कीजै आपु समान।।
शब्दार्थ :- सुलभ- सहज ही प्राप्त।
गंग- गंगा।
आपु समान- अपने
समान।
व्याख्याः-
कवि का कहना है कि भगवान राम की कृपा से सहज ही प्राप्त हाने वाले गंगा और सत्संग
दोनों का प्रभाव समान होता है। गंगा के जल में जो भी मिलता है,
उसे गंगा अपने समान पवित्र बना देती है।इसी प्रकार सत्संग
में जो भाग लेता है, वह सत्पुरूषों जैसा
ही पवित्र आचरण वाला बन जाता है।
5.तुलसी या संसार मे, भाँति-भाँति के लोग।
सबसौं हिल-मिल चालिए,
नदी-नाव संयोग।।
शब्दार्थः-भाँति भाँति- भिन्न भिन्न स्वभाव
वाले। हिल -मिल- प्रेम से। चालिए-चलिए। नदी-नाव संयोग- थोडे समय का मिलन।
व्याख्याः-
कवि तुलसी कहते है कि इस संसार में नाना प्रकार के लोगों से व्यक्ति का मिलन होता
है। मनुष्य से जहाँ तक बने सभी से मिल जुलकर जीवन बिताना चाहिए।हठ या अहंकार वष
किसी से विरोधी व्यवहार नहीं करना चाहिए।क्योंकि मानव जीवन नदी पार करते समय नाव
में एक साथ बैठे व्यक्तियों के समान होता है। जैसे नाव में बैठे विभिन्न स्वभावों
के लोग पार होने तक हिलमिल जाते हैं और पार पहुँचते ही अपने अपने मार्ग पर चले
जाते है।इसी प्रकार मानव जीवन मिलना ही थोडे समय का ही होता है,
इसे प्रसन्नता पूर्वक बिताना चाहिए।
6.तुलसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तौ दादुर बोलिहे, हमें पूछिहै कौन।।
शब्दार्थः- पावस-वर्षा ऋतु। धरी-धारण कर लिया।
कोकिलन-कौयलों
ने । दादुर-मेढक।
व्याख्याः-वर्षा
ऋतु आने पर कौयलों ने मौन धारण कर लिया क्योंकि उस समय तो मेढक ही चारों ओर
बोलेगें । उनकी र्टर र्टर में उन्हें कौन सुनना चाहेगा।कवि का भावार्थ है कि जहाँ
गुणों के पारखी न हो और मूर्ख लोग अपनी ही हाँक रहें हो।वहाँ गुणवान का मौन रहना
ही ठीक है। क्योंकि वहाँ उनके गुणों का आदर नहीं हो सकता। यही परामर्श कवि ने दिया
है।
7.तुलसी असमय के सखा, धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत, राम भरोसो एक।।
शब्दार्थः- असमय-बुरा समय। सखा-मित्र। धीरज-धैर्य। साहित-साहित्य। सत्यब्रत-सत्य पर अडिग रहना।
व्याख्याः-
तुलसीदास कह रहें है कि धैर्य ,धर्मपालन,
विवके ,श्रेष्ठ
ग्रन्थ ,साहस ,सत्य
पर दृढ रहना और एक मात्र भगवान पर पूरा भरोसा रखना यही वे गुण जो संकट के समय
मनुष्य का साथ दिया करते है। इनके बल पर व्यक्ति बडे से बडे संकट से पार हो जाता
है। भावार्थ यह है कि सच्चा मित्र वहीं होता है जो बुरे समय में साथ देता है।
उपर्युक्त गुणों के रहते हुए संकट में मनुष्य को किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं
होती।यही मनुष्य के वास्तविक मित्र होतें है।
कृपाराम खिडिया
जन्म - सन् 1743
ई. मृत्यु
- सन्
1833 ई.
राजस्थानी
भाषा के प्रसिद्ध कवि कृपाराम खिडिया का जन्म तत्कालीन मारवाड राज्य के खराडी गाँव
में जगराम खिडिया के यहाँ हुआ था। राजस्थानी भाषा डिंगल और पिंगल के उत्तम कवि व संस्कृत-मर्मज्ञ होने के कारण उन्हें सीकर के राव
लक्ष्मण सिंह ने महाराजपुर और लछनपुरा गाँव जागीर में दिए थे। कवि कृपाराम खिडिया
सीकर के राजा देवी सिंह के दरबार में भी रहें।
राजिया
कृपाराम जी का सेवक था। एक बार कवि के बीमार पडने पर सेवक राजिया ने उनकी खूब सेवा-सुश्रूषा की,
जिससे कवि बहुत प्रसन्न हुए। कोई संतान न होने के कारण
राजिया बहुत दुःखी रहता था। राजिया के इसी दुःख को दूर कर उसे अमर करने हेतु कवि
ने उसे सम्बोधित करते हुए नीति सम्बन्धी सोरठों की रचना की जो हिन्दी व राजस्थानी
साहित्य में राजिया रा दूहा या राजिया रा सोरठा नाम से विख्यात है। इन सोरठों ने
सेवक राजिया को कवि कृपाराम से भी अधिक लोकप्रिय बना दिया।
प्रस्तुत
पाठ में नीति व आदर्श लोक-मर्यादा की सीख देने वाले सोरठों का समावेश किया गया है।
कोयल व काग की तुलना कर कवि मीठी वाणी की महत्तव बताता है। शक्कर व कस्तुरी के
माध्यम से सौन्दर्य की तुलना में गुणों को श्रेयस्कर बताता है। दूसरों के कलह व
विवाद से लोग आनन्दित होते हैं। हमारा व्यवहार मतलब पर आधारित होता है। मुख पर
मधुरता और हृदय में खोट रखने वाले लोगों से आत्मीयता सम्भव नहीं है। मैत्री-निर्वाह हेत समर्पण
व सरलता जरूरी है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिए रथ हाँकने तक का काम कर लिया। आजकल
हिम्मत की ही कीमत है, हिम्मत-रहित व्यक्ति की
कीमत रद्दी कागज-सी
हो जाती है।
1.उपजावै अनुराग, कोयल मन हरखित
करै।
कडवो लागै काग, रसना रा गुण
राजिया।।
उपजावै- उत्पन्न करती है।
अनुराग-प्रेम।
हरखित-प्रसन्न।
कडवो-कटु,अप्रिय।काग-कौआ।रसना-जीभ,वाणी।
राजिया-कवि
के सेवक का नाम।
व्याख्या-
कवि कृपाराम कहते हैं कि कोयल अपनी मधुर बोली से ह्दयों में प्रेम उत्पन्न करती
हैं और उसकी बोली सुनकर मन बडा प्रसन्न हो जाता है। इसके विपरीत कौआ अपनी कर्णकटु,
कर्कश बोली से सभी को बुरा लगता है। यह वाणी का ही प्रभाव
है।कडवा बोलने वाले से कोई प्रेम नहीं करता। अतः सदा मधुर वाणी का प्रयोग करना
चाहिए।
2.काळी घणी कुरूप, कस्तूरी कांटा
तुलै।
सक्कर बडी सरूप,रोडां तुलै
राजिया।।
घणी-बहुत। कुरूप-भद्दी। कस्तुरी-एक अति सुगंधित पदार्थ। काँटा-तराजू, जिसमें सही तोल बताने वाला काँटा लगा होता है। सरूप-सुन्दर रूप। रोडा-पत्थर के टूकडे।
व्याख्या- कवि कृपाराम कहते हैं कि कस्तुरी मृग से प्राप्त होने वाली
कस्तूरी देखने में काली और कुरूप होती है। परन्तु वह काँटे पर तौलकर बेची जाती है।
चीनी भले ही देखने में सफेद और सुन्दर होती है पर उसे पत्थर के टुकडों से तौलकर
बेचा जाता है। कारण यही है कि कस्तूरी की सुगन्ध उसे मूल्यवान बनाती है। इसीलिए
उसके रूप पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
सोरठे में सन्देश यह है कि बाहरी रूप-रंग लुभावना होने से ही कोई वस्तु मूल्यवान नहीं हो जाती
है। उसके गुण ही उसका मूल्य निश्चित किया करते हैं अतः मनुष्य को मूल्यवान,गुणवान
बनना चाहिए।
3.डूँगर जळती लाय, जोवै सारो ही
जगत।
पर जळती निज पाय,रती न सूझै
राजिया।।
डूँगर-पहाड। लाय-आग। जोवै-देखता है। पाय-पैर। रती-तनिक भी। न सूझै- दिखाई नहीं देती।
व्याख्याः- कवि अपने सेवक राजिया को सम्बोधित करते हुए कहता है कि दूर
पर्वत पर जलती आग को तो सारा संसार बडे आनन्द के साथ देखा करता है किन्तु लोगों को अपने पैरों के पास लगी आग तनिक भी
दिखाई नहीं देती। भाव यह है कि लोग दूसरों के बीच हो रही कलह ओर विवाद को देखकर मन
ही मन प्रसन्न हुआ करते हैं पर उन्हें अपने ही घर की कलह और विवाद का ध्यान नहीं
आता। कवि का आशय यह है कि दूसरों के दोषों पर दृष्टि डालने से पहले व्यक्ति को
अपने भीतर भी झांक कर देखना चाहिए की स्वयं उसके भीतर कितने दोष भरे हुए है।
4.मतलब री मनवार, चुपकै लावै
चूरमो।
बिन मतलब मनवार, राब न पावै
राजिया।।
मतलब
-स्वार्थ । री-की। मनवार-मनाना। चूरमो- चूरमा। राब- गन्ने को ओटा कर गाढा किया गया रस।
व्याख्याः- कवि कृपाराम कहते है राजिया इस संसार में सभी अपनी स्वार्थ
सिद्वी को ध्यान में रखते हुए व्यवहार किया करते हैं। जब व्यक्ति को किसी से मतलब
निकालना होता है तो वह उसे चुपचाप स्वादिष्ट चूरमा लाकर खिलाता है ,और
जब कोई स्वार्थ नहीं होता है तो उस व्यक्ति को कोई राब भी नही देता है। आशय यह है कि स्वार्थी लोगों द्वारा खुशामद किये जाने पर
सर्तक हो जाना चाहिए।और उनके उपहार को सोच समझ कर ही स्वीकार करना चाहिए।
5.मुख ऊपर मिठियास, घट माँहि खोटा घडै।
इसडां सू इखळास, राखीजै नहिं
राजिया।।
मिठीयास- मिट्ठी बातें। घट -मन, हद्य।
माँहि- में। खोटा-चालाक। घडै-बहुत। इसडां-इसें। सू-से । इखळास- मित्रता।
व्याख्याः- कवि कृपाराम कहते है राजिया जो व्यक्ति मुख से तो बडी मिठी
बाते करते हैं और मन में तुम्हारा अहित करने की भावना रखते हैं, उनसे
कभी भी मित्रता करना उचित नहीं । ऐसे लोग कभी भी अपने स्वार्थ वश धोखा दे सकते है।
कहावत भी है ‘‘मुँह मे राम,
बगल में छुरी‘‘
6.साँचो मित्र सचेत, कह्यो काम न करै
किसो।
हरि अरजण रै हेत, रथ कर हाँक्यौ
राजिया।।
साँचो- सच्चा। सचेत -तैयार। कह्यो-कहा हुआ। किसो-कैसा भी। हरि-श्रीकृष्ण। अरजण-अर्जुन। रै -के। हेत- प्रेम से। कर -हाथ। हाँक्यौ-चलाया।
व्याख्याः- कृपाराम राजिया को समझा रहे है कि जो सच्चा मित्र होता है, वह
सदा मित्र का हित करने को तैयार रहता है। वह मित्र द्वारा बताये गये हर काम को
करने को तत्पर रहा करता है, देख लो भगवान कृष्ण ने महाभारत के युद्व में अर्जुन से
सच्चे मित्रता के कारण ही अपने हाथों में उसका रथ हाँका था।
7.हिम्मत किम्मत होय, बिन हिम्मत
किम्मत नहीं।
करै न आदर कोय, रद कागद ज्यूं
राजिया।।
रद-बेकार।
व्याख्याः- कवि राजिया से कहता है कि समाज में सब साहसी व्यक्ति का ही
सम्मान किया करते हैं, साहसहीन व्यक्ति की समाज में कोई कीमत नहीं होती है। उसे
कोई महत्व और सम्मान नहीं देता । उसकी स्थिति रद्दी(बेकार कागज) जैसी हुआ करती
है।जिसे लोग उपेक्षा से फेंक दिया करते है। आशय यह है कि जीवन में जो लोग
चुनौतियों और समस्याओं का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते ,उनकी
कोई पूछ नहीं होती ।अतः व्यक्ति को साहसी बनना चाहिए।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न-
1. ‘‘आसा
साँपनी‘‘ की
औषधि है -
(अ) माया (ब) सुख
(स) संपदा (द) संतोष
2. कवि
ने ‘कस्तूरी‘
व ‘चीनी‘
के माध्यम से मनुष्य के किन गुणों की ओर संकेत किया है -
(अ) आन्तरिक (ब) बाह्य (स) आन्तरिक व बाह्य (द) इनमें से कोई नहीं
अतिलघूतरात्मक प्रश्न-
3. हंस के उदाहरण से
कवि क्या शिक्षा देना चाहता है ?
4.‘‘मोल
करो तलवार का पडा रहने दो म्यान‘‘ से
क्या तात्पर्य है ?
5. कबीरदास ने संगति
का क्या प्रभाव बताया।
6. ईश्वर प्राप्ति में
बाधक अवगुण कौन-कौन
से बताए गए हैं?
7. तुलसीदास के अनुसार
इन्द्रियों की सार्थकता किससे संभव है ?
8. कवि के अनुसार
मनुष्य के जीवन में संगति का क्या प्रभाव पडता हैं?
लघूतरात्मक प्रश्नः-
9. जगत्
को वश में करने का क्या उपाय बताया गया है ?
10 . कबीर
दास की वाणी साखी क्यों कहलाती हैं ?स्पष्ट
कीजिए।
11. ‘‘जाति
न पूछो साधु की ,पुछि लिजिए ज्ञान।
12 . मोल
करो तलवार का ,पडा रहन दो म्यान।।‘‘
पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
13 . ‘‘नदीं
नाव संयोग‘‘ -द्वारा
तुलसी ने संसार में जीने का क्या तरीका बताया ?
14. ‘‘रामकृपा
तुलसी सुलभ, गंग सुसंग समान‘‘
पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
15. ‘‘अब
तो दादुर बौलिहे, हमें पूछिहै कौन‘‘-
में तुलसी का क्या भाव है ?
16. ‘‘पर
जळती निज पाय, रती न सूझे राजिया‘‘
पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
17. ‘‘मुख
ऊपर मिठियास, घट माहि खोटा घडै‘‘-पंक्ति
का भावार्थ लिखिए।
निबंधात्मक प्रश्न-
18. ‘‘हिम्मत
किम्मत होय........................रद
कागद ज्यूं राजिया‘‘ -दोहे
का भावार्थ लिखिए।
19. छोहे
के माध्यम से मनुष्य के किस गुण की ओर संकेत किया है ?
व्याख्यात्मक प्रश्न-
20. कागा
काको धन हरै................................जग
अपनो करि लेत।
21. काम क्रोध मद .............................परे
भव कूप।
22. तुलसी
या संसार ...................................नदी
नाव संयोग।
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