यूँही भटक गया हो इंसान..........
रोगी था,मनोरोगी था,था पागल,सटक गया इंसान,
मानो बेअसर थे जहर सारे, यूँही गटक गया इंसान।
अपने चैनो-अमन की ख़ातिर,नींद जग की छिनके,
जुनून और खुमारी में नाहक, यूँही मटक गया इंसान।
शतरंजी बिसातों के मोहरों सा,जमातो में बँटता रहा,
जातियों,धर्मों के तिलिस्म में, यूँही अटक गया इंसान ।
अरदास-अजान सब मौन, मौन सियासी उठापटक,
पसरा सन्नाटा -खामोशी , यूं ही लटक गया इंसान।
अब जब कहर बरपा हैं,बीमारी के रूप में कुदरत का ,
रब से, सब से, सारे रिश्ते , यूँ ही झटक गया इंसान।
पत्थर से पथरीली तो ,पहले से थी फितरत इंसानी,
अब पत्थर से शीशा बना, यूं ही चटक गया इंसान।
उसका करिश्मा कुछ इसी तरह का होता होगा"महेश"
गर इंसानियत से हो गुमराह,यूँही भटक गया हो इंसान।
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