इंसानी अस्तित्व से ,
लुप्त होती संवेदना से ,
विचलित हृदय की कसक
काबिल इंसान हो जाऊँ.....................
सोचता हूँ की मैं बेशर्म, बेह्हया, बे-ईमान हो जाऊँ।
तो इस मतलबी दुनिया के ,काबिल इंसान हो जाऊँ।।
इस दौर मे नेकदिली बेमानी, मैं भी संगदिल हो जाऊँ।
खुदगर्ज जमानें मे,मैं भी खुदगर्जों के समान हो जाऊँ।
छल के पैंतरे हजार सीखूं , झूठ का गुबार हो जाऊँ।
संवेदनाओं का हो काम तमाम,और हैवान हो जाऊँ।।
मेरे अल्फाजो मे हो मक्कारी,पक्का मक्कार हो जाऊँ।
उल्लू सीधा भी हो,और सबके लिए आसान हो जाऊँ।।
दिले-नादाँ को समझाता हूँ, क्यों कर ऐसा हो जाऊँ।
की दुनिया भी हो परेशाँ,और मैं भी परेशान हो जाऊँ।।
अब ये ख्याल डराते हैं ,कहीं मृत-जमीर ना हो जाऊँ।
वक्त के साथ बदलने मे,बेवक्त ही बे-निशान हो जाऊँ।।
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