फरेब की उम्र लम्बी कहाँ-----
मृगतृष्णायें असीम हमारी, मन में छल-प्रपंच
जागा है.
कर्म करें खोटें ,बन बिन पैंदे
के लौटे,सोने पे सुगाहा है.
संस्कारविहीन बने हम,संस्कारों
की अच्छी बातें करते है .
गोबर भरा है जेहन में भीतर , बांटते
मकरंद-परागा है.
जब स्वाद हराम के माल में,तो हम
भेडिये की खाल में .
मीठी-मीठी बातों में फुसलायें,हम
कोयल नहीं कागा है.
अंगुली उठी खुद पर ,इंसा फ़ौरन वकील बन जाता है.
गैरों का करना हो न्याय ,आदमी
न्यायाधीश ही लागा है.
हमने माप चादर की बिसारी,चादर
से बाहर पैर पसारे है.
चुपड़ी के चक्कर में सूखी खोता,हर
इंसा बड़ा अभागा है.
फरेब की उम्र लम्बी कहाँ ?पर्दाफाश
होता है इक दिन .
कालिख पुतती चेहरे पर , टूटता इज्जत का धागा है.
जब- जब इंसा जमीर से भागा है,तब-तब
हुआ नागा है.
चुप्पी ही बेहतर है महेश
,सोया खुदा भी कब जागा है .
व्यथित मन का सृजन
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