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हम
-तुम हमारी प्राण प्रिये के , हाथों का खिलौना है .
उनके
पास हथियार अचूक ,रूठना -रोना -धोना है.
आँखों
की चमक,रूप की महक रहे रोशन उनकी,
महज
इसी खातिर हमको , गधा बन बोझा ढोना है.
चाट-पकोड़ी
, वाकिंग-शोपिंग हसरत है उनकी ,
वेतन
मिलते ही चाहे नये कपडे,मांगे चांदी-सोना है.
पर
आज दिखा शयनकक्ष से गायब, उनका पलंग मुझे ,
साथ
में गायब ,लत्ते-कपडे ,मेकअप-सेकअप और बिछोना है.
चलो चिक-चिक से मिली निजात , हम बड़े थे प्रसन्न,
आज़ादी
से टी.वी. देखेंगे ,चैन से रात को सोना है .
किन्तु
डायंनिंग टेबल पर ,जब आया खाना-दाना ,
थे
थाली, कटोरी ,चमचा नदारद,केवल पत्तल -दोना है .
सबब
पूछा जब श्रीमती से , इस
कर्पण कृत्य का,
बदले
–बदले स्वर थे ,मास्क से ढका मुहं सलोना है .
ना
तो थाली परोसी मुझे , ना उन्होंने की मनुहार ,
आदेश दिया - खाने के बाद ,सैनेटीजर से हाथ धोना
है.
दिन
रात कविता ही लिखो ,वैसे भी तुम कुछ करो-ना .
चुप
चाप अपने कक्ष में जाना ,
अकले ही अब सोना है.
सारे
दिन टी.वी. चैनलों को बदलूँ , ना हास्य ना गाना है.
मुझ
को भी अब पता लगा है ,देश में फैला हुआ कोरोना है .
(कुमार
महेश १९-०३-२०२०)
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