जिन्दगी इम्तिहानों मे हैं.............
जवानी भी गई, तेवर भी गये,उम्र मेरी अब ढलानों मे हैं ।
दुनिया सिखाती हैं सबक, जिन्दगी जैसे इम्तियानों मे हैं।
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सूरत और सीरत भली हो भी, तो हासिल क्या हो पायेगा।
झूठ के दौर में सच है खामोश,छलिया ही कामरानो मे है।।
गुमराही की बाते नफासत से कहने का रिवाज क्या चला?
मन की बातों से मन हुआ मलीन,सब लुटे हुए बयानों मे हैं।।
आत्मा विहीन लाशों का कारवां हो चला हैं लम्बा अब तो,
उल्लू सीधा करले जैसे तैसे जो ,वहीं तो अब सयानों मे हैं।।
सदाकत के लिये जो भी चला है ,विद्रोह की मशाल थामे।
जख्मी है बहुत, जहरीले तीर ही सियासत के कमानो मे हैं।।
भूख ,गरीबी और महँगाई,आम आदमी के हिस्से मे आई।
मन से भी थे सब कँगले , अब कगाँली खजानों मे है।।
पेट से ऊपर कुछ होता है क्या?बेरहम बहुत होती हैं भूख।
जीना जब तक सीना होगा, महफूज कहाँ ठिकानों मे है।।
सीमा पर भी शोर बहुत, कुछ कहते हैं की जोर बहुत है।
बिकने और मिटने के जुमले ही आजकल दास्तानों मे है।।
खामोश रहने को कहते सब है ,पर मेरी भी गंदी आदत है।
कुमार भी फिसल जाता हैं ,आदत गंदी हम इंसानों मे है।।
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(व्यथित मन का सृजन)
कुमार महेश 08/07/2020 दौसा,राजस्थान
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