लोक-डाउन उर्फ़ गरीब की मौत
पिछले साल लगे लोक-डाउन ने मुकेश की जैसे सारी खुशियाँ छिन ली थी.आज फिर
पुलिस की गाडी कोरोना के भयंकर संक्रमण के कारण लोगों को घरों मे रहने के लिए
निनादी कर रही थीं। आज भी उसे दिहाड़ी नहीं मिली थी.और वह वेदना से व्याकुल उसके भाग्यविधाता
को मन ही मन कोसते हुये रेल्वे ब्रिज से गुजरा , तो दूर आती ट्रेन को देखकर न
जाने क्या क्या सोच बैठा।ट्रेन के पास आते ही उसके जेहन में सावित्री और सौम्या का
उदास चेहरा साकार हो उठा। उसके मन में जल्दी से अपने आशियाने पर पहुंचने की लालसा
जागृत हो उठी। पर सावित्री के शब्द उसके कानों में बार बार प्रतिध्वनि कर उसे
आत्मघात करने को बाध्य कर रहे थे-
"गरीब को जीने के लिए न
जाने कितनी बार मरना पडता है,न जाने कैसे कैसे समझौते करने
पडते हैं।"
उसे लगने लगा की उसके पांव की
जमीन रेत की मानिंद सरक रही हैं,और वह अन्धखाई में गिर रहा है ।
उसे लगने लगा की वक्त रूपी दानव
ने उसका सब कुछ उससे छिन लिया है । एक अंतर्द्वंद सा उसके मनो-मस्तिष्क में चलने
लगा और पुरे सप्ताह भर की घटनाएँ चल चित्र की तरह आँखों के सामने चलने लगी ।
लोक-डाउन में किस तरह वह रोजगार
के लिए कहाँ कहाँ नहीं भटका ।
कम दाम पर भी काम करने को तैयार
हो गया । पर काम .......नहीं .......मिला ।
पिछले सप्ताह जब वह ठेकेदार से
अपनी पुरानी दिहाड़ी का पैसा लेने गया था, तो हर बार की तरह की उसे टाल कर भगा दिया
गया था .उसने कितनी याचना की थी –
“साहब मेरे घर में खाने का एक
दाना भी नहीं है . मेरी बेटी सोम्या बीमार है .मुझे आधे पैसे ही दे दो ।”
“इस लोक-डाउन के कारण पेमेंट
अटक गया है । पेमेंट होने पर ही .......”
“चल चल अब जा .........रोने
गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होगा.”
ठेकेदार की कर्कश आवाज ने उसे
भयभीत कर दिया ।
व्यथित ह्रदय से घर लौटा – तो
देखा हल्की रौशनी अन्दर फैली थी .दरवाजे पर महंगी कम्पनी के जूते खुली हैं । आहिस्ता से उसने दरवाजा धकेला और फिर
वह अन्दर का दृश्य देखकर एक बार तो पाषाण हो गया ।
फिर गालियाँ बकते हुए उसने जोर
जोर से अपना सिर दिवार पर पीटना शुरू कर दिया ।
मकान मालिक का लड़का चुपके से
चला गया ...
सावित्री ने अपने कपडे संभालते
हुए अपनी हथेलियाँ दिवार और पति के सिर के बीच डाल दी ।
सावित्री करुण विलाप करती हुई
कहने लगी – “मैं हार गयी .........सोम्या
के पापा, मै भटक गयी .पाप कर बैठी .”
“तुम्हारा हाल मुझसे देखा नहीं
जाता...”.
“दो दिन से मेरी बेटी भूख और
बुखार से तडप रही है ..... मैं क्या करती ?”
चार महीने से मकान का किराया
बाकी था, तो वो सामान बाहर फेकनें की धमकी दे रहा था .
“मैंने उससे मिन्नते की
....उसके पैर पड़ी .....पर .... पर .....”
“उसने मेरे सामने शर्त रख दी
...... मैं क्या करती ? मैं दिल से बस तुम्हारी हूँ . मैंने बस तुम्हारे और सोम्या
की खातिर ही ये पाप किया है .......”
मुकेश ने सावित्री के हाथों को
झटकते हुए कहा .... मर गयी तू मेरे लिए .......
हाँ-हाँ मैं मर गयी ...... पर
तुम्हारी खातिर ....... बच्ची की खातिर ।
“आप भी तो हमारे लिए रोज रोज मर
रहे हो ....... घुट रहे हो .... दर-दर भटक रहे हो ....आपका ये हाल जीवित आदमी सा
लगता है ?”
सच तो यह है की - "गरीब को
जीने के लिए न जाने कितनी बार मरना पडता है ,सोम्या के पापा!,
न जाने कैसे कैसे समझौते करने
पडते हैं।" सरकारें सिर्फ अमीरों के लिए है, हमारे लिए है सिर्फ मौत
.................... ।
पटरियों पर सन्नाटा पसरा था ,मुकेश
चला जा रहा था ...................
मुकेश सावित्री से खिन्न और पाने
आप से कुंठित हो कर कई दिनों से सोया नहीं था ।
आज सुकून की नीदं चाहता था .............
सुबह टी.वी. और अखबार की
सुर्खियाँ थी – “ एक और प्रवासी की ट्रेन
से कट कर मौत ”
शाम को प्राइम टाइम में सत्ता
पक्ष और विपक्ष के नेताओं में बहस चल रही थी --- “हत्या है या आत्महत्या”
पर मुझे पता है ---- ये नींद
सिस्टम की है !
क्या आपको पता है ?
कुमार महेश
“व्यथित मन का सृजन”
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