TEACHING & WRITING BY MK

इस ब्लॉग पर मेरी विभिन्न विषयों पर लिखी गई कविता, कहानी, आलेख और शिक्षण सामग्री का प्रकाशन किया जाता है.

Hindi poet Nagarjuna & His poems (कवि नागार्जुन : बाबा)

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नागार्जुन 


 

Class - X        क्षितिज     Chapter    8          "नागार्जुन"

जन्म - 30 जून 1911

मृत्यु -  5 नवम्बर 1998

जन्म स्थान - मधुबनी {सतलखा} ननिहाल

पैतृक गाँव - दरभंगा {तरौनी}

पिता का नाम - गोकुल मिश्र

माता का नाम - उमा देवी

नागार्जुन के बचपन का नाम - 'ठक्कन मिसर' { वैद्यनाथ मिश्र }

हिन्दी साहित्य में - नागार्जुन नाम से रचना कर्म

मैथिली में - यात्री उपनाम से रचनाएँ

 काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं

कविता-संग्रह-

1.   युगधारा -१९५३

2.   सतरंगे पंखों वाली -१९५९

3.   प्यासी पथराई आँखें -१९६२

4.   तालाब की मछलियाँ[21] -१९७४

5.   तुमने कहा था -१९८०

6.   खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०

7.   हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१

8.   पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३

9.   रत्नगर्भ -१९८४

10. ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५

11. आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६

12. इस गुब्बारे की छाया में -१९९०

13. भूल जाओ पुराने सपने -१९९४

14. अपने खेत में -१९९७

प्रबंध काव्य-

1.   भस्मांकुर -१९७०

2.   भूमिजा

उपन्यास-

1.   रतिनाथ की चाची -१९४८

2.   बलचनमा -१९५२

3.   नयी पौध -१९५३

4.   बाबा बटेसरनाथ -१९५४

5.   वरुण के बेटे -१९५६-५७

6.   दुखमोचन -१९५६-५७

पुरस्कार

1.   साहित्य अकादमी पुरस्कार -1969 (मैथिली में, 'पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए)

2.   भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा)

3.   मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा)

4.   राजेन्द्र शिखर सम्मान -1994 (बिहार सरकार द्वारा)

5.   साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित

6.   राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार से

कवि का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

जीवन परिचय-

 हिन्दी और मैथिली के लोकप्रिय कवि और लेखक नागार्जुन का जन्म बिहार राज्य के दरबंगा जिले के सतलखा गाँव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। आरम्भिक षिक्षा संस्कृत पाठषाला में हुई, फिर अध्ययन के लिए ये बनारस और कोलकत्ता  गए। 1936 में लंका गए और वहीं पर बौद्व धर्म मे दीक्षित हुए।

उन्होनें हिन्दी साहित्य में नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ की है। नागार्जुन ने कविता के साथ साथ उपन्यास और अन्य गद्य विद्याओं में भी लेखन किया है। उनका सम्पूर्ण कृतित्व नागार्जुन रचनावली के सात खण्डों में प्रकाशित है। उनको हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शिखर सम्मान, उत्तर प्रदेश का भारत-भारती पुरस्कार तथा बिहार के राजेन्द्रप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सामयिक बोध से गहराई तक जुर्ड नागार्जुन की आन्दोलनधर्मी कविताओं को व्यापक लोकप्रियता मिली।

कृतियाँ – युगधरा, सतरंगे पंखों वाली, हजार हजार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, मैं मिलटरी का बूढा घोडा, तालाब की मछलियाँ ओममंत्र, भूल जाओ पुराने सपने ।

पाठ-परिचय

नागार्जुन की कविता कल और आज ग्रीष्म  की घोर तपिश  भरी दुरूहता के पश्चात् वर्षा  ऋतु के सहज और मनभावन आगमन का वर्णन करती है। ग्रीष्म ऋतु के हताश  एवं उदास मुख कृषक , धूल स्नान करते पक्षीवृंद ,सूखें खेतों का वीराना उजाडपन और बदरंग आसमान जहाँ एक ओर समाज के सोपान पर छूटे हुए अंतिम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं दूसरी ओर प्रकृतिमय चित्रण की सहजता को भी दर्शाता  है। वर्षा ऋतु का आगमन परिवर्तन का संकेत है। वर्षा के आगमन से प्रकृति रूपी सुकन्या नृत्य करती हुई प्रतीत होती है। प्रकृति के समस्त उपादान भी उसका साथ देते प्रतीत होते है। ऋतु चक्र का अत्यन्त सजीव अंकन इस कविता की विषेशता है। ठेठ देशज उपादानों का प्रयोग मुग्धकारी है। भाषा  की दृष्टि  से नागार्जुन का ठेठ देसी अंदाज मनोरम है।

उषा  की लाली कविता में कवि नागार्जुन का प्रकृति प्रेम सहज रूप में मुखरित हुआ है। शिशु  रूप मे उगते सूर्य की अप्रतिम छटा से कवि का मन अभिभूत हो जाता है तथा उदय होते सूर्य की केसरी आभा जो कि हिमगिरी के स्वर्ण शिखर  का आभास दे रही है से कवि दूर नही होना चाहता है।

पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ

कल और आज

(1)}

अभी कल तक

गालियाँ देती तुम्हें

हताश खेतिहर,

अभी कल तक

धूल में नहाते थे

गोरैयों के झुण्ड,

अभी कल तक

पथराई हुई थी।

धनहर खेतों की माटी,

अभी कल तक

धरती की कोख में।

दुबके पड़े थे मेढ़क

अभी कल तक

उदास और बंदरंग था आसमान!

शब्दार्थ-खेतिहर = किसान । हताश = निराश, दुखी। गौरैयों = एक घरेलू चिड़िया। पथराई = कठोर, पत्थर जैसी। घनहर = धान के। माटी = मिट्टी। कोख = गर्भ, अन्दर। दुबके = छिपे हुए। बदरंग = कुरूप, अप्रिय रंग वाला।

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित नागार्जुनद्वारा रचित कविता कल और आज से लिया गया है। इस अंश में कवि ने वर्षा के आगमन से पूर्व दिखाई पड़ने वाले ग्रीष्म ऋतु के परिदृश्यों का सजीव चित्रांकन किया है।

 

व्याख्या-कवि प्रकृति या भगवान को सम्बोधित करते हुए कहता है कि इस मनोहारी वर्षा ऋतु के आगमन से पहले, भीषण गर्मी से हताश किसान खेती को सूखती देखकर तुम्हें कोस रहे थे। वर्षा के आगमन की सूचना देती हुई गौरैया चिड़िया धूल में नहा रही थीं। कुछ दिन पहले धान उगाने वाले खेतों की मिट्टी भीषण गर्मी से सूखकर पत्थर जैसी कठोर हो रही थी। आज इधर से उधर फुदकते और टर्र-टर्र की ध्वनि से रातों को पूँजाने वाले मेंढक धरती के भीतर छिपे हुए थे। आज का यह मेघों से घिरा हुआ सजल आकाश, कुछ दिन ही पहले वीराने, उदास सा और फीका-फीका-सा दिखाई दे रहा था। किन्तु वर्षा ऋतु के आते ही अब सारा परिदृश्य बदल गया है। चारों ओर शीतल, सजल और मन को तरंगित करने वाले दृश्य दिखाई दे रहे हैं।

विशेष-

(1) भीषण गर्मी से व्याकुल जीव-जगत का सजीव चित्रण है।

(2) हताश किसान, धूल में नहाते पक्षी और पथराई मिट्टी वाले खेतों के साथ सुनसान और बदरंग आसमान ग्रीष्म ऋतु के चैन छीन लेने वाले प्रभावों का साक्षात्कार करा रहा है। (3) कवि ने ग्रीष्म के चित्रण द्वारा समाज के संसाधन विहीन वर्ग की कठिनाइयों का परिचय भी कराया है।

(4) भाषा सरल है। देशज शब्दों का प्रयोग है।

(5) शैली ठेठ देसी ढंग की प्रस्तुति का चमत्कार दिखा रही है।

(2)

और आज

ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं।

तुम्हारे तंबू,

और आज

छमका रही है पावस रानी

बूंदा-बँदियों की अपनी पायल,

और आज

चालू हो गई है।

झींगुरों की शहनाई अविराम,

शब्दार्थ-ऊपर-ही-ऊपर = आकाश में। तंबू = डेरा, शिविर, यहाँ बादलअर्थ में। छमका रही = छम-छम शब्द उत्पन्न कर रही। पावस = वर्षा ऋतु । बूंदा-बँदियों की = वर्षा की बूंदों की (ध्वनि)। चालू = आरम्भ। झींगुर = एक छोटा-सा बरसाती कीट, झिल्ली। शहनाई = मुँह से बजाया जाने वाला एक बाजा, यहाँ झींगुर द्वारा उत्पन्न की जाने वाली ध्वनि के अर्थ में। अविराम = निरन्तर, लगातार।।

 

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित, कवि नागार्जुन की कविता कल और आजसे लिया गया है। कवि इस अंश में वर्षा ऋतु के आगमन पर होने वाले

प्राकृतिक परिवर्तनों और दृश्यों के सजीव बिम्ब प्रस्तुत कर रहा है।

व्याख्या-ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु के आते ही प्रकृति का सारा परिदृश्य बदल गया है। कल तक वीरान और बदरंग लगने वाले आसमान में अब बादलों के सजल तंबू तन गए हैं। साँवले-सलोने मेघों ने किसानों के उदास मुखों पर मुसकान बिखेर दी है। इस वर्षा-आगमन के उत्सव पर वर्षा रानी अपनी छमा-छम बरसती बूंदों की पायल बजाती हुई नृत्य कर रही है। गर्मी की सन्नाटे भरी रातें अब झींगुरों की अविरल झंकार से पूँज रही हैं। यह वैसा ही है जैसे पावस के स्वागत में सैकड़ों संगीतकार शहनाइयाँ बजा रहे हैं।

विशेष-

(1) कवि ने गर्मी के ताप से व्याकुल जीव-जगत और प्रकृति का सारा परिदृश्य ही बदल दिया है।

(2) अब तो ग्रीष्म के संताप से उदास और नीरस जगत के मंच पर बादलों के नँदोबों के तले नृत्य और संगीत की महफिल सजी हुई है।

(3) भाषा सरल है। देसी प्रयोगों से सशक्त है।

(4) शैली-बिम्ब-विधायिनी-शब्द-चित्रांकन करने वाली है।

(5) ‘ऊपर ही ………………………………. तंबूमें रूपक का चमत्कारपूर्ण प्रयोग है।

(6) ‘पावस रानी’, ‘बूंदा-बँदियों की अपनी पायलतथा झींगुरों की शहनाईमें भी रूपकों की सजावट ने पावस की आनंददायिनी झाँकी प्रस्तुत की है।

3.

और आज

जोरों से कूक पड़े

नाचते थिरकते मोर,

और आज

आ गई वापस जान

दूब की झुलसी शिराओं के अन्दर

और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म,

समेटकर अपने लाव-लश्कर।

 

शब्दार्थ-जोरों से = ऊँची ध्वनि में। कूक पड़े = बोल रहे। वापस = लौटकर, दोबारा। जान = जीवन, प्राण। दूब = एक घास का नाम। झुलसी = भीषण गर्मी से जली हुई। शिराओं = नसे, रक्त ले जाने वाली नाड़ियाँ। ग्रीष्म = गर्मी की ऋतु। लाव-लश्कर = सेना, ताम-झाम।

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि नागार्जुन की कविता कल और आजसे लिया गया है। इन पंक्तियों में कवि वर्षा ऋतु के आगमन से प्रकृति और जीव-जगत में आए परिवर्तनों का दृश्यांकन कर रहा है।

व्याख्या-कवि कहता है कि कल तक ग्रीष्म ऋतु से उजड़े और उदास वनों में अब मोरों की मनमोहक कूके (ध्वनियाँ) सुनाई दे रही हैं। अपने प्रिय घनश्याम के आकाश में छा जाने पर मोर मस्त होकर नाच रहे हैं। जिस दूब की कोमल काया को गर्मी ने अपने ताप से झुलसा दिया था। आज वर्षा की बूंदें पड़ते ही उसकी नसों में फिर से रक्त-संचार हो उठा है। दूब फिर से हरी-भरी हो गई है। अपने उत्ताप से सारे जगत को तपा देने वाली ग्रीष्म ऋतु, वर्षा के आते ही अपना सारा ताम-झाम, सेना और शस्त्र समेट कर चुपचाप खिसक गई है। वर्षा से पराजित गर्मी लज्जित होकर अब संसार से विदा हो गई है।

विशेष-

(1) हमारे देश में वर्षा ऋतु का कोई भी चित्रण मेघों के गर्जन के साथ, मोरों की कूक और नर्तन के बिना अधूरा ही रहता है। कवि नागार्जुन भी इस तथ्य को भूले नहीं हैं।

(2) गर्मी से जली-झुलसी घास में फिर से प्राणों का संचार होना, कवि के सूक्ष्म निरीक्षण युक्त वर्षा-वर्णन का प्रमाण दे रही है।

(3) कवि ने अपनी भाषा में तत्सम शब्दों से लेकर तद्भव, देशज और अन्य भाषाओं के शब्दों का सहज भाव से प्रयोग किया है। ग्रीष्म’, ‘शिरा’, ‘मोरतथा लाव-लश्करऐसे ही शब्द हैं।

(4) और आज ………………………. लाव-लश्करमें मानवीकरण अलंकार है।

उषा की लाली

(1)

उषा की वाली में

अभी से गए निखर

हिमगिरि के कनक-शिखर।

आगे बढ़ा शिशु-रवि

बदली छवि, बदली छवि

देखता रह गया अपलक कवि॥

शब्दार्थ-गए निखर = स्वच्छ हो गए, रंग में निखार आ गया। हिमगिरि = हिमालय, बर्फ से ढका पर्वत । कनक-शिखर = सुनहरे रंगवाली चोटियाँ। शिशु-रवि = ऊषा काल का सूर्य, छोटे बच्चे जैसी सूरज । छवि = शोभा, दृश्य। अपलक = एकटक, बिना पलक झपकाए, चकित।

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि नागार्जुन की लघु कविता उषा की लालीसे लिया गया है। कवि ने इन पंक्तियों में उषाकाल का मनोहारी चलचित्र अंकित किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि यद्यपि अभी दिन का प्रकाश नहीं फैला है फिर भी पर्वतों की हिम में मंडित चोटियाँ, उषा की ललिमा पड़ने से, अभी से ही सुनहले रंग में निखरी-निखरी सी दिखाई दे रही हैं।

जैसे ही छोटा सूर्य आकाश में आगे बढ़ा, प्रकृति का दृश्य ही बदल गया। प्रात:कालीन इस रोमांचक दृश्य को सामने पाकर कवि आश्चर्यचकित होकर उसे एकटक देखता रह गया।

विशेष-

(1) कवि ने थोड़े से शब्दों में ही, उषा काल और भोर की मनमोहक शोभा का विराट चित्र अंकित कर दिया है।

(2) ‘अभी से गए निखरमें संकेत है कि सूर्य के स्वागत के लिए पर्वतों के शिखर मानो पहले से ही तैयार हो गए हैं।

(3) आगे बढ़ा……….कविपंक्तियों में एक चलचित्र-सा आँखों के सामने चलता प्रतीत होता है।

(4) ‘शिशु-रविमें रूपक तथा आगे बढ़ा शिशु-रविमें मानवीकरण अलंकार है। (5) भाषा सरल और शैली शब्द-चित्रात्मक है।

डर था, प्रतिपल अपरूप  यह जादुई आभा

जाए न बिखर,

जाए ना बिखर।

उषा की लाली में भले हो उठे थे निखर

हिमगिरि के कनक शिखर।

शब्दार्थ-प्रतिपल = क्षण-क्षण में, निरंतर। अपरूप = असुंदर, सुंदरताविहीन खो रही। जादुई = जादू करने वाली, चमत्कारपूर्ण। आभा = प्रकाश। जाए ना बिखर = छिन्न-भिन्न हो जाए, अदृश्य हो जाए।

सन्दर्भ तथा प्रेसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि नागार्जुनकी कविता उषा की लालीसे लिया गया है। प्रात:कालीन दृश्य की पल-पल क्षीण हो रही सुन्दरता से कवि को इसका लोप हो जाने का डर सता रहा है।

 

व्याख्या-कवि मन ही मन डर रहा था कि ऐसा सुन्दर प्राकृतिक दृश्य कहीं अदृश्य न हो जाय। ज्यों-ज्यों सूर्य आकाश में ऊँचा उठ रहा था, उषाकालीन रंगों की छटा कम होती जा रही थी। कवि नहीं चाहता था कि ऐसा अनूठा दृश्य शीघ्र ही लुप्त हो जाय। वह प्रकाश का सम्पूर्ण अद्भुत नजारा एक जादू के खेल जैसा लग रहा था। कवि चाहता था कि वह दृश्य अभी और देखने को मिले। शीघ्र बिखर न जाए।

उषा की लालिमा पड़ने से पर्वतों के शिखर बड़े सुहावने लग रहे थे। उनका रूप निखर उठा था। वे सोने के जैसे लगने वाले शिखर कवि के मन को मुग्ध कर रहे थे।

विशेष-

(1) कवि ने इस छोटी-सी कविता में उषा कालके प्राकृतिक सौन्दर्य को अपनी भाषा-शैली के बल पर साकार कर दिया है।

(2) लगता है जैसे हमारी आँखों के सामने से प्रात:काल के समय का कोई चलचित्र, धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा है।

(3) कहीं कोई आलंकारिक सजावट न होते हुए भी, यह रचना मन में बस जाने वाली है

 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. ग्रीष्म की धूल में कौन नहाते थे ?

(क) कबूतर                                            (ख) गोरैया

(ग) झींगुर                                              (घ) मेढ़क                                     (ख)

2. नागार्जुन हिन्दी के अतिरिक्त और किस भाषा में रचना कर्म करते थे

(क) मैथिली                                           (ख) अवधी

(ग) बांग्ला                                             (घ) ब्रजभाषा                                 (क)

3. प्रकृति को गाली दे रहे थे

(क) जलाशय                                          (ख) किसान

(ग) मेंढक                                              (घ) मोर।                                     (ख)

4. धूल में नहा रहे थे

(क) कुत्ते                                               (ख) गौरैयाँ

(ग) गधे                                                 (घ) साधु                                     (

5. पावस रानी की पायल है

(क) झींगुरों की झनकार                              (ख) झरनों का स्वर

(ग) बूंदें बरसने की ध्वनि                              (घ) पक्षियों का चहकना                 (

6. जान वापस आ गई है

(क) हताशं किसानों में                                (ख) मेंढकों में

(ग) तालाबों में                                        (घ) झुलसी हुई दूब में                       (घ)

7. शिखरों का रंग है

(क) लाल                                              (ख) साँवला             

(ग) सुनहला                                           (घ) सफेद                                    (

8. कवि अपलक देखता रह गया

(क) उषा की लालिमा को                            (ख) शिशु-रवि को

(ग) शिखरों को                                        (घ) प्रात:काल की बदलती छवि को          (

 

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.  किसान प्रकृति को क्यों कोस रहे थे?

उत्तर:    प्रकृति द्वारा लाई गई भयंकर ग्रीष्म ऋतु के कारण उनके खेत सूखे पड़े थे। इसलिए किसान प्रकृति को कोस रहे थे।

प्रश्न 2.  गौरैयों का धूल में नहाना क्या संकेत करता है?

उत्तर:    गौरैयों का धूल में नहाना वर्षा के आगमन और ग्रीष्म ऋतु के विदा होने का संकेत माना जाता है।

प्रश्न 3.  ग्रीष्म ऋतु के समय मेंढक कहाँ थे?

उत्तर”   मेंढक ग्रीष्म ऋतु के ताप से बचने के लिए धरती में छिपे हुए थे।

प्रश्न 4.  ऊपर ही ऊपर तंबू तनने का क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:    इसका अर्थ है-आकाश में बादलों का छा जाना।

प्रश्न 5.  ‘पावस रानीकौन है और वह क्या कर रही है?

उत्तर:    वर्षा ऋतु ही पावस रानी है। वह बूंदों रूपी पायले बजाती हुई नाच रही है।

प्रश्न 6.  कवि ने उषा की लाली कविता में शहनाई किसे बताया है?

उत्तर:    कृवि ने झींगुरों की निरन्तर होने वाली ध्वनि को शहनाई के समान बताया है।

प्रश्न 7.  कौन नाचते-थिरकते दिखाई दे रहे हैं?

उत्तर:    वर्षा ऋतु के आगमन पर मोर नाचते-थिरकते दिखाई दे रहे हैं।

प्रश्न 8.  दूब में फिर से जान आ जाने से क्या आशय है?

उत्तर:    इसका आशय है, वर्षा में भीगने से झुलसी हुई दूब का फिर से हरी हो जाना।

प्रश्न 9.  हिमालय के शिखर उषा की लाली में कैसे दिख रहे हैं?

उत्तर:    हिमालय के सुनहले शिखर उषा की लाली में निखरे हुए दिखाई दे रहे हैं।

प्रश्न 10.          कवि किसे अपलक देखता रह गया?

उत्तर:    कवि उषाकाल की बदलती छवि को अपलक देखता रह गया।

प्रश्न 11. उषा की लालीकविता में किस समय का वर्णन हुआ है?

उत्तर:    इस कविता में प्रात:काल को वर्णन हुआ है।

प्रश्न 12.          खेतों की मिट्टी पथराई हुई क्यों थी?

उत्तर:    भीषण गर्मी के कारण खेतों की मिट्टी पत्थर जैसी कठोर हो गई थी।

प्रश्न 13. कवि ने आसमान को बदरंग क्यों बताया है?

उत्तर:    गर्मी के कारण आकाश में दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। धूप और धूल के कारण आसमान बदरंग लग रहा था।

प्रश्न 14. ‘उषा की लालीकविता के अनुसार कवि को क्या डर लग रहा था?

उत्तर:    उषाकाल का दृश्य पल-पल बदल रहा था। अतः कवि को डर था कि कहीं वह सुन्दर दृश्य शीघ्र ही अपनी सुन्दरता को न खो दे।

प्रश्न 15. कविता उषा की लालीमें हिमगिरि किसे कहा गया है?

उत्तर:    कविता में हिमगिरि हिमालय को कहा गया है, जिसकी चोटियाँ बर्फ से ढकी हैं।

प्रश्न 16.          कवि ने उषाकालीन आभा को कैसा बताया है?

उत्तर:    कवि ने उषाकालीन आभा को मंद पड़ती हुई और जादूभरी बताया है।

प्रश्न 17. उषा की लालीकविता में किस समय का वर्णन है?

उत्तर:    उषा की लालीकविता में सूर्योदय होने के समय का वर्णन है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.  वर्षा ऋतु के आगमन से प्रकृति में कौन-कौन से बदलाव आए हैं?

उत्तर:    सारे जगत को अपने ताप से तपाती ग्रीष्म ऋतु को वर्षा ऋतु ने बाहर कर दिया। वर्षा ऋतु आते ही आकाश में घटाएँ घुमड़ने लगीं। बदरंग आसमान श्याम रंग में रंग गया। बूंदें बरसते ही प्यासी धरती तृप्त हो गई। किसानों के मुख पर मुस्कान थिरकने लगी। रातें झींगुरों की झंकार से गूंजने लगीं। वीरान वनों में भौरों की मधुर कुँकें सुनाई देने लगीं। सूखी जा रही दूब फिर से हरी हो गई। वर्षा को राज्य आते ही गर्मी अपना सारा सामान समेट कर चलती बनी।

प्रश्न 2.  उषा की लालीकविता का शिल्प सौन्दर्य लिखिए।

उत्तर:    कवि नागार्जुनकी काव्यकला इस छोटी-सी रचना में मनमोहक रूप में सामने आई है। कवि ने सटीक शब्दावली का उपयोग करते हुए, अपनी शब्द-चित्र सँजोने की कला का पूरा प्रदर्शन किया है। भाषा-शैली के कुशल प्रयोग से कवि ने उषाकालीन प्राकृतिक दृश्यावली को पाठकों के सामने साकार-सा कर दिया है। आगे बढ़ा शिशु-रविमें मानवीकरण का सुन्दर उपयोग है। कवि के साथ इस कविता के पाठक भी कवि की कल्पना एवं कैंची से उभारे गए शिल्प सौन्दर्य को अपलक देखते रह जाते हैं।

प्रश्न 3. किसान प्रकृति को कोस क्यों रहे थे?

उत्तर:    प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत ही ऋतु परिवर्तन होता है। जब भयंकर गर्मी पड़ने लगी तो खेतों की सिंचाई के लिए पानी का अभाव हो गया। खेतों में फसलें सूखने लगीं। धान की बुआई नहीं हो पा रही थी क्योंकि गर्मी के कारण खेतों की मिट्टी सूखकर कठोर हो गई थी। इससे किसान बड़े हताश हो रहे थे। परिवार के पालन की चिंता सता रही थी। इसी कारण वे प्रकृति को कोस रहे थे।

प्रश्न 4.  ग्रीष्म की भयंकरता से क्या-क्या दृश्य दिखाई दे रहे थे?

उत्तर:    ग्रीष्म ऋतु के कारण गोरैयाँ धूल में नहाती थीं। खेतों की मिट्टी सूखकर पत्थर जैसी कठोर हो गई थी। किसान वर्षा न होने से बहुत चिन्तित और निराश थे। मेंढक धरती के भीतर छिपकर ग्रीष्म के ताप से बचाव कर रहे थे। बादल न होने से धूप तथा धूल से युक्त आसमान बड़ा भद्दा लग रहा था।

प्रश्न 5.  वर्षा ऋतु का आगमन होने से दृश्यों में क्या-क्या परिवर्तन होने लगे? ‘कल और आजकविता के आधार पर लिखिए।

उत्तर:    वर्षा ऋतु आने पर बदरंग आकाश में बादलों के तंबू तन गए। चारों ओर शीतल छाया छा गई। बादलों से बरसती बूंदों की ध्वनि के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वर्षा रानी नृत्य कर रही है और उसकी पायलों की छम-छम ध्वनि सुनाई दे रही है। रातों में झींगुरों के स्वर सुनाई देने लगे। इस प्रकार वर्षा प्रारम्भ होते ही प्रकृति का सारा रूप ही बदल गया।

प्रश्न 6.  वर्षा के आगमन को मोरों पर, दूब पर और गर्मी पर क्या प्रभाव हुआ?

उत्तर:    वर्षा आरम्भ होने पर बहुत दिनों से चुप रहने वाले मोर जोर-जोर से केंकने लगे। वे बादलों को देखकर प्रसन्नता से नाचने लगे। भीषण गर्मी के कारण जो घास झुलस गई थी वह भी वर्षा की बूंदें पड़ते ही फिर से हरी-भरी हो गई। ग्रीष्म ऋतु को टिकने के लिए कोई स्थान नहीं बचा और संसार पर आग बरसाने वाली ग्रीष्म ऋतु अपनी सेना सहित चुपचाप खिसक गई।

प्रश्न 7.  ‘उषा की लालीकविता के आधार पर बताइए कि कवि अपलकक्या देखता रह गया?

उत्तर:    इस कविता में कवि ने उषाकालीन प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है। कवि कहता है कि सूर्योदय से पहले ही हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों का सुनहरा रंग उषा की लाली से और भी निखर गया। इसके बाद शिशु जैसा लगने वाली सूर्य आकाश में थोड़ा-सा उठा। इसके साथ ही सारे दृश्य की शोभा बदल गई। प्रकृति के इस पल-पल परिवर्तित हो रहे दृश्य पर मुग्ध होकर कवि उसे एकटक देखता रह गया।

प्रश्न 8.  कवि ने उषा की लालीकविता में जादुई आभाकिसे और क्यों कहा है?

उत्तर:    कवि ने निरंतर रूप बदल रहे सूर्योदय के समय के प्रकाश को जादुई आभा कहा है। उषा काल के समय वह लाल था। सूर्य जब क्षितिज से झाँका तो वह सुनहला हो गया। यह दृश्य किसी जादू के खेल जैसा प्रतीत हो रहा था। इसी कारण कृवि ने इसे जादुई आभाकहा है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.  ‘कल और आजकविता का मूल भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:    ‘कल और आजकविता में कवि ने अपने प्रकृति प्रेम का परिचय कराया है। ग्रीष्म ऋतु के झुलसा देने वाले ताप के पश्चात् सजल एवं शीतल वर्षा ऋतु के आगमन से होने वाले सुखद प्राकृतिक परिवर्तन का कविता में चित्रण हुआ है। कवि ने दो ऋतुओं के माध्यम से सामाजिक जीवन के दो पक्षों को प्रस्तुत किया है। ग्रीष्म की मार से प्रकृति को कोसते किसान, बेचैन पक्षियों का धूलिस्नान, खेतों की मिट्टी की पथरायी काया, गर्मी के प्रकोप से धरती के भीतर छिपे बैठे मेंढक और उदासी बरसाता बदरंग आसमान-ये सभी दृश्य समाज के संकटग्रस्त जन-जीवन के प्रतीक हैं।

दूसरी ओर कवि ने वर्षा ऋतु के रूप में सुशासन से प्रसन्न जन-जीवन का चित्र प्रस्तुत किया है। आसमान से अब आग नहीं शीतल बूंदें बरस रही हैं। बादलों के तंबुओं ने धूप को रोककर सर्वत्र छाया कर दी है। गर्मी की वीरान रातें अब झींगुरों का शहनाई बजा रही हैं। भौंरों के शोर से जंगल पूँज रहे हैं। इस प्रकार परिवर्तन की बयार ने ग्रीष्म के कुशासन का अंत कर दिया है। कवि ने कल और आजकविता में प्रकृति-चित्रण के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का संदेश देना चाहा है।

प्रश्न 2.  आप भी अपने जीवन में प्रकृति के अनुपम दृश्यों को देखते होंगे। किन दृश्यों को देखकर आपका हृदय कवि की तरह प्रफुल्लित हो उठता है? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर:    प्रकृति और मनुष्य का सदा से अटूट सम्बन्ध चला आ रहा है। प्रकृति के विविध मनोहारी दृश्यों ने सदा मानव मन को आकर्षित और प्रफुल्लित किया है। मुझे भी प्रकृति-दर्शन का बड़ा चाव रहा है। नगर के बीच रहते हुए प्रकृति के सुन्दर स्वरूप के दर्शन के अवसर कम ही मिल पाते हैं। फिर भी जब भी ऐसा अवसर आता है मैं उसका पूरा-पूरा आनन्द लेने का प्रयत्न करता हूँ। पिछली गर्मियों में मुझे हरिद्वार जाने का अवसर मिला। वहाँ गंगा की गम्भीर और विस्तृत धारा को देख मैं कुछ समय के लिए अपने आप को भूल-सा गया। जब देवी दर्शन के लिए उड़नखटोले में बैठकर धरातल से पर्वत शिखर की ओर चला तो पहले डर लगा। किन्तु ऊँचाई पर पहुँचकर नीचे का विहंगम दृश्य देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। धीरे-धीरे मन में अपूर्व प्रफुल्लता भरती चली गई। प्रकृति की विराटता, वन-उपवन और नए-नए स्वरूपों और श्रृंगारों को देखकर मैं भी कवि नागार्जुनकी भाँति अपलकउन दृश्यों को निहारता रहा।

प्रश्न 3.  ‘कल और आजकविता में कवि नागार्जुन ने प्रकृति के, ऋतु के अनुसार बदलते रूपों का वर्णन किया है। इस ऋतु वर्णन की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर:    ‘कल और आजकविता में कवि ने ग्रीष्म के तीव्र ताप से तपती धरती, आकाश और जीव-जगत का सजीव और स्वाभाविक चित्रण किया है। इसके पश्चात् वर्षा ऋतु के आगमन से सारे परिदृश्य के बदल जाने का भी शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है। ग्रीष्म ऋतु की असहनीय गर्मी से किसान निराश और चिंतित होकर प्रकृति को कोस रहे हैं। गौरैयाँ धूल में नहा रही हैं। खेतों की मिट्ट घोर गर्मी से सूखकर पत्थर जैसी हो गई है। आकाश बदरंग दिखाई दे रहा है। इस प्रकार इस ग्रीष्म वर्णन में ग्रीष्म के सारे प्रमुख उपादान मौजूद हैं। कवि की दृष्टि में कोई भी दृश्य छूटा नहीं है।

यही विशेषता वर्षा ऋतु के वर्णन में भी है। वर्षा के आते ही आकाश का रूप बदल जाता है। अब आकाश झुलसा देने वाली धूप की जगह शीतल बूंदें बरसा रहा है। झींगुर झंकार कर रहे हैं, मोर कूकते हुए नाच रहे हैं। दूब की झुलसी शिराओं में फिर से हरा रक्त दौड़ने लगा है।

इसके साथ ही कवि ने इस प्रकृति-चित्रण में आलंकारिक शैली का भी उपयोग किया है। वर्षा को छम-छम करती नर्तकी का रूप दे दिया गया है। झींगुर शहनाई बजा रहे हैं।

इस प्रकृति-चित्रण की मुख्य विशेषता ऋतु परिवर्तन का बहुत सजीव प्रस्तुतीकरण है।

प्रश्न 4.  आपने अपनी पाठ्य-पुस्तक में कवि सेनापति का वर्षा-वर्णन भी पढ़ा है। सेनापति तथा नागार्जुन के वर्षा वर्णन में क्या अन्तर है? लिखिए।

उत्तर:    रीतिकालीन कवि सेनापति तथा प्रगतिवादी कवि नागार्जुन के वर्षा-वर्णन में शिल्प तथा भाव पक्ष दोनों की दृष्टि से बहुत अन्तर है। सेनापति की रचना पर रीतिकालीन परंपराओं का पूरा प्रभाव है। छंद में दामिनी दमक रही है, इन्द्रधनुष चमक रहा है, श्यामघटा झमक रही है। कवि ने दमक, चमक और झमक द्वारा ध्वनि सौन्दर्य उत्पन्न करके पाठकों को लुभाया है। कोकिला कलापी कल कुजतमें अनुप्रास की बहार है। यह प्रकृति को विषय बना रची गई रचना नहीं है।

यह तो नायक-नायिका के प्रेम-व्यापार के लिए सजाया गया मंच है। कवि का लक्ष्य प्रकृति वर्णन नहीं है। संयोग श्रृंगार का मदन-सरसाबनउदाहरण प्रस्तुत करने का प्रयास है।

नागार्जुन की वर्षा-वर्णन परंपरागते वर्षा-वर्णन से भिन्न है। यहाँ प्रकृति चित्रण ही कवि का लक्ष्य है। मोरों का कूक पड़ना, दूब की झुलसी शिराओं में जान आ जाना और ग्रीष्म का अपना लाव-लश्कर समेट कर चल देना, सादगी से पूर्ण किन्तु नवीनता से चकित करने वाला है। यहाँ नायिका नहीं बल्कि स्वयं वर्षा रानी बूंदों की पायल छमकाती नृत्य कर रही है। झींगुर शहनाइयाँ बजा रहे हैं।

एक ओर पावस का कृत्रिम शब्द-चित्र सजाया गया है और दूसरी ओर प्रकृति का मानवीकरण करके मानव-मन को प्रकृति-प्रेमी बनाने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 5.  ‘कल और आजतथा उषा की लालीदोनों ही कविताओं का विषय प्रकृति वर्णन है। आपको कौन-सी कविता अधिक प्रभावित करती है और क्यों?

उत्तर:    दोनों कविताओं के अध्ययन से यह तो स्पष्ट है कि नागार्जुन एक प्रकृति-प्रेमी कवि हैं। पहली कविता कल और आजमें कवि द्वारा ऋतु परिवर्तन से होने वाले परिदृश्य के बदलाव को रोचक, सजीव और स्वाभाविक भाषा-शैली में प्रस्तुत किया गया है। दूसरी रचना उषा की लालीमें प्रकृति के एक सुपरिचित दृश्य को सटीक शब्द-चयन और सूक्ष्मनिरीक्षण से मनोरम रूप प्रदान किया गया है। मुझे यह कविता कुछ अधिक प्रभावित करती है। ऐसा लगता है जैसे कोई चित्रकार उषा काल और सूर्योदय का चित्र बना रहा हो। शब्दों और कहने के अंदाज द्वारा कवि ने नेत्रों के सामने प्रातः काल का एक मनोरम चित्र साकार कर दिया है। कवि ने उस जादुई दृश्य के लाल, सुनहरे और केसरी रंगों का जादू पाठको के नेत्रों द्वारा उनके अन्त:करण पर अंकित कर देने में सफलता पाई है।

प्रश्न 6.  नागार्जुन की रचना उषा की लालीकवि द्वारा शब्दों से मनचाहा प्रभाव उत्पन्न करा लेने की कला का प्रमाण है।कविता से पुष्ट करते हुए इस कथन पर अपना मत लिखिए।

उत्तर:    ग्रामीण परिवेश के निवासी प्रात:कालीन उषा के दृश्य का प्रायः अवलोकन करते रहते हैं। कवि ने भी इसे देखा है। किन्तु एक कवि के देखने में और एक सामान्य व्यक्ति के देखने में बड़ा अन्तर होता है। कवि ने उषा की लालिमा के इस दृश्य को नई-नई छवियों में प्रस्तुत किया है किन्तु इसके लिए सहज-सरल शब्दावली ही अपनाई है। हिमगिरि के कनक शिखर निखरगए हैं। निखरनाशब्द से जो शब्द-चित्र सामने आता है वह कुछ अलग ही छवि प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार, ‘अपरूप’, ‘जाए न बिखर’, ‘भले ही उठेआदि शब्दों से कवि ने मनचाहे अर्थ प्रस्तुत करने में सफलता पाई है। यही कारण है कि कवि ने थोड़े-से शब्दों में उषाकालीन विराट विम्ब को संजो दिया है।

प्रश्न 7.  निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए

(क) और आज ……………… झींगुरों की शहनाई अविराम।

उत्तर:    प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित, कवि नागार्जुन की कविता कल और आजसे लिया गया है। कवि इस अंश में वर्षा ऋतु के आगमन पर होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों और दृश्यों के सजीव बिम्ब प्रस्तुत कर रहा है।

(ख) डर था, प्रतिफल ……………… हिमगिरि के कनक शिखर।     

उत्तर:    प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि नागार्जुन की लघु कविता उषा की लालीसे लिया गया है। कवि ने इन पंक्तियों में उषाकाल का मनोहारी चलचित्र अंकित किया है।

 संकलन - महेश कुमार बैरवा 

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कुमार MAHESH

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