प्रकृति-अनुकूलित सृजना हो..
समय अच्छा हो ,या
बुरा ,कट ही जाता है,
अगर समय गुजारने की
,कोई योजना हो.
हमने खुद को खुदा माना ,नतीजा सामने है,
जग के रखवाले उस रब की,अब प्रार्थना हो.
हम मिट्टी के पुतले
,बनाता भी,मिटाता भी वो ,
बैर-वैमनस्य को छोड़
कर,अब प्रेम भावना हो.
गर्दिश में घिरे इंसान की, आँखों के आँसू
पोंछे,
पत्थरों में खुशबु होती नहीं,फूलों की साधना
हो.
आफत के इस दलदल
में, कमल से खिले ,
मर रहे अंधेरों में,
अब रौशनी की कल्पना हो.
आज हमारा अच्छा,और भविष्य भी हो बेहतर ,
पावन हो कर्म , प्रकृति-अनुकूलित सृजना हो.
प्रकृति और मानव, एक दुसरे
के सहायक रहे,
भूल कर भी ना भूल हो कभी
,ऐसी कामना हो.
हर कण -कण में , हर जीव
में वो समाया है ,
उस दयालु की ,उस कृपालु की आराधना हो .
कुमार महेश [26-03-2020]
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