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MAHADEVI VERMA :POEM ,महादेवी वर्मा : जाग तुझको दूर जाना,सब आँखों के आँसू उजले

 

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महादेवी वर्मा :जीवन परिचय

कविता : जाग तुझको दूर जाना ,सब आँखों के आँसू उजले 

जीवन परिचय

जन्म और परिवार

हादेवी का जन्म २६ मार्च १९०७ को प्रातः ८ बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेशभारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी महादेवी मानते हुए   पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं।विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थींवे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायणगीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, मांसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानंदन पंत एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं।

शिक्षा

महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृतअंग्रेज़ीसंगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं सुनो, ये कविता भी लिखती हैं। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।

वैवाहिक जीवन

सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् १९६६ में पति की मृत्यु के बाद वे स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।

कार्यक्षेत्र

महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, सम्पादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। १९२३ में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चाँद का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्यकाव्यशिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवारस्मृति की रेखाएंपथ के साथीशृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का सम्पादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन १५ अप्रैल १९३३ को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में सम्पन्न हुआ। वे हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं।महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। १९३६ में नैनीताल से २५ किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बँगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मन्दिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निंदा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया।महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके सम्पूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। ११ सितंबर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया।

प्रमुख कृतियाँ

महादेवी वर्मा की रचनाएँ

महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।

पन्थ तुम्हारा मंगलमय हो। महादेवी के हस्ताक्षर

महादेवी वर्मा की प्रमुख गद्य रचनाएँ

कविता संग्रह

१. नीहार (१९३०)
२. रश्मि (१९३२)
३. नीरजा (१९३४)
४. सांध्यगीत (१९३६)

 ५. दीपशिखा (१९४२)
 ६. सप्तपर्णा (अनूदित-१९५९)

 ७. प्रथम आयाम (१९७४)

 ८. अग्निरेखा (१९९०)

श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिकापरिक्रमासन्धिनी (१९६५)यामा (१९३६)गीतपर्वदीपगीतस्मारिकानीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि।

महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य

·         रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३),

·         संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२) और संस्मरण (१९८३)

·         चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४)

·         निबंध: शृंखला की कड़ियाँ (१९४२)विवेचनात्मक गद्य (१९४२)साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२)संकल्पिता (१९६९)

·         ललित निबंध: क्षणदा (१९५६)

·         कहानियाँ: गिल्लू

·         संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३),

अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका चाँदतथा साहित्यकारमासिक की भी सम्पादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में साहित्यकार संसदऔर रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।

महादेवी वर्मा का बाल साहित्य

महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं।

·         ठाकुरजी भोले हैं

·         आज खरीदेंगे हम ज्वाला

समालोचना

मुख्य लेख: महादेवी की काव्यगत विशेषताएँ

आधुनिक गीत काव्य में महादेवी जी का स्थान सर्वोपरि है। उनकी कविता में प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता वर्तमान होने के कारण भाव, भाषा और संगीत की जैसी त्रिवेणी उनके गीतों में प्रवाहित होती है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। महादेवी के गीतों की वेदना, प्रणयानुभूति, करुणा और रहस्यवाद काव्यानुरागियों को आकर्षित करते हैं। पर इन रचनाओं की विरोधी आलोचनाएँ सामान्य पाठक को दिग्भ्रमित करती हैं। आलोचकों का एक वर्ग वह है, जो यह मानकर चलते हैं कि महादेवी का काव्य नितान्त वैयक्तिक है। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा, कृत्रिम और बनावटी है।

·         आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य आलोचकों ने उनकी वेदना और अनुभूतियों की सच्चाई पर प्रश्न चिह्न लगाया है  दूसरी ओर

·         आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समीक्षक उनके काव्य को समष्टि परक मानते हैं

·         शोमेर ने दीप’ (नीहार), मधुर मधुर मेरे दीपक जल (नीरजा) और मोम सा तन गल चुका है कविताओं को उद्धृत करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि ये कविताएं महादेवी के आत्मभक्षी दीपअभिप्राय को ही व्याख्यायित नहीं करतीं बल्कि उनकी कविता की सामान्य मुद्रा और बुनावट का प्रतिनिधि रूप भी मानी जा सकती हैं।

·         सत्यप्रकाश मिश्र छायावाद से संबंधित उनकी शास्त्र मीमांसा के विषय में कहते हैं ― “महादेवी ने वैदुष्य युक्त तार्किकता और उदाहरणों के द्वारा छायावाद और रहस्यवाद के वस्तु शिल्प की पूर्ववर्ती काव्य से भिन्नता तथा विशिष्टता ही नहीं बतायी, यह भी बताया कि वह किन अर्थों में मानवीय संवेदन के बदलाव और अभिव्यक्ति के नयेपन का काव्य है। उन्होंने किसी पर भाव साम्य, भावोपहरण आदि का आरोप नहीं लगाया केवल छायावाद के स्वभाव, चरित्र, स्वरूप और विशिष्टता का वर्णन किया।

·         प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे मनीषी का मानना है कि जो लोग उन्हें पीड़ा और निराशा की कवयित्री मानते हैं वे यह नहीं जानते कि उस पीड़ा में कितनी आग है जो जीवन के सत्य को उजागर करती है।

यह सच है कि महादेवी का काव्य संसार छायावाद की परिधि में आता है, पर उनके काव्य को उनके युग से एकदम असम्पृक्त करके देखना, उनके साथ अन्याय करना होगा। महादेवी एक सजग रचनाकार हैं। बंगाल के अकाल के समय १९४३ में इन्होंने एक काव्य संकलन प्रकाशित किया था और बंगाल से सम्बंधित बंग भू शत वंदनानामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में हिमालय नामक काव्य संग्रह का सम्पादन किया था। यह संकलन उनके युगबोध का प्रमाण है।

गद्य साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने कम काम नहीं किया। उनका आलोचना साहित्य उनके काव्य की भांति ही महत्वपूर्ण है। उनके संस्मरण भारतीय जीवन के संस्मरण चित्र हैं।

उन्होंने चित्रकला का काम अधिक नहीं किया फिर भी जलरंगों में वॉशशैली से बनाए गए उनके चित्र धुंधले रंगों और लयपूर्ण रेखाओं का कारण कला के सुंदर नमूने समझे जाते हैं। उन्होंने रेखाचित्र भी बनाए हैं। दाहिनी ओर करीन शोमर की क़िताब के मुखपृष्ठ पर महादेवी द्वारा बनाया गया रेखाचित्र ही रखा गया है। उनके अपने कविता संग्रहों यामा और दीपशिखा में उनके रंगीन चित्रों और रेखांकनों को देखा जा सकता है।

पुरस्कार व सम्मान

 

डाकटिकट

उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले।

·         १९४३ में उन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक एवं भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद १९५२ में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। १९५६ में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये पद्म भूषण की उपाधि दी। १९७९ में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं।[20] 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया।

·         सन १९६९ में विक्रम विश्वविद्यालय, १९७७ में कुमाऊं विश्वविद्यालयनैनीताल, १९८० में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा १९८४ में बनारस हिंदू विश्वविद्यालयवाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।

·         इससे पूर्व महादेवी वर्मा को नीरजाके लिये १९३४ में सक्सेरिया पुरस्कार, १९४२ में स्मृति की रेखाएँके लिये द्विवेदी पदक प्राप्त हुए। यामा नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे भारत की ५० सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं।

·         १९६८ में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण वह चीनी भाई[23] पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर नीचे

·         १६ सितंबर १९९१ को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में २ रुपए का एक युगल टिकट भी जारी किया है।

महादेवी वर्मा का योगदान

 

महादेवी से जुड़े विशिष्ट स्थल

साहित्य में महादेवी वर्मा का आविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ीबोली का आकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्ण काम किया जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। शचीरानी गुर्टू ने भी उनकी कविता को सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण माना है।उन्होंने अपने गीतों की रचना शैली और भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथ ही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींच देता है।छायावादी काव्य की समृद्धि में उनका योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छायावादी काव्य को जहाँ प्रसाद ने प्रकृतितत्त्व दिया, निराला ने उसमें मुक्तछंद की अवतारणा की और पंत ने उसे सुकोमल कला प्रदान की वहाँ छायावाद के कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का गौरव महादेवी जी को ही प्राप्त है। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता उनके काव्य की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-हिलोरों का ऐसा सजीव और मूर्त अभिव्यंजन ही छायावादी कवियों में उन्हें महादेवीबनाता है।वे हिन्दी बोलने वालों में अपने भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद की जाती हैं। उनके भाषण जन सामान्य के प्रति संवेदना और सच्चाई के प्रति दृढ़ता से परिपूर्ण होते थे। वे दिल्ली में १९८३ में आयोजित तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। इस अवसर पर दिये गये उनके भाषण में उनके इस गुण को देखा जा सकता है।

यद्यपि महादेवी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उनके लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, भूमिकाओं और ललित निबंधों में जो गद्य लिखा है वह श्रेष्ठतम गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का सम्पूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना और काव्यरूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में कितना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनके गद्य में वैचारिक परिपक्वता इतनी है कि वह आज भी प्रासंगिक है।समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता से संबंधित उनके विचारों में दृढ़ता और विकास का अनुपम सामंजस्य मिलता है। सामाजिक जीवन की गहरी परतों को छूने वाली इतनी तीव्र दृष्टि, नारी जीवन के वैषम्य और शोषण को तीखेपन से आंकने वाली इतनी जागरूक प्रतिभा और निम्न वर्ग के निरीह, साधनहीन प्राणियों के अनूठे चित्र उन्होंने ही पहली बार हिंदी साहित्य को दिये।

मौलिक रचनाकार के अलावा उनका एक रूप सृजनात्मक अनुवादक का भी है जिसके दर्शन उनकी अनुवाद-कृत सप्तपर्णा’ (१९६०) में होते हैं। अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे उन्होंने वेद, रामायण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है। आरम्भ में ६१ पृष्ठीय अपनी बातमें उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के सम्बंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है।

 

महादेवी वर्मा का जन्म फर्रूखाबाद उत्तरप्रदेश में हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा इंदौर में हुई। मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्होंने संस्कृत में एम.ए.किया। तत्पश्चात  उनकी नियुक्ति प्रयाग महिला विद्यापीठ में हो गई, जहाँ वे लम्बे समय तक प्राचार्य के पद पर कार्य करती रहीं। उनके जीवन और चिंतन पर स्वाधीनता आंदोलन और गांधी जी के विचारों के साथ-साथ गौतम बुद्ध के दर्शन  का गहरा प्रभाव पडा है। महादेवी जी भारतीय समाज और हिंदी साहित्य में स्त्रियों को उचित स्थान दिलाने के लिए विचार और व्यवहार के स्तर पर जीवनभर प्रयत्नशील  रहीं। उन्होंने कुछ वर्षों तक चाँद नाम की पत्रिका का संपादन भी किया था, जिसके सम्पादकीय लेखों के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में स्त्रियों की पराधीनता के यथार्थ और स्वाधीनता की आकांक्षा का विवेचन किया है।

महादेवी वर्मा के काव्य में जागरण की चेतना के साथ स्वतंत्रता की कामना है और दुःख की अनुभूति के साथ करूणा का बोध भी। दूसरे छायावादी कवियों की तरह उनके गीतों में भी प्रकृति-सौंदर्य के कई रूप मिलते हैं। महादवेी वर्मा के प्रगीतों में भक्तिकाल के गीतों की प्रतिध्वनि और लोकगीतों की अनुगूँज है,इसके साथ ही उनके गीत आधुनिक बौद्दिक  मानस के द्वंद्वो को भी अभिव्यक्त करते हैं।

महादेवी वर्मा के गीत अपने विशिष्ट  रचाव और संगीतात्मकता के कारण अत्यंत आकर्षक है। लाक्षणिकता, चित्रमयता और रहस्याभास उनके गीतों की विशेषता  है। महादेवी जी ने नए बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रगीत की अभिव्यक्ति शक्ति का नया विकास किया। उनकी काव्य-भाषा प्रायः तत्सम शब्दों से निर्मित है। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। यामा के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।

महादेवी वर्मा की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं –

नीहार, रशिम ,नीरजा, सांध्यगीत, यामा और दीपशिखा

कविता के अतिरिक्त उन्होंने सशक्त गद्य भी रचा है, जिसमें रेखाचित्र तथा संस्मरण प्रमुख हैं।

“पथ के साथी, अतीत के चलचित्र तथा स्मृति की रेखाएँ” उनकी कलात्मक गद्य रचनाएँ हैं। श्रृंखला की कडियाँ में महादेवी वर्मा ने भारतीय समाज में स्त्री जीवन के अतीत, वर्तमान और भविष्य का मूल्यांकन किया है।

पाठ्यपुस्तक में उनके दो गीत संकलित किए गए हैं। पहला गीत स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा से रचित जागरण गीत है। इसमें भीषण कठिनाइयों की चिंता न करत हुए कोमल बंधनों के आकर्षण से मुक्त होकर अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढते रहने का आह्यन है। मोह-माया के बंधन में जकडे मानव को जगाते हुए महादेवी ने कहा है - जाग तुझको दूर जाना।

दूसरा गीत सब आँखों के आँसू उजले में प्रकृति के उस स्वरूप की चर्चा हुई है जो सत्य है, यथार्थ है और जो लक्ष्य तक पहुचँने में मनुष्य की मदद करता है। प्रकृति के इस परिवर्तनशील  यथार्थ से जुडकर मनुष्य अपने सपनों को साकार करने की राहें चुन सकता है।

कविता- जाग तुझको दूर जाना / महादेवी वर्मा

*1*

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

कठिन शब्दार्थ - चिर – हमेशा  । सजग- सावधान । व्यस्त बाना - अस्त-व्यस्त वेश । अचल -पर्वत । हिमगिरि - बर्फ का पर्वत। प्रलय- तूफान । अलसित- आलसी। व्योम- आकाश  । आलोक – प्रकाश । तिमिर - अंधकार । निठुर - कठोर ।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश  छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा रचित गीत ‘‘जाग तुझको  दूर जाना‘‘ से अवतरित है। यह गीत उनकी रचना ‘‘सांध्य गीत‘‘ में संकलित है। यह गीत स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा से रचित जागरण गीत है, जिसमें भीषण कठिनाइयों की चिंता न करते हुए आगे बढते रहने की प्रेरणा दी हैं।

व्याख्या – देशवासियों का आह्वान  करती हुई कवयित्री कहती हैं कि तू जाग, तुझे अभी बहुत दूर जाना है। तुम हमेशा  सजग(सावधान) रहते हो फिर भी आज तुम्हारी आँखे उनींदी (नींद से भरी) और वेशभूषा अस्त-व्यस्त क्यों हो रही है। अर्थात तुम्हारा  लक्ष्य अभी बहुत दूर है और मार्ग भी लम्बा एवं ऊबड-खाबड है। इस लम्बे और कठिन मार्ग पर चलने में कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आएं, तुम्हें आलस्य त्याग आगे बढना ही होगा। अचल और दृढ हिमालय के कठोर ह्रदय  में आज चाहे कितने ही कंपन क्यों न हो अथवा मौन आकाश  में भले ही प्रलयकारी आँसू क्यों न बहने लगें, अर्थात कितना ही प्रलयकारी तूफान आए, परन्तु तुम्हें रूकना नहीं है। चाहे चारों ओर कितना ही घना अंधकार क्यों न छा जाए और वह भले ही रोशनी को मिटा दे अथवा बिजली की गडगडाहट के साथ भंयकर कठोर एवं विनाशकारी तूफान ही क्यों न आ जाए, परन्तु तुम्हें इस विनाशकारी रास्ते पर साहसपूर्वक चलते हुए अपना बलिदान देकर अमर निशान छोडने ही होंगे ताकि उनका अन्य लोग अनुसरण कर सकें।

विशेष -

1- बलिदान के रास्ते में आने वाली कठिनाईयों से विचलित न होने की प्रेरणा दी है।

2-प्रतीकों का प्रयोग और मानवीकरण की शैली अपनायी गई है।

3-प्रेरणा और ललकार का स्वर ओज गुण से सम्पन्न है। भाषा तत्सम-प्रधान है।

4-छंद सुगेय एवं गति-यति से सम्पन्न है।

*2*
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

कठिन शब्दार्थ - पंथ-रास्ता । विश्व - संसार। क्रंदन -विलाप । मधुप –भँवरा, कारा-जेल, बंधन

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश  महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत “जाग तुझको दूर जाना” से लिया गया है। इसमें कवयित्री ने स्वतंत्रता के लिए निरन्तर संघर्ष करने वाले देशवासियों को मार्ग की बाधाओं एवं आकर्षणों के प्रति सचेत रहने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या- कवयित्री स्वतत्रंता संग्राम में भाग लेने जा रही वीरों को सम्बोधित करती हुए कहती है कि क्या यह मोम के समान कोमल ओर सुंदर बंधन तुझे बाँध लेंगे, अर्थात तुझे इन कोमल बंधनों में बंधना नहीं है। रंग-बिरंगी तितलियाँ अर्थात सुंदर युवतियाँ तुम्हारे रास्ते में बाधा डालने का कितना ही प्रयास करें, लेकिन तुम्हें रूकना नहीं है। भौंरों की मदभरी गुंजार चाहे चारों ओर गुँजे क्या वह रोते-बिलखते विश्व  के रूदन को भुला सकेगी, फूल के दलों पर फैले ओस के कण क्या तुम्हें डूबो देंगे अर्थात तुम दृढ-प्रतिज्ञ रहोगे तो ये सब आकर्षण धरे रह जाएँगे। अतः तुम अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपनी ही परछाई को अपना बंधन मत बना लेना। क्योंकि तुम्हें तो अभी बहुत आगे जाना है। अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर जागरूक रहकर आगे ही बढते जाना है और यही तुमसे अपेक्षा है।

विशेष -

1-मनुष्य अपने लक्ष्य में तभी सफल हो सकता है जब वह मार्ग की विघ्न-बाधाओं से घबराए नहीं।

2-मोम के बंधन सजीले , तितलियों के पर रंगीले, आदि प्रतीकों का प्रयोग करके सांसारिक बंधनो की सुंदर व्यंजना की गई है। भाषा तत्सम-प्रधान, कोमल तथा संगीतानुरूप है।

3-मधुप की मधुर में अनुप्रास अलंकार है।

4-खडी बोली में ओज गुण का समावेश  है।

*3*
वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

कठिन शब्दार्थ - वज्र-फौलाद, कठोरतम । उर-ह्रदय  । अश्रु कण - आँसू। सुधा- अमृत । मदिरा- शराब। मलय की बात - चंदन की सुगंधित हवा। उपधान- तकिया, सहारा।

प्रसंग- इस आह्वान  गीत में कवयित्री देशवासियों अर्थात स्वतत्रंता संग्राम में भाग लेने वाले वीरों से पूछती हैं कि-

व्याख्या- क्या कारण है कि विभिन्न प्रकार के कष्टों को झेल सकने वाला वज्र के समान तुम्हारा कठोर ह्रदय  किसी करूणामयी याद को लेकर आँसू रूपी मोती से धुलकर क्यों गल रहा है ?तुम अपने जीवन के अमरत्व सुख और शांति व आनंद देकर किससे और कहाँ से दो घूँट शराब की मांग लाये हो ? अर्थात तुम में यह निराशा  व उदासीनता और अकर्मण्यता क्यों समा गई है ? क्या आज जीवन की सारी भावनाओं की आँधी सुगंधित पवन का सहारा लेकर सो गई है ?अर्थात क्या तुम कोमलता के आगोष में आकर अपनी क्रांतिकारी प्रवृत्ति  खो बैठे हो ?आज तुम्हारी तीव्र अनुभूतियों में शीतलता और धीमापन क्यों आ गया है? क्या समस्त विश्व  का दुःख ही निद्रा और आलस्य बन कर हमेशा  के लिए तुम्हारे पास आ गया है? यह जीवात्मा जो अमरता की अंष है उसे त्याग कर मृत्यु अथवा नाश  को अपने ह्रदय  में क्यों बसा लेना चाहती है। अतः तुम्हें तो आलस्य और अकर्मण्यता त्यागकर अपने पथ पर आगे बढना है। तुम्हारा रास्ता भी बहुत लम्बा है, तुम्हें अभी बहुत दूर तक जाना है।

विशेष -

1-कवयित्री ने सांसारिक आकर्षणों  में न उलझने का परामर्श  देते हुए देश  की स्वतत्रंता के लिए सजग रहने की प्रेरणा दी है।

2-प्रतीकों का सुंदर प्रयोग हुआ है। शब्दावली तत्सम-प्रधान है।

3-जीवन सुधा में रूपक तथा मदिरा मांग में अनुप्रास अलंकार है।
*4*
कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!

कठिन शब्दार्थ - दृग- नेत्र । उर –ह्रदय  । पताका - झण्डा। अंगार –शैय्या -अंगारों की सेज । मृदुल-कोमल

व्याख्या- कवयित्री वेदना, पीडा और करूणा को जीवन का आधार मानने वाले प्राणियों से कहती है कि तुम उस विरह वेदना तथा व्यथा की कथा को भुला दो और बिना ठण्डी आहें भरे, बिना किसी को कुछ कहे अपने मार्ग पर बढते रहो। यदि तुम्हारे ह्रदय  में आग अर्थात उत्साह होगा तभी तुम्हारी आँखों में आँसू सज पाएँगें क्योंकि मन में जितनी दृढता होगी उतनी ही आँखों में आत्मसम्मान की भावना आएगी। यदि ऐसी स्थिति में तुम्हें हार का भी सामना करना पडे तो भी वह तुम्हारे लिए स्वाभिमान की विजय पताका के समान होगी। अर्थात तुम्हारा स्वाभिमान सदा सुरक्षित रहेगा। तुम्हारा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा। प्रेमी पतंगे के बलिदान के बाद उसकी राख ही उसके दीप प्रेम का अमर संकेत है। तुम्हें भी पतंगे के समान अपना बलिदान देना होगा। हे क्रान्तिकारी ! तुम्हें तो अंगारों की सेज पर कोमल कलियाँ बिछानी है अर्थात बलिदान के पथ पर अपनी कोमल भावनाओं को न्यौछावर कर देना है। अतएव तुम जाग जाओ, स्वतन्त्रता के पथ पर अभी तुम्हें बहुत दूर जाना है।

विशेष -

1-कोमल भावनाओं को त्याग कर बलिदान के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी गई है।

2- अंगार शैय्या पर मधुर कलियाँ बिछाना में विरोधाभास अलंकार है।

3-भाषा तत्सम-प्रधान, सांकेतिक एवं लाक्षणिक है। छंद सुगेय एवं भावपूर्ण है।

(1)

सब आँखों के आँसू उजले

सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला!

जिसने उसको ज्वाला सौंपी

उसने इसमें मकरंद भरा,

आलोक लुटाता वह घुल-घुल

देता झर यह सौरभ बिखरा!

दोनों संगी, पथ एक किन्तु कब दीप खिला कब फूल जला?

-कठिन शब्दार्थ-

ज्वाला = आग। मकरंद = फूलों का रस, पराग। आलोक =. प्रकाश। सौरभ = सुगन्ध, खुशबू।

-प्रसंग-

प्रस्तुत.काव्यांश महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत 'सब आँखों के आँस उजले' से अवतरित है। इस अंश में कवयित्री ने विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से मानव जीवन के सत्य को उद्घाटित किया है।

-व्याख्या-

महादेवी कहती हैं कि सभी लोगों की आँखों में जो आँसू होते हैं, उनमें उजलापन अर्थात् पवित्रता होती है। उनके सपनों में सत्यं पलता है अर्थात् उनकी पवित्र भावनाएँ काल्पनिक नहीं होती हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि जो इन सपनों को ज्वाला अर्थात् ऊर्जा देता है, वही इनमें खुशबू भर सकता है। दीपक जल कर प्रकाश फैलाता है तो वहीं फूल खिलकर सुगंध बिखेरता है। दोनों पक्के संगीसाथी हैं, इसके बावजूद दोनों में एक मूलभूत अंतर भी है कि दीप कभी खिल नहीं सकता और फूल कभी जल नहीं सकता। सभी के अपने-अपने सत्य हैं। कुछ समानता होने के बावजूद व्यक्तित्व की पृथकता तो बनी ही रहती है, पर सच्चाई सभी में होती है।

-विशेष-

(1) कवयित्री सभी में पवित्रता और सत्यता की झलक देखती हैं।

(2) अनुप्रास व पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का प्रयोग है।

(3) भाषा तत्सम शब्द प्रधान खड़ी बोली है।

(2)

वह अचल धरा को भेंट रहा

शत-शत निर्झर में हो चंचल,

चिर परिधि बना भू को घेरे

इसका नित उर्मिल करुणा-जल

कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला?

-कठिन शब्दार्थ-

अचल = पर्वत। धरा = पृथ्वी, धरती। परिधि = गोल घेरा। उर्मिल = पवित्र। पाषाण = पत्थर। गिरि = पर्वत। तन =शरीर। निर्झर = झरना। निर्मम = कठोर ।

-प्रसंग-

प्रस्तुत काव्यांश महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत ' सब आँखों के आँस उजले' से अवतरित है। इसमें कवयित्री प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से के सत्य को उजागर करती है।

-व्याख्या-

कवयित्री कहती हैं कि यह पर्वत अपने अंदर से सौ-सौ झरनों में बहकर धरती से भेंट कर रहा है। अर्थात् धरती पर अमृत-तुल्य जल-धारा का प्रवाह पर्वत के हृदय से ही होता है और वही सभी की पिपासा शान्त करता है। यही पर्वत पृथ्वी को घेर कर एक परिधि सी बना लेता है। यह पर्वत बाहर से कठोर हृदय का प्रतीक होता है किन्तु इसका जल अत्यंत पवित्र एवं करुणा से भरा हुआ है। महादेही कहती हैं कि कठोर स्वभाव का लगने वाले व्यक्ति का हृदय भी करुणा की भावना से युक्त हो सकता है। यह एक जीवन सत्य है। समुद्र का हृदय पत्थर नहीं हो सकता और पर्वत कभी अपने कठोर शरीर को बदल नहीं सकता। दोनों का अपना अलगअलग स्वभाव है। इसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि दोनों के जीवन के अपने-अपने सत्य हैं।

-विशेष-

(1) कवयित्री ने सागर और पर्वत के प्रतीकों के माध्यम से हृदयगत कोमलता एवं कठोरता की बात स्पष्ट कर दी है।

(2) 'शत-शत' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

(3) तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग है।

(3)

नभ तारक-सा खंडित पुलकित

यह क्षुर-धारा को चूम रहा,

वह अंगारों का मधु-रस पी

के शर-किरणों-सा झूम रहा,

अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला?

-कठिन शब्दार्थ-

तारक = तारा। खंडित = टूटा हुआ। पुलकित = प्रसन् सुर = देवता। मधु = शहद। कंचन = सोना। हीरक = हीरा।।

-प्रसंग-

प्रस्तुत काव्यांश महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत 'सब आखा क उजले' से अवतरित है। इसमें कवयित्री ने प्रकृति के विभिन्न प्रतीकों के माध्यम स्वभाव की अपरिवर्तनशीलता का वर्णन किया है।

-व्याख्या-

कवयित्री कहती हैं कि एक आकाश के तारे के समान टूटे-फूटे रूप में भी प्रसन्नचित होकर कठोर पाषाण-शिखरों को चूम रहा है तथा दूसरा अंगारों के मधु रस को पीकर भी केशर-किरणों के समान झूम रहा है। सभी अपने-अपने ढंग से जीवन सत्य को अपना रहे हैं। सोने को पीट लो, आग में तपा लो, पैनी धार वाले औजार से काट लो.टकड़े-टुकड़े कर लो, परन्तु सोना अपने स्वभाव के अनुसार अपनी लचक एवं चमक नहीं त्यागता है। हीरा कैसी ही तेज धार से काटा जाये अथवा अंगारों में डाला जाये, वह अपनी स्वभावगत कठोरता को नहीं त्यागता है, कभी पिघलता नहीं है। इस तरह इन दोनों को बहुमूल्य बने रहने के प्रयास में अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं

हैं और दोनों ही अपने-अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं।

-विशेष-

 (1) 'नभ तारक सा खंडित' और 'केशर-किरणों सा' में उपमा अलंकार है।

(2) भाषा तत्सम शब्द प्रधान है। .

(3) तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग है।

(4)

नीलम मरकत के संपुट दो

जिनमें बनता जीवन-मोती,

इसमें ढलते सब रंग-रूप

उसकी आभा स्पंदन होती!

जो नभ में विद्युत-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला!

-कठिन शब्दार्थ-

मरकत = पन्ना। आभा = चमक। स्पंदन = धड़कन। संपुट - दल, कली। नभ = आकाश, मेघ = बादल। रज = रेत। ..

-प्रसंग-

प्रस्तुत काव्यांश महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत 'सब आँखों के आँसू - उजले से लिया गया है। इसमें प्रकृति के अवदान का वर्णन किया गया है। |

-व्याख्या-

कवयित्री कहती हैं कि अत्यधिक मूल्यवान नीलम तथा पन्ना नामक रत्न  प्रकृति के सम्पुट या प्रकृति के गर्भ से ही उसी प्रकार निर्मित होते हैं जैसे सीपी  के अन्दर मोती निर्मित होता है। इन बहुमूल्य रत्नों का जीवन एवं रंग-रूप आदि सब प्रकृति की ही देन है और इनमें प्रकृति की ही चमक झलकती रहती है। अर्थात् जीवन पल-बढ़कर व्यक्ति का व्यक्तित्व नीलम एवं पन्ना जैसे बहुमूल्य रत्नों की आभा से स्पन्दित होता  रहता है। जो आकाश में बिजली बन कर बादल का रूप धारण कर लेता है वही मिट्टी में से अंकुर बन बाहर निकलता है। अर्थात् सभी में अलग-अलग रूपों में जीवन सत्य की झलक मिलती है।

-विशेष-

(1) कवयित्री ने प्रकति के माध्यम से जीवन सत्य का उद्घाटन किया है।

 (2) 'रंग-रूप में अनप्रास तथा 'जीवन-मोती' में रूपक अलंकार है।

(3) भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त है।

(5)

संसृति के प्रति मग में मेरी

साँसों का नव अंकन चुन लो ,

मेरे बनने-मिटने में नित

अपनी साधों के क्षण गिन लो!

जलते खिलते बढ़ते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला!

सपने-सपने में सत्य ढला!

-कठिन शब्दार्थ-

संसृति = संसार, सृष्टि। पग = कदम। नव = नया। एकाकी = अकेला।

-प्रसंग-

प्रस्तुत काव्यांश महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत 'सब आँखों के आँस उजले' से अवतरित है। इसमें कवयित्री के द्वारा मानव जीवन के सत्य का उद्घाटन किया गया है।

-व्याख्या-

कवयित्री कहती हैं कि प्रकृति में क्षण-क्षण में परिवर्तन होते रहते हैं। इसमें कभी बसन्त का सौन्दर्य रहता है तो कभी हेमन्त एवं शिशिर का प्रकोप रहता है। फिर भी प्रकृति सदा नवीनता का सन्देश देती है। कवयित्री का मानना है कि इस संसार में मेरे जीवन की हर आहट सुनाई देती है। प्रकृति के समान ही इसमें मेरे बनने और बिगड़ने में संसार कभी जलता है तो कभी फूल की तरह खिलता है, अर्थात् इस जलते और खिलते संसार में भी अकेले व्यक्ति के प्राण निहित होते हैं। वह उसी में अपना जीवन जीता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ सपने होते हैं और उन सपनों में कुछ न कुछ सत्य अवश्य छिपा होता है, उसी सत्य को हमें समझना और मानना चाहिए।

-विशेष-

(1) कवयित्री ने स्वयं के माध्यम से संसार में मानव सत्य का उद्घाटन किया है।

 (2) कविता पर छायावादी प्रभाव झलकता है।

MAHESH KUMAR BAIRWA (LECTURER) GSSS DIDWANA,DAUSA

 

  



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कुमार MAHESH

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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