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(Atmakatha- Jaishankar Prasad)आत्मकथा – जयशंकर प्रसाद (समग्र पाठ्यसामग्री)

  जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय – Jaishankar Prasad Ka Jeevan Parichay :

 बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयशंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी में सन 1889 में हुआ। ये काशी के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में पढ़ने गए। परन्तु विकट परिस्थितियों के कारण इन्हें आठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी इत्यादि का अध्ययन किया। इन्हें छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी इन्होंनें साहित्य की रचना की। इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध एवं कविता आदि सभी की रचना की। इनकी कामायनी छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसके लिए इन्हें मंगलप्रसाद पुरस्कार दिया गया।

देश के गौरव का गान तथा देशवासियों को राष्ट्रीय गरिमा का ज्ञान कराना इनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इनके काव्य में राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव भरा हुआ था। इनकी रचनाओं में श्रृंगार एवं करुणा रस का सुन्दर प्रयोग मिलता है। इनकी मृत्यु सन 1937 में हुई।

जयशंकर प्रसाद 


जीवन परिचय



प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत्‌ 1946 वि० (तदनुसार 30जनवरी 1889ई० दिन-गुरुवार) को काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण 'सुँघनी साहु' के नाम से विख्यात थे। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ ही टूट पड़ा। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान्‌ इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में 'रसमय सिद्ध' की भी चर्चा की जाती है।

घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरीप्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी थे।


रचनाएँ

उन्होंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की ।

काव्य रचनाएँ

जयशंकर प्रसाद की काव्य रचनाएँ हैं: कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, झरना (1918), आंसू, लहर, कामायनी (1935) और प्रेम पथिक । प्रसाद की काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। उन्होंने काव्यरचना ब्रजभाषा में आरम्भ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे 'हिंदी में ताजमहल के समान' मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।

कहानी संग्रह

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ 1912 ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। उन्होंने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं। उनके कहानी संग्रह हैं:
छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आंधी और इन्द्रजाल ।

उनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ अत्यंत सफल हुई हैं। उन्होंने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक कहानियाँ लिखी हैं। भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ लिखी हैं। भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ, भी उन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा कवित्व से पूर्ण हैं।

प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है। उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं : आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण; अपनी कहानियों में जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है, उनमें से कुछ हैं चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं।

उपन्यास

प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं। 'कंकाल', में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। प्रथम यथार्थवादी उन्यास हैं ; दूसरे में आदर्शोन्मुख यथार्थ है। इन उपन्यासों के द्वारा प्रसाद जी हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में अपनी गरिमा स्थापित करते हैं। 'इरावती' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है। इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है।

नाटक

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है। उनके नाटक हैं:
स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जन्मेजय का नाग यज्ञ, राज्यश्री, कामना, एक घूंट।

जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के पारसी रंगमंच की परंपरा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरनीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी। उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यंत दर्शनीय है और इन नाटकों में कई अत्यंत सुंदर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं। 'हिमाद्रि तुंग शृंग से', 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' जैसे उनके नाटकों के गीत सुप्रसिद्ध रहे हैं।

इनके नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप है। आक्षेप लगता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गए है जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमें काव्यतत्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक है। उनके नायक और प्रतिनायक दोनों चारित्रिक दृष्टि के गठन से अपनी विशेषता से मंडित हैं। इनकी नायिकाएँ भी नारीसुलभ गुणों से, प्रेम, त्याग, उत्सर्ग, भावुक उदारता से पूर्ण हैं। उन्होंने अपने नाटकों में जहाँ राजा, आचार्य, सैनिक, वीर और कूटनीतिज्ञ का चित्रण किया है वहीं ओजस्वी, महिमाशाली स्त्रियों और विलासिनी, वासनामयी तथा उग्र नायिकाओं का भी चित्रण किया है। चरित्रचित्रण उनके अत्यंत सफल हैं। चरित्रचित्रण की दृष्टि से उन्होंने नाटकों में राजश्री एवं चाणक्य को अमर कर दिया है। नाटकों में इतिहास के आधार पर वर्तमान समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रस्तुत करते हुए वे मिलते हैं। किंतु गंभीर चिंतन के साथ स्वच्छंद काव्यात्मक दृष्टि उनके समाधान के मूल में है। कथोपकथन स्वाभाविक है किंतु उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है। नाटकों में दार्शनिक गंभीतरता का बाहुल्य है पर वह गद्यात्मक न होकर सरस है। उन्होंने कुछ नाटकों में स्वगत का भी प्रयोग किया है किंतु ऐसे नाटक केवल चार हैं। भारतीय नाट्य परंपरा में विश्वास करने के कारण उन्होंने नाट्यरूपक 'कामना' के रूप में प्रस्तुत किया। ये नाटक प्रभाव की एकता लाने में पूर्ण सफल हैं। अपनी कुछ त्रुटियों के बावजूद प्रसाद जी नाटककार के रूप में हिंदी में अप्रतिम हैं।

निबंध

प्रसाद ने प्रारंभ में समय समय पर 'इंदु' में विविध विषयों पर सामान्य निबंध लिखे। बाद में उन्होंने शोधपरक ऐतिहासिक निबंध, यथा: सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य, प्राचीन आर्यवर्त और उसका प्रथम सम्राट् आदि: भी लिखे हैं। ये उनकी साहित्यिक मान्यताओं की विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक भूमिका प्रस्तुत करते हैं। विचारों की गहराई, भावों की प्रबलता तथा चिंतन और मनन की गंभीरता के ये जाज्वल्य प्रमाण हैं।

पुरस्कार

जयशंकर प्रसाद को 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

बहुमुखी प्रतिभा

प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक् और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है। उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्व कर देता है। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास-सभी क्षेत्रों में प्रसाद जी एक नवीन 'स्कूल' और नवीन जीवन-दर्शन की स्थापना करने में सफल हुये हैं। वे 'छायावाद' के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पङा है, उतना दूसरों को नही।

 




आत्मकथ्य कविता का संक्षिप्त परिचय – Aatmkathya poem vyakhya

प्रेमचंद के संपादन में हंस पत्रिका का एक आत्मकथा विशेषांक  निकलना तय हुआ। प्रसाद जी के मित्रों ने आग्रह किया कि वह भी आत्मकथा लिखें।प्रसाद जी इससे सहमत नहीं थे। इसी असहमति के तर्क से पैदा हुई कविता है आत्मकथ्य यह कविता पहली बार 1932 में हंस के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। छायावादी शैली में लिखी गई  इस कविता में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के यथार्थ एवं अभाव पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। छायावादी सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जयशंकर प्रसाद ने ललित सुंदर एवं नवीन शब्दों एवं विम्बों का प्रयोग किया है।इन्हीं शब्दों एवं चित्रों के सहारे उन्होंने बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे महान और रोचक मानकर लोग वाह-वाह करेंगे। कुल मिलाकर इस कविता में एक तरफ कवि द्वारा यथार्थ की स्वीकृति है तो दूसरी तरफ एक महान कवि की विनम्रता भी।

आत्मकथ्य कविता का सार

आत्मकथ्य शीर्षक कविता छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है।

इसमें कवी  अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करता है। कभी संसार की असारता और निरसता पर विचार करता है। जीवन दुखों से भरा है। इस वातावरण में भला कौन अपनी कथा को कहने का साहस करेगा। कवि का कहना है कि उसके जीवन की गागर तो रीती  अर्थात खाली है।वह भला दूसरों को क्या दे सकता है। कभी अपनी भूलों और दूसरों की रचनाओं को उजागर नहीं करना चाहता इसका कोई लाभ भी नहीं है। यह ठीक है कि कवि ने भी कुछ सुखी क्षण भोगे  थे। तब वह मधुर चांदनी में बैठकर प्रियसी के साथ खिलखिलाकर हंसता  था। पर वे क्षण  कुछ पल ही टिक पाए। सुख उसके निकट आते आते भाग गया। वह उन क्षणों की प्रतीक्षा करता रह गया।  कवि अपने प्रिय के सौंदर्य का भी स्मरण करता है।उसके गालों की लाली उषा के लिए भी ईर्ष्या  का विषय थी।पर अब इन सब बातों के कहने का कोई लाभ नहीं है। उसकी कथा में दूसरों को कुछ भी नहीं मिल पाएगा। यही कारण है कि वह अपनी कथा कहने से बचता रहा है।        

कविता की व्याख्या

(1)

मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे- यह गागर रीती।

शब्दार्थ : मधुप = भौंरा, मन रूपी भौंरा, अनंत = अंतहीन, जिसका अंत न हो, नीलिमा = नीले आकाश का विस्तार, असंख्य = अनगिनत, व्यंग्य-मलिन = खराब ढंग से निंदा करना, उपहास = मज़ाक, दुर्बलता = कमज़ोरी, गागर = घड़ा, मटका,रीती = खाली।

व्याख्या : कवि कहते हैं कि इस संपूर्ण विश्व में असंख्य प्राणिजगत के अपने असंख्य इतिहास हैं। हर भौंरा फूलों पर मँडराता हुआ, गुनगुनाता हुआ अपनी कुछ कहानी सुनाता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति का मन रूपी भौंरा प्रेम-गीत गाता हुआ अपनी कोई कहानी सुनाता है। इसे सुनने वाले सुनते और समझते हैं। झरते पत्तों की ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं कि आज कितनी अधिक पत्तियाँ सूखकर-मुरझाकर लगातार गिर रही हैं यानी उनकी जीवन-लीला समाप्त हो रही है। इस प्रकार अंतहीन नीले आकाश के नीचे न जाने कितने अनगिनत जीवन का इतिहास हर पल बन रहा है और बिगड़ रहा है। इस प्रकार यह संपूर्ण जगत चंचल है, कुछ भी यहाँ स्थिर नहीं, कुछ भी शाश्वत नहीं। यहाँ तो प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाने में ही व्यस्त हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे में कमी नज़र आती हैऔर उस कमी या अभाव का वह बुरी तरह से मज़ाक उड़ाता है। अपनी ,कमी तो कोई देखता नहीं। इतना सब जानते हुए भी तुम मेरी आत्मकथाजानना चाहते हो, लेकिन मेरे अनुभवों का जीवन रूपी घड़ा तो खालीहै। तुम मेरी वेदना भरी कथा सुनकर कुछ पा सकोगे, इसमें मुझे संशय है, किंतु फिर भी अगर सुनने की इतनी अधिक इच्छा है तो मैं आपबीती, अपनी कमज़ोरी और व्यथा को कह डालता हूँ। मेरी वेदनाओं से भरी जिंदगी में प्राप्ति का स्थान रीता ही है। वेदनाओं की अनुभूति अवश्य हुई है, लेकिन सुख-संतोष की प्राप्ति नहीं हुई। अतः इस जीवन रूपी घड़े को खाली पाकर तुम सुखी न हो सकोगे। मेरी यह जीवन-कथा सर्वथा नीरस है।

विशेष

(i) खड़ी बोली में लिखित इस काव्यांश में कुछ तत्सम शब्दों कीछटा दिखाई देती है।

जैसे - मधुप, अनंत-नीलिमा, व्यंग्यमलिन, जीवन-इतिहास आदि।

(ii) गुन-गुना, कर कह, कौन कहानी में अनुप्रास अलंकार है।

(iii) गागर रीती में रूपक अलंकार है।

(iv) इसमें छायावादी दृष्टिकोण है।

(v) प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अपनी भावनाओं को सुंदर ढंगसे स्पष्ट किया है, जैसे- झरते पत्ते।

(2)

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले,

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

शब्दार्थ : विडंबना = छलना, उपहास का विषय, प्रवंचना = धोखा, उज्ज्वल गाथा = सुंदर कहानी, मुसक्या कर =मुसकराकर।

व्याख्या : इस पद्यांश में कवि यही कहना चाहते हैं कि उनका | जीवन स्वप्न के समान एक छलावा भर रहा। जीवन में जो कुछ सुखवे पाना चाहते थे वह सब तो उनके पास मानो आकर भी दूर हो गया। | यही उनके जीवन की विडंबना है।

कवि कहते हैं कि मेरी यह मजबूरी है कि मैं अपनी कमजोरियों | का बखान कर उनकी जगहँसाई नहीं करा सकता। कवि अपने भोलेपन पर तरस खाकर कहते हैं कि दूसरों के द्वारा छले जाने की कहानी मैंकिस मुँह से कहूँ ! अपनी भूलों को गिनाऊँ या दूसरों ने मेरे साथ जो छल-कपट किया है, उसे मैं सुनाऊँ! मैं अपने जीवन की सुंदर कहानी कहाँ से शुरू करूँ क्योंकि सपने के समान सब कुछ बीत गया। जिस प्रकार सपने में व्यक्ति को अपने मन की इच्छित वस्तु मिल जाने से वह प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार मेरे जीवन में भी प्रेम एक बार आया था, किंतु स्वप्न की भाँति वह टूट भी गया। मेरी आशा-आकांक्षाएँ सारी मिथ्या, छलावा भर बनकर रह गईं क्योंकि सुख का स्पर्श पाते-पाते भी मैं वंचित रह गया। तभी कवि कहते हैं कि कहीं तुम ही मेरे जीवन रूपी घट को खाली करने वाले न हो। मेरे जीवन के अनुभवों का रस या सार लेकर शायद तुम अपने जीवन का घडा भरने जा रहे हो। तो मैं कैसे सुनाऊँ अपने जीवन की उज्ज्वल गाथा!

विशेष

(i) काव्यांश की भाषा खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का पुट है।

(ii) इसमें नवीन उपमाओं और रूपकों का संदर समावेश हआ है।

(iii) इसमें छायावादी गुण और रहस्यवाद की झलक मिलती है।

(3)

जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?

छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

शब्दार्थ : अरुण = लाल, कपोल = गाल, अनुरागिनी = प्रेम करने वाली, उषा = भोर, स्मृति = याद, पाथेय = संबल, सहारा, पंथा = राह, रास्ता, मार्ग, कंथा = अंतर्मन, गुदड़ी, मौन = चुप्पी, न बोलना।

व्याख्या : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने सुंदर सपनों का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि उनके जीवन में भी कुछ सुंदर सुखद पल आए थे। आज वही यादें उनके वर्तमान जीवन के लिए मानो संबल बन गई हैं। कवि कहते हैं कि उन्होंने भी प्रेम के अनगिनत सपने सँजोए थे, किंत वे सपने केवल सपने बनकर ही रह गए। वास्तविक जीवन में उन्हें वह सुख मिल न सका जिसे वे प्राप्त करना चाह रहे थे। कवि कहते हैं कि मेरी प्रेयसी के सुंदर लाल गालों की मस्ती भरी छाया में भोर की लालिमा मानो अपनी माँग भरती थी, ऐसी रूपसी की छवि अब मेरा पाथेय बनकर रह गई है क्योंकि उसे मैं वास्तव जीवन में पा न सका। मेरे प्यार के वे क्षण मिलन से पूर्व ही छिटक कर दूर हो गए। इसलिए मेरे जीवन की कथा को पर्त दर पर्त खोल कर यानी जानकर तुम क्या करोगे। कवि अपने जीवन को अत्यंत छोटा समझकर किसी को उसकी कहानी सुनाना नहीं चाहते। इसमें कवि की सादगी और विनय का भाव स्पष्ट होता है। वे दूसरों के जीवन की कथा सुनने और जानने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वे कहते हैं कि अभी मेरे जीवन की घटनाओं को कहानी के रूपमें कहने का समय नहीं आया है। अतीत के साये में वे अभी सो रहीहैं। अत: उनको अभी शांति से सोने दो यानी मेरे अतीत को मत कुरेदो।मेरे अतीत जीवन की घटनाओं को मौन कहानी के रूप में रहने दो, इसी में सबकी भलाई है।

विशेष

(i)   प्रस्तुत काव्यांश संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली में रचित है।

(ii) भाषा प्रतीकात्मक है।

(iii)    स्मृति-पाथेय में रूपक अलंकार है।।

(iv) इसमें छायावादी शैली की स्पष्ट झलक मिलती है।

(v)   'थकी सोई है मेरी मौन व्यथा' में मानवीकरण अलंकार है।

(vi) इसमें कवि का यथार्थवाद झलकता है। कवि दुखी-निराशहोकर भी अपने अतीत की सुखद स्मृतियों के सहारे अपने वर्तमान जीवन को गजार देना चाहते हैं।

(पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर)

1. कवि आत्मकथा लिखने से क्यों बचना चाहता है ?

उत्तर : कवि आत्मकथा लिखने से इसलिए बचना चाहता है क्योंकि

उसका जीवन अनेक दुखों से भरा था। लोग दूसरों के दुखों का मजाक बनाते हैं। एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही उसके जीवन की कथा है। उसमें कुछ भी महान नहीं था। न तो वह प्रेरक है और न ही कुछ रोचक। अपने जीवन की अतिसामान्य कथा को बताकर वह अपनी सरलता का मजाक नहीं बनाना चाहता। अतः आत्मकथा लिखने से बचना चाहता है।

2. आत्मकथा सुनाने के संदर्भ में अभी समय भी नहीं' कवि ऐसा क्यों कहना चाहता है?

उत्तर : कवि के जीवन में संघर्ष अभी भी बना हुआ है। संघर्ष करते हुए वह अपने दुखों को दबे रहने देना ही चाहता है। थकी मन:स्थिति में प्रिय की स्मृति ही उसका संबल बनी हुई है। उसके आस-पास के लोगों का स्वभाव अभी भी दूसरों के दुखों का मजाक बनाने का है। वह अपने प्रिय की मधुर स्मृतियों का अपमान नहीं चाहता। अतः वह अब भी आत्मकथा सुनाने का उपयुक्त समय आया नहीं समझता।

3. स्मृति को पाथेय बनाने से कवि का क्या आशय है?

उत्तर : स्मृति को पाथेय बनाने से कवि का आशय जीवन संघर्ष में आगे बढ़ते हुए थकने पर ऊर्जा प्राप्त करने में पुरानी यादों को ताजा बनाना है। प्रेम की स्मृतियाँ कवि को ऊर्जा और शांति प्रदान करती हैं।

4. भाव स्पष्ट कीजिए –

(क) मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।

उत्तर : कवि कहते हैं कि उसे जीवन में वह सुख कहाँ मिला जो स्वप्न-सा सुंदर था, जिसकी आशा में वह सोते से जाग गया था। प्रिय मिलन का वह सुख उसके लिए स्वप्न ही बनकर रह गया क्योंकि वह कभी उसके आलिंगन में नहीं बँधा अर्थात प्रिय का केवल परिचय तक ही हो सका। प्रेम के मिलन का वह अनोखा सुख मुसकराकर भाग गया। प्रिय मिलन की वह सुखद क्षणिक स्वप्निल अनुभूति ही अब कवि के दुखों से भरे जीवन का संबल है।

(ख) जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।।

उत्तर : इन पंक्तियों में कवि अपनी प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए जैसे उसमें खो जाते हैं। कवि कहते हैं कि उसके प्रिय के गालों की लालिमा की छाया से उषा भी नित्य अपनी माँग के सिंदूर को और गहरा कर लेती थी। अर्थात कवि की प्रिया के सुंदर गालों की लालिमा उषा की लालिमा से भी अधिक सुंदर थी।

5. 'उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की' –कथन के माध्यम से कवि क्या कहना चाहते हैं ?

उत्तर : कवि का प्रेम स्वप्न की तरह मादक था। उनका प्रेम विकसित न हो सका। प्रिय-प्रेम की मधुर स्मृतियों में वे बार-बार खो जाते हैं, परंतु उनकी इस गहरी संवेदना को समझने वाला कोई सहृदय उन्हें कभी नहीं मिला। वे उपहास उड़ाने वाले अपने आस-पास के लोगों को इसके लिए उपयुक्त नहीं मानते। अत: चाँदनी रात की प्रिय के साथ हुई उज्ज्वल गाथाएँ उसके हृदय में ही छिपी हैं। वे उन्हें किसी को नहीं सुनाते। वे उनकी उज्ज्वलता को बनाए रखने में ही अपना सुख देखते हैं।

6. 'आत्मकथ्य' कविता की काव्यभाषा की विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।

अथवा

आत्मकथ्य कविता की भाषा पर प्रकाश डालिए I

उत्तर : आत्मकथ्य में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें संगीतात्मकता, चित्रात्मकता की खूबी देखते ही बनती है।आत्मकथ्य में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें छायावादी शैली के साथ अलंकारों का प्रयोग तथा तत्सम शब्दावली का प्रयोग काव्य को रोचक बनाता है। लाक्षणिकता के साथ आत्मकथात्मक शैली कविता को मर्मस्पर्शी बनाती है। जीवन के यथार्थ के साथ अपने जीवन के अभाव पक्ष की भी प्रसाद जी ने मार्मिक अभिव्यक्ति की है। इसमें अनेक अलंकारों का प्रयोग हुआ है, जैसे- अनप्रास, रूपक, मानवीकरण आदि। संबोधनात्मक शैली में 'अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं' कहकर कवि ने इस कविता में सजीव निश्छलता जोड़ दी है।

7. कवि ने जो सुख का स्वप्न देखा था, उसे कविता में किस रूप में अभिव्यक्त किया है?

उत्तर : कवि को कभी लाल-लाल गालों वाली अत्यंत रूपवती प्रेयसी का साथ कुछ समय के लिए ही मिला था। किंतु आलिंगन में आने से पूर्व वह सुख-स्वप्न छिटककर दूर चला गया था। अतः उज्ज्वल चाँदनी रातों में हँस-हँसकर प्रिय के साथ हुई बातें सदा के लिए दुख देने वाली यादें बनकर रह गईं। कवि उन्हें योग्य-पात्र के न मिलने के कारण नहीं बता सके। प्रिय की यादें उनके मन में सदा बसी हुई हैं।

रचना और अभिव्यक्ति

8. इस कविता के माध्यम से प्रसाद जी के व्यक्तित्व की जो झलक मिलती है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर : प्रसाद जी को संसार निस्सार और नीरस लगता है। उनके अनुसार जीवन दुखों का ही दूसरा रूप है। उन्हें अपना जीवन रीता लगता है। अपनी अंतर्मुखी प्रकृति के कारण अपने अनुभवों को अपने तक ही रखना उन्हें उचित लगता है। उन्होंने स्वयं को अत्यंत सामान्य व्यक्ति समझा। कवि-हृदय होने के कारण वे अत्यंत संवदेनशील रहे। प्रकृति में अपने मनोभावों के प्रतिबिंब देखना उनकी सहज सृजनात्मकता रही। सरलता, विनम्रता और सहनशीलता उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ रहीं।

9. आप किन व्यक्तियों की आत्मकथा पढ़ना चाहेंगे और क्यों?

उत्तर : हम महान लोगों की आत्मकथाएँ पढ़ना चाहेंगे। इनमें गांधी जी की आत्मकथा हमें सत्य और अहिंसा के पालन के साथ मानवता की सेवा की प्रेरणा देगी। नेहरू जी की आत्मकथा जीवन में सकारात्मक सोच के साथ निरंतर संघर्ष करने व नव-निर्माण करने के लिए प्रेरित करेगी। डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की आत्मकथा गरीबी में भी अपने लक्ष्यों को तय करने, उन तक पहुँचने में आत्मविश्वास को बनाए रखने की शिक्षा देगी।

10. कोई भी अपनी आत्मकथा लिख सकता है। उसके लिए विशिष्ट या बड़ा होना जरूरी नहीं। हरियाणा राज्य के गुड़गाँव में घरेलू सहायिका के रूप में काम करने वाली बेबी हालदार की आत्मकथा बहुतों के द्वारा सराही गई।

आत्मकथात्मक शैली में अपने बारे में कुछ लिखिए।

उत्तर : मैं पिछले साल ही राजस्थान के एक छोटे गाँव पिंडवाड़ा सेआया हूँ। मेरे पिता की मृत्यु कैंसर के कारण हो गई थी। माँ से भी सिलाई का काम नहीं हो रहा था। हम अपनी थोडीसी खेती और घर बेचकर शहर आ गए। यहाँ बाहरी क्षेत्र में एक छोटा-सा हवादार घर मिल गया है। माहौल बदलने के कारण माँ का भी सिलाई में खूब मन लग गया है। मैंपिंडवाड़ा तहसील के विद्यालय में सदा प्रथम आता रहा। अतः यहाँ मुझे एक सरकारी विद्यालय में प्रवेश मिल गया है। मैं सुबह उठकर 5 से 7 बजे तक साइकिल से अखबार बाँटता हूँ। घर आकर नाश्ता करके विद्यालय जाता हूँ। शाम को 5 बजे से 7 बजे तक कुछ विद्यार्थियों को गणितऔर विज्ञान पढ़ाकर अपनी शिक्षा और घर के खर्च में माता जी का हाथ बँटाता हूँ। रात में दो घंटे पढ़कर 10 बजे सो जाता हूँ। अब हमारी स्थिति कुछ सँभल गई है। हम अच्छेभविष्य की आशा रखते हैं।

( अन्य परीक्षोपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर)

1) कवि ने मधुप किसे कहा है?

उत्तर : कवि ने मधुप को मन रूपी भौंरे के रूप में कल्पित कियाहै जो प्रेमगीत गुनगुनाता हुआ अपनी कोई कहानी सुनाता है।

2) मुरझाकर गिर रहीं पत्तियों की कवि ने किस रूप मेंकल्पना की है?

उत्तर : मुरझाकर गिर रही पत्तियों की कवि ने जीवन की निराशाओंऔर दुखों के रूप में कल्पना की है। इसके माध्यम सेउन्होंने जीवन की नश्वरता की ओर संकेत किया है।

3) 'व्यंग मलिन उपहास' कौन करता रहता है और क्यों?

उत्तर : संपूर्ण जगत में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाने मेंव्यस्त है। प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे में कमी नज़र आती हैऔर उस कमी या अभाव का वह बुरी तरह से मज़ाक उड़ाता है। वह अपनी कमी कभी नहीं देखता।

4) गागर रीती का निहित भावार्थ क्या है?

उत्तर : गागर रीती के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि उनकीवेदनाओं से भरी जिंदगी में प्राप्ति का स्थान रीती है। वेदनाओं की अनुभूति अवश्य हुई है लेकिन सुख-शांति की प्राप्ति नहींहुई अर्थात उनके अनुभवों का जीवन रूपी घडा खाली है।

5) प्रस्तुत काव्यांश किस युग की रचना है?

उत्तर : यह काव्यांश आधुनिक काल के छायावादी युग की रचना है।

6) 'अनंत नीलिमा में असंख्य जीवन इतिहास' का लाक्षणिकअर्थ स्पष्ट कीजिए?

उत्तर : 'अनंत नीलिमा में असंख्य जीवन इतिहास' का लाक्षणिकअर्थ है - इस संसार में प्राणी जन्म लेकर मर गए। उन सबका जीवन इतिहास इस विस्तृत आकाश में आज भी स्थित है। आकाश इस बात का साक्षी है कि प्राणियों नेहमेशा एक दूसरे का मज़ाक उड़ाया।

7) कवि को जीवन कैसा लगता है?

उत्तर : कवि को अपना जीवन स्वप्न के समान एक छलावा मात्रलगता है।

8) आलिंगन में आते-आते कौन मुसकरा कर भाग गया?

उत्तर : कवि के जीवन में प्रेम सुख एक बार आया था, किंतु स्वप्नकी भाँति वह भी टूट गया। उस सुख का स्पर्श पाते-पाते भी वे वंचित रह गए। वही प्रेम रूपी सुख उनके आलिंगन मेंआते-आते मुसकरा कर भाग गया।

9) 'उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की'कथन के माध्यम से कवि क्या कहना चाहते हैं?

उत्तर : कवि का प्रेम स्वप्न की तरह मादक था। उनका प्रेम विकसितन हो सका। प्रिय प्रेम की मधुर स्मृतियों में वे बार-बार खो जाते हैं, परंतु उनकी इस गहरी संवेदना को समझने वाला कोई सहृदय उन्हें कभी नहीं मिला। वे उपहास उड़ाने वाले अपने आस-पास के लोगों को इसके लिए उपयुक्त नहीं मानते। अतः चाँदनी रात की प्रिय के साथ हुई उज्ज्वल गाथाएँ उनके हृदय में ही छिपी हैं। वे उन्हें किसी को नहीं सुनाते। वे उनकी उज्ज्वलता को बनाए रखने में ही अपनासुख देखते हैं।

10)   इसमें पथिक और पाथेय क्या है? वह कैसा है?

उत्तर : इसमें पथिक कवि स्वयं हैं और उनकी रूपसी प्रेयसी की स्मति ही उनका पाथेय है। वह थका है।

11)   'सीवन को उधेड़कर देखने' से कवि का क्या अभिप्राय

उत्तर : इसका अभिप्राय है कि कवि के जीवन की कथा को पर्त दर पर्त खोलकर देखना या जानना। कवि कहना चाहता है किकोई उसके दुख को भुला क्यो महसूस करेगा?

12)   'छोटे से जीवन की' से कवि का क्या अभिप्राय है?

उत्तर : 'छोटे से जीवन की' से कवि का अभिप्राय उन सुंदर एवंसुखद पलों से है जो उनके जीवन में स्वप्न की भाँति कुछक्षण के लिए आए थे।

13)   'थकी सोई है मेरी मौन व्यथा' में कौन-सा अलंकार है?

उत्तर : थकी सोई है मेरी व्यथा में मानवीकरण अलंकार है।

14)   कवि मौन क्यों रहना चाहते हैं? वह अपनी आत्मकथाक्यों लिखना चाहता है?

उत्तर : कवि अपने अतीत जीवन के अनुभवों को किसी सेकहना नहीं चाहते क्योंकि वे उन्हें मज़ाक का विषय बनाना नहीं चाहते। अतः उसे मौन गाथा के रूप में रहने देना चाहते हैं। वह अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहता क्योकि उसकी आत्मकथा सुन कर लोग केवल हसेगे।

अति लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

15)   छोटे से जीवन और बड़ी कथाएँ का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : कवि स्वयं को अत्यंत सामान्य व्यक्ति मानते हैं। इस कारण अपने जीवन को अत्यंत छोटा कहते हैं। वह अपनी सामान्य जिंदगी में घटी अनेक घटनाओं को बड़ी कथाएँ मानते हैं; किंतु उन्हें वे जगजाहिर नहीं करना चाहते।

16)   कवि अपनी आत्मकथा कब लिखना चाहते है?

उत्तर : कवि का चित्त शांत है। उनके मन की व्यथाएँ सोई हुई हैं अतः आत्मकथा लिखने का यह उचित समय नहीं है। जब व्यथाएँ व्यक्त होने के लिए व्याकुल होंगी, तभी आत्मकथा लिखने का उचित अवसर होगा।

17)   कविता में कवि कौन-से सुख की बात कर रहे हैं?

उत्तर : कविता में कवि अपने प्रेम सुख की बातें कर रहें हैं। सपने में प्रिय का आना, उसका आलिंगन में आते-आते मुसकरा कर दूर भाग जाना, उसके लाल-लाल गाल सब उनके प्रिय की ओर संकेत करते हैं।

18)   कवि की विडंबना क्या है?

उत्तर : कवि की विडंबना यह है कि जीवन में जो कुछ सुख वे पाना चाहते थे वह सब उनके पास आकर मानो दर हो गया और जीवन स्वप्न के समान एक छलावा भर बना रहा।

19)   कवि ने मधुप किसे कहा है?

उत्तर : कवि ने व्यक्ति के मन को मधुप कहा है।

20)   पत्तियों के मुरझा कर गिरने का क्या आशय है?

उत्तर : पत्तियों के मुरझा कर गिरने से कवि का अभिप्राय है कि जिस प्रकार पत्तियाँ सूखकर-मुरझाकर गिरती हैं, उसी तरह उस अंतहीन नीले आकाश के नीचे अनगिनत जीवन की लीलाएँ भी समाप्त हो जाती हैं।

21)   व्यंग मलिन उपहास कौन करता है?

उत्तर : यहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे का मज़ाक उड़ाता है अर्थात लोग एक दूसरे के दुखों को न समझ कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

1.कवि अपनी प्रेयसी की किन स्मृतियों में खो जाते है?

उत्तर : कवि अपनी प्रेयसी की स्मृतियों में डूबते हुए बताते हैं कि उनकी प्रेयसी के सुंदर लाल गालों की मस्ती भरी लालिमा में अनुरागिनी भोर की लालिमा मानो अपनी माँग भरती थी। ऐसी प्रेयसी की स्मृति अब उनका पाथेय बनकर रह गई है। उनके जीवन में भी कुछ सुखद क्षण आए थे। उन्होंने भी प्रेम के अनगिनत सपने सँजोए थे।

2. कवि ने सीवन को कथा से ही क्यों जोड़ा? वह उसे उधेड़ने से किसे रोकते हैं और क्यों?

उत्तर : कवि ने सीवन को कथा से इसलिए जोड़ा क्योंकि जैसे सीवन को खोलते ही धीरे-धीरे सारी सीवन खुलती चली जाती है उसी तरह कथा भी शुरू होते ही क्रमानुसार आगे बढ़ती जाती है। वह मनुष्य को उसे उधेड़ने से रोकते हैं क्योंकि वे सुख का स्पर्श पाते-पाते भी वंचित रह गए थे। यदि वे अब उनको याद करेंगे तो यादों के पर्त दर पर्त खुलते ही जाएँगे, कवि अपने जीवन की कहानी किसी को भी सुनाना नहीं चाहते।

3. कवि की व्यथा मौन होकर क्यों सोई है, कवि उसे जगाना क्यों नहीं चाहता?

उत्तर : उत्तर : कवि अपने जीवन की घटनाएँ किसी को सुनाना नहीं चाहते क्योंकि उनके जीवन की घटनाओं को कहानी के रूप में कहने का समय अभी नहीं आया है। वे अभी अतीत के साये में सो रही हैं। वे अपने अतीत को कुरेदना नहीं चाहते। उनकी कथा वेदना भरी है, नीरस है। लोग एक-दूसरे के दुखों का मज़ाक उड़ाते हैं। अपनी कमी कोई नहीं देखता। इसी कारण अपने जीवन की व्यथा कहकर लोगों से उसका मज़ाक नहीं उड़वाना चाहते। इसलिए वे अपनी व्यथा को मौन रखना चाहते

4. कवि अपनी सरलता को क्यों बचाकर रखना चाहते ?

उत्तर : कवि अपने भोलेपन के कारण लोगों द्वारा छले गए हैं।उनके मित्रों ने उनके साथ छल कपट किया है, उन्हें धोखा दिया है। वे अपनी छले जाने की कहानी कह कर उनका मज़ाक नहीं उड़वाना चाहते। लोगों द्वारा उड़ाया गया उनका मज़ाक उनके लिए लिए असहनीय होगा। इसीलिए वे अपने भोलेपन को बचाकर रखना चाहते हैं।

5. 5. प्रसाद जी की जीवन-यात्रा कविता के आधार पर लिखिए।

उत्तर : प्रसाद जी स्वयं को एक सामान्य मनुष्य मानते हैं। उन्होंने जीवन में अनेक कष्ट सहे। उन्होंने अपना जीवन सरलता और भोलेपन से जिया। उनकी यही सरलता उनके लिए भूल बन गई। उनके अपनों से उन्हें धोखे मिले। उनका प्रेम भी सफल नहीं हो सका। दांपत्य सुख का केवल सपना ही देखा। जीवन-पथ पर कोई सच्चा साथी न मिल सका।

6. 6. कवि जयशंकर प्रसाद ने आत्मकथा न लिखने केलिए क्या-क्या कारण गिनाए हैं? किन्ही तीन का उल्लेख करें।

अथवा

आत्मकथा कविता में कवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी कथा न कहने के क्या कारण बताए?

उत्तर : लेखक ने आत्मकथा न लिखने के निम्नलिखित कारणबताए हैं

1. उनका जीवन अनेक दुखों से भरा था। लोग दूसरोंके दुखों का मज़ाक बनाते हैं।

2. एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही उनके जीवन कीकथा है। उसमे कुछ भी महान नहीं था। न तोउनका जीवन प्रेरक है और न ही कछ रोचक।

03. लेखक अपने जीवन की अति सामान्य कथा कोदूसरों को बताकर अपनी सरलता का मज़ाक नहींबनाना चाहते।

7. 'आत्मकथ्य' कविता के माध्यम से प्रसाद जी के व्यक्तित्व की जो झलक मिलती है, वह उनकी ईमानदारी और साहस का प्रमाण है, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : आत्मकथ्य कविता के माध्यम से प्रसाद जी के व्यक्तित्वकी जो झलक मिलती है, वह उनकी ईमानदारी और साहस का ही दूसरा रूप है। अपनी अंतर्मुखी प्रकृति के कारण अपने अनुभवों को स्वयं तक ही रखना उन्हें उचित लगता है। दूसरे लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति को बताकर (औरों के दुख में हँसी-मज़ाक करना) कवि ने वास्तव में साहस का परिचय दिया है। उन्होंने अपने को अत्यंत सामान्य व्यक्ति समझा। वे अत्यंत संवेदनशील रहे। प्रकृति में अपने मनोभावों को देखना और कविता में परिणत करना उनका स्वभाव था। उन्होंने पूरी ईमानदारी औरसाहस से अपने अनुभवों को व्यक्त किया है।

8. 'आत्मकथ्य' कविता में किसका प्रतीक है? वह कौन-सी कथा कहता है?

उत्तर : आत्मकथ्य कविता में मधुप (भौंरा) मन का प्रतीक है।वह अपने प्रेम की कहानी कहता है। और प्रियजन कीयाद दिलाता है।

9. 'आत्मकथ्य' कविता में गागर रीती' का अर्थ स्पष्ट कीजिए?

उत्तर : आत्मकथ्य कविता में 'गागर रीती' का अर्थ है किवेदनाओं से भरी कवि की जिंदगी रूपी गागर बिलकुल खाली है क्योंकि उसकी जिंदगी में खुशियों के क्षण आए और चले गए।। उसे प्राप्ति नहीं हुई। उसका सारा जीवनएक की और खाली रहा है।

10. 'मधुष गुनगुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी'में रेखांकित शब्दों में कौन-सा अलंकार है? क्यों है?स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : 'मधुष गुनगुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी' मेंअनुप्रास अलंकार है क्योंकि यहाँ 'गन गना' 'कर कह' 'कौन कहानी' 'कहानी यह' में क्रमशः '' '' ''ओर '' की आवृत्ति हुई है।

11. 'आत्मकथ्य' कविता की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर : 'आत्म कथ्य' कविता छायावादी युग की खड़ी बोली मेंलिखी गई कविता है। इसमें संगीतमयता तथा चित्रात्मकता देखते बनती है अनुप्रास रूपक तथा अलंकारो का प्रयोग हुआ है। इसमें कवि के जीवन दुखद स्मृति का मार्तिक चित्र किया गया है। इस कविता के माध्यम से कवि के शांत गंभीर तथा ईमानदार जीवन की झलक मिलती है। इसके साथ ही साथ इस कविता में जीवन की नीरसताएवं असारता का वर्णन किया गया है।

12. 'आत्मकथ्य' कविता में आई पंक्ति 'थकी सोई है मेरी मौन व्यथा' का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : 'थकी सोई है मेरी मौन व्यथा' का आशय है कि कविने अपने जीवन में अनेक वेदनाओं को सहा है जिससे उसे बहुत पीड़ा मिली है। वेदनाओं और पीड़ा को सहते सहते कवि थक चुका है तथा अब वह मौन हो गया है। उसकी वेदना और व्यथा अब भूतकाल का विषय बन चुकी है। वह अपने अतीत के कष्ट को किसी सेकहना नहीं चाहता।

13. आत्मकथ्य कविता में कवि अपनी व्यथा को मौन हीक्यों रखना चाहता था?

उत्तर : 'आत्मकथ्य' कविता में कवि अपनी व्यथा को मौनइसलिए रखना चाहता है क्योंकि कवि ने अपने छोटे से जीवन अनेक वेदनाएँ सही है। अनेक कष्ट सहे। इस विषय में उसकी जीवन रूपी गागर बिलकुल खाली है। कवि को जीवन में प्रेम की प्राप्ति नहीं हुई। यदि वह अपने दु:ख भरे अतीत के बारे में लोगों को बता देगे तो लोग उनका मजाक ही उड़ाएँगे। उसकी सरलता की खिल्ली उड़ाएँगे।

14. 'उज्ज्वल गाथा कैसे गाँऊ' यह कथन किसका है?इसका क्या कारण है?

उत्तर : 'उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ' यह कथन कवि जयशंकरप्रसाद का है। उनके जीवन की गाथा एक सरल सज्जन एवं सत्परुष की कहानी है। उनका प्रेम निश्छल और स्वप्न के समान 'मादक था किंतु वह विकसित नहीं हो पाया क्योंकि उसकी संवेदना को समझने वाला कोई नहीं मिला। उनके साथ छल हुआ। अतः वे कहते हैं कि वे अपने जीवन के प्रेम और सुखमय पलों का वर्णन कैसेकरें।

15. 'आत्मकथ्य' कविता में कवि के दर्शन एक निराश,हतप्रभ, और व्यथित हृदय के रूप में होते हैं, कैसे?स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : आत्मकथ्य कविता में कवि के दर्शन एक निराश, हतप्रभ और व्यथित हृदय के रूप में होते हैं क्योंकि उनके जीवन की अनेक मधुर स्मृतियाँ है जो एक एक नष्ट हो गई। उसका प्रेम स्थायी नहीं रहा क्योंकि उसकी संवेदनाओं को समझने वाला कोई नहीं मिला। प्रेम केनाम पर उनके साथ धोखा हुआ है।

16. 'आत्मकथ्य' कविता के माध्यम से जयशंकर प्रसाद क्या कहना चाहते हैं?

उत्तर : 'आत्मकथ्य' कविता के माध्यम से कवि कहना चाहतेहैं कि उनका जीवन कठिनाइयों और दुखों से भरा है। वे अपने भोलेपन के कारण लोगों द्वारा छले गए है। उन्हें अपने ही लोगों ने धोखा दिया है। परंतु वे अपना भोलापन नहीं छोड़ना चाहते। उनके जीवन में कुछ ही क्षण सुख-शांति लेकर आए थे। यदि उन्होंने आत्मकथा लिखी तो उन्हें उन सब को लिखना पड़ेगा। उन्हें लिखकर वह जगहँसाई नहीं करवाना चाहते। वे अपनी गाथा सुनाने के स्थान पर औरों की गाथा सुनना ज्यादा पसंद करते है I

17. 'आत्मकथ्य' नामक कविता में कवि ने संसार की नीरसता और असारता को किस प्रकार प्रकट किया?

उत्तर : 'आत्मकथ्य' नामक कविता में कवि ने संसार की नीरसताऔर असारता को प्रकृति में समाई नीरसता और जीवन में व्याप्त दुख एवं वेदना के माध्यम से प्रकट की है। पत्तियों के झड़कर नष्ट होने में कवि जीवन समाप्त होने के भाव देखते हैं। अपने जीवन में कुछ भी विशेष अथवा सुखद न होने के कारण वे अपनी कथा नहीं कहना चाहते। जीवन के बनने और बिगडने के क्रम को देखकरभी जब लोग एक दूसरे के दुखों को न समझकर मज़ाक उडाते हैं तो कवि अपनी कथा को दबाकर ही रखना चाहते हैं।

आत्मकथ्य -जयशंकर प्रसाद 


 

 

 

 

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कुमार MAHESH

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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