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कक्षा – 10 हिंदी ( पाठ्यपुस्तक – क्षितिज ) अध्याय- “एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न”


 कक्षा – 10 हिंदी  ( पाठ्यपुस्तक – क्षितिज  ) अध्याय- “एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न”

लेखक - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

 MAHESH KUMAR BAIRWA (LECTURER) GOVT.SR.SEC.SCHOOL DIDWANA ,DAUSA

पाठ-सार

लेखक का सपना-रात को पलंग पर लेटते ही लेखक को नींद आ गई। नींद में उसने एक विचित्र सपना देखी। वह सोचने लगा कि इस संसार में सब कुछ नाशवान है। ऐसा कोई उपाय पता चले कि उसको लोग मृत्यु के पश्चात भी याद रखें। पहले उसने मन्दिर बनाने का विचार किया। फिर सोचा कि अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होता रहा तो कोई मंदिर की ओर मुँह भी नहीं करेगा। मंदिर बनाने का विचार त्याग कर उसने पुस्तक लिखने पर विचार बनाया। यह सोच भी उसको उचित नहीं लगी क्योंकि आलोचक पुस्तक की ऐसी कटु आलोचना करेंगे कि उससे यश के स्थान पर अपयश ही प्राप्त होगा।

 पाठशाला का विचार-अन्त में, स्वप्न में ही सबेरा होता है। लेखक ने पाठशाला बनाने का विचार किया। लेखक के पास इतना धने था ही नहीं कि अपूर्व पाठशाला बन सकती। अतः मित्रों से सहायता लेनी पड़ी। ईश्वर की कृपा से सब काम ठीक हुआ। इस अपूर्व पाठशाला के निर्माण में अकूत धन तथा समय लगा। हिमालय की कन्दराओं से खोजकर अनेक उद्दंड पंडित बुलाए गए। इस पाठशाला में जो अध्यापक नियुक्त किए गए, उनमें पाखंडप्रिय धर्माधिकारी धर्मशास्त्र के अध्यापक, प्राणान्तक प्रसाद वैयाकरण वैद्यकशास्त्र के अध्यापक, लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण ज्योतिष शास्त्र के अध्यापक तथा शीलदावानल नीतिदर्पण नीतिशास्त्र तथा आत्मविद्या के अध्यापक मुख्य हैं।

पाठशाला का प्रारम्भ-पूर्वोक्त पंडितों के आने पर लेखक ने रात में ही पाठशाला खोली। अपने मित्रों के साथ ईश्वर को धन्यवाद दिया। उन्हीं की कृपा से उसकी स्वार्थपूर्ण कल्पना साकार हो सकी थी।.लेखक के पास तो धन था ही नहीं कि पाठशाला बन जाती। परन्तु मित्रों ने इतना धन प्रदान किया कि पाठशाला बनाने से बचा धन लेखक की दस-पाँच पीढ़ी तक के लिए बच गया। अपूर्व पाठशाला-संसार में पाठशालाएँ तो अनेक हैं किन्तु ऐसी अपूर्व पाठशाला इस संसार में किसी ने नहीं देखी होगी। कलिकाल में ऐसी पाठशाला का बनना भाग्यवश ही सम्भव है। महामुनि मुग्धमणि शास्त्री को सतयुग में इन्द्र अपनी पाठशाला के लिए खोजता फिरा था। इनकी बुद्धि की प्रशंसा सरस्वती भी नहीं कर सकती। इनके थोड़े से परिश्रम से पंडित भी मूर्ख और अबोध पंडित हो जायेंगे। पाठशाला के लिए इनका मिलना परम सौभाग्य ही माना जाएगा।

 

पाठशाला के शिक्षक-इस पाठशाला में नियुक्त अध्यापक पाखण्डप्रिय हैं। इनका प्रभाव सभी स्त्री-पुरुषों पर रहा है। परंतु अब अंग्रेजी शिक्षा के कारण इनकी बड़ी दुर्दशा हो रही है। लेखक को विश्वास है कि यदि ये एक कार्तिक मास भी पाठशाला में रहे तो चार-पाँच दिनों में सभी नवीन धर्मों पर पानी फेर देंगे। पंडित प्राणान्तक प्रसाद भी प्रशंसनीय शिक्षक हैं। ये महान वैद्य हैं। जब तक रोगी को इनकी औषधि नहीं मिलती तभी तक वह कष्ट उठाता है। दवा मिलते ही क्षणभर में उसको स्वर्गवास का सुख प्राप्त होता है।

अन्य अध्यापकइस पाठशाला में ऐसे ही प्रशंसनीय अन्य अध्यापक भी हैं। ज्योतिष विद्या में कुशल लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण नेत्रहीन हैं परन्तु गगन में अनेक तारे इन्होंने खोजे हैं। उनके रचे ग्रन्थों में तमिस मकरालयप्रसिद्ध है। एक अन्य शिक्षक बाल ब्रह्मचारी पंडित शीलदावानल नीतिदर्पण हैं। वेणु, वाणासुर, रावण, दुर्योधन, शिशुपाल, कंस आदि को इन्होंने नीति की शिक्षा दी है। ब्रिटिश न्यायकर्ता भी इनकी अनुमति लेकर ही न्याय करते हैं।

लेखक को निवेदन-ऐसी सकल कामधेनु पाठशाला का होना परम सौभाग्य की बात है। संसार में ऐसा संयोग परम दुर्लभ होता है। लेखक लोगों से प्रार्थना करता है कि वे अपने बच्चों को यहाँ पढ़ने भेजें। वे व्यय की चिन्ता न करें। लेखक पाँच-दस साल तक किसी अध्यापक को वेतन तो देगा ही नहीं। यदि श्रद्धा हुई तो भोजन की व्यवस्था कर देगा और उनसे कह देगा कि वे पाठशाला के धन का ही मिलकर नाश कर लिया करें।

लेखक-परिचय

जीवन-परिचय-

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी में 1850 ई० में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र गिरधरदासउपनाम से ब्रजभाषा में कविता लिखते थे। आपने क्वस कॉलेज में प्रवेश लिया परन्तु काव्य-रचना में विशेष रुचि होने के कारण कॉलेज छोड़ दिया। पिता से प्राप्त अपार सम्पत्ति उनकी उदारता, दानशीलता तथा परोपकार वृत्ति के कारण शीघ्र ही समाप्त हो गई। 1885 ई० में 35 वर्ष की अल्पायु में ही क्षय रोग से ग्रस्त होने के कारण आपका देहान्त हो गया।

साहित्यिक परिचय-

भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी की खड़ी बोली का कोई व्यवस्थित स्वरूप नहीं था। भारतेन्दु ने संस्कृत तथा उर्दू के प्रचलित शब्दों को लेकर खड़ी बोली को समुचित रूप प्रदान किया और इसमें गद्य-रचना की तथा अन्य लेखकों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया। इसी कारण भारतेन्दुजी को हिन्दी गद्य का जनककहा जाता है। इन्होंने 1868 ई० में कवि वचन सुधातथा 1873 ई० में हरिश्चन्द्र मैगजीनपत्रिकाएँ निकालीं। इन पत्रिकाओं तथा निबन्धों, नाटकों आदि के माध्यम से आपने जन-जागरण तथा समाज-सुधार और सांस्कृतिक क्रान्ति की भावना जगाई। आपको सन् 1880 में भारतेन्दु की उपाधि प्रदान की गई।

भारतेन्दु जी की भाषा में संस्कृत के तद्भव शब्दों के साथ लोकोक्तियों तथा मुहावरों का प्रयोग होने से उसमें लालित्य उत्पन्न हो गया हैं। उन्होंने वर्णनात्मक, विचारात्मक, भावात्मक तथा हास्य-व्यंग्य शैलियों का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है।

कृतियाँ-

 भारतेन्दु ने हिन्दी गद्य तथा पद्य दोनों में रचनाएँ कीं। सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘नीलदेवी’, ‘ श्री चन्द्रावली’, ‘भारत-दुर्दशा’, ‘अन्धेर नगरी’, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘विषस्यविषमौषधम्इत्यादि आपके प्रसिद्ध नाटक हैं।

पाठ के कठिन शब्द और उनके अर्थ

पर्यंक = पलंग। आँख लगना = नींद आ जाना। चलायमान = नाशवान। युक्ति = उपाय। चपल = चंचल। भरोसा = विश्वास। वृथा = व्यर्थ, बेकार। मग्न = विलीन। कालवश = समय के प्रभाव से। कीर्ति = यश। तप्त तवे की बूंद = गरम तवे पर पड़ी पानी की बूंद, क्षणभंगुर। देवालय = मन्दिर। परित्याग करना = छोड़ना। काँटे = बाधाएँ। कीट = कीड़ा। क्रिटिक = आलोचक। लाडली = प्यारी। समाधि लगाना = ध्यानमग्न होना। पूँछ हाथ में पड़ना = थोड़ा ज्ञान होना। मोहरें = रुपये, सिक्के। निदान = परिणामस्वरूप। कोटि = करोड़। ठोर = स्थान। पानी में पड़ना = व्यय होना।

 

कन्दरा = गुफा। लुप्तलोचन = नेत्रहीन। शीलदावानल = नीति और शील को जलाने वाला। सिवाय = अतिरिक्त। परद्रोह = दूसरों से दुश्मनी। परनिन्दा = दूसरों की बुराई। चित्त = मन। अंगीकार = स्वीकार। द्रव्य = धन। कपोल-कल्पना = निराधार विचार। अनुग्रह = कृपा। अभिलाषा = इच्छा। चैन = आराम। हाथ पर हाथ धर कर बैठना = कोई काम न करना। कृपा का विस्तार = अपार दया। कौन कीड़ा = सामर्थ्यहीन। दुष्कर = कठिन। डहडहे = मुरझाए। कामधेनु = सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली समुद्र मंथन में प्राप्त देवताओं की गाय। होनहार = भविष्य में होने वाला काम। कलिकाल = कलियुग। प्रयास = प्रयत्न। हाथ लगना = प्राप्त होना। निमित्त = लिए। वृहस्पति = देवताओं के गुरु। मृगयाशील = शिकारी। श्वानं = कुत्ता। शशी = खरगोश। बद्रिकाश्रम = बद्रीनाथ धाम। सरस्वती = विद्या की देवी। अबोध = अज्ञानी।

 

मानता = मान्यता, सम्मान। तराई = तलहटी, निचला प्रदेश। हरित = हरी। दूर्वा = दूब घास। कालक्षेप करना = समय बिताना। शृगाल = गीदड़। पानी फेरना = नष्ट करना। घट = शरीर आराम। प्राण = जीवन। औषधि = दवा। विथा = व्यथा, पीड़ा। अपेक्षा = प्रतीक्षा। चिकित्सा = इलाज। आतुर = व्याकुल। श्रवण = सुनना। लुप्तलोचन = नेत्रविहीन। सराहना = प्रशंसा। मासिक = व्यय। बन्धान = प्रबन्ध, निर्धारण। नियत = निश्चित। द्रव्य = धन।

महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

(1)

आज रात्रि को पर्यंक पर जाते ही अचानक आँख लग गई। सोते में सोचता क्या हूँ कि इस चलायमान शरीर का कुछ ठिकाना नहीं। इस संसार में नाम स्थिर रखने की कोई युक्ति निकल आवे तो अच्छा है, क्योंकि यहाँ की रीति देख मुझे पूरा विश्वास होता है कि इस चपल जीवन को क्षण-भर का भरोसा नहीं। ऐसा कहा भी है

स्वाँस स्वाँस पर हरि भजो वृथा स्वाँस मत खोय।

न जाने या स्वाँस को आवन होय न होय॥

देखो समय सागर में एक दिन सब संसार अवश्य मग्न हो जायेगा। कालवश शशि सूर्य भी नष्ट हो जायेंगे। आकाश में तारे भी कुछ काल पीछे दृष्टि न आवेंगे। केवल कीर्ति-कमल संसार-सरोवर में रहे वा न रहे, और सब तो एक तप्ते तवे की बूंद हुए बैठे हैं।

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।

 

लेखन ने एक रात एक विचित्र सपना देखा कि कोई काम करना चाहिए क्योंकि संसार में सब कुछ नश्वर है और जीवन भी स्थायी नहीं है।

 

व्याख्या-लेखक कहता है कि एक रात वह जैसे ही पलंग पर आकर लेटा, उसे नींद आ गई। नींद की दशा में ही उसने विचार किया कि संसार में जीवन स्थायी नहीं है। वह कभी भी नष्ट हो सकता है। मरने के बाद भी लोग उसे याद रखें, इसका कोई उपाय पता चल जाय तो अच्छा है। संसार के तौर-तरीके देखकर लेखक को पक्का विश्वास हो गया है कि जीवन चंचल और अस्थिर है। उसके स्थायित्व का एक क्षण भी विश्वास नहीं किया जा सकता। किसी कवि का यह कथन सच ही है कि हर बार श्वास लेते समय ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। एक भी श्वांस बेकार नहीं जाने देनी चाहिए। यह नहीं पता कि एक श्वास आने के पश्चात दूसरी श्वांस आयेगी भी अथवा नहीं। समय समुद्र के समान है।

एक दिन समयरूपी समुद्र में संसार का सबकुछ डूबकर नष्ट हो जायेगा। समय आने पर चन्द्रमा और सूर्य भी मिट जायेंगे। कुछ समय बाद आकाश में तारे भी दिखाई नहीं देंगे। मनुष्य के यश का कमल-पुष्प भी शेष रहेगा अथवा नहीं, यह भी पता नहीं है। जिस प्रकार गरम तवे पर पानी की बूंद गिरते ही नष्ट हो जाती है और क्षणभर में ही भाप बनकर उड़ जाती है, उसी प्रकार संसार में प्रत्येक वस्तु अस्थायी है। एक न एक दिन हर वस्तु नष्ट हो जाती है।

 

विशेष-

(i) भारतेन्दु जी ने संसार की नश्वरता का वर्णन करते हुए बताया है कि मनुष्य चाहता है कि मृत्यु के पश्चात लोग उसका नाम याद रखें। इसके लिए वह कुछ स्मरणीय काम करना चाहता है।

(ii) इन पंक्तियों में संसार की रीति-नीति पर प्रखर व्यंग्य किया गया है।

(iii) भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली है तथा शैली व्यंग्यात्मक है।

(2)

इस हेतु बहुत काल तक सोच समझ प्रथम यह विचार किया कि कोई देवालय बनाकर छोड़ जाऊँ, परन्तु थोड़ी ही देर में समझ में आ गया कि इन दिनों की सभ्यता के अनुसार इससे बड़ी कोई मूर्खता नहीं, और यह तो मुझे भली भाँति मालूम है कि यही अँग्रेजी शिक्षा रही तो मन्दिर की ओर मुख फेर कर भी कोई नहीं देखेगा। इस कारण विचार का परित्याग करना पड़ा। फिर पड़े-पड़े पुस्तक रचने की सूझी। परन्तु इस विचार में बड़े काँटे निकले क्योंकि बनाने की देर न होगी कि कीट क्रिटिककाटकर आधी से अधिक निगल जायेंगे। यश के स्थान पर शुद्ध अपयश प्राप्त होगा।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से उधृत है। इसके लेखक हिन्दी गद्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।

लेखक ने एक विचित्र सपना देखा उसने देखा कि इस संसार में सब कुछ नश्वर है। जीवन का भरोसा नहीं। कोई ऐसा उपाय हो जिससे मृत्यु के पश्चात लोग उसका नाम याद रखें।

व्याख्या-लेखक ने स्वप्न में ही विचार किया कि संसार में नाम स्थिर रखने की कोई युक्ति सोची जाय। इसके लिए बहुत समय तक सोचने के बाद उसके मन में पहली बार यह विचार आया कि वह कोई मन्दिर बनाकर छोड़ दे। मन्दिर को देखकर लोग उसको बनाने वाले के बारे में सोचेंगे। थोड़े समय तक सोचने के बाद उसको मन्दिर बनवाने का विचार ठीक नहीं लगा उसने सोचा कि अंग्रेजी शिक्षा का चारों ओर प्रसार हो रहा है। भारतीय सभ्यता इससे प्रभावित होती जा रही है। अंग्रेजी शिक्षा चलती रही तो कोई व्यक्ति मन्दिर की तरफ देखेगा भी नहीं।

आखिरकार उसे मन्दिर बनाने का विचार मूर्खतापूर्ण लगा। उसने मन्दिर बनवाने का विचार छोड़ दिया। फिर उसने सोचा कि किसी पुस्तक की रचना की जाय। परन्तु यह विचार भी उसको दोषपूर्ण लगा। उसने सोचा कि पुस्तक तैयार होने पर अनेक आलोचक उसमें दोष ढूँढ़ेंगे, जिस प्रकार कीड़ा किसी वस्तु को काट डालता है उसी प्रकार आलोचक पुस्तक में कमियाँ बताकर उसे पाठकों में अलोकप्रिय बना देंगे। इस प्रकार लेखक को पुस्तक लिखने पर यश के स्थान पर अपयश ही प्राप्त होगा।

विशेष-

(i) लेखक की भाषा सरल, बोधगम्य तथा विषयानुकूल है।

(ii) शैली व्यंग्य-विनोदपूर्ण है।

(iii) अपनी मृत्यु के पश्चात नाम अमर रखने की इच्छा पर व्यंग्य किया गया है।

(iv) स्वप्न की दशा में ही लेखक ने विचार किया है।

(3)

स्वप्न ही में प्रभात होते ही पाठशाला बनाने का विचार दृढ़ किया। परन्तु जब थैली में हाथ डाला तो केवल ग्यारह गाड़ी ही मुहरें निकलीं। आप जानते हैं इतने में मेरी अपूर्व पाठशाला का एक कोना भी नहीं बन सकता था। निदान अपने इष्ट मित्रों की भी सहायता लेनी पड़ी। ईश्वर को कोटि धन्यवाद देता हूँ जिसने हमारी ऐसी सुनी। यदि ईंटों के ठोर मुहर चुनवा लेते तब भी तो दस पाँच रेल रुपये और खर्च पड़ते। होते-होते सब हरि कृपा से बन कर ठीक हुआ। इसमें व्यय हुआ वह तो मुझे स्मरण नहीं है, परन्तु इतना अपने मुन्शी से मैंने सुना था कि एक का अंक और तीन सौ सत्तासी शून्य अकेले पानी में पड़े थे।

 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक प्रसिद्ध हिन्दी गद्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।

लेखक ने एक विचित्र स्वप्न देखा। सपने में वह कोई ऐसी युक्ति सोच रहा था जिससे संसार में उसका नाम स्थिर रहे। मन्दिर बनवाने और पुस्तक लिखने के विचार उसको ठीक प्रतीत नहीं हुए। अन्त में एक मित्र की सहायता से उसे एक विचार में उपयुक्तता का आभास हुआ।

 

व्याख्या-लेखक ने सपने में यह विचार पक्का मान लिया कि सवेरा होते ही वह एक पाठशाला का निर्माण कराएगा। उसने अपने संग्रहीत धन के बारे में पता किया तो पाया कि उसके पास बहुत कम धन था। इतने कम धन में पाठशाला का एक भाग भी नहीं बन सकता था। परिणामस्वरूप उसको अपने प्रियजनों और मित्रों से सहायता माँगनी पड़ी। ईश्वर की कृपा से मित्रों की अपूर्व सहायता से इतनी धनराशि प्राप्त हुई कि यदि वह ईंटों के स्थान पर सिक्कों से भवन बनवाता तब भी कुछ और अधिक रुपये ही खर्च होते। ईश्वर की दया से सब काम ठीक तरह से पूरा हुआ। पाठशाला बनवाने में कितना धन खर्च हुआ यह लेखक को नहीं पता परन्तु उसको मुंशी से पता चला कि इस काम में एक के अंक को बाद तीन सौ सत्तासी शून्य अर्थात अगणित धन व्यय हुआ था।

विशेष-

(i) लेखक ने मित्रों की सहायता से पाठशाला बनवाई जिसमें अगणित धन व्यय हुआ।

(ii) भाषा सरल तथा बोधगम्य है।

(iii) शैली व्यंग्यपूर्ण है।

 

(4)

 हम अपने इष्ट मित्रों की सहायता को भी न भूलेंगे कि जिनकी कृपा से इतना द्रव्य हाथ आया कि पाठशाला का सब खर्च चल गया और दस पाँच पीढ़ी तक हमारी सन्तान के लिए बच रहा। हमारे पुत्र, परिवार के लोग चैन से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। हे सज्जनो, यह तुम्हारी कृपा का विस्तार है कि तन मन से आप इस धर्म-कार्य में प्रवृत्त हुए, नहीं मैं दो हाथ पैर वाला बेचारा मनुष्य आपके आगे कौन कीड़ा था जो ऐसे दुष्कर कर्म को कर लेता? यहाँ तो घर की केवल मूंछे ही पूँछे थीं।

 

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं। लेखक ने एक सपना देखा। वह अपने नाम को संसार में स्थायी बनाना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने एक पाठशाला खोलने का विचार किया। अपने पास धन न होने पर उसने अपने मित्रों से सहायता माँगी। मित्रों ने जी। खोलकर सहायता प्रदान की।

व्याख्या-लेखक कहता है कि पाठशाला बनाने के लिए प्रियजनों तथा मित्रों से जो सहायता प्राप्त हुई, उसको वह कभी भी भुला न सकेगा। उनकी कृपा से इतना अधिक धन प्राप्त हुआ कि पाठशाला बनाने में हुए व्यय की पूर्ति हुई ही। उसकी संतान और पाँच-दस पीढ़ियों के लिए भी वह बचा रहा। लेखक के पुत्र और परिवार के सदस्यों को कोई काम नहीं करना पड़ा। वे आराम से रहे और उनकी सभी जरूरतें पूरी हुईं। लेखक उन सभी लोगों का एहसान मानता है जिनकी दया से यह धर्म का काम पूरा हो सका। लेखक तो एक साधारण मनुष्य है। इतने उदार और दानी पुरुषों की तुलना में वह सामर्थ्यहीन ही है। वह ऐसा कठिन काम कर ही नहीं सकता। उसके पास तो कोई साधन ही नहीं था। उसके मन में तो केवल विचार ही विचार थे।

विशेष-

(i) लेखक ने अपने प्रियजनों तथा मित्रों की दानशीलता का आभार मानकर अपनी सामर्थ्यहीनता को विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया है।

(ii) लेखक चन्दा माँगने वाले स्वार्थी समाज सेवकों का प्रतीक है।

(iii) समाज सेवा के नाम पर लोगों से धन माँग कर उससे अपना हित साधने तथा समृद्धिशाली बनने वालों पर कठोर व्यंग्य किया गया है।

(iv) भाषा सरल और सुबोध है। शैली व्यंग्यात्मक है।

 

(5)

संसार में पाठशालाएँ अनेक हुई होंगी, परन्तु हरि कृपा से जो सकलपूर्ण कामधेनु यह पाठशाला है वैसी, अचरज नहीं कि आपने इस जन्म में न देखी सुनी हो। होनहार बलवान है, नहीं तो कलिकाल में ऐसी पाठशाला का . बनाना कठिन था। देखिए, यह हम लोगों के भाग्य का उदय है कि ये महामुनि मुग्धमणि शास्त्री बिना प्रयास हाथ लग गये जिनको सतयुग के आदि में इन्द्र अपनी पाठशाला के निमित्त समुद्र और वन जंगलों में खोजता फिरा, अन्त को हार मान वृहस्पति को रखना पड़ा। हम फिर भी कहते हैं कि यह हमारे भाग्य की महिमा थी कि ये ही पण्डितराज मृगयाशील श्वान के मुख में शशी के धोखे बद्रिकाश्रम की एक कन्दरा में से पड़ गये। इनकी बुद्धि और विद्या की प्रशंसा करने में सरस्वती भी लजाती है। इसमें संदेह नहीं कि इनके थोड़े ही परिश्रम से पण्डित मूर्ख और अबोध पण्डित हो। जायेंगे।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक हिन्दी गद्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।

लेखक एक रात को देखे गए विचित्र सपने के बारे में बताते हुए कहता है कि उसने अपना नाम इस असार संसार में बनाए रखने के विचार से एक पाठशाला बनवाने का निश्चय किया।

व्याख्या-लेखक ने सपने में एक पाठशाला का निर्माण कराया। संसार में पाठशालाएँ तो अनेक होंगी किन्तु यह पाठशाला अद्भुत थी। ईश्वर की कृपा से बनी यह पाठशाला कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूरा करने वाली थी। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ऐसी पाठशाला पाठकों ने कभी नहीं देखा होगी अथवा उसके सम्बन्ध में कभी नहीं सुना होगा। जो होना होता है, उसे कोई रोक नहीं सकता अन्यथा कलियुग में ऐसी     पाठशाला का बनना सरल नहीं था। इस पाठशाला के लिए महामुनि मुग्धमणि शास्त्री अनायास प्राप्त हो गए।

उनको सतयुग में अपनी पाठशाला में रखने के लिए। देवराज इन्द्र उनकी तलाश में समुद्र और वनों में भटकते रहे थे। जब वह नहीं मिले तो उन्होंने हारकर वृहस्पति को अपनी पाठशाला में नियुक्त किया था। यह सौभाग्य की बात है कि लेखक को यह महामुनि अनायास ही मिल गए। जिस प्रकार शिकार के लिए निक़ले कुत्ते के मुँह में कोई खरगोश हो, उसी प्रकार बदरीनाथ धाम की हिमालय की गुफा में रह रहे यह महापण्डित भाग्यवश ही लेखक को प्राप्त हो गए। वह महान बुद्धिमान हैं। विद्या की देवी सरस्वती के वश में भी उनकी बुद्धि और विद्या की प्रशंसा करना नहीं है। इस बात में संदेह नहीं हो सकता कि इनके प्रयत्न और थोड़े समय के परिश्रम से पण्डित मूर्ख बन जायेंगे और अज्ञानी लोग ज्ञानवान बन जायेंगे।

विशेष-

(i) लेखक द्वारा सपने में बनाई गई पाठशाला अपूर्व है। उसमें नियुक्त अध्यापक भी अपूर्व और असाधारण हैं।

(ii) महामुनि मुग्धमणि शास्त्री पाठशाला में कार्यरत ऐसे ही अद्भुत अध्यापक हैं।

(iii) पाठशाला तथा उसके शिक्षकों का वर्णन व्यंग्य-विनोदपूर्ण है।

(iv) भाषा सरल और सुबोध है। शैली व्यंग्यपूर्ण है।

 

(6)

 इनसे भिन्न, पण्डित प्राणांतकप्रसाद भी प्रशंसनीय पुरुष हैं। जब तक इस घट में प्राण है तब तक न किसी पर इनकी प्रशंसा बन पड़ी, न बन पड़ेगी। ये महावैद्य के नाम से इस संसार में विख्यात हैं। चिकित्सा में ऐसे कुशल हैं कि चिता पर चढ़ते-चढ़ते रोगी इनके उपकार का गुण नहीं भूलता। कितना हो रोग से पीड़ित क्यों न हो, क्षण भर में स्वर्ग के सुख को प्राप्त होता है। जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक प्राणी के संसारी विथा लगी रहती है।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध गद्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं।

लेखक ने स्वप्न में एक अनुपम पाठशाला का निर्माण कराया। उसमें अनेक विद्वान पण्डितों को अध्यापक नियुक्त किया गया। मुग्धमणि शास्त्री तथा पाखण्डप्रिय इस विद्यालय के शिक्षक हैं।

व्याख्या-लेखक कहता है कि पण्डित प्राणान्तक प्रसाद भी इस पाठशाला के प्रशंसनीय शिक्षक हैं। जब तक किसी मनुष्य के शरीर में जीवन है तब तक न तो कोई इनकी प्रशंसा कर सका है और न कोई कर सकेगा। संसार में ये महावैद्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। रोगी का इलाज करने में ये अत्यन्त कुशल हैं। चिता पर चढ़ते हुए भी रोगी इनके द्वारा किए गए उपकार को नहीं भुला पाता। कोई मनुष्य कितने ही भयानक रोग से पीड़ित क्यों न हो, इनका उपचार आरम्भ होते ही क्षणभर में वह स्वर्गवासी होने का सुख प्राप्त कर लेता है। जब तक रोगी को इनकी दवा नहीं मिलती, तब तक ही उसको संसार के कष्ट सताते हैं। दवा मिलते ही वह कष्टों से मुक्त होकर स्वर्ग का सुख प्राप्त कर लेता है।

विशेष-

(i) लेखक की पाठशाला के विद्वान पंडितों में प्राणान्तक प्रसाद भी प्रशंसनीय अध्यापक हैं।

(ii) लेखक ने प्राणान्तक प्रसाद के रूप में अकुशले डॉक्टर-वैद्यों पर व्यंग्य-प्रहार किया है।

(iii) भाषा सरल और सुबोध है। शैली व्यंग्य प्रधान है।

 

(7)

अब आप सब सज्जनों से यही प्रार्थना है कि आप अपने-अपने लड़कों को भेजें और व्यय आदि की कुछ चिंता न करें, क्योंकि प्रथम तो हम किसी अध्यापक को मासिक देंगे ही नहीं और दिया भी तो अभी दस-पाँच वर्ष पीछे देखा जायेगा। यदि हमको भोजन की श्रद्धा हुई तो भोजन का बन्धान बाँध देंगे, नहीं यह नियत कर देंगे कि जो पाठशाला सम्बन्धी द्रव्य हो उसका वे सब मिलकर नास लिया करें।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक पाठ में अवतरित है। इस लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं। लेक ने स्वप्न में अपना नाम अमर रखने के लिए एक पाठशाला का निमार्ण के। इसमें अनेक विद्वान अध्यापक नियुक्त किए। ऐसी दुर्लभ पाठशाला के बनने पर उसने स्वयं को सौभाग्यशाली मानी और लोगों में प्रार्थना की कि वे अपने बच्चों की पाठशाला में पढ़ने भेजें।

व्याख्या-लेखक सभी सत्पुरुषों से प्रार्थना करता है कि वे अपने बालकों को इस अपूर्व दुर्लभ पाटशाला में पढ़ने भेजें। इस पाठशाला में पढ़ने भेजने पर होने वाले खर्च से भयभीत होने की आवश्यकता उनको नहीं है। पाठशाला के अध्यापकों को वेतन दिया ही नहीं जाएगा। फलत: विद्यार्थियों से शुल्क भी नहीं लिया जायगा। यदि वेतन देना आवश्यक हुआ तो दस-पाँच साल बाद इस बारे में विचार किया जाएगा। यदि अध्यापकों को भोजन कराने की श्रद्धा हुई तो भोजन का निर्धारण कर दिया जाएगा। यदि नहीं तो अध्यापकों से कह दिया जाएगा कि वे पाठशाला से सम्बन्धित धन को मिल-बाँट कर उपभोग करें।

विशेष-

(i) भाषा सरल और सुबोध है।

(ii) शैली व्यंग्यपूर्ण है।

(iii) समाज के ऐसे लोगों पर व्यंग्य किया गया है जो विद्यालयों के धन का दुरुपयोग करते हैं तथा भ्रष्टाचार फैलाते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म स्थान है

() काशी             () पटना             () जयपुर            () जलबपुर

2. ‘पर्यंकका शब्दार्थ है

() पलंग             () कुर्सी              () पाठशाला          () देवालय

3, ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नमें शरीर को बताया गया है|

() चलायमान       () स्थिर,             () चंचल              () शाश्वत

4. ‘तप्त तवे की बूंदका तात्पर्य है

() गरम              () क्षणभंगुर         () लाभदायक        () स्वास्थ्यप्रद

5. मृत्यु के पश्चात अपना नाम स्थायी रखने के लिए लेखक ने

() देवालय बनवाया                     () पुस्तक की रचना की

() पाठशाला बनवाई।                    () उपर्युक्त सभी

6. लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण द्वारा लिखी हुई पुस्तक है

() ज्योतिष रत्नावली                     () भविष्य दर्पण,   

() हस्तरेखा ज्ञान                        () तामिस्र मकरालय

7. देवराज इन्द्र ने अपनी पाठशाला में नियुक्त किया था

() प्राणान्तक प्रसाद को                   () लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण                        

() वृहस्पति को                             () मुग्धमणि शास्त्री को

8. प्रथम तो हम किसी अध्यापक को मासिक देंगे ही नहीं……’ से पता चलता है कि

() उस समय अध्यापक वेतन नहीं लेते थे।       

() उस समय अध्यापकों का शोषण होता था।

() उस समय मासिक वेतन देने की प्रथा नहीं थी।  

() उस समय अध्यापकों को कुछ खाद्य-पदार्थ ही दिए जाते थे।

उत्तर:-() ,() ,(),(),(),()(),()

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. लेखक के मन में प्रथम क्या विचार आया?

उत्तर:  लेखक के मन में प्रथम यह विचार आया कि संसार नाशवान है। इसमें अपने नाम को स्थायी और स्मरणीय बनाने के लिए कोई उपाय करना चाहिए

प्रश्न 2. उद्दण्ड पण्डित कहाँ से बुलवाये गये थे?

उत्तर: उद्दण्ड पण्डित हिमालय की कंदराओं से खोजकर बुलवाये गये थे।

प्रश्न 3. ज्योतिष विद्या में कुशल पण्डित का क्या नाम था?

उत्तर: ज्योतिष विद्या में कुशल पण्डित का नाम लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण था। लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 4. लेखक ने देवालय बनाने का विचार क्यों त्याग दिया?

उत्तर: लेखक ने देखा कि भारतीय समाज में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित है। इसके उत्तरोत्तर बढ़ने की ही सम्भावना है। यदि इसकी वृद्धि जारी रहेगी तो समाज में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जिनकी रुचि मन्दिर जाने की होगी ही नहीं। कोई मन्दिर की ओर मुँह उठाकर देखेगा भी नहीं। यह सोचकर लेखक ने देवालय बनाने का विचार त्याग दिया।

प्रश्न 5. पुस्तक लेखन के विचार पर लेख़क क्यों सहम गया?

उत्तर: पुस्तक लिखने का विचार लेखक ने किया परन्तु इसमें उसको बड़ी बाधा प्रतीत हुई। उसने सोचा कि आलोचक उसकी पुस्तक की कटु आलोचना करेंगे। इससे पाठकों को पुस्तक उपयोगी और लाभदायक लगेगी ही नहीं। फलतः वे इसे नहीं पड़ेंगे। यह विचार आते ही वह सहम गया।

प्रश्न 6. पण्डित प्राणान्तक प्रसाद की क्या विशेषता बताई गई है?

उत्तर: पण्डित प्राणान्तक प्रसाद प्रसिद्ध वैद्य हैं। जब तक वह रोगी को औषधि नहीं देते, तभी तक वह संसार के कष्ट उठाता है। उनकी दवा मिलते ही, उसको स्वर्गवास का सुख तुरन्त प्राप्त हो जाता है। चिता पर चढ़ते समय भी वह उनके उपकार नहीं भूलता।

प्रश्न 7. भारतेन्दु जी को हिन्दी गद्य का जनकक्यों कहा जाता है?

उत्तर: भारतेन्दु जी ने हिन्दी गद्य का प्रवर्तन किया था तथा उसको साहित्यिक रूप प्रदान किया था।

इसीलिए उन्हें हिंदी गद्य का जनक कहा जाता है।

प्रश्न 8. एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नके वर्णन का विषय क्या है?

उत्तर:एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नके वर्णन का विषय तत्कालीन भारतीय समाज है।

लोग अपना नाम स्थायी बनाने के लिए लालायित रहते हैं और यशस्वी बनना चाहते हैं।

प्रश्न 9. ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नकी रचना लेखक ने किस शैली में की है?

उत्तर; ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नकी रचना लेखक ने हास्य-व्यंग्यात्मक शैली में की है.

प्रश्न 10. एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नमें संसार की क्या विशेषता बताई गई है?

उत्तर:एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नमें संसार को नाशवान बताया गया है।

प्रश्न 11. लेखक ने अपना नाम संसार में स्थिर रखने के लिए क्या सोचा?

उत्तर: संसार में अपना नाम स्थिर रखने के लिए लेखक ने पहले देवालय, फिर पुस्तक लिखने और अंत में पाठशाला बनाने के बारे में सोचा।

प्रश्न 12. लेखक ने देवालय बनाने का विचार क्यों त्याग दिया?

उत्तर: अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण लोग देवालयों की उपेक्षा करेंगे-यह सोचकर लेखक ने देवालय बनाने का विचार छोड़ दिया।

प्रश्न 13. पुस्तक लिखने के विचार में बड़े काँटे निकले”-का क्या तात्पर्य है?

उत्तर: पुस्तक लिखने का विचार भी यशस्वी होने में उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता था।

दूसरी बात यह भी थी कि आलोचक पुस्तक में कुछ न कुछ कमी अवश्य निकालते जिसके कारण पुस्तक पाठकों को पसंद न आ पाती।

प्रश्न 14. पाठशाला बनाने में पहले क्या बाधा आई?

उत्तर: पाठशाला बनाने के लिए लेखक के पास पर्याप्त धन नहीं था।

प्रश्न 15. सतयुग में अपनी पाठशाला के लिए इन्द्र किस विद्वान अध्यापक को खोजते फिरे थे?

उत्तर: सतयुग में इन्द्र अपनी पाठशाला में अध्यापक नियुक्त करने के लिए महामुनि मुग्धमणि शास्त्री को खोजते फिर रहे थे।

प्रश्न 16. लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण ने किस पुस्तक की रचना की थी?

उत्तर: लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण ने तामिश्र-मकरालयपुस्तक की रचना की थी।

प्रश्न 17. पण्डित शीलदावानल के प्रमुख शिष्यों के नाम लिखिए।

उत्तर: वेणु, बाणासुर, रावण, दुर्योधन, शिशुपाल, कंस आदि पण्डित शीलदावानल के प्रमुख शिष्य थे।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नमें लेखक ने किस बात का वर्णन किया है?

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नमें लेखक ने अपने समय के समाज की विकृत दशा का वर्णन किया है। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, स्वार्थपरता, शिक्षा क्षेत्र की दुर्दशा, अंग्रेजी शासन की अत्याचारपूर्ण नीति, नश्वर संसार में यशस्वी होने की लालसा आदि का वर्णन भारतेन्दु जी ने इस निबन्ध में किया है। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से भारतीय किस प्रकार अपने धर्म और संस्कृति से विमुख हो रहे थे-निबन्ध में यह भी बताया गया है।

प्रश्न 2. नींद आने पर सपने में लेखक के मन में क्या विचार आया?

उत्तर: पलंग पर लेटते ही लेखक को नींद आ गई। सपने में उसने सोचा कि यह शरीर चलायमान है। संसार नाशवान है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि सभी वस्तुएँ एक दिने नष्ट हो जायेंगी। मनुष्य का यश भी स्थायी रहेगा अथवा नहीं, यह भी संशय की बात है। इस संसार में मरने के बाद भी नाम स्थिर रहे, इसका कोई उपाय करना चाहिए।

प्रश्न 3. “स्वांस स्वांस पर हरि भजौ वृथा स्वांस मत खोय। न जाने या स्वांस को आवन होय न होय।पद्य पंक्तियों में क्या संदेश दिया गया है?

उत्तर: स्वांस…………..होय’-पद्य में बताया गया है कि यह शरीर नश्वर है। कब मृत्यु आ जायेगी, इसका कुछ पता नहीं है। अत: जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग ईश्वर के स्मरण के लिए करना चाहिए।

प्रश्न 4. ‘सब तो एक तप्त तवे की बूंद हुए बैठे हैं-कहने का क्या आशय है?

उत्तर: सब तो ……….. बैठे हैंकहने का आशय यह है कि यह संसार क्षणभंगुर है। इसमें कुछ भी स्थायी नहीं है। जिस प्रकार गरम तवे पर गिरने पर पानी की बूंद क्षणभर में नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार इस संसार में कालवश प्रत्येक वस्तु नष्ट हो जाती है।

प्रश्न 5. ‘इन दिनों की सभ्यता के अनुसार इससे बड़ी कोई मूर्खता नहीं’–इस वाक्य में बड़ी मूर्खता किसको कहा गया है? इस संबंध में अपना मत भी प्रकट कीजिए।

उत्तर: भारतेन्दु के समय में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित थी जो लोगों के धार्मिक विचारों को प्रभावित कर रही थी। मंदिरों में लोगों की रुचि घट रही थी। ऐसे में मंदिर बनवाने के विचार को बड़ी मूर्खता बताया गया है। मेरे मत में अंग्रेजी शिक्षा धर्म विरोधी नहीं है बल्कि धर्मान्धता धर्म विरोधी है। उसमें सोच-विचार करके ही कोई काम करने पर बल दिया जाता है।

प्रश्न 6. ‘अब टूटे-फूटे विचारों से काम नहीं चलेगा’-वाक्य में किन विचारों को टूटा-फूटा माना गया है ? आपके मत में जो विचार मजबूत हो, उसका उल्लेख करें।

उत्तर: नाम को स्थायित्व प्रदान करने के लिए देवालय बनवाने तथा पुस्तक लिखने के विचार भारतेन्दु जी के अनुसार टूटे-फूटे हैं। हमारे मत में जनहित के कार्य, जैसे विद्यालय, औषधालय आदि बनवाने, बेरोजगारों के लिए रोजगार देने वाले कल-कारखानों आदि स्थापित करना मजबूत विचार हैं।

प्रश्न 7. बादशाह शाहजहाँ ने अपने प्रेम को स्थायी बनाने के लिए ताजमहल बनवाया था। क्या ऐसी ही कोई इमारत बनाने से नाम को स्थायित्व मिल सकता है? आपको इस बारे में क्या कहना है।

उत्तर: हमारे विचार से यह भी टूटी-फूटा विचार है। हर व्यक्ति ताजमहल जैसी इमारत नहीं बनवा सकता। इसके लिए उसके पास पैसा ही नहीं होगा वैसे भी ताजमहल के निर्माण के लिए शाहजहाँ की प्रशंसा नहीं होती। लोग तो इमारत की सुन्दरता की ही तारीफ करते हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं-इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।

प्रश्न 8.“कीट क्रिटिककाटकर आधी से अधिक निगल जायेंगेक्रिटिक (समालोचक) को कीट कहना आपकी दृष्टि में कहाँ तक उपयुक्त है ?

उत्तर: क्रिटिक अर्थात समालोचक को कीट कहना व्यंग्योक्ति है। समालोचक किसी पुस्तक की कटु आलोचना करके उसको अलोकप्रिय बना देते हैं। वैसे किसी रचना के गुण-दोष बताना समालोचक का ही काम है। अतः उसको पुस्तक को काटने वाला कीट कहना ठीक नहीं है।

प्रश्न 9. लेखक ने अपने नाम को स्थायी बनाने के लिए सर्वप्रथम क्या उपाय सोचा तथा उसको क्यों त्याग दिया?

उत्तर: अपने नाम को संसार में स्थायी बनाने के लिए सर्वप्रथम लेखक ने देवालय बनाने का विचार किया। थोड़ी देर बाद ही उसने इस विचार को यह सोचकर त्याग दिया कि देश में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित है। इसके उत्तरोत्तर बढ़ने की ही संभावना है। इस शिक्षा के चलते भारतीय मन्दिर की ओर मुँह करके भी नहीं देखेंगे।

प्रश्न 10. लेखक ने पुस्तक लिखने का विचार क्या सोचकर त्याग दिया?

उत्तर: अपने नाम को संसार में स्थायी बनाने के लिए लेखक ने पुस्तक लिखने का विचार किया परन्तु यह उपाय भी उसको उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। उसने यह सोचकर विचार त्याग दिया कि जिस प्रकार कीड़े किसी वस्तु को काट-काट कर नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार क्रिटिक अर्थात् आलोचक पुस्तक की दुरालोचना करके उसको प्रभावहीन बना देंगे। तब लेखक को पुस्तक लिखने पर यश के स्थान पर अपयश ही प्राप्त होगा।

प्रश्न 11. लेखक ने टूटे-फूटे विचार किसको माना है तथा क्यों?

उत्तर: लेखक ने देवालय बनाने तथा पुस्तक लिखने के विचारों को टूटा-फूटा माना है क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा के चलते कोई देवालय में नहीं जाएगा तथा आलोचक कटु आलोचना करके पुस्तक को प्रभावहीन बना देंगे। फलतः इन उपायों से लेखक को अपना नाम स्थायी बनाने में सहायता नहीं मिल सकती।

प्रश्न 12. पाठशाला के निर्माण में क्या बाधा उत्पन्न हुई? इसका लेखक ने क्या समाधान किया?

उत्तर: पाठशाला के निर्माण के लिए लेखक के पास पर्याप्त धन नहीं था। जो धन उसके पास था, उससे पाठशाला का एक कोना भी नहीं बन सकता था। इस समस्या का समाधान लेखक ने अपने इष्ट-मित्रों से आर्थिक सहायता माँगकर किया। इष्ट-मित्रों से सहायतार्थ प्राप्त अपार धन से पाठशाला का निर्माण हो सका।

प्रश्न 13. पाठशाला को बनाने में कितना धन व्यय हुआ?

उत्तर: लेखक को पता नहीं था कि पाठशाला को बनाने में कितना धन व्यय हुआ। उसके मुंशी ने उसे बताया कि उसको बनाने में एक का अंक और तीन सौ सत्तासी शून्य अर्थात् अगणित धनराशि व्यय हुई थी।

प्रश्न 14. पाठशाला में शिक्षकों की नियुक्ति किस प्रकार की गई?

उत्तर: पाठशाला के लिए हिमालय की कन्दराओं से तलाश करके अध्यापक बुलाये गये। इनकी संख्या पौन दशमलव से अधिक नहीं थी। पाठशाला में अनेक शिक्षक नियुक्त किये गये उनमें कुछ अध्यापक ही प्रमुख थे।

प्रश्न 15. यहाँ तो घर की केवल मूंछे ही मूछे थीं’-का तात्पर्य प्रकट कीजिए

उत्तर: भारतेन्दु जी ने पाठशाला के निर्माण का विचार किया। उनके पास पाठशाला बनाने के लिए धन नहीं था। मित्रों से सहायता माँगी। ईश्वर की कृपा से मित्रों से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ। लेखक के पास तो पाठशाला बनाने का विचार ही था। इसको बनाने का कोई साधन नहीं था।

प्रश्न 16. ‘होनहार बलवान है’-कथन में किसको बलवान बताया गया है तथा क्यों?

उत्तर: होनहार बलवान हैमें होनहार अर्थात भविष्य में अवश्यंभावी होने वाली घटनाओं को बलवान बताया गया है। भावी घटनायें मनुष्य को ज्ञात नहीं होतीं। वे अदृश्य रहकर भी अवश्य घटित होती हैं। मनुष्य चाहकर भी उनको घटित होने से नहीं रोक सकता। कुछ होनहार को समय भी कहते हैं। समय पर मनुष्य को वश नहीं चलता

पुरुष बड़ा नहिं होत है, समय होत बलवान।।

भीलन लूटीं गोपिका, वही अर्जुन, वही बान।।

प्रश्न 17. ‘जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक प्राणी के संसारी विथा लगी रहती है’-वाक्य में । लेखक ने किस शैली का प्रयोग किया है? इस कथन का तात्पर्य क्या है?

उत्तर: जब तक :::::::::::::: लगी रहती है’-वाक्य में भारतेन्दु जी ने हास्य-व्यंग्य शैली का प्रयोग किया है। इसमें अकुशल चिकित्सकों पर व्यंग्य किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि अकुशल चिकित्सक जैसे ही रोगी को दवा देता है। उसका प्राणान्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह भी है कि कुशल वैद्य से दवा प्राप्त होते ही रोगी रोगमुक्त हो जाता है।

प्रश्न 18. ‘जो पाठशाला सम्बन्धी द्रव्य हो उसका वे सब मिलकर नास लिया करें’ -वाक्य में नास लिया करें कैसा प्रयोग है?

उत्तर:  उपर्युक्त वाक्य में नास लिया करेंप्रयोग दोषपूर्ण है। नाश या विनाश करना तो कहा जाता है किन्तु नास लेना नहीं कहा जाता। भारतेन्दुकाल में खड़ी बोली गद्य का स्वरूप बन ही रहा था। अत: इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण प्रयोग प्रचलित थे।

प्रश्न 19. पाठशाला के प्रमुख अध्यापकों के नाम लिखिए।

उत्तर: पाठशाला में निम्नलिखित प्रमुख शिक्षक थेपण्डित मुग्धमणि शास्त्री तर्क वाचस्पति प्रथम अध्यापक थे। अन्य अध्यापकों में पाखण्डप्रिय धर्माधिकारी धर्मशास्त्र के अध्यापक थे।

प्राणान्तक प्रसाद वैयाकरण वैद्यकशास्त्र के अध्यापक थे। लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण ज्योतिषशास्त्र पढ़ाते थे। शीलदावानल नीतिदर्पण, नीतिशास्त्र और आत्मविद्या के शिक्षक थे।

प्रश्न 20. लेखक ने पाठशाला बनने पर ईश्वर को धन्यवाद क्यों दिया?

उत्तर: पाठशाला बनाने के लिए लेखक के पास धन नहीं था। ईश्वर की कृपा से ही मित्रों से सहायता के रूप में धन प्राप्त हुआ तथा विद्यालय के लिए एक से एक अच्छे अध्यापक उपलब्ध हो सके। ईश्वर के अनुग्रह से ही अपने नाम को स्थायी रखने की लेखक की अभिलाषा पूर्ण हो सकी।

प्रश्न 21. लेखक ने परमात्मा का धन्यवाद करते हुए उसकी किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?

उत्तर: लेखक ने विद्यालय बनने पर परमात्मा का धन्यवाद करते हुए उसको संसार का निर्माता तथा क्षणभर में ही उसको नष्ट करने वाला बताया है। उसने ही संसार के मनुष्यों में विद्या, शील, बल के साथ ही मान-मूर्खता, परद्रोह, परनिन्दा इत्यादि गुणों-अवगुणों को बनाया है। उसने ही लेखक की अभिलाषा को पूरा किया है। |

प्रश्न 22. लेखक एक विनम्र व्यक्ति है-एक अद्भुत अपूर्व स्वप्ननिबन्ध के आधार पर सिद्ध कीजिए।

उत्तर: पाठशाला के निर्माण का श्रेय लेखक ने ईश्वर की कृपा को दिया है। धन का अभाव ईश्वर की प्रेरणा से ही मित्रों द्वारा मुक्त हस्त से प्रदान की गई सहायता से ही दूर हुआ है। लेखक मित्रों का भी आभारी है।

उनकी सहायता के लिए लेखक द्वारा व्यक्त आभार उसकी विनम्रता को व्यक्त करने वाली है। नहीं मैं दो हाथ पैरों वाला मनुष्य आपके आगे कौन कीड़ा था, जो ऐसे दुष्कर्म को कर लेताइत्यादि लेखक के शब्द उसको परम विनीत प्रमाणित करते हैं।

प्रश्न 23. पाठशाला के प्रथम अध्यापक मुग्धमणि शास्त्री की विशेषताओं का वर्णन लेखक ने किस प्रकार किया है?

उत्तर: लेखक के अनुसार महामुनि मुग्धमणि शास्त्री पाठशाला के प्रथम अध्यापक हैं। सतयुग में इन्द्र इनको अपनी

पाठशाला में नियुक्त करना चाहते थे। इनके न मिलने पर वृहस्पति को नियुक्त किया था।

सरस्वती भी इनकी विद्या और बुद्धि की प्रशंसा नहीं कर पाती। इनके थोड़े से ही परिश्रम से पण्डित मूर्ख और अबोध पण्डित बन जायेंगे। लेखक ने इनकी व्यंग्यात्मक ढंग से प्रशंसा की है।

प्रश्न 24. पाखण्डप्रिय नामक अध्यापक का परिचय दीजिए।

उत्तर: पाखण्डप्रिय पाठशाला में धर्मशास्त्र के अध्यापक हैं। कभी भारत में इनकी बड़ी मान्यता थी, किन्तु अब अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण कोई इनको नहीं पूछता। इनकी बड़ी दुर्दशा है। यदि यह एक कार्तिक मास पाठशाला में रहें तो नवीन धर्मों पर चार-पाँच दिन में पानी फेर देंगे।

प्रश्न 25. पण्डित प्राणान्तक प्रसाद किस विषय के अध्यापक हैं? उनकी क्या विशेषतायें हैं?

उत्तर: पण्डित प्राणान्तक प्रसाद वैद्य हैं। वे रोगियों की चिकित्सा में कुशल हैं। जब तक वे रोगी को दवा नहीं देते। तभी तक वह संसार के कष्ट भोगता है। दवा मिलने के बाद तो शीघ्र ही वह स्वर्गवास का सुख पा लेता है।

प्रश्न 26. ज्योतिष विद्या के अध्यापक को संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर: ज्योतिष विद्या के अध्यापक हैं लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण। ये प्रकांड विद्वान हैं। कुशल ज्योतिषी हैं। ये आकाश के नवीन तारे खोज लाए हैं। यद्यपि इनकी आँखों के तारे बैठ गए हैं और इनको कुछ दिखाई नहीं देता। इन्होंने तामिश्र मकरालयनामक पुस्तक तथा अन्य अनेक पुस्तकें लिखी हैं।

प्रश्न 27. पण्डित शीलदावानल नीतिदर्पण का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर: पण्डित शीलदावानल नीतिदर्पण नीतिशास्त्र के अध्यापक हैं। ये बाल ब्रह्मचारी हैं। इन्होंने जीवन भर नीति शास्त्र पढ़ाया है। वेणु, बाणासुर, रावण, दुर्योधन, शिशुपाल, कंस इत्यादि इनके शिष्य रहे हैं। ब्रिटिश न्यायकर्ता इनके आदेश से ही आगे बढ़ते हैं।

प्रश्न 28. पाठशाला के अध्यापकों की विशेषताओं का चित्रण लेखक ने किस शैली में किया है। कोई एक उदाहरण देकर बताइए।

उत्तर: भारतेन्दु जी ने पाठशाला के अध्यापकों की विशेषताओं का वर्णन व्यंग्यपूर्ण शैली में किया है। उदाहरणार्थ-चिकित्सा शास्त्र के अध्यापक महावैद्य प्राणान्तक प्रसाद का परिचय देते हुए लेखक कहते हैं-कितना ही रोग से पीड़ित क्यों न हो। क्षणभर में ही स्वर्ग के सुख को प्राप्त होता है। जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक प्राणी को संसारी विथा लगी रहती है।

प्रश्न 29. लेखक के समय पाठशालाओं की अवस्था कैसी थी? ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नके आधार पर बताइए।

उत्तर: लेखक के समय पाठशालाओं और अध्यापकों की दशा अच्छी नहीं थी। लोग पाठशाला बनवाते थे तो उससे अपना स्वार्थ पूरा करते थे। वे तथा अध्यापक मिलकर पाठशाला के धन का दुरुपयोग करते थे। भ्रष्टाचार फैलाते थे। अध्यापकों को वेतन नहीं दिया जाता था। सीधा (भोजन) देने का रिवाज़ था।

प्रश्न 30. ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नपाठ के आधार पर बताइए कि भारतेन्दु जी की प्रकृति कैसी थी?

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नभारतेन्दु जी द्वारा लिखित हास्य-व्यंग्य शैली का निबन्ध है। इस निबन्ध से पता चलता है कि वह विनोदपूर्ण प्रकृति के व्यक्ति थे। उनका हास्य-विनोद पाठशाला और उसके शिक्षकों के वर्णन में व्यक्त हुआ है। उन्होंने अपने व्यंग्य-विनोदपूर्ण निबन्ध के माध्यम से कुछ लोगों की मानसिकता एवं सोच का पर्दाफाश किया है।

प्रश्न 31. ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’-शीर्षक आपकी दृष्टि में कितना उचित है?

उत्तर: भारतेन्दु ने अपने निबन्ध का शीर्षक एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नरखा है। इस निबन्ध में एक स्वप्न का वर्णन है। लेखक ने जो सपना देखा है, वैसा सपना प्रायः लोग नहीं देखते। यह स्वप्न विचित्र तो है ही अपूर्व भी है। इसमें एक कल्पित स्वप्न के द्वारा भारतीयों के आचरण पर व्यंग्य किया गया है। मेरी दृष्टि में यह शीर्षक सर्वथा उचित है।

 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1. एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नकी साहित्यिक विशेषताओं का परिचय दीजिए।

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नभारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित प्रसिद्ध निबन्ध है। इसकी साहित्यिक विशेषतायें निम्नलिखित हैं

विषयवस्तु-भारतेन्दु के समय का समाज इसकी विषयवस्तु है। उस समय समाज में धार्मिक अन्धविश्वास प्रचलित

थे। लोग स्वार्थी थे।

स्वार्थपूर्ति के लिए वे उचित-अनुचित कार्य करते थे। वे संसार की नश्वरता के बारे में जानते थे और नाशवान संसार में अपना नाम स्थिर रखने के लिए मन्दिर आदि बनवाया करते थे। शिक्षा के क्षेत्र में शोषण और भ्रष्टाचार फैला था। अंग्रेजों के शासन की नीति अत्याचारपूर्ण थी। अंग्रेजी शिक्षा भारतीयों के अनुरूप नहीं थी।

भाषा-निबन्ध की भाषा सरल और सुबोध है। भारतेन्दु जी ने तद्भव शब्दों का प्रयोग किया था। इसमें प्रयुक्त मुहावरों तथा लोकोक्तियों ने भाषा को प्रभावशाली बना दिया है।शैली-भारतेन्दु जी ने तत्कालीन समाज को इस निबन्ध में हास्य-व्यंग्यपूर्ण शैली में प्रस्तुत किया है। पाखण्ड, स्वार्थपरता, शिक्षा क्षेत्र तथा अंग्रेजी शासन पद्धति पर कटाक्ष किया गया है।

प्रश्न 2. एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नभारतेन्दु जी की व्यंग्य-विनोदपूर्ण रचना है। सोदाहरण प्रकट कीजिए।

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नभारतेन्दु जी की व्यंग्य-विनोदपूर्ण रचना है। लेखक ने इस निबन्ध में तत्कालीन समाज की दशा का व्यंग्यपूर्ण चित्रण किया है

धार्मिक अन्धविश्वास:

समाज में प्रचलित धार्मिक अन्धविश्वासों पर कठोर व्यंग्य-प्रहार हुआ है। लोग संसार को असार तो मानते थे किन्तु उसमें अपना नाम बनाये रखने के लिए कुछ भी उचित-अनुचित करते थे। वे मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाते थे परन्तु अपने आचरण में सुधार पर ध्यान नहीं देते थे।

पाठशाला का निर्माण:

लेखक ने स्वप्न में जो पाठशाला बनवाई, वह स्वार्थ साधन हेतु ही बनाई गई थी। यहाँ लेखक ने समाज से धन लेकर उसको स्वार्थ में उपयोग करने वालों पर व्यंग्य किया है।

शिक्षा की दशा:

निबन्ध में पाठशाला के बनने से लेकर उसके अध्यापकों की नियुक्ति, योग्यता तथा वेतन व्यवस्था आदि पर कठोर व्यंग्य किया गया है। अध्यापकों का वर्णन भी व्यंग्यपूर्ण ही है।

अंग्रेजों की नीति:

अंग्रेजों की नीति तथा अंग्रेजी शिक्षा पर भी व्यंग्य किया गया है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतेन्दु जी की रचना व्यंग्य विनोदपूर्ण रचना है।

प्रश्न 3. लेखक ने संसार का कैसा वर्णन किया है? नश्वर संसार में नाम बनाए रखने का उसका विचार आपको कैसा लगता है?

उत्तर: लेखक ने कहा है कि संसार नाशवान है। समय के सागर में एक दिन वह अवश्य डूब जायेगा। सूर्य और चन्द्रमा भी नष्ट हो जायेंगे। आकाश में तारे भी दिखाई नहीं देंगे। लेखक कहता है कि लोग संसार में अपना नाम और यश बनाए रखने के लिए अनेक कार्य किया करते हैं किन्तु इस नाशवान संसार में मनुष्य को यश संदा बना रहेगा, इसका भी कोई पक्का विश्वास नहीं है। जिस प्रकार गरम तवे पर पानी की बूंद गिरते ही नष्ट हो जाती है उसी प्रकार इस संसार में सब कुछ नष्ट हो जायेगा।

मृत्यु के पश्चात् नाम बना रहे इसका कोई उपाय करने का विचार कुछ विचित्र ही लगता है। लेखक मानता है कि जब सब कुछ नष्ट होने वाला है और उसको बचाया नहीं जा सकता तो नाम की रक्षा भी नहीं की जा सकती है। उसको भी अन्य चीजों के साथ नष्ट होना ही है।

प्रश्न 4. असार संसार में नाम स्थिर रखने के लिए लेखक ने क्या-क्या बातें सोचीं। उसका कौन-सा विचार सफल हुआ और किस प्रकार?

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नपाठ में लेखक ने बताया है कि उसने नींद में सपना देखा। उसने विचार किया कि यह संसारे नाशवान है। इसमें नाम को स्थिर रखने का कोई उपाय सोचना चाहिए। उसने सर्वप्रथम सोचा कि देवालय बनाया जाय किंतु फिर विचार आया अंग्रेजी शिक्षा के रहते कोई मन्दिर की ओर देखेगा भी नहीं।

अतः उसने मन्दिर बनवाने का विचार त्याग दिया।लेखक के मन में दूसरा विचार आया कि वह एक पुस्तक की रचना करे। फिर उसने सोचा कि समालोचक कीड़े की तरह उसकी पुस्तक को चट कर ज़ायेंगे। उसको यश के स्थान पर अपयश ही मिलेगा। अन्त में उसने एक पाठशाला बनाने की बात सोची।

उसके पास पाठशाला बनाने लायक धन नहीं था किन्तु लेखक का यह विचार ईश्वर की कृपा तथा मित्रों की सहायता से सफल हुआ। इस उत्कृष्ट पाठशाला के शिक्षक भी अभूतपूर्व थे।

प्रश्न 5. लेखक ने स्वप्न में जो पाठशाला बनवाई उसकी क्या विशेषताएँ हैं? लिखिए।

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नपाठ में वर्णित पाठशाला की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

स्वप्न में बनी पाठशाला अद्भुत और सारी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। ऐसी पाठशाला ने पहले कभी बनी है, न किसी ने देखी-सुनी है।

इस पाठशाला का निर्माण ईश्वर की कृपा तथा मित्रों के उदारतापूर्वक धन देने से संभव हुआ है।

इस पाठशाला में पढ़ाने वाले अध्यापक भी अनुपम हैं।

महामुनि मुग्धमणि शास्त्री, पाठशाला के प्रथम अध्यापक हैं। ये इतने महान हैं कि सतयुग में इन्द्र इनको अपनी पाठशाला में नियुक्त  करना चाहता था। अन्य अध्यापक भी असाधारण हैं।

इस पाठशाला में अध्यापकों को मासिक वेतन नहीं दिया जाता श्रद्धावश केवल भोजन दिया जाता है। अध्यापक मिलकर पाठशाला के धन का दुरुपयोग भी कर लेते हैं

प्रश्न 6. लेखक की पाठशाला के अध्यापकों को संक्षेप में परिचय दीजिए।

उत्तर: भारतेन्दु जी की पाठशाला के कुछ प्रमुख अध्यापक और उनकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

महामुनि मुग्धमणि शास्त्री-ये पाठशाला के प्रथम अध्यापक हैं। थोड़े से प्रयत्न से ही यह विद्वान को मूर्ख और। मूर्ख को विद्वान बना देते हैं।

पाखण्डप्रिय-यह पाठशाला में धर्मशास्त्र के शिक्षक हैं। यह सभी धर्मों को नष्ट करने में सक्षम हैं।

प्राणान्तक प्रसाद-यह महावैद्य हैं, चिकित्सा शास्त्र के शिक्षक हैं। इनकी औषधि सेवन करते ही रोगी क्षणभर में स्वर्ग के सुख को पा लेता है।

लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण-ये ज्योतिष विद्या पढ़ाते हैं। इनकी आँखों की पुतलियाँ देखने में असमर्थ हैं किन्तु ये आकाश में नवीन तारे खोज चुके हैं।

शीलदावानल नीतिदर्पण-नीतिशास्त्र पढ़ाते हैं। वेणु, बाणासुर, रावण, दुर्योधन, शिशुपाल, कंस आदि इनके शिष्य रहे हैं। इनकी शिष्य परंपरा ही बता रही है कि यह कितने नीतिवान अध्यापक हैं।इसी प्रकार पाठशाला के अन्य अध्यापकों की कुछ न कुछ अप्रतिम विशेषता अवश्य है।

प्रश्न 7. ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नशीर्षक निबन्ध में लेखक ने क्या संदेश दिया है?

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नभारतेन्दु जी की हास्य-व्यंग्यपूर्ण रचना है। यद्यपि यह कोई उपदेशात्मक रचना नहीं है किन्तु इसमें एक संदेश अवश्य निहित है। जो लोग असार संसार में अपना नाम अमर करना चाहते हैं, उन्हें समाज के हित के लिए नि:स्वार्थ भाव से कार्य करना चाहिए।

पाठ में अच्छा कार्य करने और अपना आचरण सुधारने का सन्देश निहित है। लेखक अंग्रेजी शिक्षा के कारण स्वधर्म और संस्कृति की उपेक्षा न करने का संदेश दिया है।लेखक का अप्रत्यक्ष संदेश भारत में बिगड़ी हुई शिक्षा-व्यवस्था में सुधार करने के बारे में है।

देश में शिक्षा के प्रसार के लिए विद्यालय स्थापित करना मन्दिर आदि बनवाने की तुलना में अच्छा है। लेखक त्याग भावना के साथ यह काम करने की प्रेरणा दे रहा है। लेखक ने समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को त्यागने और विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण न करने का संदेश भी दिया है।

प्रश्न 8. हिन्दी गद्य के विकास में भारतेन्दु जी के योगदान पर प्रकाश डालिए।अथवा भारतेन्दु को हिन्दी गद्य का जनक क्यों कहा जाता है?

उत्तर: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हिन्दी गद्य के स्वरूप निर्माण में अत्यधिक योगदान है। इसी कारण उनको हिन्दी गद्य का जनक कहा जाता है। भारतेन्दु जी के समय तक हिन्दी में पद्य की ही प्रधानता थी, गद्य की नहीं। भारतेन्दु ने गद्य की रचना खड़ी बोली में करना उचित माना।

भारतेन्दु से पूर्व खड़ी बोली का रूप सुनिश्चित नहीं था। राजा शिवप्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह के मतों में समन्वय पैदा करते हुए भारतेन्दु ने मध्यवर्ती मार्ग अपनाया। उनके द्वारा अपनाई गई भाषा-शैली का स्वरूप सहज और स्वाभाविक है। भारतेन्दु ने स्वयं निबन्ध, नाटक,समालोचना आदि की रचना की तथा अन्य लेखकों को भी उसके लिए प्रेरित किया।भारतेन्दु जी ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। इनका उपयोग अन्य लेखकों को प्रोत्साहित करने तथा भाषा के रूप-संस्कार हेतु किया गया।

प्रश्न 9. सप्रमाण सिद्ध कीजिए कि भारतेन्दु जी ने इस निबन्ध में तत्कालीन समाज का चित्र व्यंग्य के माध्यम से उपस्थित किया है। .

उत्तर: एक अद्भुत अपूर्व स्वप्नेनिबंध में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तत्कालीन समाज का चित्र व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। इसका सप्रमाण वर्णन निम्नलिखित है

धार्मिक अन्धविश्वास:

उस समय नश्वर संसार में नाम स्थिर रखने का विचार तथा उसके लिए मंदिर आदि बनवाने का कार्य लोग करते थे। इस कार्य के लिए वे अपनी अवैध कमाई को भी लगाते थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नवीन पीढ़ी के लोग मंदिर आदि के प्रति आकर्षित नहीं होते थे।

चन्दा माँगना:

लोग सामाजिक, धार्मिक आदि कार्य चन्दा माँग कर करते थे। उस धन का उपयोग वे अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भी करते थे। लेखक के ही शब्दों में-इतना द्रव्य हाथ आया कि पाठशाला का सब खर्च चल गया और दस-पाँच पीढ़ी तक हमारी सन्तान के लिए बच रहा।

शिक्षा-क्षेत्र:

शिक्षा के क्षेत्र में दुरवस्था थी। लोग शिक्षित नहीं थे। शिक्षक अयोग्य होते थे। विद्यालयों के संचालक शिक्षकों को वेतन नहीं देते थे। वे शिक्षकों के साथ मिलकर विद्यालयों के धन का भ्रष्टतापूर्ण दुरुपयोग करते थे।

अंग्रेजी शासन की नीतियाँ ठीक नहीं थीं। शासक अन्यायपूर्ण आचरण करते थे। अंग्रेजी शिक्षा लोगों को भारतीयता से विमुख बना रही थी।

व्यंग्य रचना:

शब्द-चयन, वाक्य-रचना तथा अध्यापकों के वर्णन आदि में हास्य-व्यंग्य देखा जा सकता है। शिक्षकोंके नाम हास्य व्यंग्य युक्त हैं। प्राणान्तक प्रसाद के बारे में लेखक की टिप्पणी जब तक औषधि नहीं देते केवल उसी समय तक प्राणी के संसारी विथा लगी रहती है ………… क्षणभर में स्वर्ग के सुख को प्राप्त होता है …..” तत्कालीन वैद्यों पर कठोर व्यंग्य प्रहार है।

प्रश्न 10. भारतेन्दु की शैली पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: भारतेन्दु की गद्य शैली के निम्नलिखित रूप उनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं

(1) वर्णनात्मक शैली-किसी रचना में वर्णन की आवश्यकता होने पर वर्णनात्मक शैली का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ-देखो, समय सागर में एक दिन सब संसार निमग्न हो जायेगा।

कालवश शशि-सूर्य भी नष्ट हो जायेंगे। आकाश में तारे भी कुछ काल पीछे दृष्टि न आयेंगे आदि। भारतेंदु जी ने यथास्थान इस शैली को अपनाया है।

(2) विचारात्मक शैली-विचार प्रधान निबन्धों में गम्भीर चिन्तन और विचारों को व्यक्त करने में आपने इस शैली का प्रयोग किया है।

(3) भावात्मक शैली-भावों की प्रधानता होने पर लेखक ने भावात्मक शैली का प्रयोग किया है। (4) उपदेशात्मक शैलीपाठकों का मार्गदर्शन करते समय या परामर्श देते समय लेखक ने इस शैली का प्रयोग किया है।

(5) हास्य-व्यंग्यपूर्ण शैली-यह भारतेन्दु जी की प्रमुख गद्य शैली है। अन्धविश्वास, स्वार्थ तथा सामाजिक अनाचार पर लेखक ने इसी शैली में प्रहार किया है।

उदाहरणार्थ-……… इतना द्रव्य हाथ आया कि पाठशाला का खर्च चल गया और दस-पाँच पीढ़ी तक हमारी सन्तान के लिए भी बच रहा।

                                                                            

संकलन - महेश कुमार बैरवा 







एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न



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कुमार MAHESH

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