निबन्ध- "महावीर प्रसाद द्विवेदी"
पाठ-सार
सितम्बर, 1914 को ‘सरस्वती’ पत्रिका में द्विवेदी जी का ‘पढ़े-लिखों का पांडित्य’ शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ था। इसी को अपने निबन्ध-संग्रह ‘महिला मोद’ में आपने ‘स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक देकर छापा था। इसमें स्त्री-शिक्षा का विरोध करने वालों के विचारों को सतर्क खंडन किया गया है।
स्त्री-शिक्षा का विरोध-कुछ लोग स्त्री शिक्षा विरोधी थे तथा उसको स्त्रियों तथा घर के सुख का विनाशक मानते थे। इन लोगों में धर्मशास्त्र तथा संस्कृत साहित्य के ज्ञाता तथा शिक्षाशास्त्री भी थे।
संस्कृत के नाटकों में संवाद-ऐसे लोगों का तर्क था कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। तभी तो संस्कृत नाटकों में स्त्रियों के संवाद संस्कृत में न होकर अपढ़ों की भाषा में होते थे। शकुंतला ने इसी भाषा में श्लोक लिखकर दुष्यन्त को कटु वाक्य कहे थे। इससे सिद्ध होता है कि अपढ़ों की भाषा का ज्ञान कराना भी स्त्रियों के लिए हितकर नहीं है।
प्राकृत अपढ़ों की भाषा नहीं-नाटकों में स्त्रियों के संवाद प्राकृत में होते थे। प्राकृते अपढ़ों की भाषा नहीं थी। वह जन भाषा थी तथा संस्कृत के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय थी। उसमें बौद्धधर्म और जैन-धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे गये थे। ‘गाथा-सप्तशती’, ‘कुमारपाल चरित’ प्राकृत में ही लिखे गये थे। प्राकृत पढ़े हुए लोग सभ्य, शिक्षित और विद्वान थे।
शंकुतला और सीता-शकुंतला ने दुष्यंत से कटुवचन कहे थे। यह उसकी पढ़ाई का दुष्परिणाम नहीं था। दुष्यंत के व्यवहार से वह आहत और अपमानित थी। उसके कटुवचन उसकी प्रतिक्रिया थे। सीता ने भी अपने परित्याग पर राम को आर्यपुत्र न कहकर राजा संबोधित कर अपनी ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी। महर्षि वाल्मीकि ने भी राम पर क्रोध व्यक्त किया है।
प्राचीन विदुषियाँ-पुराने समय में स्त्री-शिक्षा का प्रमाण न मिलने का अर्थ यह नहीं है कि उस समय स्त्रियाँ अपढ़ थीं। ‘उत्तर रामचरित’ में कवियों की पत्नियाँ संस्कृत बोलती थीं। स्त्रियों ने वेद मंत्रों की रचना की थी। ‘त्रिपिटक’ में सैकड़ों स्त्रियों की पद्य-रचनाएँ उद्धृत हैं। शीला और विज्जा की कविता के नमूने शाङ्गधर-पद्धति’ में मिलते हैं। अत्रि की पत्नी ने पत्नीधर्म पर पांडित्यपूर्ण व्याख्यान दिया था। गार्गी ने ब्रह्मवादियों को शास्त्रार्थ में हराया था। मंडन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को हराया था। इसी प्रकार अनेक विदुषी स्त्रियाँ प्राचीन भारत में हो चुकी हैं। श्रीमद्भागवत में ‘रुक्मिणी हरण’ की कथा है। रुक्मिणी ने एक पत्र संस्कृत में लिखकर ही श्रीकृष्ण को भेजा था।
पढ़ाई और दुर्व्यवहार-दुर्व्यवहार का कारण पढ़ाई नहीं है। महापुरुषों से तर्क करना अथवा पुरुषों के अनुचित व्यवहार का प्रतिरोध करना पढ़ाई का दुष्परिणाम नहीं है। पढ़ाई में कोई अनर्थ नहीं है। अनर्थ स्त्री-पुरुष दोनों से ही हो सकता है। पढ़ेलिखे और अपढ़ दोनों ही गलत व्यवहार कर सकते हैं। पढ़ाई के कारण स्त्रियाँ परिवार में अशांति पैदा नहीं करतीं।
स्त्रियों को पढ़ाने का विरोध अनुचित-शिक्षा व्यापक शब्द है। उसमें अनेक सीखने योग्य बातें हैं। पढ़ाई भी इनमें एक है। स्त्रियों की पढ़ाई का विरोध उचित नहीं है। ऐसा करने वाले समाज का अपकार करने वाले हैं। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली यदि दोषपूर्ण है तो उसका सुधार किया जाना चाहिए। किन्तु स्त्रियों को पढ़ाने का विरोध करना तथा उसको परिवार और समाज के लिए अहितकर बताना अज्ञान है। पहले स्त्रियाँ शिक्षित न भी होती हों किन्तु आज उनको पढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है।
लेखक-परिचय
जीवन-परिचय-
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के ग्राम। दौलतपुर में हुआ था। आपके पिता पं. रामसहाय दुबे थे। द्विवेदी जी ने प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा के पश्चात् स्वाध्याय द्वारा हिन्दी, संस्कृत, अँग्रेजी, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया और झाँसी में रेलवे में नौकरी कर ली। सन् 1938 में आपका देहावसान हो गया।
साहित्यिक
परिचय-
रेल विभाग से त्यागपत्र देकर द्विवेदी जी ने साहित्य क्षेत्र में पदार्पण किया। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका का सन् 1903-1920 तक कुशलतापूर्वक सम्पादन किया। हिन्दी को साहित्यिक और व्याकरण-सम्मत बनाने में द्विवेदी जी ने अथक श्रम किया। आपने कवि, समालोचक, निबन्धकार, सम्पादक, भाषा-वैज्ञानिक, इतिहासकार आदि विविध रूपों में हिन्दी-जगत को समृद्धि प्रदान की। आपने अपने समकालीन लेखकों और कवियों का मार्गदर्शन किया और उनको साहित्य-रचना के लिए प्रोत्साहित किया। इस कारण हिन्दी साहित्य के द्वितीय सुधार काल को ‘द्विवेदी युग’ कहा। जाता है।
कृतियाँ-
मौलिक रचनाएँ-
काव्य मंजूषा, सुमन, अबला विलाप, कान्यकुब्ज, कविताकलाप (काव्य) अद्भुत आलाप, सम्पत्तिशास्त्र, महिला मोद श्रम, साहित्य सीकर आदि (गद्य)।।
अनूदित रचनाएँ-विनयविनोद, स्नेहमाला, ऋतुतरंगिनी (पद्य) भामिनीविलास, रघुवंश, वेणीसंहार, बेकन-विचार रत्नावली, स्वाधीनता आदि (गद्य)।
पाठ के कठिन शब्द और उनके अर्थ
विद्यमाने = मौजूद, उपस्थित। सुशिक्षित = अच्छी शिक्षा प्राप्त। पेशा = जीविका, रोजगार। कुमार्गगामी = बुरे मार्ग पर चलने वाला। अधार्मिक = धर्महीन। धर्मतत्व = धर्म का सार। दलील = तर्क। कुलीन = ऊँचे कुल की। चाल = प्रथा, रिवाज। नियमबद्ध = नियमों से युक्त। प्रणाली = व्यवस्था, रीति। अनर्थ = हानि, दुष्परिणाम। कटु = कड़वा, तीखा। दुष्परिणाम = बुरा फल। बरबाद = नष्ट।
उपेक्षा = ध्यान या महत्त्व न देना। तथापि = फिर भी। प्राकृत = एक प्राचीन भाषा। प्रमाण = सबूत। उत्तररामचरित = भवभूति द्वारा लिखित संस्कृत नाटक। वेदांतवादिनी = वेदांत नामक दर्शन शास्त्र का ज्ञान रखने वाली। समुदाय = समूह, समाज। शाक्य मुनि = महात्मा बुद्ध। चेले = शिष्य। धर्मोपदेश = धर्म पर उपदेश। त्रिपिटक = बौद्ध धर्म का एक ग्रन्थ। सर्वसाधारण = सारी जनता, आम आदमी। चिह्न = प्रमाण। नाट्य शास्त्र = नाटक कला से सम्बन्धित विषय। दर्शक ग्रन्थ = दिखाने वाले ग्रन्थ। हवाला = वर्णन, संदर्भ। अस्तित्व = होना। प्रगल्भ = प्रतिभाशालिनी, गंभीर ज्ञान रखने वाली। पंडिता = विदुषी, ज्ञानवती। नामोल्लेख = नाम बताना। तत्कालीन = उस समय की। तर्कशास्त्रज्ञता = तर्कशास्त्र का ज्ञान।
न्यायशीलता = न्यायपूर्ण आचरण। बलिहारी = न्योछावर, धन्यता। प्रायः = अधिकंतर। ईश्वरकृत = ईश्वर द्वारा रचित। ककहरा = वर्णमाला, क, ख, ग। आदृत = सम्मानित। शार्ङ्गधर पद्धति = एक ग्रन्थ। नमूने = उदाहरण। उधृत = उदाहरणस्वरूप, प्रस्तुत। कुमारिकाओं = कन्याओं। विज्ञ = ज्ञानी, बुद्धिमान। पत्नी धर्म = पत्नी के कर्तव्य। व्याख्यान = भाषण। पांडित्य = विद्वत्ता, ज्ञान। गार्गी = वैदिक कालीन एक विदुषी नारी। ब्रह्मवादियों = ब्रह्मज्ञान पर शास्त्रार्थ करने वाले। सहधर्मचारिणी = पत्नी। छक्के छुड़ाना (मुहा) = निरुत्तर कर देना, पराजित करना। गज़ब = महान आश्चर्य, पराकाष्ठा। दुराचार = बुरा काम। कुफल = बुरा परिणाम। कालकूट = विष, हानिकारक। पीयूष = अमृत, लाभदायक। दृष्टांत = उदाहरण। विपक्षियों = विरोधियों। हवाले = प्रमाण। श्रीमद्भागवत = प्रसिद्ध पुराण जिसकी कथाएँ प्रायः सुनाई जाती हैं। दशम स्कन्ध = दसवाँ भाग। उत्तरार्द्ध = बाद का आधा भाग। हरण = ले जाना। एकांत = अकेले। अल्पज्ञ = थोड़ा जानने वाला, अनपढ़। सनातन धर्मावलम्बी = सनातन धर्म को मानने वाला। प्राक्कालीन = प्राचीनकाल से सम्बन्धित। गई बीती = महत्त्वहीन, बेकार।
नरहत्या =
मनुष्यों की हत्या। विक्षिप्त = पागल। वातव्यथित = वात रोग से ग्रस्त, कुतर्की।
ग्रहग्रस्त = कुग्रहों से पीड़िते। कटुवाक्य = कठोर, कड़वी बात। अस्वाभाविकता
= स्वभाव के विरुद्ध होना। आर्य पुत्र = पति के लिए प्राचीन सम्मानपूर्ण सम्बोधन।
गांधर्व विवाह = प्रेम विवाह। मुकर जाना (मुहा.) = अस्वीकार करना, पलट
जाना। प्रत्यक्ष मूर्ति = साक्षात् स्वरूप। किंचित भी = थोड़ा-सा भी। साध्वी =
पवित्र आचरण वाली। दुर्वाक्य = कठोर बात। परित्यक्त = छोड़ गई, त्याग
दी गई। विशुद्धता = चरित्र की पवित्रता। मिथ्यावाद = झूठी बदनामी।
अनुरूप = समान, उचित। महत्ती = महानता। अस्ति = कथन। महाब्रह्मज्ञानी = ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ। मन्वादि = मनु आदि। धर्मशास्त्रज्ञता = धर्मशास्त्रों का ज्ञान। परित्याग = छोड़ देना, त्याग कर देना। नीतिज्ञ = नीत को जानने वाला। अकुलीनता = अच्छे कुल का न होना। बीज = मूल कारण। हर्गिज नहीं = कदापि नहीं। पापाचार = पापपूर्ण आचरण।
मुमानियत = मनाही, निषेध। अभिज्ञता = परिचय, ज्ञान, जानकारी। दण्डनीय = दण्ड दिए जाने योग्य। निरक्षर = अपढ़। अपकार = हानि पहुँचाना। व्यापक = विस्तृत। समावेश = सम्मिलित किया जाना, शामिल करना। अनर्थकारी = हानि पहुँचाने वाला। संशोधन = सुधार। उत्पादक = उत्पन्न करने वाला। गृह सुख = पारिवारिक सुख। सोलहों आने मिथ्या = पूरी तरह झूठ।
महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
गद्यांश (1)
नाटकों में स्त्रियों को प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने
का प्रमाण नहीं। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत न बोल सकती
थीं। संस्कृत न बोल सकना न अपढ़ होने का सबूत है और न गॅवार होने का। अच्छा तो
उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ कौन-सी भाषा बोलती थीं? उनकी संस्कृत क्या कोई गैवारी संस्कृत थी? भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस जमाने के हैं उस
जमाने में शिक्षितों का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था, इसका प्रमाण पहले कोई दे ले तब प्राकृत बोलने वाली
स्त्रियों को अपढ़ बताने का साहस करे।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। द्विवेदी जी के समय अनेक पुरातन विचारों वाले लोग स्त्रियों को पढ़ाने-लिखाने का विरोध करते थे। उनके तर्क निराधार होते थे परन्तु वे अपनी बातों के पक्ष में कुछ बातें कहते थे। उनका कहना था कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी नहीं होती थीं। संस्कृत नाटकों के स्त्री पात्र प्राकृत में बोलते थे। प्राकृत अपढ़ों की भाषा थी।
व्याख्या-प्राकृत को अपढ़ों की भाषा बताना अज्ञान है। नाटकों में स्त्री पात्र प्राकृत बोलते थे क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं थे। द्विवेदी जी ने इसको कुतर्क माना है और कहा है कि नाटकों में स्त्रियों के प्राकृत बोलने से यह प्रमाणित नहीं होता कि उस समय स्त्रियाँ अपढ़ होती थीं। प्राकृत बोलने वाले अशिक्षित नहीं थे। इससे इतना ही पता चलता है कि प्राचीनकाल में जो संस्कृत नहीं बोल पाते थे, वे प्राकृत बोलते थे। प्राकृत जनता में सबसे अधिक प्रचलित थी। अतः स्त्रियाँ संस्कृत न बोल पाने की स्थिति में प्राकृत बोलती थीं। संस्कृत न बोल पाने से यह सिद्ध नहीं होता कि वे गॅवार थीं। लेखक पूछते हैं कि ‘उत्तररामचरित’ में ऋषियों की पत्नियाँ, जो वेदान्त का ज्ञान रखती थीं, वे कौन-सी भाषा बोलती थीं। निःसन्देह वे संस्कृत बोलती थीं और उनकी संस्कृत गॅवारों की भाषा नहीं थी। इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि कालिदास और भवभूति आदि के नाक्रों के समय में सभी पढ़े-लिखे लोग संस्कृत ही बोलते थे। कुछ लोग संस्कृत तो ज्यादातर लोग प्राकृत बोलते थे। लेखक चुनौती देते हैं कि पहले यह बात प्रमाणित हो जाय तभी प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़ माना जा सकता है।
विशेष-
(i) लेखक की भाषा तत्सम शब्दावली वाली, विषयानुरूप तथा सुबोध है।
(ii) शैली विवेचनात्मक है। वार्तालाप शैली का भी प्रयोग है।
(iii) लेखक का कहना है कि प्राकृत बोलना अपढ़ होने का प्रमाण नहीं है।
(iv) प्राकृत जनता की भाषा थी। कुछ लोग ही संस्कृत बोलते थे। अधिकांश लोग प्राकृत बोलते थे। प्राकृत बोलने वाले अशिक्षित नहीं थे।
गद्यांश (2)
इसका क्या सबूत कि उस जमाने में बोलचाल की भाषा
प्राकृत न थी? सबूत तो प्राकृत के चलन के ही मिलते हैं।
प्राकृत यदि उसे समय की प्रचलित भाषा न होती तो बौद्धों तथा जैनों के हजारों ग्रंथ
उसमें क्यों लिखे जाते,
और भगवान शाक्य मुनि तथा
उनके चेले प्राकृत ही में क्यों उपदेश देते? बौद्धों के
त्रिपिटक ग्रंथ की रचना प्राकृत में किए जाने का एकमात्र कारण यही है कि उस जमाने
में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी। अतएव प्राकृत बोलना और लिखना अपढ़ और
अशिक्षित होने का चिह्न नहीं। जिन पंडितों ने गाथा-सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रंथ प्राकृत
में बनाए हैं, वे यदि अपढ़ और गॅवार थे तो हिन्दी के
प्रसिद्ध से भी प्रसिद्ध अखबार का सम्पादक इस जमाने में अपढ़ और गॅवार कहा जा सकता
है; क्योंकि वह अपने जमाने की प्रचलित भाषा
में अखबारे लिखता है।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित “स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन” पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। प्राचीन काल में संस्कृतं कुछ लोग ही बोलते थे। अधिकांश लोग प्राकृत भाषा का ही प्रयोग करते थे। प्राकृत लोकप्रिय जनभाषा थी। वह मुँवार भाषा न थी और न प्राकृत बोलने वाले अशिक्षित थे।
व्याख्या-लेखक द्विवेदी जी कहते हैं कि इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि उस समय प्राकृत जनता की बोलचाल की भाषा नहीं थी। उस समय प्राकृत ही प्रचलित थी। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। यदि प्राकृत का प्रचलन जन सामान्य में न होता तो प्राकृत में अनेक ग्रंथ नहीं लिखे जाते। गौतम बुद्ध भी बौद्ध धर्म के उपदेश प्राकृत में नहीं देते। बौद्धों और जैनों के हजारों ग्रंथ प्राकृत में इसी कारण लिखे गये क्योंकि प्राकृत लोक प्रचलित भाषा थी। बौद्धों के ‘त्रिपिटक’ नामक ग्रंथ की रचना प्राकृत में इसी कारण हुई थी कि सभी लोग प्राकृत बोलते थे। अतः प्राकृत बोलने और पढ़ने को आशिक्षित होने की पहचान नहीं माना जा सकती। यदि यह माना जाय कि ‘गाथा सप्तशती’, ‘सेतुबंध महाकाव्य’ तथा ‘कुमारपाल चरित’ आदि पुस्तकों के रचयिता अपढ़ थे तो हिन्दी के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध अखबार के सम्पादक को भी अपढ़ ही मानना पड़ेगा क्योंकि वह भी अपने समय की प्रचलित भाषाओं में ही समाचार लिखता है।
विशेष-
(i) भाषा सरल, सुबोध तथा प्रवाहपूर्ण है।
(ii) शैली विचारात्मक है।
(iii) द्विवेदी जी ने प्राकृत के जनता में प्रचलित होने का उल्लेख किया है।
(iv) प्राकृत को जनभाषा माना गया है तथा उसको अशिक्षितों और गॅवारों की भाषा बताने का खंडन किया गया है।
गद्यांश (3)
पुराने जमाने में स्त्रियों के लिए कोई
विश्वविद्यालय न था। फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में न मिले तो
क्या आश्चर्य। और, उल्लेख उसका कहीं रहा हो, पर नष्ट हो गया हो तो? पुराने
जमाने में विमान उड़ते थे। बताइए उनको बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र! बड़े-बड़े
जहाजों पर सवार होकर लोग द्वीपांतरों को जाते थे। दिखाइए, जहाज बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शक ग्रंथ।
पुराणादि में विमानों और जहाजों द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका
अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं, परन्तु
पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की
तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख, अपढ़ और गॅवार
बताते हैं।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। द्विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा के विरोधियों का यह कुतर्क स्वीकार नहीं किया कि पहले यदि भारत की स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी होतीं तो किसी विश्वविद्यालय के नाम का उल्लेख मिलता, पुराणों में इस तथ्य का वर्णन अवश्य मिलता। ऐसा न होना ही इस बात का प्रमाण है कि स्त्रियों को पढ़ाने का रिवाज पहले नहीं था।
व्याख्या-द्विवेदी जी कहते हैं कि प्राचीन समय में स्त्रियों की पढ़ाई के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं बना था। स्त्री-शिक्षा का उल्लेख पुराणों में न मिलना आश्चर्य की बात नहीं है। यह भी सम्भव है कि इसका उल्लेख तो किया गया हो परन्तु वह नष्ट हो गया हो। इन बातों के अभाव में स्त्री-शिक्षा का होना ही अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्राचीन काल में वायुयान उड़ते थे।
विमान बनाने की कला सिखाने वाला कोई शास्त्र तो उपलब्ध नहीं है। लोग जहाजों में बैठकर देश-विदेश की यात्रा करते थे। ऐसा कोई ग्रंथ नहीं मिलता जिसमें जहाज बनाने का तरीका बताया गया हो। पुराणों इत्यादि धार्मिक पुस्तकों में हम पढ़ते हैं कि उस समय लोग विमानों और जहाजों में यात्रा करते थे। यह पढ़कर हम विमानों और जहाजों का होना तथा उनमें यात्रायें करना गर्वपूर्वक स्वीकार कर लेते हैं परन्तु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रतिभाशालिनी विदुषी महिलाओं के नामों का उल्लेख होने पर भी कुछ लोग भारत की उस समय की स्त्रियों को बिना पढ़ी-लिखी, असभ्य और मूर्ख मानते हैं।
विशेष-
(i) लेखक ने तर्कपूर्वक सिद्ध किया है कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ शिक्षित हुआ करती थीं।
(ii) यह बात दु:खद है कि पुराण इत्यादि ग्रंथों में विदुषी महिलाओं के बारे में लिखा होने पर भी कुछ लोग दुराग्रहवश प्राचीन स्त्रियों को अपढ़ मानते हैं।
(iii) भाषा संस्कृतनिष्ठ है, प्रवाहयुक्त है।
(iv) शैली विचारात्मक है।
गद्यांश (4)
अत्रि की पत्नी पत्नी-धर्म पर व्याख्यान देते समय
घंटों पांडित्य प्रकट करे,
गार्गी बड़े-बड़े
ब्रह्मवादियों को हरा दे,
मंडन मिश्र की
सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दे। गजब! इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो
सकेगी! यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न
वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। यह सारा। दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही कां
कुफल है। समझे। स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का पूँट!
ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष
का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित पाठ ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ से लिया गया है। इसके लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। द्विवेदी जी कहते हैं कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ सुशिक्षित होती थीं। उनकी बुद्धिमत्ता तथा तर्कशीलता के समक्ष अनेक बुद्धिमान पुरुष नतमस्तक होते थे। परन्तु दुराग्रही लोग प्राचीन भारत की स्त्रियों को अशिक्षित ही मानते हैं। ऊपर से वे शिक्षा के कारण स्त्रियों पर दुर्विनीत होने का आरोप भी लगाते हैं।
व्याख्या-स्त्री शिक्षा के विरोधियों पर कठोर व्यंग्य प्रहार करते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि ऐसी सोच देश को पतन की ओर ले जाने वाली है। प्राचीन काल में ऋषि अत्रि की पत्नी अनसूया ने पत्नी-धर्म पर घंटों व्याख्यान देकर अपना पांडित्य प्रमाणित किया था। गार्गी अनेक कुशल ब्रह्मवादी पुरुषों को शास्त्रार्थ में हरा देती थी। मंडन मिश्र की पत्नी ने शास्त्रार्थ में आदि शंकराचार्य को भी पराजित कर दिया था। विदुषी महिलाओं के ऐसे प्रशंसनीय कार्य भी दुराग्रही स्त्री-शिक्षा विरोधियों को प्रशंसनीय नहीं लगते।
उनको उनके कार्य भयानक लगते हैं। उनके मत में स्त्रियों का पुरुषों से मुकाबला करना उचित नहीं है। यह दुराचार है तथा इसका कारण स्त्री-शिक्षा ही है। यदि स्त्रियाँ पढ़ाई न करतीं तो पूज्यनीय पुरुषों को मुकाबला नहीं। यह अनुचित कार्य स्त्रियों को पढ़ाने का ही दुष्परिणाम है। द्विवेदी जी आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जो शिक्षा पुरुषों के लिए अमृत का पैंट है वही स्त्रियों के लिए भयानक विष है। ऐसी विचारधारा, ऐसे तर्क, ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करके लोग स्त्रियों को अनपढ़ बनाये रखना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि इससे भारतवर्ष के गौरव में वृद्धि होगी।
विशेष-
(i) द्विवेदी जी ने प्राचीन भारत की विदुषी नारियों का नामोल्लेख करके बताया है कि पहले स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था थी।
(ii) स्त्री-शिक्षा को स्त्रियों को दुर्विनीत बनाने वाली बताना उचित चिन्तन नहीं है।
(iii) भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली व्यंग्यात्मक है। स्त्री-शिक्षा विरोधियों की मनोवृत्ति पर कठोर प्रहारं किया गया है।
गद्यांश (5)
मान लीजिए कि पुराने जमाने में भारत की एक भी स्त्री
पढ़ी-लिखी न थी। न सही। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की जरूरत न समझी गई होगी। पर
अब तो है। अतएव पढ़ाना चाहिए। हमने सैकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं? तो, चलिए, स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़
दें। हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री-शिक्षा के विपक्षियों को क्षणभर के लिए
भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने जमाने में यहाँ की सारी
स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। द्विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा को समाजोपयोगी तथा देश के लिए हितकारी माना है। उनका कहना है कि पुराने समय में स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी होती थीं अथवा नहीं किन्तु आज स्त्री-शिक्षा अत्यन्त आवश्यक हो गई है। स्त्रियों को शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए।
व्याख्या-द्विवेदी जी कहते हैं कि स्त्री-शिक्षा के विरोधियों का यह कुतर्क कि पुराने समय में स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी नहीं होती थीं। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं। नहीं होती होंगी शिक्षित! हो सकता है कि उस समय उनको पढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं रही होगी। परन्तु आज के समय में स्त्रियों को शिक्षा देना आवश्यक हो गया है। अतः अब उनको अवश्य पढ़ाना चाहिए। भारतीयों ने सैकड़ों पुराने नियमों, नीतियों, आदेशों और प्रथाओं को तोड़ दिया है। अब वे मान्य नहीं रही हैं। तो अब स्त्रियों को अनपढ़ रखने की पुरानी रीति को भी तोड़ देने में कोई हर्ज नहीं है। लेखक निवेदन करता है कि स्त्री-शिक्षा के विरोधी थोड़ी देर के लिए भी इस बात को अपने मन में स्थान न दें कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ अनपढ़ होती थीं अथवा उनको पढ़ने की आज्ञा समाज से प्राप्त नहीं थी। इस बात को भुलाकर अब स्त्रियों को पढ़ने देना चाहिए।
विशेष-
(i) भाषा संस्कृतनिष्ठ, सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(ii) शैली विचारात्मक तथा उपदेशात्मक है।
(iii) स्त्री-शिक्षा पर बल दिया गया है।
(iv) पुरानी बातों को भुलाने का आग्रह भी किया गया है।
गद्यांश (6)
शकुंतला
ने दुष्यंत को कटु वाक्य कहकर कौन-सी अस्वाभाविकता दिखाई? क्या वह यह कहती कि-“आर्य
पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ
गांधर्व-विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं।” पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा
रखते हैं वे मनुष्य-स्वभाव का किंचित भी ज्ञान नहीं रखते।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। स्त्री-शिक्षा के विरोधियों का यह कहना है कि शिक्षा पाकर स्त्रियाँ अविनीत हो जाती हैं। शकुंतला को मुँवार भाषा (प्राकृत) का ही ज्ञान था। किन्तु उसने दुष्यंत से कटु वचन कहने में गुरेज नहीं किया था। इस कथन का खंडन करते हुए द्विवेदी जी ने इसको अपमानित शकुंतला की स्वाभाविक प्रतिक्रिया माना। है।
व्याख्या-द्विवेदी जी पूछते हैं कि दुष्यंत के प्रति शकुंतला के कथन में कटुता है तो इसमें अस्वाभाविक बात क्या है। दुष्यंत ने उससे गांधर्व-विवाह किया था और सामने आने पर पहचानने से मना कर दिया था। इससे अपमानित शकुंतला के मुख से स्वभावतः ही कटु वचन निकल पड़े थे। इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। क्या शकुंतला को दुष्यंत से विनम्रतापूर्वक कहना चाहिए था-हे आर्य पुत्र! आपने मेरे साथ गांधर्व-विवाह किया। फिर आप मुझको भूल गये हैं और मुझे पहचान भी नहीं रहे हैं। आपके इस श्रेष्ठ कार्य की मैं प्रशंसा करती हूँ। आपके इस आचरण को देखकर लगता है कि आप। नीति, न्याय, धर्म और सदाचार के साकार स्वरूप हैं। जो पुरुष पत्नी के साथ बुरे से बुरा और अत्याचारपूर्ण आचरण करते हैं, फिर भी उससे सद्व्यवहार और विनम्रता की आशा रखते हैं, उनको मनुष्य के स्वभाव के बारे में कोई ज्ञान नहीं होता। अपमानित पत्नी की ऐसी प्रतिक्रिया होना अत्यन्त स्वाभाविक बात है।
विशेष-
(i) भाषा संस्कृतनिष्ठ, प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है।
(ii) शैली, व्यंग्यात्मक है।
(iii) स्त्री-शिक्षा के विरोधियों के स्त्री-स्वभाव के अज्ञान पर प्रहार किया गया है।
(iv) दुष्यंत के प्रति शकुंतला के दुर्वचन को लेखक ने उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया माना है।
गद्यांश (7)
सीता का यह संदेश कट नहीं तो क्या मीठा है?’राजा’ मात्र कहकर उनके
पास अपना संदेसा भेजा। यह उक्ति न किसी नॅवार स्त्री की; किन्तु महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि
महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी को नृपस्य वर्णाश्रमपालनं
यत्।
स एव धर्मो मनुना प्रणीतः सीता की धर्मशास्त्रज्ञता का
यह प्रमाण, वहीं, आगे
चलकर, कुछ ही दूर पर, कवि ने दिया है सीता-परित्याग के कारण वाल्मीकि के
समान शांत, नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी तक ने-‘अस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे’ कहकर रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है। अतएव, शकुंतला की तरह, अपने परित्याग को
अन्याय समझने वाली सीता का रामचंद्र के विषय में, कटुवाक्य
कहना सर्वथा स्वाभाविक है। न यह पढ़ने-लिखने का परिणाम है न गॅवारपन का, न अकुलीनता का।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यखण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ से लिया गया है। कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ नाटक में राजा दुष्यन्त के दुर्व्यवहार से आहत शकुंतला ने उनसे कटु वचन कहे थे। द्विवेदी जी के अनुसार यह अपमानित शकुंतला की स्वभाव सिद्ध प्रतिक्रिया थी। राम के द्वारा छलपूर्वक सीता का परित्याग करने पर कालिदास ने सीता द्वारा कुछ इसी प्रकार का कथन राम से कहलवाया है कि क्या उसको लक्ष्मण द्वारा चुपचाप वन में छुड़वा देना उनकी महत्ता और विद्वत्ता को शोभा देता है।
व्याख्या-लक्ष्मण सीता को वन में छोड़कर जा रहे थे। सीता ने उनके द्वारा राम को संदेश भेजा और पूछा था कि क्या राम का यह कार्य न्यायसंगत था और उनकी कुलीनता के अनुरूप था? सीता के इस संदेश को भी मधुर शब्दों से युक्त तथा विनम्रतापूर्ण नहीं माना जा सकता। सीता ने राम को केवल राजा शब्द से संबोधित किया है। उनको प्रियतम अथवा आर्यपुत्र नहीं कहा। इससे राम के आचरण के प्रति सीता की कटुता स्पष्ट होती है। सीता कोई गॅवार और अपढ़ स्त्री नहीं थीं। वह महा ब्रह्मज्ञानी राजा जनक की पुत्री थीं।
उनको मनु इत्यादि महर्षियों द्वारा रचित धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इसका प्रमाण कवि ने आगे दिया है। सीता ने मनु द्वारा राजा के लिए प्रणीत वर्ण और आश्रम के नियम को पालन करने की बाध्यता उल्लेख किया है। सीता का परित्याग राम का अच्छा काम नहीं था। शांत रहने वाले, क्षमाशील और नीति के ज्ञाता तपस्वी वाल्मीकि ने भी राम के प्रति क्रोध व्यक्त किया है। अतः शकुंतला के समान ही अपने परित्याग पर सीता ने राम को जो कटुतापूर्ण संदेश भेजा उसमें कुछ भी अस्वाभाविक और अनुचित नहीं था। इसको शिक्षा का दुष्परिणाम नहीं कहा जा सकता। इसमें कुछ भी असभ्यतापूर्ण नहीं है। इसके कारण संदेश-प्रेषिका सीता को नीच कुल में पैदा होने वाली नहीं माना जा सकता।
विशेष-
(i) लेखक ने सीता द्वारा राम को प्रेषित कटु संदेश को स्वाभाविक कथन माना है।
(ii) उनके इस कथन का कारण अकुलीनता, असभ्यता और उनका पढ़-लिखकर अविनीत होना नहीं है।
(iii) भाषा प्रवाहपूर्ण तथा विषयानुकूल है।
(iv) शैली विचारात्मक है।
गद्यांश (8)
पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं
जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज नहीं। अनर्थ पुरुषों से भी होते
हैं। अपढ़ों और पढ़े-लिखों, दोनों से। अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे
व्यक्ति विशेष का चाल-चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य
पढ़ाना चाहिए।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत
गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का
खंडन’ पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं।
स्त्री-शिक्षा को कुछ लोग अनर्थ का कारण मानते हैं। वे स्त्रियों के पढ़ने-लिखने
का विरोध करते हैं। द्विवेदी जी इससे सहमत नहीं हैं। उनके मत में अनर्थ का कारण
शिक्षा नहीं होती।
व्याख्या-लेखक का मानना है कि पढ़ने-लिखने से अनर्थ नहीं होता। शिक्षा में अनर्थकारक कोई बात नहीं होती। अनर्थ अर्थात् अनुचित आचरण-व्यवहार का कारण शिक्षा में निहित नहीं है। अनुचित आचरण स्त्री-पुरुष दोनों ही करते हैं। पढ़े तथा अपढ़ दोनों का व्यवहार अनुचित हो सकता है। अनर्थ का कारण शिक्षा न होकर किसी मनुष्य का खराब आचरण और पापपूर्ण व्यवहार होता है। किसी मनुष्य का आचरण देखकर अनर्थ के कारण का पता चल जाता है। इसके लिए शिक्षा को दोष देना ठीक नहीं है। स्त्रियों को शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए।
विशेष-
(i) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। शब्द-चयन विषयानुरूप है।
(ii) शैली विचारात्मक है।
(iii) अनर्थ का कारण स्त्री शिक्षा को नहीं माना जा सकता।
(iv) स्त्रियों को पढ़ाने पर बल दिया गया है।
गद्यांश (9)
‘शिक्षा’ बहुत
व्यापक शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना-लिखना
भी उसी के अन्तर्गत है। इस देश की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं। इस कारण यदि
कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे उस प्रणाली का संशोधन करना या
कराना चाहिए, खुद पढ़ने-लिखने को दोष न देना चाहिए।
लड़कों ही की शिक्षा-प्रणाली कौन-सी बड़ी अच्छी है। प्रणाली बुरी होने के कारण
क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलिज बंद कर दिए जाएँ? आप खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की
प्रणाली का संशोधन कीजिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए, कितना
पढ़ाना चाहिए, किस तरह की शिक्षा देनी चाहिए और कहाँ पर
देनी चाहिए-घर में या स्कूल में-इन सब बातों पर बहस कीजिए, विचार कीजिए, जी में आवे सो
कीजिए; पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए कि स्वयं
पढ़ने-लिखने में कोई दोष है-वह अनर्थकर है, वह अभिमान का
उत्पादक है, वह गृह-सुख का नाश करने वाला है। ऐसा कहना
सोलहों आने मिथ्या है।
संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ पाठ से लिया गया है। द्विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा के विरोध को समाज विरोधी कार्य माना है। शिक्षा में अनेक बातें सम्मिलित हैं, पढ़ना-लिखना भी उनमें से एक है। पढ़ने से स्त्रियों के चरित्र में कोई दोष उत्पन्न नहीं होता है। यह कहकर लेखक ने स्त्रियों को पढ़ाने पर जोर दिया है।
व्याख्या-द्विवेदी जी बता रहे हैं कि शिक्षा में अनेक बातें सम्मिलित हैं। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। शिक्षा में सीखने के लायक अनेक विषय सम्मिलित होते हैं। पढ़ना-लिखना सीखना भी उनमें से एक है। यह भी शिक्षा का एक अंग है। लेखक स्वीकार करते हैं कि भारत की शिक्षा-प्रणाली पूर्णतः दोषमुक्त नहीं है। उसमें अनेक बुराइयाँ हैं। इसके कारण स्त्री-शिक्षा को बुरा बताना ठीक नहीं है। आवश्यकता शिक्षा पद्धति के दोषों को दूर करने की है न कि शिक्षा से स्त्रियों को वंचित करने की। स्त्रियों को पढ़ाना ठीक न मानने वालों को शिक्षा-पद्धति के दोषों को दूर करना या कराना चाहिए। पढ़ने-लिखने को बुरा नहीं बताना चाहिए।
लड़कों के लिए भी शिक्षा की अच्छी व्यवस्था नहीं है। यदि व्यवस्था दोषपूर्ण है तो इस कारण क्या सभी स्कूल और कॉलेजों को बंद कर देना उचित होगा ? स्त्रियों की शिक्षा-प्रणाली में सुधार करने पर लेखक को प्रसन्नता होगी। लड़कियों की पढ़ाई के बारे में इन बातों पर विचार करना अनुचित नहीं है कि उनको क्या और कितना पढ़ाना है तथा कैसी शिक्षा देनी है। उनको घर पर पढ़ाना है या स्कूल में? इन बातों पर विचार करना, तर्क-वितर्क करना तो ठीक है परन्तु स्त्रियों की पढ़ाई रोकना उचित नहीं है। पढ़ने-लिखने को दोषपूर्ण बताना अनर्थकारी है। पढ़ाई से न स्त्री अभिमानिनी होती है, न इससे घर की सुख-शान्ति भंग होती है। इस तरह की बातें कहना पूरी तरह असत्य और अनुचित है।
विशेष-
(i) लेखक शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण स्वीकार करते हुए उसमें संशोधन के लिए सहमत है।
(ii) प्रणाली के दोषपूर्ण होने के कारण स्त्री-शिक्षा का ही विरोध करना पूर्णतः अनुचित कार्य है।
(iii) भाषा सरल, विषयानुकूल तथा प्रवाहपूर्ण है। तत्सम शब्दों के साथ अन्य (यथा अँग्रेजी, उर्दू) भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।
(iv) शैली
विचार-विवेचनात्मक है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
1. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन् 1903 से 1920 तक किस पत्रिका का सम्पादन किया था
(क) सरस्वती (ख) इन्दु
(ग) चाँद (घ) जागरण
2. ‘रसज्ञ रंजन’ के रचयिता का नाम है
(क) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (ख) प्रताप नारायण मिश्र
(ग) महावीर प्रसाद द्विवेदी (घ) बद्रीनारायण प्रेमचन्द।
3. ‘स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध द्विवेदी जी के किस निबन्ध-संग्रह से लिया गया है
(क) रसज्ञरंजन (ख) महिला मोद
(ग) अद्भुत आलाप (घ) साहित्यसीकर
4. ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध ‘सरस्वती’ में सन् 1914 में किस नाम से प्रकाशित हुआ था?
(क) स्त्री-शिक्षा के दोष (ख) स्त्री-शिक्षा का अनुचित विरोध
(ग) पढ़े-लिखों का पांडित्य (घ) स्त्री-शिक्षा का विरोध और सामाजिक अहित
5. ‘गॅवारों की भाषा’ कहा गया है
(क) संस्कृत को (ख) प्राकृत को
(ग) अपभ्रंश को . (घ) शौरसेनी को
6. शकुंतला ने दुर्वाक्य कहे थे
(क) दुष्यन्त से ` (ख) कण्व से
(ग) अनुसूया से (घ) प्रियंवदा से
7. सीता को वन में छोड़ने गये थे
(क) राम (ख) लक्ष्मण
(ग) हनुमान (घ) भरत
8. सीता ने अपने संदेश में राम को कही थी
(क) प्रियतम (ख) आर्यपुत्र
(ग) अनार्य (घ) राजा
9. शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में निरुत्तर करने वाली विदुषी थी
(क) गार्गी (ख) अनुसूया
(ग) मंडन मिश्र की पत्नी (घ) विज्जा
10. रुक्मिणी ने संदेश भेजा था
(क) श्रीकृष्ण को (ख) बलभद्र को
(ग) यशोदा को (घ) देवता को
प्रश्न 11.महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किस पत्रिका का सम्पादन किया
(क) माधुरी (ख) जागरण
(ग) कविवचन सुधा (घ) सरस्वती
प्रश्न 12. शकुन्तला ने किस भाषा में श्लोक कहा
(क) अपभ्रंश (ख) प्राकृत
(ग) शौरसेनी (घ) पाली
उत्तर:(क)(ग)(ख)(ग)(ख)(क)(ख)(घ)(ग)(क) (घ) (ख)
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न
1. ‘स्त्री-शिक्षा
के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध पहले किस नाम से प्रकाशित हुआ था?
उत्तर: ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध सर्वप्रथम सितम्बर, 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘पढ़े-लिखों का पांडित्य’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
प्रश्न
2. स्त्री-शिक्षा
के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध में लेखक ने किस विषय में विचार प्रकट किए हैं?
उत्तर: ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध में स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया गया है तथा विरोध को अनुचित बनाया गया है।
प्रश्न
3. स्त्री-शिक्षा
के विरोधियों के दो कुर्तकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:(1) पढ़ना-लिखना सीखकर स्त्रियाँ दूसरों का सम्मान नहीं करेंगी। (2) प्राचीनकाल में स्त्रियों को पढ़ाया नहीं जाता था।
प्रश्न
4. प्राकृत
कैसी भाषा थी? क्या
वह आँवारों की भाषा थी?
उत्तर: प्राकृत संस्कृत के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली जनभाषा थी। वह गॅवारों की भाषा नहीं थी।
प्रश्न
5. प्राकृत
में लिखे दो ग्रंथों के नाम लिखिए।
उत्तर: प्राकृत में लिखे हुए ग्रंथ हैं-
1. ‘गाथा सप्तशती’ तथा
2. ‘कुमारपाल चरित’
प्रश्न
6. शकुंतला
द्वारा दुष्यंत से कटु वाक्य कहना क्या पढ़ाई का दुष्परिणाम था?
उत्तर: शकुंतला द्वारा दुष्यंत से कटु वाक्य कहना पढ़ाई का दुष्परिणाम नहीं था बल्कि उसको जवाब दुष्यंत की करनी का परिणाम था।
प्रश्न
7. शकुंतला
ने दुष्यंत से कटु वचन क्यों कहे थे?
उत्तर: दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्व विवाह किया था। बाद में उसे पहचानने से मना कर दिया था इसलिए शकुंतला ने दुष्यंत से कटु वचन कहे।
प्रश्न
8. गौतम
बुद्ध ने अपने उपदेश प्राकृत में क्यों दिये थे?
उत्तर: गौतम बुद्ध ने अधिकांश लोगों में प्रचलित भाषा जानकर प्राकृत में उपदेश दिये थे।
प्रश्न
9. संस्कृत
नाटकों में स्त्रियाँ प्राकृत क्यों बोलती थीं?
उत्तर: आचार्यों ने यह नियम बनाया था क्योंकि संस्कृत कुछ चुने हुए लोग ही बोलते थे।
प्रश्न
10. ‘यह
सब पापी पढ़ने का अपराध है’ वाक्य का आशय क्या है?
उत्तर: यह व्यंग्यपूर्ण वाक्य है। इसका आशय यह है कि स्त्रियों की शिक्षा में कोई दोष नहीं है।
प्रश्न
11. वाल्मीकि
कौन थे?
उत्तर: वाल्मीकि शांत, नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी ऋषि थे।
प्रश्न
12. सीता
ने राम को राजा मात्र कहकर संदेश क्यों भेजा?
उत्तर: राम ने सीता को अन्यायपूर्वक लक्ष्मण द्वारा वन में छुड़वा दिया था।
प्रश्न
13. सीता
किसकी पुत्री थी?
उत्तर: सीता महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की पुत्री थी।
प्रश्न
14. स्त्रियों
को शिक्षा न देने की बात करना अनुचित क्यों है?
उत्तर: ऐसा करना समाज की उन्नति में बाधक है तथा उसका अपकार करने वाला कार्य है।
प्रश्न
15. शिक्षा
कैसा शब्द है?
उत्तर: शिक्षा व्यापक शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक बातों का समावेश हो सकता है।
प्रश्न
16. बौद्ध
धर्म के त्रिपिटक ग्रंथ की भाषा क्या है?
उत्तर; बौद्ध धर्म के त्रिपिटक ग्रंथ की भाषा प्राकृत है
प्रश्न
17. रुक्मिणी
हरण की कथा कहाँ मिलती है?
उत्तर: ‘रुक्मिणी हरण’ की कथा श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में मिलती है।
प्रश्न
18. पाठ
में आये प्राचीन कालीन विदुषी महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर: पाठ में आई विदुषी महिलाओं के नाम हैं- शीला, विज्जा, अनुसूया, गार्गी इत्यादि।
प्रश्न
19. शकुंतला
ने दुष्यंत के विषय में दुर्वाक्य क्यों कहे?
उत्तर: शकुंतला के साथ राजा दुष्यंत ने गांधर्व विवाह किया था किंतु बाद में उसको पहचानने से भी मना कर दिया था। इससे कुपित और अपमानित होकर शकुंतला ने उनसे दुर्वचन कहे थे।
प्रश्न
20. नाट्यशास्त्र
सम्बन्धी नियमों में स्त्री-पात्रों के लिए कौन-सी भाषा निर्धारित की गई है?
उत्तर: नाट्यशास्त्र सम्बन्धी नियमों में स्त्री-पात्रों के लिए प्राकृत भाषा निर्धारित की गई है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न
1. स्त्री-शिक्षा के विरोधियों के कुतर्को का खंडन द्विवेदी जी ने किस
प्रकार किया है?
उत्तर: द्विवेजी जी ने प्रमाण सहित बताया है कि प्राचीन काल में भारत में स्त्रियाँ शिक्षित होती थीं। संस्कृत के नाटकों में उनके प्राकृत बोलने का कारण उनका अपढ़ होना नहीं था। प्राकृत में अनेक पुस्तकें रची गई थीं। वह शिक्षित लोगों की भाषा थी। संस्कृत कुछ ही लोग समझते थे तथा अधिकांश जनता प्राकृत भाषा बोलती थी। इस कारण नाट्यशास्त्र के आचार्यों ने स्त्रियों के लिए प्राकृत बोलने का नियम बनाया था। प्राचीन भारत में गार्गी, अनुसूया, मंडन मिश्र की पत्नी और अनेक विदुषी महिलायें हुई हैं। स्त्री-शिक्षा अनर्थ का कारण नहीं था।
प्रश्न
2. ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ पाठ की रचना का उद्देश्य क्या है? अथवा इस निबन्ध का प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर: कुछ पुरातनपंथी स्त्री-शिक्षा के विरोध में निराधार तर्क देते थे। द्विवेदी जी ने उनके कुतर्को का खंडन करके स्त्री-शिक्षा को समाज के लिए हितकर बताया गया है। उन्होंने ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूया, गार्गी, विश्वम्भरा, मंडन मिश्र की पत्नी आदि विदुषी स्त्रियों का उल्लेख किया है। उन्होंने नाटकों में प्राकृत बोलने के कारण स्त्रियों को अशिक्षित नहीं माना है। स्त्री-शिक्षा समाज के लिए महत्वपूर्ण और आवश्यक है। यह सिद्ध करना ही इस निबन्ध की रचना का उद्देश्य है। यही इसका प्रतिपाद्य भी है।
प्रश्न
3. ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक के आधार पर बताइए कि स्त्री-शिक्षा के विरोधी क्या कुतर्क
देते थे?
उत्तर: स्त्री-शिक्षा के विरोधी निम्नलिखित कुतर्क देते थे
(1) प्राचीन समय में स्त्रियों को शिक्षा देने का चलन नहीं था। यदि होता तो संस्कृत नाटकों में उनसे अपढ़ों की भाषा प्राकृत में नहीं बुलवाया गया होता और इतिहास-पुराण आदि में स्त्री-शिक्षा की नियमबद्ध प्रणाली अवश्य लिखी जाती।
(2) स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। शकुन्तला द्वारा दुष्यन्त के प्रति कटुवचन कहा जाना उसके शिक्षित होने का ही दुष्परिणाम था।
(3) शकुंतला और सीता द्वारा दुष्यंत और राम को भेजे गए कटुतापूर्ण संदेशों को कारण उनका पढ़ा-लिखा होना ही था।
प्रश्न
4. संस्कृत नाटकों में स्त्री-पात्रों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना
क्या उनके अपढ़ होने का प्रमाण है?
उत्तर: संस्कृत नाटकों में स्त्री-पात्रों से प्राकृत भाषा बुलवाई गई है, लेकिन इससे उनका अपढ़ होना प्रमाणित नहीं होता। उस समय कुछ चुने हुए उच्च शिक्षित लोग ही संस्कृत बोलते थे। जनसाधारण की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत अपढ़-गॅवारों की भाषा नहीं थी। उसमें जैन तथा बौद्ध धर्म के हजारों ग्रन्थ लिखे गए थे। भगवान बुद्ध तथा उनके शिष्य प्राकृत भाषा में ही धर्म का उपदेश देते थे। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत शिक्षितों की भाषा थी।
प्रश्न
5. “प्राकृत संस्कृत के अतिरिक्त सर्वाधिक बोली जाने वाली जनभाषा थी”-इसका प्रमाण लेखक ने क्या दिया है?
उत्तर: लेखक कहता है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि कालिदास आदि नाटककारों के समय सारे शिक्षित लोग संस्कृत बोलते थे। उस समय जनसाधारण की भाषा प्राकृत थी। यदि ऐसा न होता तो महात्मा बुद्ध अपने प्रवचन प्राकृत में नहीं देते। बौद्धों के धर्मग्रन्थ त्रिपिटक की रचना भी प्राकृत भाषा में ही हुई थी। बुद्ध का आविर्भाव कालिदास से पहले हुआ था। अत: प्राकृत में ग्रन्थ-रचना पहले से ही होती आ रही थी।
प्रश्न
6. ‘संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में परस्पर क्या सम्बन्ध है’, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: भाषा का स्वभाव है कि वह निरन्तर विकसित और परिवर्तित होती रहती है। संस्कृत के साथ भी वही नियम लागू होता है। संस्कृत से प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ। धीरे-धीरे संस्कृतभाषी लोग कम होते गए और प्राकृत भाषाएँ पुष्ट और समृद्ध होती गईं। उस समय शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री तथा पालि आदि प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं जो सर्वसाधारण की भाषाएँ थीं। इनमें पर्याप्त साहित्य लिखा गया। बौद्ध और जैन धर्म से सम्बन्धित प्रायः सारे ग्रन्थ प्राकृत में ही रचे गए।
प्रश्न
7. ‘प्राकृत
भी सुशिक्षितजनों और विद्वानों की भाषा थी’-इस सम्बन्ध में लेखक का क्या मत है?
उत्तर: प्राकृत भाषा अपढ़ लोगों की भाषा नहीं थी। इसमें भी अनेक विद्वानों ने उच्चकोटि के ग्रन्थ लिखे थे। बौद्ध और जैन धर्म के ग्रन्थों के अतिरिक्त गाथा-सप्तशती, सेतुबंध महाकाव्य तथा कुमारपाल चरित जैसे प्राकृत ग्रन्थ भी विद्वानों और पंडितों की रचनाएँ हैं। यदि इन रचनाकारों को अपढ़ माना जाए तब तो आज के बड़े-बड़े समाचार-पत्रों के संपादक भी अपढ़ माने जायेंगे। क्योंकि वे आज की प्रचलित भाषा हिन्दी, बांग्ला, मराठी आदि में समाचार लिखते हैं। यह मानना निराधार है कि उस समय पंडितों, मनीषियों तथा सुशिक्षितों की भाषा केवल संस्कृत ही थी, प्राकृत नहीं।
प्रश्न
8. नाट्य-शास्त्र
के आचार्यों ने संस्कृत-नाटकों में स्त्रियों के प्राकृत में बोलने का नियम क्यों
बनाया था? इसका
कारण क्या स्त्रियों का अशिक्षित होना था?
उत्तर: नाट्य शास्त्र के आचार्यों ने उच्च स्तर के पात्रों के लिए संस्कृत बोलने तथा सामान्य लोगों तथा स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा बोले जाने के नियम बनाए थे। इसका कारण यह था कि उस समय संस्कृत जनसाधारण की भाषा नहीं थी। कुछ चुने हुए लोग ही संस्कृत बोल पाते थे। उन चुने हुए लोगों की भाषा संस्कृत तथा दूसरों लोगों एवं स्त्रियों की भाषा प्राकृत थी। इसी कारण आचार्यों ने ये नियम बनाए थे। इसका कारण स्त्रियों का अशिक्षित होना नहीं है।
प्रश्न
9. लेखक
ने प्राचीन भारत में स्त्रियों के शिक्षित होने के प्रमाणस्वरूप किन विदुषी
महिलाओं के नामों का उल्लेख किया है?
उत्तर: लेखक ने वैदिक और पौराणिक समय में अनेक सुशिक्षित और विदुषी स्त्रियों की उपस्थिति का उल्लेख किया है। इनमें विश्वम्भरा, विज्जा, गार्गी, अत्रि ऋषि की पत्नी, सीता, रुक्मिणी, शकुन्तला, त्रिपिटक की थेरी गाथाओं की कवयित्रियाँ, मंडन मिश्र की पत्नी आदि अनेक नारियों के नामोल्लेख के साथ-साथ उनकी विद्वत्ता के प्रमाण भी दिए हैं।
प्रश्न
10. विक्षिप्त
बात-व्यथित और ग्रह-ग्रस्त किनको कहा गया है तथा क्यों?
उत्तर: द्विवेदी जी का कहना है कि कोई भी समझदार मनुष्य स्त्री-शिक्षा का विरोध नहीं करता है। जो स्त्री-शिक्षा का विरोध करते हैं वे विक्षिप्त, बात-व्यथित और ग्रह-ग्रस्त माने जाने चाहिए। विक्षिप्त पागल को कहते हैं जो उलूल-जुलूल बातें करता है। बात-रोग से पीड़ित तथा ग्रहों के दुष्प्रभाव से ग्रस्त लोग भी बिना सोचे-समझे बोलते हैं। स्त्री-शिक्षा के विरोधी भी मानसिक रूप से असंतुलित होते हैं
प्रश्न
11. द्विवेदी
जी ने स्त्री-शिक्षा के विरोधियों की सोच पर व्यंग्य कथनों को लिखिए।
उत्तर: द्विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा के विरोधियों की सोच पर व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं, जैसे यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। इस तर्क शास्त्रज्ञता और न्यायशीलता की बलिहारी। क्या वह यह कहती कि-आर्यपुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया, जो मेरे साथ गांधर्व विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं। स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष को पूँट।
प्रश्न
12. लेखक
ने दुष्यंत के प्रति शकुंतला के कटु वचनों के बारे में क्या कहा है?
अथवा दुष्यंत के प्रति कटुवचन बोलने का कारण शकुंतला का अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित होना नहीं है। फिर इसका क्या कारण है? अपने विचार दीजिए।
उत्तर: लेखक ने दुष्यंत के प्रति शकुन्तला के कटु-वचनों को स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताकर विरोधियों के दृष्टांत को उन्हीं के विरुद्ध प्रयुक्त किया है। यदि किसी स्त्री के साथ धोखा हुआ है तो चाहे वह पढ़ी-लिखी हो या गॅवार, धोखा देने वाले के प्रति कटु शब्द निकलना स्वाभाविक क्रिया है। इसका शिक्षित और अशिक्षित होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेखक ने सिद्ध किया है कि अनर्थ कभी भी शिक्षा के कारण नहीं होते बल्कि व्यक्ति के चरित्र में उपस्थित कुसंस्कारों और दुर्गुणों के कारण हुआ करते हैं। मेरे विचार से यह एक पति के दुर्व्यहार से पीड़ित एक पत्नी की प्रतिक्रिया थी।
प्रश्न
13. सीता
द्वारा अपने परित्याग के समय लक्ष्मण द्वारा राम को क्या संदेश भिजवाया गया था?
उत्तर: राम ने सीता को लक्ष्मण के द्वारा वन में छुड़वा दिया था। अपने परित्याग और निर्वासन से दु:खी सीता ने लक्ष्मण के द्वारा राम को संदेश भेजा था-हे लक्ष्मण ! तुम राजा राम से कह देना कि मैंने आग में कूदकर अपनी पवित्रता पहले ही उनके सामने सिद्ध कर दी थी। फिर लोगों के एक मिथ्या कथन को सुनकर मुझे छोड़ देना क्या तुम्हारी विद्वत्ता, महत्ता को शोभा देता है? क्या यह आचरण तुम्हारे कुल के अनुरूप है।
प्रश्न
14. सीता
द्वारा राम को संदेश भेजते समय उनके लिए ‘राजा’ शब्द का प्रयोग करने के पीछे क्या कारण रहा होगा? विचारपूर्वक उत्तर
दीजिए।
उत्तर: सीता ने वन से राम को लक्ष्मण के द्वारा संदेश भेजा तो राम को ‘राजा’ कहकर संबोधित किया। सीता, राम को अपना प्रियतम, पति अथवा स्वामी भी कह सकती थीं। राम ने सीता की परित्याग लोगों में फैले मिथ्या अपवाद को सुनकर किया था। राजा होने के नाते राम को सीता को बुलाकर उनका पक्ष भी सुनना चाहिए था। ऐसा न करके उन्होंने राजा के कर्तव्य को पूरा नहीं किया था। इसी का उलाहना सीता ने राजा राम को दिया है।
प्रश्न
15. “स्त्रियों
को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है’ -आपकी दृष्टि में
द्विवेदी जी के इस कथन का आशय क्या है?
उत्तर: समाज स्त्रियों-पुरुषों के मिलने से बनता है। समाज में स्त्रियों की संख्या आधी होती है। यदि शरीर को आधा भाग अविकसित रहेगा तो पूरा शरीर सबल नहीं होगा। इसी प्रकार यदि स्त्री अशिक्षित होगी तो आधा समाज अशिक्षित रह जायेगा। अत: स्त्री-शिक्षा का विरोध समाज की उन्नति में बाधा डालने वाला है।
प्रश्न
16. ‘स्त्री-शिक्षा
विरोधी कुतर्को का खंडन’ शीर्षक पाठ में द्विवेदी जी ने क्या संदेश दिया है?
उत्तर: द्विवेदी जी मानते हैं कि स्त्री-शिक्षा समाज तथा देश की प्रगति के लिए आवश्यक है। इस पाठ में लेखक ने संदेश दिया है कि स्त्री-शिक्षा के विरोध को समाज के लिए हितकर नहीं माना जा सकता। प्राचीनकाल में स्त्रियाँ न भी पढ़ती हों किंतु वर्तमान में उनको उचित और अच्छी शिक्षा दी जानी चाहिए। द्विवेदी जी का संदेश है कि स्त्रियों को हर दशा में शिक्षा दी जानी चाहिए।
प्रश्न
17. स्त्रियों
को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं’-इस दलील का खंडन द्विवेदी जी ने किन शब्दों में किया है? इस बारे में आपका क्या
मत है?
उत्तर: स्त्री-शिक्षा के विरोधी कहते हैं कि स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। द्विवेदी जी इस कथन से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि यदि अनर्थ स्त्रियों को पढ़ाने से होते हैं तो पुरुषों द्वारा हुई चोरी, हिंसा, लूट आदि को भी उनकी पढ़ाई का ही परिणाम माननी चाहिए। अनर्थ स्त्री-पुरुष दोनों से ही होते हैं। इसका कारण शिक्षा न होकर इनका स्वभाव और चरित्र होता है। अतः स्त्री-शिक्षा अनर्थ का कारण नहीं है। द्विवेदी जी के मत से मैं भी सहमत हूँ।
प्रश्न
18. ‘शिक्षा
बहुत व्यापक शब्द है’-द्विवेदी जी के इस कथन का आशय क्या है? क्या आज की शिक्षा भी
व्यापक है?
उत्तर: ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ है-सीखना या सिखाना। अत: किसी भी विषय को सीखना शिक्षा के अन्तर्गत आता है। नृत्य, संगीत, चित्रकला, नीति, धर्म आदि सभी शिक्षा के विषय हैं। केवल पढ़ना-लिखना सीखना ही शिक्षा नहीं है। अन्य विषयों की भाँति यह भी शिक्षा का एक अंग है। लेखक का आशय शिक्षा को व्यापक कहने से यही है। आज ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल से सम्बन्धित विषयों का बहुत विस्तार हो गया है। नित्य नवीन खोजों के कारण शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो गया है।
प्रश्न
19. द्विवेदी
जी ने शिक्षा-प्रणाली के विषय में क्या विचार प्रस्तुत किये हैं?
उत्तर: द्विवेदी जी का कहना है कि दोष शिक्षा में नहीं होता। अनर्थ का कारण
शिक्षा प्रणाली हो सकती है। यदि शिक्षा-प्रणाली दोषपूर्ण है और स्त्रियों के लिए
हितकारी नहीं है, तो उसमें संशोधन किया जा सकता है। स्त्रियों को
कहाँ, कितनी और कैसी शिक्षा देनी है, उनको क्या
पढ़ाना है, यह बात विचारणीय हो सकती है। स्त्रियों को
पढ़ाने का विरोध करना किसी भी अवस्था में उचित नहीं माना जा सकता।
प्रश्न
20. द्विवेदी
जी ने किन लोगों को दण्डनीय माना है? क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं?
उत्तर: द्विवेदी जी स्त्री-शिक्षा को परिवार, समाज और देश के लिए आवश्यक और हितकर मानते हैं। जो इसका विरोध करते हैं, वे उनकी दृष्टि में कुविचारी और अविवेकी हैं। वे प्राचीन भारत में नारियों को अशिक्षित बताते हैं तथा वर्तमान
में उनको अशिक्षित रखने का षडयंत्र रचते हैं। वे परिवार, समाज और देश को पतन की ओर ले जाने वाले हैं। द्विवेदी जी के मतानुसार ऐसे लोग दण्डनीय हैं। द्विवेदी जी के विचार से मैं भी सहमत हूँ।
प्रश्न
21.“प्राचीन
भारत में नारी-शिक्षा प्रचलित थी”- इस तथ्य के समर्थन में द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत तर्को को अपने
शब्दों में लिखिए।
उत्तर: “प्राचीन काल में भारत में नारी-शिक्षा प्रचलित थी” इस तथ्य को द्विवेदी जी ने अनेक उदाहरण देकर प्रमाणित किया है। उन्होंने पुराने समय में गार्गी, शीला, विश्वम्भरा आदि विदुषी नारियों का उल्लेख किया है।
अत्रि ऋषि की पत्नीऔर मंडन मिश्र की पत्नी की विद्वत्ता का उदाहरण प्रस्तुत किया है। भागवत पुराण में रुक्मिणी द्वारा श्रीकृष्ण को लिखा गया पत्र उसके सुशिक्षित होने का प्रमाण बताया है। संस्कृत नाटकों में शकुन्तला आदि स्त्री पात्रों के प्राकृत बोलने को भी उन्होंने स्त्री शिक्षा का ही प्रमाण माना है।
प्रश्न
22. महावीर
प्रसाद द्विवेदी दूरदर्शी तथा समयानुकूल सोच वाले विचारक थे’-इस कथन की विवेचना
कीजिए।
उत्तर: महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरातनपंथी नहीं थे। वह दूरदर्शी थे। उनकी सोच समयानुकूल थी। उनका मानना था कि पुरानी बातों को बिना विचारे मानना उचित नहीं है। सोचकर देखना चाहिए जो रीतियाँ या विचार वर्तमान में हितकारी और अनुकूल न हों उनको त्याग देना चाहिए।
पुरानी उपयोगी तथा समाज के लिए हितकारी बातों को अवश्य संरक्षण देना चाहिए। प्राचीनकाल में यदि स्त्रियाँ शिक्षित न भी होती हों तब भी वर्तमान समय में आवश्यकता को देखते हुए उनको उचित शिक्षा देने की व्यवस्था करनी चाहिए।
प्रश्न
23. आपकी
दृष्टि में शिक्षा-प्रणाली में संशोधन किस अवस्था में करना आवश्यक है?
उत्तर: शिक्षा के विषय के साथ-साथ उसे सिखाने की प्रणाली या विधि का भी बहुत महत्व होता है। यदि शिक्षा प्रदान करने की प्रणाली ठीक नहीं है तो उसमें आवश्यक सुधार किया या कराया जाना चाहिए।
स्त्री-शिक्षा की प्रणालीस्त्रियों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उनके अनुकूल बनाई जानी चाहिए। उन्हें क्या, कितनी, किस तरह की शिक्षा कहाँ देनी चाहिए, इस पर अच्छी तरह विचार होना चाहिए। शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षा प्रणाली में संशोधन करना चाहिए।
प्रश्न
24. “परम्परा
के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ाने
वाले हो-तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर: हमारे देश में परंपराएँ बहुत समय से चली आ रही हैं। इनमें से अनेक परंपराओं को समायानुकूल न होने से त्याग भी दिया गया है। आज स्त्री और पुरुष के प्रति समान दृष्टि पर बल दिया जाता है। संविधान की दृष्टि से भी लिंग के आधार पर भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है।
स्त्रियाँ प्रायः सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अपनी प्रतिभा और कार्य-कुशलता का प्रमाण दे रही हैं। अत: उन्हीं परम्पराओं को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष की समानता को बढ़ाती हैं।
प्रश्न
25. स्त्री-शिक्षा
के समर्थन में क्या आप कुछ तर्क प्रस्तुत करना चाहते हैं? यदि हाँ, तो कोई दो तर्क प्रस्तुत
कीजिए।
उत्तर: आज के प्रगतिशील युग में आगे बढ़ने के लिए भारतीय नारियों को भी शिक्षित बनाना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में मेरा तर्क है कि
(1) स्त्रियों का परिवार, समाज तथा देश के निर्माण और विकास में योगदान उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना पुरुषों का योगदान। अतः इनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था होना आवश्यक है।
(2) बच्चों के पालन-पोषण तथा भविष्य की उन्नति में शिक्षित माता अशिक्षित माता की तुलना में अधिक सहायक होती है।
प्रश्न
26. “न
यह पढ़ने-लिखने का परिणाम है, न गॅवारपन का, ने अकुलीनता का”-शकुंतला और सीता द्वारा क्रमशः दुष्यंत और राम के प्रति कहे गये
कटु वाक्य द्विवेदी जी के मतानुसार किस बात के परिणाम हैं?
उत्तर: द्विवेदी जी का मानना है कि पढ़ने-लिखने से स्त्रियाँ दुर्विनीत नहीं होतीं। शिक्षित होने के कारण वे बड़ों और पूज्यजनों का अपमान नहीं करतीं। शकुंतला तथा सीता ने क्रमश: दुष्यंत और राम के प्रति जो कटु वाक्य कहे थे उनका कारण यह नहीं था कि वे पढ़ी-लिखी थीं, आँवार थीं अथवा अच्छे कुल में नहीं जन्मीं थीं। द्विवेदी जी के मतानुसार दुष्यंत और राम के अनुचित व्यवहार के प्रति उनकी यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी।
प्रश्न
27. आपकी
दृष्टि में राम द्वारा सीता को चुपचाप वन में छुड़वा देना कैसा कार्य था?
उत्तर: राम सीता के पति थे और अयोध्या के राजा। सीता के बारे में लोगों की बातें सुनकर सीता का पक्ष सुने बिना ही उन्होंने सीता को लक्ष्मण द्वारा चुपचाप वन में छुड़वा दिया। उनका यह कार्य अनुचित था तथा उन्होंने एक पति और राजा के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया था। सीता अग्नि परीक्षा द्वारा अपनी पवित्रता सिद्ध कर चुकी थीं। पति होने के नाते उनको सीता पर विश्वास होना चाहिए था। राजा होने के नाते उनको सीता का पक्ष भी सुनना चाहिए था।
प्रश्न
28. “पारिवारिक अशांति तथा सामाजिक विघटन का कारण स्त्रियों की शिक्षा
है” -इस कथन के प्रति अपनी सहमति अथवा असहमति व्यक्त कीजिए।
उत्तर: पारिवारिक अशांति तथा सामाजिक विघटन का कारण स्त्रियों की शिक्षा नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि शिक्षा के कारण ऐसा नहीं हो सकता। इसका कारण स्त्रियों के प्रति परिवार तथा समाज के लोगों का व्यवहार अथवा कुछ अन्य विशेष परिस्थितियाँ हो सकती हैं। मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ।
प्रश्न
29. “जी में आवे सो कीजिए पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए……”? इस कथन के आधार पर बताइए कि द्विवेदी जी क्या करने तथा क्या न करने
के लिए कह रहे हैं?
उत्तर: द्विवेदी जी कह रहे हैं कि शिक्षा प्रणाली के दोषों को दूर करना चाहिए। उसको स्त्री-शिक्षा के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। यह करणीय है परन्तु इस कारण स्त्रियों को शिक्षा नहीं देनी चाहिए-ऐसा कहना वह ठीक नहीं मानते। उनका मानना था कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ पढ़ती-लिखती थीं। उनकी विद्वत्ता और तर्क-शक्ति के सामने विद्वान पुरुषों को भी नतमस्तक होना पड़ता था।
गार्गी, शीला, विश्वंभरा, मंडन मिश्र की पत्नी तथा अन्य अनेक सुशिक्षित स्त्रियाँ उस समय भारत में थीं। शिक्षा पाकर स्त्रियाँ उद्दण्ड तथा अविनीत हो जाती हैं, यह तर्क ठीक नहीं है। शिक्षा पाकर ही स्त्रियाँ समाज तथा देश का भला कर सकती हैं। अत: उनको शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए। हाँ! शिक्षा-प्रणाली के दोषों को अवश्य दूर किया जाना चाहिए।
प्रश्न
30. “नाटकों में स्त्रियों द्वारा प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का
प्रमाण नहीं है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र के नियम बनाये थे, उस समय सभी लोग संस्कृत का प्रयोग नहीं करते थे। अधिकांश लोग प्राकृत बोलते थे और वही जनभाषा थी।
अतः उन्होंने स्त्रियों के संवाद संस्कृत में नहीं रखने का नियम बनाया। पुरुषों के संवाद संस्कृत में रखे जाते थे।
प्रश्न
31.“यह सारा दुराचार स्त्रियों के पढ़ाने का ही कुफल हैं”–पंक्ति में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: गार्गी ने बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों के शास्त्रार्थ में छक्के छुड़ा दिए थे। पं. मंडन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया था। यदि वे पढ़ी-लिखी न होतीं तो विद्वान पुरुषों से तर्क-वितर्क नहीं कर सकती थीं। उपर्युक्त वाक्य में इन विदुषी-नारियों की प्रशंसा की गई है। ऐसी महिलाओं की शास्त्रार्थ करने की कुशलता को पढ़ाई के कारण होने वाला ‘दुराचार’ बताने वालों की मूर्खता पर कठोर व्यंग्य किया गया है।
प्रश्न 32. द्विवेदी जी ने स्त्री शिक्षा के समर्थन में कौन-कौन से तर्क दिए हैं?
उत्तर: द्विवेदी जी ने कहा है कि स्त्री-शिक्षा देश और समाज की प्रगति में सहायक है। शिक्षा से कोई अनर्थ नहीं होता। यदि शकुंतला ने दुष्यंत तथा सीता ने राम के व्यवहार की निन्दा की थी तो उसका कारण उनकी पढ़ाई नहीं थी। शिक्षा से यदि अनर्थ होता है तो वह पुरुषों की शिक्षा से भी होगा। यदि प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा नहीं थी तो इस कारण वर्तमान में स्त्री-शिक्षा का विरोध करना उचित नहीं है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न
1. “स्त्री-शिक्षा अनर्थ का कारण होती है।” स्त्री-शिक्षा के विरोधियों के इस कथन के बारे में द्विवेदी जी ने
क्या कहा है?
द्विवेदी जी के साथ अपनी सहमति अथवा असहमति व्यक्त
कीजिए।
उत्तर: स्त्री-शिक्षा के विरोधी शिक्षा को अनर्थ कारिणी मानते थे। द्विवेदी जी के समय लोग लड़कियों को पढ़ाने के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि पढ़-लिखकर स्त्रियाँ उद्दण्ड और दुर्विनीत हो जाती हैं तथा बड़ों का अपमान करती हैं। स्त्रियों की पढाई अनर्थों का कारण होती है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रगतिशील विचारों के धनी थे तथा उनका चिन्तन समयानुकूल था। उनका मानना था कि स्त्री-शिक्षा अनर्थ का कारण नहीं होती। पढ़ने-लिखने से अनर्थ करने वाली कोई बात नहीं होती। अनर्थ स्त्रियों से ही नहीं पुरुषों से भी होते हैं। अनर्थ अपढ़ों और पढ़े-लिखे दोनों से ही होते हैं।
अनर्थ, दुराचार और पापाचार का कारण शिक्षा न होकर मनुष्य का स्वभाव और आचरण होता है।स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होने की सम्भावना कतई नहीं है।द्विवेदी जी अत्यन्त दूरदर्शी थे। वह स्त्री-शिक्षा का महत्व जानते थे। स्त्री-शिक्षा समाज और परिवार के सुचारु संचालन और बच्चों के भविष्य निर्माण के लिए आवश्यक है। मैं द्विवेदी जी के विचार से सहमत हूँ।
प्रश्न
2. “भवभूति
और कालिदास के नाटक जिस जमाने के हैं उस जमाने में शिक्षितों का समस्त समुदाय
संस्कृत ही बोलता था, इसका प्रमाण कोई पहले दे ले तबे प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को
अपढ़ बताने का साहस करे।” द्विवेदी जी ने यह चुनौती क्यों दी है? ।
उत्तर: प्राकृत भाषा संस्कृत से विकसित हुई है। जब संस्कृत व्याकरण के कठोर नियमों से जकड़ दी गई तो वह सामान्य जन की पहुँच से दूर हो गई। इसके बाद प्राकृत ने जनभाषा का लोकप्रिय रूप ग्रहण कर लिया। स्त्री-शिक्षा के विरोधी प्राकृत को अपढ़ों की भाषा तथा आँवार-भाषा कहते हैं। संस्कृत के नाटकों में स्त्री-पात्र प्राकृत भाषा बोलते थे।
इसको आधार बनाकर वे लोग प्राचीन भारत में स्त्रियों को अपढ़ और निरक्षर बताते थे।इनके अनुसार प्राकृत भाषा का प्रयोग करने वाले सुशिक्षित तथा विद्वान नहीं थे। उनके मते में प्राकृत बोलना और लिखना अपढ़ और अशिक्षित होने का प्रमाण था।द्विवेदी जी प्राकृत को महत्वपूर्ण भाषा मानते हैं जो जनता में प्रचलित हो चुकी थी तथा लोकप्रिय जनभाषा बन गई थी। भवभूति और कालिदास के नाटकों के समय समाज में कुछ लोग ही संस्कृत बोलते थे।
अधिकांश लोगों की भाषा प्राकृत ही थी। नाटकों में स्त्रियों द्वारा प्राकृत में संवाद बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं है।प्राकृत का प्रयोग करने वाले अशिक्षित नहीं होते थे। बौद्ध तथा जैन धर्माचार्यों ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिये थे। त्रिपिटक ‘गाथा-सप्तशती’, ‘सेतुबंध-महाकाव्य’ तथा ‘कुमारपाल चरित’ आदि ग्रंथ प्राकृत में ही लिखे गये थे।इस ऐतिहासिक सत्य की उपेक्षा करके प्राचीन भारत की स्त्रियों को नँवार और निरक्षर बताने वालों के निराधार हठ के कारण द्विवेदी जी ने यह चुनौती दी है।
प्रश्न
3. प्राचीन
शिक्षा प्रणाली और आधुनिक शिक्षा प्रणाली में क्या अन्तर है?
उत्तर: प्राचीन शिक्षा प्रणाली गुरुकुल पद्धति पर आधारित थी। इसमें विद्यार्थी को अपना घर छोड़कर गुरुकुल में रहकर पढ़ना पड़ता था। गुरुकुल में सभी छात्र समान रूप से रहते तथा विद्याध्ययन करते थे। जब उनकी शिक्षा पूरी हो जाती थी तभी उनको अपने घर जाने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की अनुमति होती थी।आज शिक्षा का स्वरूप बहुत व्यापक है। शिक्षा देने वाले अनेक स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय हैं।
तकनीकी, वैज्ञानिक, इंजीनियरिंग आदि विषयों की शिक्षा के लिए अलग-अलग संस्थायें हैं।कुछ विद्यालयों में दिन में कक्षा में पढ़ने के बाद छात्र घर आ सकते हैं, कुछ में वहीं रहकर शिक्षा प्राप्त करनी होती है। इनको क्रमश: ‘डे स्कॉलर’ और ‘हॉस्टलर’ कहते हैं। छात्राओं के लिए अलग से विद्यालय होते हैं यद्यपि सह-शिक्षा भी दी जाती है। दिन में काम करने वालों के लिए सायंकालीन कक्षायें भी संचालित होती हैं।प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति प्राप्त करना था।
शिक्षा आध्यात्मिक होती थी। उसमें धर्म, नैतिकता आदि मानवीय गुणों को प्रोत्साहन दिया जाता था। | आज की शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को धनोपार्जन के योग्य बनाना है। वह भौतिकता से प्रेरित है। जीवन में सफलता पाना ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए कोई भी उपयुक्त साधन स्वीकार किया जा सकता है।इस प्रकार व्यवस्था, पाठ्यक्रम और उद्देश्य की दृष्टि से भी आधुनिक और प्राचीन शिक्षा प्रणाली में गहरा अन्तर है।
प्रश्न
4. द्विवेदी
जी की भाषा तथा शैली के विषय में अपने विचार लिखिए।
उत्तर: महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी खड़ी बोली को सहज रूप में रखा जिससे वह जनसाधारण के निकट रह सकी। उनकी भाषा स्वाभाविक तथा अकृत्रिम है। उसमें वाक्य छोटे तथा शब्द सरल हैं। द्विवेदी जी ने विषय और भाव की आवश्यकता के अनुरूप शब्दों का चयन किया है। तत्सम शब्दों के साथ अन्य भाषा के जनता में प्रचलित शब्दों को भी उदारतापूर्वक उन्होंने अपनाया है।
मूल रूप में उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है। लोकोक्तियों तथा मुहावरों के प्रयोग ने उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाया है। द्विवेदी जी ने प्रसंग के अनुसार अनेक शैलियों का प्रयोग किया है। इस निबंध में उनकी विचारात्मक, तार्किक, व्यंग्यात्मक, उपदेशात्मक आदि शैलियों के दर्शन होते हैं। द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त शैली का उदाहरण निम्नलिखित है
“मान लीजिए पुराने जमाने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी-लिखी न थी। न सही। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की जरूरत न समझी गई होगी। पर अब तो है। अतएव पढ़ाना चाहिए।”व्यंग्यात्मक शैली का एक अन्य उदाहरण दर्शनीय हैआर्य पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया, जो मेरे साथ गांधर्व-विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं।”
प्रश्न
5. महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने स्त्री-शिक्षा का महत्व किन शब्दों में प्रतिपादित किया है?
(अथवा)’स्त्री-शिक्षा के विरोधी
कुतर्को का खंडन’ शीर्षक निबन्ध का प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर: द्विवेदी जी प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति थे। वह जानते थे कि समाज तथा देश के हित के लिए देशवासियों का सुशिक्षित होना आवश्यक है। उनके समय में कुछ पुरातनपंथी लोग स्त्री-शिक्षा के विरोधी थे तथा अपनी निराधार सोंच के समर्थन में बेतुके कुतर्क दिया करते थे।द्विवेदी जी ने उनके विचारों के खंडन के लिए ही यह निबन्ध लिखा था। द्विवेदी जी ने बताया है कि प्राकृत अपढ़ों-गॅवारों की भाषा नहीं थी। गौतम बुद्ध ने प्राकृत में ही उपदेश दिये थे।
जैन धर्म के उपदेश भी प्राकृत में दिये गये थे। त्रिपिटक गाथा-सप्तशती, सेतुबंध महाकाव्य, कुमारपाल चरित आदि की रचना प्राकृत में ही हुई थी। प्राकृत भाषा जनता में। प्रचलित थी। संस्कृत का प्रयोग तो कुछ लोग ही करते थे। प्राकृत आँवारों की भाषा नहीं थी और न प्राकृत के प्रयोग करने वाले अपढ़ और गॅवार। नाटकों में स्त्री-पात्रों द्वारा प्राकृत बोलना भी उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं है।
स्त्री-शिक्षा समाज के लिए आवश्यक तथा हितकर है। स्त्रियों को शिक्षा न देना समाज तथा देश को पतन की ओर ले जाने वाला है। यदि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ अशिक्षित थीं तब भी वर्तमान में उनको शिक्षा देना बहुत जरूरी है। स्त्री शिक्षा ही इस निबंध का प्रतिपाद्य है।
प्रश्न
6. यदि
आपको भारतीय समाज के उत्थान का कार्य सौंपा जाय तो आप यह कार्य कैसे करेंगे? कल्पना पर आधारित उत्तर
दीजिए।
उत्तर: हमारा देश भारत निरन्तर प्रगति-पथ पर बढ़ रहा है। इसका कारण हमारे नेतृत्व द्वारा समयानुकूल दृष्टिकोण अपनाना है। यदि मुझको अपने समाज के उत्थान का कोई कार्य सौंपा जायगा तो इसको पूरा करने में मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।अपने देश को आगे बढ़ाने के लिए मैं अपने देश के बालक-बालिकाओं को अच्छी और समय की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध करूंगा।
आज का समय विज्ञान और तकनीक का है। मैं अपने देश के बच्चों को ऐसी शिक्षा दिलाना चाहूँगा कि वे विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में देश को आगे बढ़ा सकें। भाषा एवं साहित्य की शिक्षा आज उतनी उपयोगी नहीं रह गई है। अब तो पूरी बड़ी-बड़ी पुस्तकें भी इंटरनेट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध हैं। अतः प्रगति पथ पर बढ़ते हुए विश्व के देशों के साथ
प्रश्न
7. महावीर
प्रसाद द्विवेदी का यह निबन्ध उनकी दूरगामी और खुली सोच का परिचायक है। स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर: यह निबन्ध प्रथम बार सन् 1914 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उस समय स्त्री-शिक्षा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता था। अनेक कुतर्को द्वारा स्त्री-शिक्षा का विरोध किया जाता था।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस निबन्ध की रचना करके स्त्री-शिक्षा के विरोधियों के कुतर्को का खण्डन किया है। द्विवेदी जी स्त्री-शिक्षा को देश और समाज के लिए हितकर तथा आवश्यक मानते थे। वह स्त्रियों की शिक्षा को अनर्थकारी नहीं मानते थे। शिक्षा को सामाजिक विधान और घरेलू अशान्ति का कारण द्विवेदी जी ने नहीं माना है।
द्विवेदी जी ने प्राचीन साहित्य और धर्म के ग्रन्थों से उदाहरण देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया है। वह कहते हैं कि यदि प्राचीनकाल में स्त्री-शिक्षा नहीं थी तो उसको आधार बनाकर वरस्त्रियको शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।इस निबन्ध से पता चलता है कि वह खुली सोच के विचारक थे तथा उनकी दृष्टि दूर तक देखने में समर्थ थी।
प्रश्न
8.“स्त्री-शिक्षा
समाज के पतन का कारण नहीं वरन् समाज के विकास की सीढ़ी है-इस कथन के आलोक में
स्त्री-शिक्षा पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर: समाज में केवल पुरुष ही नहीं होते, स्त्रियाँ भी होती हैं। यदि समाज को आगे बढ़ाना है तो उसको स्त्रियों को साथ लेकर चलना होगा। चूँकि समाज में स्त्रियाँ संख्या में आधी होती हैं। अतः उनको शिक्षा न देना, आधे समाज को पिछड़ा बनाये रखना है।समाज के उत्थान के लिए उसके सदस्यों को अच्छी और ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जो उसको आगे बढ़ा सके।
शिक्षा की समुचित व्यवस्था के बिना समाज प्रगति नहीं कर सकता। यह शिक्षा पुरुषों के साथ स्त्रियों को भी दी जानी चाहिए। सम्पूर्ण समाज तभी प्रगति करेगा जब स्त्रियाँ शिक्षित होंगी। स्त्रियों को विभिन्न कार्यक्षेत्रों में कुशल बनाने के लिए उनको उचित शिक्षा दी जानी चाहिए।
शिक्षा स्त्रियों को भी पुरुषों के समान विचारशील और समझदार बनाती है। वे कुशल प्रशासक, वैज्ञानिक, कलाकार आदि बनती हैं। परिवार, समाज तथा देश को उनकी शिक्षा से लाभ होता है। स्त्री-शिक्षण से समाज का पतन होने की बात सोचना विवेकहीनता ही मानी जायगी। स्त्री-शिक्षा के अभाव में पूर्ण सामाजिक विकास की कल्पना करना भी बेमानी है।
जिसने कहा कल, दिन गया टल,
जिसने कहा परसों ,बीत गए बरसों.
जिसने कहा आज, उसने किया राज,
उसके सर पे ताज ,दुनिया करे
नाज.
आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना में .........
साधनारत ........... @कुमार
महेश?
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