Galta Loha Hindi "Story" Shekhar Joshi
शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’
मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की
ओर मुड़ गए. उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लोहार के आफर की वह अनुगूँज शेष
थी जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था.
निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज, ठंडे लोहे पर लगती चोट से उठता ठनकता स्वर और
निशाना साधने से पहले खाली निहाई पर पड़ती हथौड़ी की खनक जिन्हें वह दूर से ही
पहचान सकता था.
लंबे बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने
खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आएगा. बूढ़े
वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा. यही क्या, जन्म भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने
घर-संसार चलाया था, वह भी अब
वैसे कहाँ कर पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उनपर श्रद्धा
रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं झेल
पाता. सुबह-सुबह जैसे उससे सहारा पाने की नीयत से ही उन्होंने गहरा निःश्वास लेकर
कहा था-
‘आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, अब मुश्किल ही लग रहा है. यह दो मील की सीधी
चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं. एकाएक ना भी नहीं कहा जा सकता, कुछ समझ में नहीं आता!’
मोहन उनका आशय न समझता हो ऐसी बात नहीं लेकिन पिता की तरह ऐसे अनुष्ठान कर
पाने का न उसे अभ्यास ही है और न वैसी गति. पिता की बातें सुनकर भी उसने उनका भार
हलका करने का कोई सुझाव नहीं दिया. जैसे हवा में बात कह दी गई थी वैसे ही
अनुत्तरित रह गई.
पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला था लेकिन हँसुवे की धार
पर हाथ फेरते हुए उसे लगा वह पूरी तरह कुंद हो चुकी है.
धनराम अपने बाएँ हाथ से धौंकनी फूँकता हुआ दाएँ हाथ से भट्ठी में गरम होते
लोहे को उलट-पलट रहा था और मोहन भट्ठी से दूर हटकर एक खाली कनिस्तर के ऊपर बैठा
उसकी कारीगरी को पारखी निगाहों से देख रहा था.
‘मास्टर त्रिलोक
सिंह तो अब गुजर गए होंगे,’ मोहन ने पूछा.
वे दोनों अब अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे. धनराम की आँखों में एक
चमक-सी आ गई. वह बोला, ‘मास्साब भी क्या आदमी थे लला! अभी पिछले साल ही गुजरे. सच कहूँ, आखिरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा ही रहता था.’
दोनों हो-हो कर हँस दिए. कुछ
क्षणों के लिए वे दोनों ही जैसे किसी बीती हुई दुनिया में लौट गए.
गोपाल सिंह की दुकान से हुक्के का आखिरी कश खींचकर त्रिलोक सिंह स्कूल की
चहारदीवारी में उतरते हैं.
थोड़ी देर पहले तक धमाचौकड़ी मचाते, उठा-पटक करते और बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूलते बच्चों को
जैसे साँप सूँघ गया है. कड़े स्वर में वह पूछते हैं, ‘प्रार्थना कर ली तुम लोगों ने?’
यह जानते हुए भी कि यदि प्रार्थना हो गई होती तो गोपाल सिंह की दुकान तक
उनका समवेत स्वर पहुँचता ही, त्रिलोक सिंह घूर-घूरकर एक-एक लड़के को देखते हैं. फिर वही कड़कदार आवाज, ‘मोहन नहीं आया आज?’
मोहन उनका चहेता शिष्य था. पुरोहित खानदान का कुशाग्र बुद्धि का बालक पढ़ने
में ही नहीं, गायन में
भी बेजोड़. त्रिलोक सिंह मास्टर ने उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था. वही
सुबह-सुबह, ‘हे प्रभो
आनंददाता! ज्ञान हमको दीजिए.’ का पहला स्वर उठाकर प्रार्थना शुरू करता था.
मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें थीं. कक्षा में किसी
छात्र को कोई सवाल न आने पर वही सवाल वे मोहन से पूछते और उनका अनुमान सही निकलता.
मोहन ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट कर देता और तब वे उस फिसड्डी बालक को दंड
देने का भार मोहन पर डाल देते.
‘पकड़ इसका कान, और लगवा इससे दस उठक-बैठक,’ वे आदेश दे देते. धनराम भी उन अनेक छात्रों में से एक था जिसने
त्रिलोक सिंह मास्टर के आदेश पर अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार बेंत खाए थे या
कान खिंचवाए थे. मोहन के प्रति थोड़ी-बहुत ईर्ष्या रहने पर भी धनराम प्रारंभ से ही
उसके प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था. इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही
मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी
नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का अधिकार ही समझता रहा था. बीच-बीच में त्रिलोक सिंह
मास्टर का यह कहना कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा
करेगा, धनराम के लिए किसी
और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखता था.
और धनराम! वह गाँव के दूसरे खेतिहर या मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह
किसी प्रकार तीसरे दर्जे तक ही स्कूल का मुँह देख पाया था. त्रिलोक सिंह मास्टर
कभी-कभार ही उस पर विशेष ध्यान देते थे. एक दिन अचानक ही उन्होंने पूछ लिया था, ‘धनुवाँ! तेरह का पहाड़ा सुना तो!’
बारह तक का पहाड़ा तो उसने किसी तरह याद कर लिया था लेकिन तेरह का ही
पहाड़ा उसके लिए पहाड़ हो गया था.
‘तेरै एकम तेरै
तेरै दूणी चौबीस’
सटाक्! एक संटी उसकी पिंडलियों पर मास्साब ने लगाई थी कि वह टूट गई. गुस्से
में उन्होंने आदेश दिया, ‘जा! नाले से एक अच्छी मजबूत संटी तोड़कर ला, फिर तुझे तेरह का पहाड़ा याद कराता हूँ.’
त्रिलोक सिंह मास्टर का यह सामान्य नियम था. सजा पाने वाले को ही अपने लिए
हथियार भी जुटाना होता था; और जाहिर है, बलि का
बकरा अपने से अधिक मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे
वह अपने लिए नहीं बल्कि किसी दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार का चुनाव कर रहा
हो.
धनराम की मंदबुद्धि रही हो या मन में बैठा हुआ डर कि पूरे दिन घोटा लगाने
पर भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था. छुट्टी के समय जब मास्साब ने उससे
दुबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह फिर लड़खड़ा
गया था. लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की
बजाय जबान की चाबुक लगा दी थी, ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?’ अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर
उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थीं. किताबों की विद्या का ताप
लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की नहीं थी. धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ ही था
कि बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और
फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा. फ़र्क इतना ही था कि
जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहाँ
गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और जरा-सी गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते. एक दिन
गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस
के गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के आफर को धनराम का आफर कहने लगे थे.
प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते ही मोहन ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक
सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर दिया तो साधारण हैसियत वाले
यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला बढ़ गया और वे भी अपने
पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे. पीढ़ियों से चले आते
पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था. दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी तरह
परिवार का आधा पेट भर पाते थे. मोहन पढ़-लिखकर वंश का दारिद्र्य मिटा दे यह उनकी
हार्दिक इच्छा थी. लेकिन इच्छा होने भर से ही सब-कुछ नहीं हो जाता. आगे की पढ़ाई
के लिए जो स्कूल था वह गाँव से चार मील दूर था. दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के
मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी. तो भी वंशीधर ने हिम्मत
नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल में लिखा दिया. बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर
स्कूल जाता और छुट्टी के बाद थका-माँदा घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से
विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित करने की कोशिश करते रहते.
वर्षा के दिनों में नदी पार करने की कठिनाई को देखते हुए वंशीधर ने नदी पार
के गाँव में एक यजमान के घर पर मोहन का डेरा तय कर दिया था. घर के अन्य बच्चों की
तरह मोहन खा-पीकर स्कूल जाता और छुट्टियों में नदी उतार पर होने पर गाँव लौट आता
था. संयोग की बात, एक बार
छुट्टी के पहले दिन जब नदी का पानी उतार पर ही था और मोहन कुछ घसियारों के साथ नदी
पार कर घर आ रहा था तो पहाड़ी के दूसरी ओर भारी वर्षा होने के कारण अचानक नदी का
पानी बढ़ गया. पहले नदी की धारा में झाड़-झंखाड़ और पात-पतेल आने शुरू हुए तो
अनुभवी घसियारों ने तेजी से पानी को काटकर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन किनारे
पहुँचते-न-पहुँचते मटमैले पानी का रेला उन तक आ ही पहुँचा. वे लोग किसी प्रकार
सकुशल इस पार पहुँचने में सफल हो सके. इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और बच्चे के
भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे.
बिरादरी के एक संपन्न परिवार का युवक रमेश उन दिनों लखनऊ से छुट्टियों में
गाँव आया हुआ था. बातों-बातों में वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में उससे अपनी
चिंता प्रकट की तो उसने न केवल अपनी सहानुभूति जतलाई बल्कि उन्हें सुझाव दिया कि
वे मोहन को उसके साथ ही लखनऊ भेज दें. घर में जहाँ चार प्राणी हैं एक और बढ़ जाने में
कोई अंतर नहीं पड़ता, बल्कि बड़े शहर में रहकर वह अच्छी तरह पढ़-लिख सकेगा.
वंशीधर को जैसे रमेश के रूप में साक्षात् भगवान मिल गए हों. उनकी आँखों में
पानी छलछलाने लगा. भरे गले से वे केवल इतना ही कह पाए कि बिरादरी का यही सहारा
होता है.
छुट्टियाँ शेष होने पर रमेश वापिस लौटा तो माँ-बाप और अपनी गाँव की दुनिया
से बिछुड़कर सहमा-सहमा-सा मोहन भी उसके साथ लखनऊ आ पहुँचा. अब मोहन की जिंदगी का
एक नया अध्याय शुरू हुआ. घर की दोनों महिलाओं, जिन्हें वह चाची और भाभी कह कर पुकारता था, का हाथ बँटाने के अलावा धीरे-धीरे वह मुहल्ले
की सभी चाचियों और भाभियों के लिए काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया.
‘मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाजार से.’
‘मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ.’
‘मोहन! एक किलो आलू तो ला दे.’
औसत दफ्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए मोहन को अपना भाई-बिरादर
बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत वह
नहीं देता था, इस बात को
मोहन भी समझने लगा था. थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक
साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया. लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के
काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई
पहचान नहीं बना पाया. उसका जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा. साल में एक बार
गरमियों की छुट्टी में गाँव जाने का मौका भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई
प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन छुट्टियों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम
पर उसे शहर में ही गुजार देना पड़ता था. अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा-
असुविधा का था. मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था क्योंकि और कोई चारा भी
नहीं था. घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था.
वंशीधर उसके सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे थे.
आठवीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त कर छुट्टियों में मोहन गाँव आया हुआ था. जब वह
लौटकर लखनऊ पहुँचा तो उसने अनुभव किया कि रमेश के परिवार के सभी लोग जैसे उसकी आगे
की पढ़ाई के पक्ष में नहीं हैं. बात घूम-फिरकर जिस ओर से उठती वह इसी मुद्दे पर
जरूर खत्म हो जाती कि हजारों-लाखों बी.ए.,एम.ए. मारे-मारे बेकार फिर रहे हैं. ऐसी पढ़ाई से अच्छा तो
आदमी कोई हाथ का काम सीख ले. रमेश ने अपने किसी परिचित के प्रभाव से उसे एक तकनीकी
स्कूल में भर्ती करा दिया. मोहन की दिनचर्या में कोई विशेष अंतर नहीं आया था. वह
पहले की तरह स्कूल और घरेलू काम-काज में व्यस्त रहता. धीरे-धीरे डेढ़-दो वर्ष का
यह समय भी बीत गया और मोहन अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्टरियों
के चक्कर लगाने लगा.
वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता तो वे उत्साह के साथ उसकी
पढ़ाई की बाबत बताने लगते और मन-ही-मन उनको विश्वास था कि वह एक दिन बड़ा अफ़सर
बनकर लौटेगा. लेकिन जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो न सिर्फ गहरा दुख हुआ
बल्कि वे लोगों को अपने स्वप्नभंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए.
धनराम ने भी एक दिन उनसे मोहन के बारे में पूछा था. घास का एक तिनका तोड़कर
दाँत खोदते हुए उन्होंने बताया था कि उसकी सेक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है और
शीघ्र ही विभागीय परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा. धनराम को त्रिलोक
सिंह मास्टर की भविष्यवाणी पर पूरा यकीन था- ऐसा होना ही था उसने सोचा. दाँतों के
बीच में तिनका दबाकर असत्य भाषण का दोष न लगने का संतोष लेकर वंशीधर आगे बढ़ गए
थे. धनराम के शब्द, ‘मोहन लला
बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे’, उन्हें बहुत देर तक कचोटते रहे.
त्रिलोक सिंह मास्टर की बातों के साथ-साथ बचपन से लेकर अब तक के जीवन के कई
प्रसंगों पर मोहन और धनराम बातें करते रहे. धनराम ने मोहन के हँसुवे के फाल को
बेंत से निकालकर भट्ठी में तपाया और मन लगाकर उसकी धार गढ़ दी. गरम लोहे को हवा
में ठंडा होने में काफ़ी समय लग गया था, धनराम ने उसे वापिस बेंत पहनाकर मोहन को लौटाते हुए जैसे अपनी
भूल-चूक के लिए माफ़ी माँगी हो-
‘बेचारे पंडित जी को तो फ़ुर्सत नहीं रहती लेकिन किसी के हाथ
भिजवा देते तो मैं तत्काल बना देता.’
मोहन ने उत्तर में कुछ नहीं कहा लेकिन हँसुवे को हाथ में लेकर वह फिर वहीं
बैठा रहा जैसे उसे वापिस जाने की कोई जल्दी न रही हो.
सामान्य तौर से ब्राह्मण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना
नहीं होता था. किसी काम-काज के सिलसिले में यदि शिल्पकार टोले में आना ही पड़ा तो
खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी. ब्राह्मण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना
भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था. पिछले कुछ वर्षों से शहर में जा रहने के
बावजूद मोहन गाँव की इन मान्यताओं से अपरिचित हो ऐसा संभव नहीं था. धनराम मन-ही-मन
उसके व्यवहार से असमंजस में पड़ा था लेकिन प्रकट में उसने कुछ नहीं कहा और अपना
काम करता रहा.
लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर धनराम गोलाई में मोड़ने की कोशिश
कर रहा था. एक हाथ से सँड़सी पकड़कर जब वह दूसरे हाथ से हथौडे़ की चोट मारता तो
निहाई पर ठीक घाट में सिरा न फँसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था.
मोहन कुछ देर तक उसे काम करते हुए देखता रहा फिर जैसे अपना संकोच त्यागकर उसने
दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट
मारते, अभ्यस्त हाथों से
धौंकनी फूँककर लोहे को दुबारा भट्ठी में गरम करते और फिर निहाई पर रखकर उसे
ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला.
मोहन का यह हस्तक्षेप इतनी फुर्ती और आकस्मिक ढंग से हुआ था कि धनराम को
चूक का मौका ही नहीं मिला. वह अवाक़ मोहन की ओर देखता रहा. उसे मोहन की कारीगरी पर
उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्ठी पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था. वह शंकित दृष्टि से
इधर-उधर देखने लगा.
धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के
छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था. उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की
स्वीकृति पाने की मुद्रा में देखा. उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी- जिसमें न
स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव.
लेखक परिचय
● जीवन परिचय- शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गांव में जन्म हुआ. अनेक सम्मानों
से नवाजे जा चुके हिन्दी के शीर्षस्थ कहानीकारों में गिने जाने वाले शेखर जोशी के
अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं. उनका पहला संग्रह था ‘कोसी का घटवार’ जो 1958 में छप कर आया था. इसी शीर्षक की उनकी कहानी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर
ख्याति दिलाई. ‘कोसी का घटवार’ अपने प्रकाशन के करीब साठ साल बाद भी पाठक के
मर्म में सीधे उतरती है. ठेठ पहाड़ी परिवेश में बुनी गयी दो पात्रों – लछिमा और गुसाईं – की यह कहानी अब एक क्लासिक का दर्ज़ा रखती
है. प्रेम के विषय को लेकर को लेकर लिखी गयी कहानियों में इसे खासा महत्वपूर्ण
माना जाता है और चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘उसने कहा था’ के समकक्ष रखा जाता है.
● रचनाएँ-इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
कहानी-संग्रह-कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है।
शब्दचित्र-संग्रह-एक पेड़ की याद।
इनकी कहानियाँ कई भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, पोलिश और रूसी में भी अनूदित हो चुकी है।
इनकी प्रसिद्ध कहानी दाज्यू पर चिल्ड्स फिल्म सोसाइटी द्वारा फिल्म का निर्माण भी
हुआ है।
● साहित्यिक
परिचय-शेखर जोशी की कहानियाँ नई कहानी आदोलन के
प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज का मेहनतकश और सुविधाहीन तबका इनकी
कहानियों में जगह पाता है। निहायत सहज एवं आडंबरहीन भाषा-शैली में वे सामाजिक
यथार्थ के बारीक नुक्तों को पकड़ते और प्रस्तुत करते हैं। इनके रचना-संसार से
गुजरते हुए समकालीन जनजीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है। ऐसा
करने में इनकी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और यथार्थ-बोध का बड़ा योगदान रहा है।
कठिन शब्दार्थ
अनायास-बिना प्रयास के। शिल्पकार-कारीगर। अनुगूँज-प्रतिध्वनि।
निहाई-लोहे का ठोस टुकड़ा जिस पर लोहार लोहे को रखकर पीटते हैं। ठनकता-कसा हुआ तेज
स्वर। खनक-आवाज। हँसुवा-घास काटने का औजार। बूते-वश। पुरोहिताई-पुरोहित का काम
करना। यजमान-पूजा-पाठ कराने वाला। निष्ठा-लगन। संयम-नियंत्रण। जर्जर-जो कमजोर एवं
बेकार हो, टूटा-फूटा।
उपवास-भूखे रहना। नि:श्वास-गहरी साँस। रुद्रीपाठ-भगवान शंकर की पूजा के लिए मंत्र
पढ़ना।
आशय-मतलब। अनुष्ठान-धार्मिक कार्य। अनुत्तरित-बिना उत्तर पाए।
कुंद-धारहीन। धौंकनी-लोहे की नली। कनिस्तर-लोहे का चौकोर पीपा। पारखी-परखने की
क्षमता रखने वाला। धमाचौकड़ी-उछल-कूद साँप सुंघ जाना-डर जाना। समवेत-सामूहिक।
कुशाग्र-तेज। मॉनीटर—प्रमुख।
हमजोली-साथी। हीनता-छोटापन। प्रतिदवंदवी-दुश्मन। गुंजाइश-जगह।
दूणी-दुगुना। सटाक्-डडा मारने की आवाज़। संटी-छड़ी।
घोटा लगाना-रटना। चाबुक लगाना-चोट करना। ताप-गरमी।
सामथ्र्य-शक्ति। घन-बड़ा व भारी हथौड़ा। प्रसाद देना-दंड के रूप में वार। विरासत-पुरखों
से प्राप्त ज्ञान, संपत्ति
आदि। पैतृक-माँ-बाप का।
दारिद्रय-गरीबी। विदयाव्यसनी-विद्या पाने की ललक रखने वाला।
उत्साहित-जोश में लाना। डेरा तय करना-रहने का स्थान निर्धारित करना।
पात-पतेल-पत्ते आदि। रेला-समूह। बिरादरी-जाति।
साक्षात्-सामने। हाथ, बँटाना-सहयोग करना। हैसियत-सामथ्र्य, शक्ति। हीला-हवाली-ना-नुकुर। मेधावी-होशियार।
लीक पर चलना-परंपरा के आधार पर चलन्। चारो’ न होना-उपाय न होना।
मुद्दा-विषय। बाबत-के बारे में। स्वप्नभग सपना दृउन!
सैक्नेटेरियट-सचिवालयै।
फाल-लोहे का हिस्सा। तत्काल-तुरंत। मर्यादा-मान-सम्मान।
असमंजस-दुविधा। सँड़सी-लोहे को पकड़ने का कैंचीनुमा औज़ार। अभ्यस्त-अभ्यास से
सँवरा। सुघड़-सुंदर आकार वाला। हस्तक्षेप-दखल। आकस्मिक-अचानक। अवाक्-मौन, चकित।
हाथ डालना-काम के लिए तैयार होना। शकित-संदेह।
धर्मसंकट-दुविधा। उदासीन-हटकर। त्रुटिहीन-निर्दोष। सर्जक–रचनाकार। स्पर्धा-होड्।
पाठ का सारांश
गलता लोहा कहानी में समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से
टिप्पणी की गई है। यह कहानी लेखक के लेखन में अर्थ की गहराई को दर्शाती है। इस
पूरी कहानी में लेखक की कोई मुखर टिप्पणी नहीं है। इसमें एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राहमण युवक मोहन किन
परिस्थितियों के चलते उस मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों
को ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन
का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे
भाईचारे को प्रस्तावित करता प्रतीत होता है मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा हो।
मोहन के पिता वंशीधर ने जीवनभर पुरोहिती की। अब वृद्धावस्था
में उनसे कठिन श्रम व व्रत-उपवास नहीं होता। उन्हें चंद्रदत्त के यहाँ रुद्री पाठ
करने जाना था, परंतु जाने
की तबियत नहीं है। मोहन उनका आशय समझ गया, लेकिन पिता का अनुष्ठान कर पाने में वह कुशल नहीं है। पिता का
भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला, लेकिन हँसुवे की धार कुंद हो चुकी थी। उसे अपने दोस्त धनराम की
याद आ गई। वह धनराम लोहार की दुकान पर धार लगवाने पहुँचा।
धनराम उसका सहपाठी था। दोनों बचपन की यादों में खो गए। मोहन ने
मास्टर त्रिलोक सिंह के बारे में पूछा। धनराम ने बताया कि वे पिछले साल ही गुजरे
थे। दोनों हँस-हँसकर उनकी बातें करने लगे। मोहन पढ़ाई व गायन में निपुण था। वह
मास्टर का चहेता शिष्य था और उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वे उसे कमजोर
बच्चों को दंड देने का भी अधिकार देते थे। धनराम ने भी मोहन से मास्टर के आदेश पर
डडे खाए थे। धनराम उसके प्रति स्नेह व आदरभाव रखता था, क्योंकि जातिगत आधार की हीनता उसके मन में
बैठा दी गई थी। उसने मोहन को कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा।
धनराम गाँव के खेतिहर या मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह
तीसरे दर्जे तक ही पढ़ पाया। मास्टर जी उसका विशेष ध्यान रखते थे। धनराम को तेरह
का पहाड़ा कभी याद नहीं हुआ। इसकी वजह से उसकी पिटाई होती। मास्टर जी का नियम था
कि सजा पाने वाले को अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था। धनराम डर या मंदबुद्ध
होने के कारण तेरह का पहाड़ा नहीं सुना पाया। मास्टर जी ने व्यंग्य किया-‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे। विद्या का
ताप कहाँ लगेगा इसमें?”
इतना कहकर उन्होंने थैले से पाँच-छह दरॉतियाँ निकालकर धनराम को
धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी। हालाँकि धनराम के पिता ने उसे हथौड़े से लेकर घन
चलाने की विद्या सिखा दी। विद्या सीखने के दौरान मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी
पसंद का बेंत चुनने की छूट देते थे, परंतु गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे। एक दिन गंगाराम अचानक
चल बसे। धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली।
इधर मोहन ने छात्रवृत्ति पाई। इससे उसके पिता वंशीधर तिवारी
उसे बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था।
वे कभी परिवार का पूरा पेट नहीं भर पाए। अत: उन्होंने गाँव से चार मील दूर स्कूल
में उसे भेज दिया। शाम को थकामाँदा मोहन घर लौटता तो पिता पुराण कथाओं से उसे
उत्साहित करने की कोशिश करते। वर्षा के दिनों में मोहन नदी पार गाँव के यजमान के
घर रहता था। एक दिन नदी में पानी कम था तथा मोहन घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ
रहा था। पहाड़ों पर भारी वर्षा के कारण अचानक नदी में पानी बढ़ गया। किसी तरह वे
घर पहुँचे इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और फिर मोहन को स्कूल न भेजा।
उन्हीं दिनों बिरादरी का एक संपन्न परिवार का युवक रमेश लखनऊ
से गाँव आया हुआ था। उससे वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त
की तो वह उसे अपने साथ लखनऊ ले जाने को तैयार हो गया। उसके घर में एक प्राणी बढ़ने
से कोई अंतर नहीं पड़ता। वंशीधर को रमेश के रूप में भगवान मिल गया। मोहन रमेश के
साथ लखनऊ पहुँचा। यहाँ से जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ। घर की महिलाओं के
साथ-साथ उसने गली की सभी औरतों के घर का काम करना शुरू कर दिया। रमेश बड़ा बाबू
था। वह मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं देता था। मोहन भी यह बात समझता था।
कह सुनकर उसे समीप के सामान्य स्कूल में दाखिल करा दिया गया। कारों के बोझ व नए
वातावरण के कारण वह । अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। गर्मियों की छुट्टी में भी वह
तभी घर जा पाता जब रमेश या उसके घर का कोई आदमी गाँव जा रहा होता। उसे अगले दरजे
की तैयारी के नाम पर शहर में रोक लिया जाता।
मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। वह घर वालों को
असलियत बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। आठवीं कक्षा पास करने के बाद उसे आगे पढ़ने
के लिए रमेश का परिवार उत्सुक नहीं था। बेरोज्ग्री का तर्क देकर उसे तकनी स्कूल
में दाखिल करा दिया गया। वह पहले की तरह घर व स्कूल के काम में व्यस्त रहता।
डेढ़-दो वर्ष के बाद उसे कारखानों के चक्कर काटने पड़े। इधर वंशीधर को अपने बेटे
के बड़े अफसर बनने की उम्मीद थी। जब उसे वास्तविकता का पता चला तो उसे गहरा दुख
हुआ। धनराम ने भी उससे पूछा तो उसने झूठ बोल दिया। धनराम ने उन्हें यही कहो-मोहन
लला बचपन से ही बड़े बुद्धमान थे।
इस तरह मोहन और धनराम जीवन के कई प्रसंगों पर बातें करते रहे।
धनराम ने हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर तपाया, फिर उसे धार लगा दी। आमतौर पर ब्राहमण टोले के लोगों का
शिल्पकार टोले में उठना-बैठना नहीं होता था। काम-काज के सिलसिले में वे खड़े-खड़े
बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राहमण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी
मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन धनराम की कार्यशाला में बैठकर उसके काम को
देखने लगा।
धनराम अपने काम में लगा रहा। वह लोहे की मोटी छड़ को भट्टी में
गलाकर गोल बना रहा था, किंतु वह छड़ निहाई पर ठीक से फैंस नहीं पा रही थी। अत: लोहा ठीक ढंग से
मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर उसे देखता रहा और फिर उसने दूसरी पकड़ से लोहे
को स्थिर कर लिया। नपी-तुली चोटों से छड़ को पीटते-पीटते गोले का रूप दे डाला।
मोहन के काम में स्फूर्ति देखकर धनराम अवाक् रह गया। वह पुरोहित खानदान के युवक
द्वारा लोहार का काम करने पर आश्चर्यचकित था। धनराम के संकोच, धर्मसंकट से उदासीन मोहन लोहे के छल्ले की
त्रुटिहीन गोलाई की जाँच कर रहा था। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी।
अर्थग्रहण
संबंधी प्रश्न
(1).
लंबे बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने
खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आएगा। बूढ़े
वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्म भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने
घर-संसार चलाया था, वह भी अब
वैसे कहाँ कर पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उन पर श्रद्धा
रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं इोल
पाता।
1. मोहन घर से किस उद्देश्य के लिए निकला?
उत्तर-
मोहन घर से लंबे बेंटवाला हँसुआ लेकर निकला।
उसका उद्देश्य था कि इससे वह अपने खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को
काट-छाँटकर साफ़ कर देगा।
2. वशीधर के लिए कौन-सा कार्य कठिन हो गया?
उत्तर-
वंशीधर अब बूढ़ा हो गए थे। वे पुरोहिताई का
काम तथा खेती से घर का गुजारा करते थे। अधिक उम्र व जर्जर शरीर के कारण अब वे कठिन
श्रम व व्रत-उपवास को नहीं कर पाते थे।
3. यजमान किस पर श्रद्धा रखते हैं तथा क्यों?
उत्तर-
यजमान वंशीधर पर श्रद्धा रखते हैं। वे उनकी
निष्ठा व संयम की प्रशंसा करते हैं और इसी कारण उनका मान-सम्मान करते हैं।
(2)
मोहन के प्रति
थोड़ी-बहुत ईष्य रहने पर भी धनराम प्रारंभ से ही उसके प्रति स्नेह और आदर का भाव
रखता था। इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता
के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का
अधिकार समझता रहा था। बीच-बीच में त्रिलोक सिंह मास्टर का यह कहना कि मोहन एक दिन
बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा, धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की
गुंजाइश ही नहीं रखता था। और धनराम! वह गाँव के दूसरे खेतिहर या मज़दूर परिवारों
के लड़कों की तरह किसी प्रकार तीसरे दर्जे तक ही स्कूल का मुँह देख पाया था।
1. धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वद्वी क्यों नहीं मानता था?
उत्तर-
धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं मानता
था, क्योंकि उसके मन
में बचपन से नीची जाति के होने का भाव भर दिया गया था। इसलिए वह मोहन की मार को
उसका अधिकार समझता था।
2. त्रिलोक मास्टर ने मोहन के बारे में क्या घोषणा की थी?
उत्तर-
त्रिलोक मास्टर ने यह घोषणा की थी कि मोहन एक
दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल व उनका नाम रोशन करेगा।
3. धनराम की नियति क्या थी ?
उत्तर-
धनराम गाँव के गरीब तबके से संबंधित था।
खेतिहर या मज़दूर परिवारों के बच्चों की तरह वह तीसरी कक्षा तक ही पढ़ पाया। उसके
बाद वह परंपरागत काम में लग गया। यही उसकी नियति थी।
(3).
धनराम की मंदबुद्ध रही हो या मन में बैठा हुआ डर कि पूरे दिन घोटा लगाने पर
भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था। छुट्टी के समय जब मास्साब ने उससे
दुबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह फिर लड़खड़ा
गया था। लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की
बजाय ज़बान की चाबुक लगा दी थी, ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?’ अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर
उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थीं। किताबों की विद्या का ताप
लगाने की सामथ्र्य धनराम के पिता की नहीं थी। धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ ही था
कि बाप ने उसे धौंकनी फूंकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और
फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फर्क इतना ही था कि
जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहाँ
गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और ज़रा-सी गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते। एक दिन
गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस
के गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के आफर को धनराम का आफर कहने लगे थे।
1. धनराम तेरह का पहाड़ा क्यों नहीं याद कर पाया?
Ans- धनराम ने तेरह का पहाड़ा सारे
दिन याद किया, परंतु वह
इस काम में सफल नहीं हो पाया। इसके दो कारण हो सकते हैं-
1. (क) धनराम की मंदबुद्ध
2. (ख) मन में बैठा हुआ पिटाई का डर।
2. ‘ज़बान की चाबुक’ से क्या अभिप्राय है? त्रिलोक सिह ने धनराम को क्या कहा?
Ans- इसका
अर्थ है-व्यंग्य-वचन। मास्टर साहब ने धनराम को तेरह का पहाड़ा कई बार याद करने को
दिया था, परंतु वह
कभी याद नहीं कर पाया। उसे कई बार सजा मिली। इस बार उन्होंने उस पर व्यंग्य कसा कि
तेरे दिमाग में लोहा भरा है। तुझे पढ़ाई नहीं आएगी।
3. अध्यापक और लोहार के दंड देने में क्या अंतर था?
उत्तर- याद न करने पर मास्टर त्रिलोक बच्चे को अपनी पसंद का बेंत चुनने की
छूट देते थे, जबकि लोहार
गंगाराम सज़ा देने का हथियार स्वयं ही चुनते थे। गलती होने पर वे छड़, बेंत, हत्था-जो भी हाथ लगता, उससे सज़ा देते।
(4).
औसत दफ़्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए सोहन को अपनी भाई-बिरादर
बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत ५ह
नहीं देता था, इस बात को
मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक
साधारण रो रूकूल में उसका नाम लिखवा दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के
काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई
पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा। साल में एक बार
गर्मियों की छुट्टी में गाँव जाने का मौक भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई
प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन छुट्टयों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम पर
उसे शहर में ही गुज़ार देना पड़ता था। अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा-असुविधा
का था। मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था, क्योंकि और कोई चारा भी नहीं था। घरवालों को अपनी वास्तविक
स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था। वंशीधर उसके सुनहरे भविष्य के सपने देख
रहे थे।
1. रमेश मोहन को किस हैसियत में रखता था तथा क्यों?
Answer- रमेश
मोहन को घरेलू नौकर की हैसियत में रखता था। इसका कारण यह था कि रमेश औसत दफ़्तरी
बड़े बाबू की हैसियत का था। अत: वह मोहन को अपना भाई-बिरादर बताकर अपना अपमान नहीं
करवाना चाहता था।
2. मोहन स्कूल में अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाया?
Answer- रमेश
ने काफी कहने के बाद मोहन का एक साधारण स्कूल में दाखिला करवा दिया। वह मेधावी था, परंतु घर के अत्यधिक काम और नए वातावरण के
कारण वह अपनी प्रतिभा नहीं दिखा पाया। अत: उसकी पहचान स्कूल में नहीं बन पाई।
3. मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। कयों?
Answer- मोहन को पढ़ने के लिए शहर भेजा गया था, परंतु वहाँ पर उसे घरेलू नौकर की तरह रखा
गया। उसे अपने घर की दीन दशा का पता था। वह अपनी वास्तविक स्थिति घर वालों को
बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। अत: उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया।
(5).
लोहे की एक मोटी
छड़ को भट्ठी में गलाकर धनराम गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था। एक हाथ से
सँडसी पकड़कर जब वह दूसरे हाथ से हथौड़े की चोट मारता तो निहाई पर ठीक घाट में
सिरा न फैसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर तक उसे
काम करते हुए देखता रहा फिर जैसे अपना संकोच त्यागकर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को
स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारते, अभ्यस्त हाथों से धौंकनी फूंककर लोहे को
दुबारा भट्ठी में गरम करते और फिर निहाई पर रखकर उसे ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का
रूप दे डाला।
1. मोहन धनराम के आफर क्यों गया था? उस समय धनराम किस काम में तल्लीन था?
उत्तर- मोहन धनराम के आफर पर अपने
हँसुवे की धार तेज़ करवाने के लिए गया था। उस समय धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को
भट्टी में गलाकर उसे गोलाई में मोड़ने का प्रयास कर रहा था।
2. धनराम अपने काम में सफल क्यों नहीं हो रहा था?
उत्तर- धनराम अपने काम में इसलिए सफल
नहीं हो पा रहा था, क्योंकि वह
एक हाथ से सँड़सी पकड़कर दूसरे हाथ से हथौड़े की चोट मारता तो निहाई पर ठीक घाट
में सिरा न फैसने का कारण लोहा सही तरीके से नहीं मुड़ रहा था।
3. मोहन ने धनराम का अधूरा काम कैसे पूरा किया?
उत्तर- मोहन कुछ देर तक धनराम के काम को देखता रहा। अचानक वह उठा और दूसरी
पकड़ से लोहे को स्थिर करके धनराम का हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट की। उसके बाद उसने
स्वयं धौंकनी फूंककर लोहे को दोबारा भट्ठी में गरम किया और फिर निहाई पर रखकर उसे
ठोक-पीटकर सुघड़ गोले में बदल दिया।
(6).
धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के
छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति
पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी-जिसमें न स्पर्धा थी
और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।
1. धनराम क असमंजस का क्या कारण था?
उत्तर- धनराम के असमंजस के दो कारण थे
(क) मोहन
ब्राहमण होकर भी लुहार का काम कर रहा था।
(ख) मोहन
शिक्षित था, फिर भी
उसने कुशलतापूर्वक लोहे की छड़ को सुघड़ गोले में बदल दिया। यह भी हैरानी का विषय
था।
2. मोहन की मन:स्थिति पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर- मोहन ने लोहे की छड़ को सुंदर
गोले में बदल दिया। इसलिए उसकी आँखों में सर्जक की चमक थी। वह धनराम से अपनी
कारीगरी की प्रशंसा चाहता था।
3. धनराम किस सकोच, असमजस और धर्म-सकट की स्थिति में था?
उत्तर- धनराम लुहार जाति का था। वह लोहे की अनेक वस्तुएँ बनाया करता था। यह
उसका पैतृक पेशा था। मोहन उसके बचपन का मित्र और सहपाठी था, जिसे लोहे के छल्ले बनाते हुए देखकर धनराम
अपने मित्र के सामने वह संकोच, असमंजस और धर्म-संकट महसूस कर रहा था।
पाठ्यपुस्तक
से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1: कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें
किताबों की विदया और घन चलाने की विद्या का ज़िक्र आया है।
उत्तर- जिस समय धनराम तेरह का पहाड़ा नहीं सुना सका तो मास्टर त्रिलोक सिंह
ने ज़बान के चाबुक लगाते हुए कहा कि ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा
इसमें?’ यह सच है कि
किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की नहीं थी। उन्होंने
बचपन में ही अपने पुत्र को धौंकनी फेंकने और सान लगाने के कामों में लगा दिया था
वे उसे धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगे। मास्टर जी पढ़ाई
करते समय छड़ी से और पिता जी मनमाने औजार-हथौड़ा, छड़, हत्था जो हाथ लगे उससे पीट पीटकर सिखाते थे। इस प्रसंग में किताबों की
विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।
प्रश्न 2: धनराम मोहन को अपना प्रतिदवंदवी क्यों नहीं समझता
था?
उत्तर- धनराम के मन में नीची जाति के होने की बात बचपन से बिठा दी गई थी।
दूसरे, मोहन कक्षा में
सबसे होशियार था। इस कारण मास्टर जी ने उसे कक्षा का मॉनीटर बना दिया था। तीसरे, मास्टर जी कहते थे कि एक दिन मोहन बड़ा आदमी
बनकर स्कूल और उनका नाम रोशन करेगा। उसे भी मोहन से बहुत आशाएँ थीं। इन सभी कारणों
से वह मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझता था।
प्रश्न 3: धनराम को मोहन के लिए व्यवहार पर आश्चर्य होता है
और क्यों?
उत्तर- मोहन ब्राह्मण जति का था। उस गाँव में ब्राहमण स्वयं को श्रेष्ठ
समझते थे तथा शिल्पकारों के साथ उठते-बैठते नहीं थे। यदि उन्हें बैठने के लिए कह
दिया जाता तो भी उनकी मार्यादा भंग होती थी। धनराम की दुकान पर काम खत्म होने के
बाद भी मोहन देर तक बैठा रहा। यह देखकर धनराम हैरान हो गया। वह और अधिक हैरान तब
हुआ जब मोहन ने उसके हाथ से हथौड़ा नेकर लोहे पर नपी-तुली चोट मारने लगा और धौंकनी
फेंकते हुए भट्ठी में गरम किया और ठोक पीठकर उसे गोल रूप दे रहा था।
प्रश्न 4: मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके
जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?
उत्तर- लेखक ने मोहन के लखनऊ प्रवास को उसके जीवन का एक नया अध्याय कहा है।
यहाँ आने पर उसका जीवन बँधी-बँधाई लीक पर चलने लगा था। वह सुबह से शाम तक नौकर की
तरह काम करता था। नए वातावरण व काम के बोझ के कारण मेधावी छात्र की प्रतिभा कुंठित
हो गई। उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पनाएँ नष्ट हो गई। अपने पैरों पर खड़ा होने के
लिए उसे कारखानों और फैक्ट्रियों के चक्कर लगाने पड़े। उसे कोई काम नहीं मिल सका।
प्रश्न 5: मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के
चाबुक कहा है और क्यों?
उत्तर- एक दिन धनराम को तेरह का पहाड़ा नहीं आया तो आदत के अनुसार मास्टर
जी ने संटी मँगवाई और धनराम से सारा दिन पहाड़ा याद करके छुट्टी के समय सुनाने को
कहा। जब छुट्टी के समय तक उसे पहाड़ा याद न हो सका तो मास्टर जी ने उसे मारा नहीं
वरन् कहा कि “तेरे दिमाग
में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें ?” यही वह कथन था जिसे पाठ में लेखक ने जबान के
चाबुक कहा है, क्योंकि
धनराम एक लोहार का बेटा था और मास्टर जी का यह कथन उसे मार से भी अधिक चुभ गया।
जैसा कि कहा भी जाता है ‘मार का घाव भर जाता है, पर कड़वी जबान का नहीं भरता’। यही धनराम के साथ हुआ और निराशा के कारण वह अपनी पढ़ाई आगे
जारी नहीं रख सका।
प्रश्न 6: (1) बिरादरी का यही सहारा होता है।
(क)
किसने किससे कहा?
(ख) किस
प्रसंग मं कहा?
(ग) किस
आशय से कहा?
(घ)
क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?
उत्तर-
(क) यह वाक्य मोहन के पिता वंशीधर ने बिरादरी के संपन्न युवक
रमेश से कहा।
(ख) जब वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के बारे में चिंता व्यक्त की तो
रमेश ने उससे सहानुभूति जताई और उन्हें सुझाव दिया कि वे मोहन को उसके साथ ही लखनऊ
भेज दें ताकि वह शहर में रहकर अच्छी तरह पढ़-लिख सकेगा।
(ग) यह कथन रमेश के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए कहा गया।
बिरादरी के लोग ही एक-दूसरे की मदद करते हैं।
(घ) कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ। रमेश अपने वायदे को पूरा
नहीं कर पाया। वह मोहन को घरेलू नौकर से अधिक नहीं समझता था। उसने व परिवार ने
मोहन का खूब शोषण किया और प्रतिभाशाली विद्यार्थी का भविष्य चौपट कर दिया। अंत में
उसे बेरोजगार कर घर वापस भेज दिया।?
(2) उसकी
अखिों में एक सजक की चमक थी-कहानी का यह वाक्य-
(क)
किसके लिए कहा गया हैं?
(ख) किस
प्रसग में कहा गया हैं?
(ग) यह
पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?
उत्तर-
(क) यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
(ख) मोहन धनराम की दुकान पर हँसुवे में धार लगवाने आता है। काम
पूरा हो जाने के बाद भी वह वहीं बैठा रहता है। धनराम एक मोटी लोहे की छड़ को गरम
करके उसका गोल घेरा बनाने का प्रयास कर रहा होता है, परंतु सफल नहीं हो पा रहा है। मोहन ने अपनी जाति की परवाह न
करके हथौड़े से नपी-तुली चोट मारकर उसे सुघड़ गोले का रूप दे दिया। अपने सधे हुए
अभ्यस्त हाथों का कमाल के उपरांत उसकी आँखों में सर्जक की चमक थी।
(ग) यह मोहन के जाति-निरपेक्ष व्यवहार को बताता है। वह पुरोहित
का पुत्र होने के बाद भी अपने बाल सखा धनराम के आफर पर काम करता है। यह कार्य उसकी
बेरोजगारी की दशा को भी व्यक्त करता है। वह अपने मित्र से काम न होता देख उसकी मदद
के लिए हाथ बढ़ा देता है और काम पूरा कर देता है।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1: गाँव और शहर,
दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के
जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर- गाँव में मोहन अपने लिए संघर्ष कर रहा था। दूसरे गाँव की पाठशाला
में जाने के लिए प्रतिदिन नदी पार करना, मन लगाकर पढ़ना, हर अध्यापक के मन में अपनी जगह बनाना–ये सारे संघर्ष वह अपना भविष्य बनाने और अपने
माता-पिता के सपने पूरे करने के लिए कर रहा था। लखनऊ शहर में जाकर रमेश के घर में
आलू लाना, दही लाना, धोबी को कपड़े देकर आना-ये सब काम वह रमेश के
परिवार के लिए कर रहा था। इससे उसका अपना भविष्य धूमिल हो गया और माता-पिता के
सपने टूट गए। गाँव का होनहार बालक शहर में घरेलू नौकर बनकर रह गया था। इसी प्रकार
के तर्क लिखकर सहपाठियों के साथ चर्चा का आयोजन किया जा सकता है।
प्रश्न 2: एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व
आपको कैसा लगता है? अपनी समझ में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार
करें।
उत्तर- मास्टर त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व अध्यापक के रूप में ठीक-ठाक लगता
है। वे अच्छे अध्यापक की तरह बच्चों को लगन से पढ़ाते थे। वे किसी के सहयोग के
बिना पाठशाला चलाते थे। वे अनुशासन प्रिय हैं तथा दंड के भय आदि के द्वारा बच्चों
को पढ़ाते हैं। वे होशियार बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं। इन सब
विशेषताओं के बावजूद उनमें कमियाँ भी हैं। वे जातिगत भेदभाव को मानते हैं। वे
विद्यार्थियों को सख्त दंड देते थे। वे मोहन से भी बच्चों की पिटाई करवाते थे। वे
कमजोर बच्चों को कटु बातें बोलकर उनमें हीन भावना भरते थे। छात्रों में हीनभावना
तथा भेदभाव करने का उनका तरीका अशोभनीय था।
प्रश्न 3: गलत लोहा कहानी का अंत एक खास तरीके से होता है।
क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है?
चचा करें?
उत्तर- इस कहानी का अंत और कई तरीकों से हो सकता है
·
मोहन द्वारा गाँव
लौटकर झूठे मान की रक्षा के लिए कोई काम न करना और खाली बैठे रहना।
·
मोहन के माता-पिता
का विद्रोह कर उठना और रमेश से झगड़ा करना, दोषारोपण करना।
·
धनराम को देखकर
मोहन का मुँह फेर लेना और बात न करना।
·
मोहन द्वारा एक
छोटा कारखाना खोलकर ग्रामीण लड़कों को हाथ का हुनर सिखाना।
इसके अतिरिक्त भी कहानी के अनेक अंत और तरीके हो सकते हैं।
भाषा की बात
प्रश्न 1: पाठ में निम्नलिखित शब्द लौहकर्म से सबंधित हैं। किसका क्या प्रयोजन हैं? शब्द के सामने लिखिए-
(क) धोकनी …………………………………….
(ख) दराँती …………………………………….
(ग) सड़सी …………………………………….
(घ) आफर …………………………………….
(ङ) हथौड़ा …………………………………….
उत्तर-
धौंकनी – भट्ठी की
आग को हवा देने का यंत्र।
दराँती – घास, अनाज आदि को काटने का औजार।
सँड़सी – गर्म लोहे
को पकड़ने का औज़ार।
आफर – वह स्थान
जहाँ लोहे का सामान बनाया जाता है।
हथौड़ा – ठोकने-पीटने
के लिए प्रयुक्त लकड़ी की मूठ वाला यंत्र।
प्रश्न 2: पाठ में ‘काट-छाँटकर’ जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है। कोई पाँच शब्द पाठ में से
चुनकर लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर-
(क) उठा-पटककर-बच्चों ने घर में उठा-पटककर सारा सामान बिखेर
दिया।
(ख) उलट-पलट-दंगाइयों ने दुकान का सारा सामान उलट-पलट दिया।
(ग) पढ़-लिखकर-हर युवा पढ़-लिखकर अफसर बनना चाहता है।
(घ) सहमते-सहमते-बैग खोने के कारण रोहित सहमते-सहमते घर में
घुसा।
(ङ) खा-पीकर-हम लोग झील में खा-पीकर नाव चलाने लगे।
प्रश्न 3: ‘बूते का’ प्रयोग पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है उन्हें छाँटकर लिखिए और जिन संदर्भों
में उनका प्रयोग है, उन संदर्भों में उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) दान-दक्षिणा के बूते पर वे घर चलाते।
-यहाँ बूते शब्द का अर्थ है बल पर या भरोसे पर।
(ख) सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की बात नहीं।
-यहाँ बूते शब्द का अर्थ है बस की नहीं है।
(ग) जिस पुरोहिताई के बूते पर घर चलाते थे वह भी अब कैसे चलती
है।
-यहाँ बूते शब्द का अर्थ है के सहारे।
प्रश्न 4: नीचे के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में आप सर्वनाम
का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दुबारा लिखिए।
1. मोहन थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से।
2. मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ।
3. मोहन एक किलो आलू तो ला दे।
उत्तर-
(क) आप बाज़ार से थोड़ा दही तो ला दीजिए।
(ख) आप ये कपड़े धोबी को दे तो आइए।
(ग) आप एक किलो आलू तो ला दीजिए।
विज्ञापन
की दुनिया
विभिन्न व्यापारी अपने उत्पाद की बिक्री के लिए अनेक तरह के विज्ञापन बनाते
हैं। आप भी हाथ से बनी किसी वस्तु की बिक्री के लिए एक ऐसा विज्ञापन बनाइए जिससे
हस्तकला का कारोबार चले।
उत्तर- छात्र निम्न को देखें –
अन्य हल
प्रश्न
● बोधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1: ‘गलता लोहा’
कहानी का प्रतिपादय स्पष्ट
करें।
उत्तर- गलता लोहा कहानी में समाज के जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी की गई
है। यह कहानी लेखक के लेखन में अर्थ की गहराई को दर्शाती है। इस पूरी कहानी में
लेखक की कोई मुखर टिप्पणी नहीं है। इसमें एक मेधावी, किंतु निर्धन ब्राहमण युवक मोहन किन परिस्थितियों के चलते उस
मनोदशा तक पहुँचता है, जहाँ उसके लिए जातीय अभिमान बेमानी हो जाता है। सामाजिक विधि-निषेधों को
ताक पर रखकर वह धनराम लोहार के आफर पर बैठता ही नहीं, उसके काम में भी अपनी कुशलता दिखाता है। मोहन
का व्यक्तित्व जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के सच्चे
भाईचारे के प्रस्तावित करता प्रतीत होता है मानो लोहा गलकर नया आकार ले रहा हो।
प्रश्न 2: मोहन के पिता के जीवन-संघर्ष पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर- मोहन के पिता वंशीधर तिवारी गाँव में पुरोहिती का काम करते थे। पूजा-पाठ
धार्मिक अनुष्ठान करना-करवाना उनका पैतृक पेशा था। वे दूर-दूर तक यह कार्य करने
जाते थे। इस कार्य से परिवार का गुजारा मुश्किल से होता था। वे अपने हीनहार बेटे
को भी नहीं पढ़ा पाए। यजमान उनकी थोड़ी बहुत सहायता कर देते थे।
प्रश्न 3: कहानी में चित्रित सामाजिक परिस्थितियाँ बताइए।
उत्तर- कहानी में गाँव के परंपरागत समाज का चित्रण किया गया है। ब्राहमण टोले के
लोग स्वयं को श्रेष्ठ समझते थे तथा वे शिल्पकार के टोले में उठते-बैठते नहीं थे।
कामकाज के कारण शिल्पकारों के पास जाते थे, परंतु वहाँ बैठते नहीं थे। उनसे बैठने के लिए कहना भी उनकी
मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन कुछ वर्ष शहर में रहा तथा बेरोजगारी की चोट
सही। गाँव में आकर वह इस व्यवस्था को चुनौती देता है।
प्रश्न 4: वंशीधर को धनराम के शब्द क्यों कचोटते रहे?
उत्तर- वंशीधर को अपने पुत्र से बड़ी आशाएँ थी। वे उसके अफसर बनकर आने के सपने देखते थे। एक दिन धनराम ने उनसे मोहन के बारे में पूछा तो उन्होंने घास का एक तिनका तोड़कर दाँत खोदते हुए बताया कि उसकी सक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है। शीघ्र ही वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा। धनराम ने उन्हें कहा कि मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धमान थे। ये शब्द वंशीधर को कचोटते रहे, क्योंकि उन्हें मोहन की वास्तविक स्थिति का पता चल चुका था। लोगों से प्रशंसा सुनकर उन्हें दु:ख होता था .
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