अंलकार
अलंकार से तात्पर्य- अलम् + कार
अलम् का अर्थ है भूषण करना, सजावट करना
कार करने वाला अर्थात साधन या उपकरण जो काव्य के
शरीर की सजावट करें।
1.अलंकरोति इति अंलकार - जो अलंकृत करता है वह अलंकार है।
2.काव्य शोभाकरान् धर्मालंकारन् प्रचक्षते।
अर्थात
काव्य के शोभाकारक धर्मो (साधनों )को अलंकार कहते है।
काव्य में अंलकारों का महत्त्व --
1.काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है,जिससे उसके सौन्दर्य में निखार
आ जाता है।
2.अभिव्यक्ति प्रभावषाली और चमत्कारपूर्ण बनती हैं ।
3.विषयवस्तु रोचक और आकर्षक बन जाती हैं।
4.काव्य सरस,सुबोध,सुस्पष्ट ,ग्राहय,मूर्त एवं सम्प्रेषणीय हो जाता है।
1.शब्दालंकार 2.अर्थालंकार 3.उभयालंकार
1.शब्दालंकार -शब्दालंकार वे है जो शब्दों द्वारा ही काव्य की शोभा बढाते हैं अर्थात जहाँ शब्दों में चमत्कार पाया जाता है।
2.अर्थालंकार -जहाँ शब्द के अर्थ में ही सुन्दरता हो तथा शब्द परिवर्तन से भी उस पर कोई प्रभाव न पडता हो,वहाँ अर्थालंकार पाया जाता है।
3.उभयालंकार -जहाँ शब्द और अर्थ दोनो में चमत्कार पाया जाता है।
शब्दालंकारः-
जहां
किसी कथन में विषिष्ट शब्द प्रयोग के कारण चमत्कार अथवा सौन्दर्य आ जाता है।वहाँ
शब्दालंकार होता है। शब्द को बदलकर उसके स्थान पर उसका पर्याय रख देने पर यह
चमत्कार समाप्त हो जाता है।जैसे........
(1) वह बासुँरी की धुनि कानि परै,कुल कानि हियो तजि भाजति है।
इस
काव्य पंक्ति में श्कानिश् शब्द दो बार आया है,पहले शब्द कानि का अर्थ है-कान और दूसरे शब्द कानि का
अर्थ है-मर्यादा। इस प्रकार एक ही शब्द दो अलग अलग अर्थ दे कर चमत्कार उत्पंन्न कर
रहा है। इस प्रकार का शब्दप्रयोग शब्दालंकार कहलाता हैं। यदि कुल कानि के स्थान पर
कुल मर्यादा या कुल मान प्रयोग कर दिया जाए तो वैसा चमत्कार नहीं आ पाएगा।
(2) कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
कनक
के स्थान पर “स्वर्ण्” शब्द रखने पर चमत्कार समाप्त हो जायेगा।
अर्थालंकार
--जहाँ कथन विषेष में सौन्दर्य अथवा चमत्कार विषिष्ट शब्द प्रयेाग पर आश्रित न
होकर अर्थ की विषिष्टता के कारण आया हो,वहाँ अर्थालकार होता हैः-जैसे-
“मखमल के झूले पडे ,हाथी-सा टीला”
यहाँ
काव्य पंक्ति में वंसत के आगमन पर उसकी सज-धज और शोभा की सादृष्यता किसी मंहत की
सवारी के साथ करते हुए चमत्कार उत्पन्न किया गया है ।यहाॅं उपमा अलंकार है।
अर्थालकार
में प्रयुक्त शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची भी रख दिए जावें तो भी चमत्कार
यथावत रहता है। जैसे-
“झर
रही मुख-चन्द्र से ,मुस्कान की है चाँदनी।”
यदि
इसे लिखे--
“छिटक रही आनन मंयक से ,स्मिति की विधुलेखा।”
तो
भी शोभा वही रहती है।
रमणी-मुख शषि तुल्य है।
यहाँ
रमणी और शशि के वाचक (पर्याय)अन्य शब्द रखने पर भी उपमा अलंकार रहेगा या चमत्कार
बरकरार रहेगा।
1. (क) राकेश की
चाँदनी यमुना के जल पर चमक रही थी।
(ख) चारू
चँद्र की चपल चाँदनी चमक रही यमुना जल पर।
2 (क) उसकी
आँखों से आँसू बह रहे थे।
(ख) सावन के
बादलों सी उसकी आँखे बरसने लगी।
3 (क) पति को
छोडकर और कोई वरदान ले लो।
(ख) वर को
छोड और कोई वर ले लो।
उपयुक्र्त तीनों उदाहरणों के क और ख भागों में एक ही बात भिन्न भिन्न रूपांे में कहीं गई है। स्पष्ट है कि क की अपेक्षा ख में कही अधिक सौंदर्य है। कारण?- कारण यह है कि ख भाग में अंलकार के प्रयोग से चमत्कार और सौदंर्य उत्पन्न कर दिया है।
शब्दालंकार के भेद......................
(1) अनुप्रास--
अनुप्रास का अर्थ होता है कि बारम्बार निकट
रखना अर्थात वर्णों का बार-बार प्रयोग-----
”वर्णेां की रसानुकूल बार-बार आवृति करना ही अनुप्रास
अंलकार होता है।
जहाँ
वर्णों की /षब्दों की आवृत्ति से चमत्कार उत्पन्न हो वहाँ अनुप्रास अंलकार होता
है।“
”कल-कानन कुडंल मोरपंखा,उर पे बनमाल बिराजति है।“ क व ब वर्ण की आवृति
”छोरटी है गौरटी या चोरटी अहीर की।“ ट वर्ण की आवृत्ति
“सुरभित संुदर सुखद सुमन तुम पर खिलते है।” स वर्ण की आवृत्ति
विश्वषालिनी
विष्वपालिनी दुखहत्री है,भय निवारणी,षांतीकारिणी,सुतकत्री है।
(कं)छेकानुप्रास--
जहाँ
पर अनेक व्यजंनों की एक बार स्पष्टतःआवृत्ति की गयी हो--
मोहनी
मूरत साँवरी सूरत नैना बने बिसाल,
म स
व ब वर्णो की एक एक बार आवृत्ति
कानन
कठिन भंयकर भारी।
मधुर
मधुमास का वरदान क्या है?
तो
प्रणय में प्रार्थना का मोह क्यो? म व प्र
रीझि
रीझि रहसि रहसि हँसि-हँसि उठै,
साँसै
भरि आँसू भरि कहत दई दई।
(ख)वृत्यानुप्रास-
जहाँ
एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति अनेक बार हो।
कंकन
किंकिन नूपुर धूनि सुनि।कहत लखन सन राम हद्य गुनि । क न वर्ण
रस
सिंगार मज्जन किये, कजंनु भंजनु देन।
अजंनु
रजंन हू बिना खजंन भंजनु नैन।
सपने
सुनहले मन भाये।
विरति
विवके विमल विज्ञानी।
शेष
महेष गणेष दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावै।
विमल
वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर मे सप्रीत।
(ग)श्रृत्यनुप्रास
जहाँ
पर एक ही उच्चारण स्ािल से बोले जाने वाले वर्णों की समानता पायी जावे।
कलि
केवल मलमूल मलीना।पाप पयोनिधि जनमन मीना। म-नासिक प
-ओष्ट
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते। दन्त से
(घ) अन्त्यानुप्रास -
काव्य पंक्ति के अंत में समान स्वर और व्यंजन की
आवृत्ति हो अर्थात तुक मिलती हो।
काली
काली अलकों में,आलस मद नत पलकों मे।
धीरज
धर्म मित्र अरू नारी ,आपत काल परिखिये चारी।
मुदित
महीपति मंदिर आए ,सेवक सचिव सुमंत बुलाए।
(ड)लाटानुप्रास-
जहाॅं समान अर्थ रखने वाले शब्दों या वाक्याषों की
आवृत्ति हो कितुं अन्वय करने पर उनके अर्थ में भिन्नता हो ।
पूत कपूत तो क्यों धन संचेै।पूत सपूत तो
क्यों धन संचै।
पराधीन जो नर नहीं स्वर्ग नरक ता हेतु। पराधीन
जो जन नही ,स्वर्ग नरक ता हेतु।
वे घर है वन ही सदा,जहाँ है बन्धू वियोग,
वे घर है वन ही सदा, जहँ नही बन्धू वियोग।
अनुप्रास के अन्य उदाहरण-----------
तरनी
तनुजा तट तमाल तरूवर बहुछाये।
संसार
की समरस्थली में धीरता धारण करो।।
(2)यमक अलंकार
जहाँ
सार्थक किंतु भिन्नार्थक या निरर्थक वर्ण समुदाय की एक बार से अधिक आवृति की जाती
है वहाँ यमक अलंकार होता है।
जब
एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आए और उसका अर्थ हर बार भिन्न हो वहाँ यमक अलंकार
होता है।
कहै कवि बेनी,बेनी ब्याल की चुराई लीनी।
रति रति सोभा सब रति के शरीर की।।
पहली
पंक्ति में बेनी शब्द की आवृत्ति 2 बार हुई है।पहली बार प्रयुक्त बेनी कवि का नाम है तथा
दुसरी बार बेनी का अर्थ चोटी है। इसी प्रकार दुसरी पंक्ति में प्रयुक्त रति शब्द
तीन बार प्रयुक्त हुआ है पहली बार रति-रति का अर्थ है-रत्ती के समान,जरा जरा सी, और दुसरी बार रति का अर्थ
है-कामदेव की परम सुंदर नारी रति।
काली घटा का घमंड घटा,नभ मंडल तारक वृदं खिलें।
1.घटा = काले
बादल, 2 घटा = कम हो गया।
भजन कह्योेै ताते भज्यौ,भज्यौ न एको बार।
दूरि भजन जाते कह्यौ सो तू भज्यौ गवाँर।।
1.भजन = भजन-पूजन,2. भजन = भाग जाना
1.भज्यौं = भजन किया, 2.भज्यौ
= भाग जाना।
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय। वा खाए बौराए जग,या पाए बौराय।
1 कनक = सोना, 2. कनक = धतूरा
माला फेरत जुग भया,फिरा न मनका फेर। मनका = माला का दाना
कर का मनका डारि दे,मन का मनका फेर।। मलका = हद्य
का
उठा बगुला प्रेम का, तिनका उडा अकास।
तिनका,तिनके से मिला,तिनका तिनके पास।।
जे तीन बेर खाती थी ते तीन बेर खाती है।
1.तीन बेर तीन बार
2.तीन
बेर तीन बेर के दाने
तू मोहन के उरवसी हवै उरबसी समान।
पच्छी परछीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बरछीने है खलन के।
मूरति मधुर मनोहर देखी।भयऊ विदेह विेदेह
विसेखी।।
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती है।
सुखद हो सकती न उलूक को नभ बिषारद शारद चन्द्रिका
यहाँ विषारद शब्द में शारद निरर्थक है।
लखि मोहन की बंसी,बंसी जान।लागत मधुर प्रथम पै,बेधत प्राण।।
सूर सूर तुलसी ससी उडगन केषवदास।
गुनी गुनी सब के कहे,निगुनी गुनी न होत।सुन्यौ कहूँ
तरू अरक ते, अरक
समान उदोतु।। अरक= आक(पौधा) अरक= सूर्य।
जीवन दायक है घन के सम।जीवन जीवन में घनष्याम
है। ष्
प्रथम जीवन = जल है द्वितिय तृतीय जीवन= का
अर्थ प्राण प्राण है।
(3) श्लेष अंलकार
श्लेष का अर्थ है चिपकना । जहाँ एक शब्द एक ही
बार प्रयुक्त होने पर दो अर्थ दे वहाँ श्लेष अंलकार होता है।दूसरे शब्दों में जहाँ
एक ही शब्द से दो या अधिक अर्थ चिपके हो वहाँ श्लेष अंलकार होता है।
चरन धरत चिंता करत,फिर चितवन चहुँ ओर।
सुबरन को ढूढँत ,कवि,व्यभिचारी,चोर।।
सुबरन
का प्रयोग किया गया है जिसे कवि,व्यभिचारी और चोर तीनों ढूढँ रहे है।इसके यहाँ तीन अर्थ है- 1.कवि= सुबरन= अच्छे शब्द 2.व्यभिचारी = सुबरन =अच्छा रूप रंग 3.चोर = सुबरन = सोना ।
रहिमन पानी राखिये,बिनु पानी सब सून।
पानी
गये न उबरे ,मोती मानस चून।।
रेखांकित
पानी शब्द के लिए मोती,मानस और चून के संदर्भ में क्रमश: चमक, प्रतिष्ठा और पानी तीन अर्थ
है।
मँगन को देखि पट देत बार बार । पट = वस्त्र एवं पट = किवाड
मधुवन
की छाती को देखों,सूखी कितनी इसकी कलियाँ।
1.खिलने से पूर्व की दशा (फूल की)
2.यौवन से पहले कि अवस्था
जो
रहीम गति दीप की कुल कपूत गति सोय।
बारे
उजियारो करै,बढे अंधेरो होय।।
बारे=
बचपन में / बारे = जलाने पर / बढे = बडा होने /बुझने पर
चिरजीवौं
जोरी जुरै क्यों न स्नेह गम्भीर।
को
घटि यह वृषभानुजा बे हलधर के वीर।।
वृषभानु+ जा (वृषभानु की पुत्री = राधा) तथा वृषभ + अनुजा = बैल की बहन = गाय
{+ हलधर के वीर 1. श्री कृष्ण 2. बैल}
नर
की अरू नलनीर की गति एक करै जोइ।
जेतो निचो है चले ते तो ऊँचों होय।।
बलिहारी
नृप कूप की ,गुन बिन बूदँ न देयं।
इसमें
गुन शब्द गुन = नृप ( राजा) के अर्थ में =
गुण या विषिष्टता
तथा
कूप (कुँए ) के पक्ष में रस्सी है।
विमलाम्बरा
रजनी वधू,अभिसारिका सी जा रही।
विमलाम्बरा
= रजनी(रात्री) के पक्ष में = विमल(स्वच्छ) अम्बर (आकाश )
अभिसारिका
के पक्ष में = स्वच्छ वस्त्रों वाली।
अर्थालंकार
(1) उपमा अलंकार
अत्यन्त
सादृष्य कंे कारण सर्वथा भिन्न होते हुए भी जहाँ एक वस्तु की या प्राणी की तुलना
दुसरी प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी से की जाती है ,वहाँ उपमा अंलकार हेाता है।
नीलिमा चद्रँमा जैसी सुंदर है।
इस
पंक्ति में नीलिमा और चन्द्रमा दोनो सुंदर होने के कारण दोनो में सादृष्यता
(मिलता-जुलतापन)स्थापित की गई है।
दोनो पक्षांे की तुलना करते समय उपमा के
निम्नलिखित चार तत्वों को ध्यान में रखा जाता है।
(क)उपमेय-जिसकेा उपमा दी जाए अर्थात जिसका वर्णन हो रहा
है,उसे उपमेय या प्रस्तुत कहते है।
चाँद से सुंदर मुख में मुख उपमेय है।
(ख)उपमान-वह प्रसिद्व वस्तु या प्राणी जिससे उपमेय की
तुंलना की जाए ,उपमान कहलाता है। उसे अप्रस्तंुत भी कहते है।ऊपर के उदाहरण में चाँद
उपमान है
(ग)साधारण धर्म/समान धर्म-उपमेय और उपमान का परस्पर समान
गुण या विषेषता व्यक्त करने वाले शब्द साधारण धर्म कहलाते है। ”सुंदर“
(घ)वाचक शब्द - जिन शब्दों की सहायता से उपमा अंलकारकी
पहचान होती है। सा ,सी ,तुल्य,सम ,जैसा,ज्यों,सरिस ,के समान आदि।
यदि
ये चारों तत्व उपस्थित हों तो पूर्णोपमा होती है।इनमें 1या2 लुप्त हो जाते है तब उसे लुप्तोपमा कहते है।
मखमल
के झूले पडे हाथी सा टीला
टीला
=उपमेय,हाथी= उपमान ,सा=वाचक , --------लुप्तोपमा अंलकार
प्रातःनभ था बहुत नीला शंख जैसे।
नभ=
उपमेय, शंख =उपमान , नीला =
साधारण धर्म,
जैसे = वाचक
काम-सा रूप, प्रताप दिनेष-सा,सोम-सा शील है राम महीप का।
राम उपमेय कितूं उपमान ,साधारण धर्म और वाचक तीन है
-काम सा रूप् ,दिनेष सा प्रताप,और सोम सा शील।
इस
प्रकार जहाँ उपमेय एक और उपमान अनेक हो वहाँ मालेापमा अलंकार होता है। ये मालोपमा
होते हुये भी पूर्णोपमा है क्योकि यहाँ उपमा के चारो तत्व विद्यमान है।
पीपर पात सरिस मन डोला (पूर्णोपमा अलंकार)
मन
=उपमेय, उपमान = पीपरपात ,समानधर्म = डोला ,वाचक शब्द = सरिस
कोटि कुलिस-सम वचन तुम्हारा।व्यर्थ धरहु धनु
बान कुठारा।।
उपमेय
= वचन, उपमान =
कोटि-कुलिस , वाचक शब्द = सम,
समान
धर्म =Ж लुप्तोपमा
पूर्णोपमा------------
1.पहेली सा जीवन है व्यस्त
2.दीप की अकलुष शिखा समान
3.निकल रही थी मर्म वंदना करूणा विकल कहानी सी।
उपमा अलंकार
“हरिपद कोमल कमल से ”
-हरिपद =उपमेय/ कमल =उपमान / समानधर्म =कोमल / वाचक शब्द
=से ----पूर्णोपमा
हाय!फूल
सी कोमल बच्ची,हुई राख की थी ढेरी।
उपमेय=
बच्ची ,उपमान = फूल ,समान धर्म = कोमल ,वाचक शब्द= सी
मुख
बालरवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ।
विदग्ध
होके कण धूलि राशि का ,तपे हुए
(2) रूपक अलंकार-
जहाँ गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय
में ही उपमान का अभेद आरोप कर दिया गया हो , वहां रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण-
उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुवर बाल -पतंग।
विकसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन- भृंग।।
प्रस्तुत
दोहे में उदयगिरि पर मंच का रघुवर पर बाल-पंतग (सूर्य) का , संतों पर सरोज का एवं लोचनों पर
भृंगों (भौंरों) का अभेद आरोप होने से रूपक अलंकार है।
विषय-वारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक ।
इस
काव्य पंक्ति मे विषय पर वारि का और मन मीन (मछली) का अभेद आरोप होने से रूपक का
सौंन्दर्य है।
मन-सागर, मनसा लहरि, बूडे-बहे अनेक।
प्रस्तुत
पंक्ति में मन पर सागर का और मनसा (इच्छा) पर लहर का आरोप होने से रूपक है।
सिर झुका तूने नियति की मान ली यह बात।
स्वयं ही मुर्झा गया तेरा हद्य-जलजात।।
उपर्युक्त
पंक्तियों में हद्य-जलजात में हद्य उपमेय पर जलजात(कमल) उपमान का अभेद आरोप किया
गया है।
शषि-मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाए।
यहां
मुख उपमेय में शषि उपमान का आरोप होने से रूपक अलंकार है।
अपलक नभ नील नयन विषाल।
यहां
खुले आकाष पर अपलक विषाल नयन का आरोप किया गया है।
मैया मैं तो चंद्र -खिलौना लैहों।
यहां
चन्द्रमा (उपमेय) में खिलौना (उपमान) का आरोप है।
चरण कमल बंदौ हरिराई।
यहां
हरि के चरणों (उपमेय) में कमल (उपमान) का आरोप है।
पायो जी मैनें राम रतन धन पायौ।
रामनाम मनि-दीप धरू,जीय-देहरी द्वार।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।
(3) उत्प्रेक्षा -
जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना अथवा
कल्पना कर ली गई हो, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके बोधक शब्द है-मनो, मानो, मनु, मनहु,जानों, जनु, जनहु, ज्यों आदि।
मानो माई घनघन अंतर दामिनि।
घन दामिनि दामिनि घन अंतर, सोभित हरि-ब्रज भामिनि।।
उपर्युक्त
काव्य पंक्तियों में रासलीला का सुंदर दुष्य दिखाया गया है। रास के समय हर गोपी को
लगता था कि कृष्ण उसके पास नृत्य कर रहे है। गोरी गोपियां और श्यामवर्ण कृष्ण
मंडलाकार नाचते हुए ऐसे लगते है। मानो बादल और बिजली, बिजली और बादल साथ-साथ शोभायमान
हो रहे हों। यहां गोपिकाआंे में बिजली की और कृष्ण में बादल की संभावना की गई है।
अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है।
चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट छीन।
मनहु सुरसरिता विमल, जल उछरत जुग मीन।।
यहां
झीने घूंघट में सुरसरिता के निर्मल जल की और चंचल नयनों में दो उछलती हुई मछलियों
की अपूर्व सम्भावना की गई है। उत्प्रेक्षा का यह सुंदर उदाहरण है।
सोहत ओढे पीत पट, स्याम सलोने गात।
मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप पर्यौ प्रभात।।
उपर्युक्त
काव्य पंक्तियों में श्रीकृष्ण के सुंदर श्याम शरीर मे नीलमणि पर्वत की और उनके
शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात की धूप की मनोरम सम्भावना अथवा कल्पना की गई
है।
उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उसका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।।
उपर्युक्त
पंक्तियों में अर्जुन के क्रोध से काँपते शरीर में सागर के त्फान की संभावना की गई
है।
कहती
हुई यों उत्तरा के ,नेत्र जल से भर गए।
हिम
के कणों से पूर्ण मानो, हो गए पंकज नए।।
इन
पंक्तियों में उत्तरा के अश्रुपूर्ण नेत्रों (उपमेय) में ओस जल-कण युक्त पंकज
(उपमान) की संभावना की गई है। मानो, वाचक शब्द प्रयुक्त हुआ
मुख
बाल रवि सम लाल होकर, ज्वाल-सा बोधित हुआ।
मनु
दृग फारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा।
ले
चला मैं तुझे कनक, ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण-झनक।
जग-से
लाल केसर से कि जैसे धूल गई हो।
पाहुन
ज्यों आए हों गाँव में शहर के,
मेघ
आए बडें बन-ठन के सँवर के।
(4) अतिश्योक्ति -
जहाँ किसी वस्तु, पदार्थ अथवा कथन (उपमेय) का वर्णन लोक-सीमा से बढाकर प्रस्तुत किया
जाए, वहाँ अतिश्योक्ति
अलंकार होता है।
भूप
सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरत न टारा।।
धनुर्भंग
के समय दस हजार राजा एक साथ ही उस धनुष (षिव-धनुष) को उठाने लगे, पर वह तनिक भी अपनी जगह से नहीं
हिला। यहां लोक-सीमा से अधिक बढा चढाकर वर्णन किया गया है।
चंचला
स्नान कर आए, चंद्रिका पर्व में जैसे।
उस
पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसे।।
नायिका
के रूप-सौंदर्य का यहां अतिश्योक्ति पूर्ण
वर्णन किया गया है।
अन्य
उदाहरण -
आगे
नदिया पडी अपार, घोडा कैसे उतरे पार।
राणा
ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।
राणा
अभी सोच ही रहे थे कि घोडा नदी के पर हो गया । यथार्थ में असंभव है।
हनुमान
की पूँछ में , लगन न पाई आग।
लंका
सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग।।
यहां
हनुमान की पूंछ में आग लगने से पहले ही लंका के दहन हो जाने क उल्लेख किया गया है
जो असंभव है।
वह
शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।
धड
से जयद्रथ का इधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।।
जिस
वीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया।
असमर्थ
हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया।।
(5) अन्योक्ति अलंकार -
जहां अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत
का व्यंग्यात्मक कथन किया जाए, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता हे।
नहिं
पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली
कली ही सों बँध्यौ , आगे कौन हवाल।
इस
पंक्ति में भौंरे को प्रताडित करने के बहाने कवि ने राजा जयसिंह की काम-लोलुपता पर
व्यंग्य किया है।
जिन
दिन देखे वे कुसुम , गई सुबीति बहार।
अब
अलि रही गुलाब में , अपत कँटीली डार।।
इस
दोह में अलि(भौंरे) के माध्यम से कवि ने किसी गुणवान अथवा कवि की ओर संकेत किया है
जिसका आश्रयदाता अब पतझड की तरह पत्र-पुष्पहीन (धनहीन) हो गया है। यहां गुलाब और
भौंरे के माध्यम से कवि आश्रित कवि और आश्रयदाता का वर्णन किया गया है।
स्वारथ
सुकृत न स्रम बृथा, देखि विंहंग विचारि।
बाज,पराए पानि परि, तू पच्छीनु न मारि।।
बाज
- राजा जयसिंह पच्छीनु - हिंदु राजाओं
से पराए पानि - औरंगजेब से ।
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