विषय ---
(दुनिया) विधा – गीत
ये फरेबी दुनिया मुझे , आती नहीं है रास .
मुर्दा जिस्म घुमें आवारा
,जैसे जिन्दा लाश .
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम
रहे हर ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है तरक्की
का दौर .
तार-तार रिश्तें सारे ,गूंगे -बहरे बने अहसास
.
प्रीत के पौधे मुरझाये,हर घर गंधरहित पलाश.
आधुनिकता में नग्न दिखे ,पढ़े लिखे भी ढोर .
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम रहे हर
ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है तरक्की का दौर .
शक अपनों को अपनों पर, टुट
रहा विश्वास .
आँखों में धूल झोंके ,कोई ओर
है खासमखास .
दिन में साथ किसी का ,रात
में है कोई और.
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम
रहे हर ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है
तरक्की का दौर .
नीति -अनीति में बदली, पुण्य बना इतिहास .
बिना कर्म के फल मिल जाए ,ऐसा है अभ्यास.
अपने गिरेबां में दृष्टी नहीं, है दूसरों
पर गौर .
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम रहे हर
ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है तरक्की का दौर .
बनी अँधेरी नगरी दुनिया,
झूंठों का है आवास.
सच के संग खड़े है जो ,भेजा
जा रहा है बनवास .
दुनिया आंसू का दरिया ,फर्जी-मसीहा
बने सिरमोर.
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम
रहे हर ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है
तरक्की का दौर .
चार दिन
की जिन्दगी में , बोई महज खरपतवार -घास ,
कांटो के
जंगल में व्यर्थ है ,अब फूलों की तलाश .
भंवरे हम है जहरीलें , काँटों में आस्था ,है
हमारी पुरजोर .
संवेदन
शुन्य बनकर इंसा ,घुम रहे हर ओर .
कह रहे
फिर भी सभी, ये है तरक्की का दौर .
मेहनतकश
चीथड़े-चीथड़े,भ्रष्टों के उजले लिबास .
कभी तो दर तक आएगा,फाइलों
में दबा विकास .
इसी आस में फ़ना हो रहे, दीन-दुखी
,कमजोर .
संवेदन शुन्य बनकर इंसा ,घुम
रहे हर ओर .
कह रहे फिर भी सभी, ये है
तरक्की का दौर .
मेरी
बातें आप सब को ,लग रही है बकवास .
मैं वो ही तो बोलूँगा, जिसका मैं करता आभास .
तुम को
लगे रंगीन दुनिया ,मुझको लगे कुछ और .
संवेदन
शुन्य बनकर इंसा ,घुमे रहे हर ओर .
कह रहे
फिर भी सभी, ये है तरक्की का दौर .
कुमार
महेश १७-०३-२०२०
(स्वरचित
)
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