surdas |
सूरदास के पद
जन्मकाल – 1478 ई. (1535
वि.)
जन्मस्थान – 1. डाॅ.
नगेन्द्र के अनुसार इनका जन्म दिल्ली के निकट ’सीही’ नामक ग्राम में एक ’सारस्वत ब्राह्मण’
परिवार में
हुआ था।
पिता का नाम – रामदास
सारस्वत
विशेष : आधुनिक शोधों के अनुसार इनका जन्मस्थान मथुरा के निकट ’रुनकता’
नामक ग्राम
माना गया है।
नोट:- परीक्षा में दोनों विकल्प एक साथ होने पर ’सीही’
को ही सही
उत्तर मानना चाहिए।
⇒ मृत्युकाल – 1583 ई. (1640 वि.) मृत्युस्थान – ’पारसोली’
गाँव
⇔गुरु का नाम – वल्लाभाचार्य
⇒ गुरु से भेंट
(दीक्षा ग्रहण) – 1509-10 ई.
में (पारसोली नामक गाँव में)
⇔ भक्ति पद्धति – ये प्रारम्भ में ’दास्य’ एवं ’विनय’ भाव पद्धति से लेखन कार्य करते थे, परन्तु बाद में गुरु वल्लभाचार्य की आज्ञा पर
इन्होंने ’सख्य,
वात्सल्य एवं
माधुर्य’ भाव पद्धति को अपनाया।
⇒ काव्य भाषा – ब्रज
प्रसिद्ध रचनाएं – सूरसागर, सूरसारावली,
साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती,
ब्याहलो
सूरदास का जीवन परिचय :
महान कवि सूरदास जी का जन्म कब और किस जगह पर हुआ था इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म 1478- 1483 के बीच हुआ था और इनका जन्म स्थान ब्रज था। कई साहित्यकारों का ये भी मानना है कि सूरदास जी का जन्म रुनकता नामक गांव में हुआ था, जो कि मथुरा के पास स्थित है। सुरदास जी के पिता का नाम रामदास सारस्वत था, जबकि इनकी माता के बारे में किसी भी तरह की जानकारी उपलब्ध नहीं है।
सूरदास का जीवन परिचय यह बताता हैं कि जन्म के समय से ही सूरदाज जी अंधे थे
और अंधा होने के कारण इनको इनके माता-पिता ने घर से निकाल दिया था। जब सूरदास जी 6
साल के थे तभी से ये अकेले रहने लग गए थे। महान कवि सूरदास जी ने अपने जीवन में
कभी भी विवाह नहीं किया था और ये अविवाहित थे।
इस तरह से सूरदास जी की हुई थी गुरू बल्लभाचार्य से मुलाकात
एक बार सूरदास जी (Surdas in hindi) वृन्दावन गए
हुए थे और इसी दौरान उनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई। बल्लभाचार्य को सूरदास काफी
अच्छे लगे और उन्होंने सूरदास जी को अपना शिष्य बना लिया। बल्लभाचार्य का शिष्य
बनने के बाद सूरदास जी पूरी तरह से भगवान की भक्ति में लीन हो गए थे और अपने गुरु
के साथ मिलकर ये श्री कृष्ण की भक्ति करने लगे।
सूरदास और कृष्ण जी से जुड़ी कथा
अपने गुरु बल्लभाचार्य के साथ मिलकर सूरदास जी दिन रात भगवान श्री कृष्ण की भक्ति किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि सूरदास जी कृष्ण जी की भक्ति में इतने खोए रहते थे कि उन्हें किसी और चीज का ध्यान तक नहीं रहा करता था। सूरदास जी से जुड़ी एक कथा के अनुसार एक बार सूरदास भगवान कृष्ण जी के नाम में इतना लीन हो गए थे कि वो एक कुंए में जा गिरे। जिसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने उनकी जान बचाई। इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने सूरदास की जान बचाने के बाद सूरदास की आंखों की रोशनी भी सही कर दी थी। जिसके चलते सूरदास कृष्ण जी के दर्शन कर पाए। वहीं श्री कृष्ण जी के दर्शन पाने के बाद सूरदास ने भगवान कृष्ण से कहा कि आप मेरी आंखों की रोशनी वापस ले लें। मैंने आपको देख लिया है अब मैं कुछ और नहीं देखना चाहता हूं। जिसके बाद श्री कृष्ण जी ने सूरदास की आंखों की रोशनी को वापस ले लिया।
वहीं कृष्ण जी के सूरदास की जान बचाने के बाद जब कृष्ण जी की पत्नी रूकमणी ने उनसे पूछा कि आपने सूरदास की जान
क्यों बचाई ? तब कृष्ण जी
ने अपनी पत्नी से कहा कि सूरदास उनके सच्चे भक्त हैं और अपने सच्चे भक्त की हमेशा
रक्षा करनी चाहिए।
सूरदास जी की मृत्यु
सूरदास जी ने अपने पूरे
जीवन में केवल श्री कृष्ण जी की ही भक्ति की है और इन्होंने जो भी रचनाएं लिखी हैं, उनमें केवल श्री कृष्ण का ही जिक्र है। सूरदास
ने अपने जीवन की अंतिम सांस 1561-1584 के बीच ली थी और इनका निधन ब्रज में ही हुआ
था।
सूरदास जी द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध भजन
1. रे मन कृष्णा नाम कही लीजै
2. मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे
3. दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे
4. मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो
5. सबसे ऊंची प्रेम सगाई
6. अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी
7. प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो
सुरदास
का जन्म स्थान रूनकता या रेणुका क्षेत्र,
जिला आगरा,उत्तर प्रदेश माना जाता है। कुछ विद्वानों ने दिल्ली के निकट
सीही ग्राम को उनका जन्म स्थान माना है। सूरदास मथुरा और वृंदावन के बीच गऊघाट पर
रहते थे। वे महाप्रभु वल्लभचार्य के शिष्य थे तथा पुष्टि मार्गी संप्रदाय के अष्टछाप
कवियों में उनकी सर्वाधिक प्रसिद्वि थी।
सूरदास
के बारे में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे,
परन्तु उनके काव्य में प्रकृति
और कृष्ण की बाल-लीलाओं आदि का वर्णन
देखकर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि वे जन्माधं थे। सूरदास सुगणोपासक कृष्ण भक्त कवि
हैं। उन्होनें कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा और कृष्ण की विभिनन
लीलाओं से संबधित अत्यंत मनोहर पदों की रचना की है। कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन अपनी सहजता ,मनौवैज्ञानिकता
और स्वाभाविकता के कारण अद्वितीय है। ये मुख्यतः वात्सल्य और श्रृंगार के कवि है।
सूर
का अलंकार विद्यान उत्कृष्ट है। उसमें शब्द
चित्र उपस्थित करने एवं प्रसंगों की वास्तविक अनुभूति कराने की पूर्ण क्षमता है।
सूर ने अपने काव्य में अन्य अनेक अलंकारों के साथ उपमा उत्प्रेक्षा और रूपक का कुशल
प्रयोग किया है।
सूर
के सभी पद गेय है और वे किसी न किसी राग से संबधित है। उनके पदों में काव्य और
संगीत का अपूर्ण संगम है, इसीलिए सूरसागर को राग सागर भी कहा जाता है।
सूरसारावली और साहित्यलहरी सूरदास की अन्य प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। पाठ्यपुस्तक
में उनके दो पद संकलित किए गए है।
पाठ परिचय
पहले
पद में कृष्ण की बाल लीला का वर्णन है। खेल में हार जाने पर कृष्ण अपनी हार को
स्वीकार नहीं करना चाहते । यहाँ बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण देखा जा सकता
है।
दूसरे
पद में गोपियाँ आपस में अपनी सखियों से कृष्ण की मुरली के प्रति जो रोष प्रकट करती है, उससे कृष्ण के प्रति
उनका प्रेम ही प्रकट होता है। मुरली कृष्ण के नजदीक ही नहीं है, वह जैसा चाहती है, कृष्ण
से वैसा ही करवाती है। इस तरह एक ता वह उनकी आत्मीय बन बैठी है और दूसरे वह
गोपियों को कृष्ण का कोप भाजन भी बनवाती है। इस पद में गोपियों का मुरली के प्रति इर्ष्या
भाव प्रकट हुआ है।
पद - ०१
खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत
करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत
तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक
तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि
जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि
नंद-दहैयाँ ॥
कठिन शब्दार्थ :
गुसैयां = स्वामी।
श्रीदामा = श्रीकृष्ण का एक सखा।
बरबस हीं = जबरदस्ती ही।
कत क।ह्यौं। = रिसैयां गुस्सा।
छैयां = छत्र-छायां के नीचे अधीन।
रुहठि बेमानी। = ग्वैयां सुसखा।
प्रसंग
– प्रस्तुत पधाश कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास द्वारा रचित सूरसागर से
लिया गया है . इस पद में श्री कृष्ण की बाल लीला का वर्णन है. खेल में हार जाने पर
भी कृष्ण अपनी हार नहीं मानते हैं. इस पद में कवि ने उसी का चित्रं बाल मनोविज्ञान
के आधार पर किया है .
व्याख्या :- कृष्ण
के मित्र उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि खेलकूद में सब समान होते हैं, अर्थात
कोई छोटा या कोई बडा नहीं होता । श्री कृष्ण खेल में हार गए हैं और श्रीदामा बाजी
जीत गए हैं तो उन्हें अपनी हार स्वीकार कर लेनी चाहिए, वे व्यर्थ ही क्रोध
क्यों कर रहें हैं ? ग्वाल बाल कुष्न से कहते हैं कि तुम्हारी जाति और गोत्र हमसे
बडा नहीं है और न ही हम तुम्हारी शरण में बसते हैं। परंतु शायद तुम इसलिए ज्यादा
अधिकार जता रहे हो कि तुम्हारे पास हमसे अधिक गायें है। यदि ऐसा है तो यह अनुचित
है। भला तुम्हीं बताओ जो खेल में नाराज होता हो,
उसके साथ खेलना कौन पसंद करेगा ? ऐसा कहकर सभी सखा खेलना
बंद कर इधर-उधर बैठ गए । सूर कहते हैं कि कृष्ण में खेल
भावना थी, वे खेलना भी चाहते थे,
इसलिए वे नंद की दुहाई देते हुए
दाँव देने लगे अर्थात खेलने लगे।
विशेष -
1. बाल
स्वभाव का स्वाभाविक वर्णन है।
2. सख्य
भाव की भक्ति चित्रित हुई है।
3. भाषा
ब्रज व अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
पद -2
मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि, नँदलालहिं
नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाइ ठाढ़ौ करि, अति अधिकार
जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ी
ह्वै आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौढ़ि अधर सज्जा पर, कर-पल्लव
पलुटावति।
भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तैं सीस
डुलावति।।
कठिन शब्दार्थ :-
भावति
- अच्छी लगती है। पाईं - पैर । ठाढौ - खडा। जनावति- जताती ,प्रकट करती है। कटि -
कमर । सुजान - चतुर। कनौडे-कृतज्ञ। गिरिधर- श्रीकृष्ण । नार- गर्दन। नवावति- झुका
देती है। आपुन- स्वयं। पौंढि-लेटकर। अधर -होंठ। कर -हाथ। पल्लव-पत्ते। पलुटावति-
दबवाना। भृकुटी-भौंहे। कुटिल-टेढी। नैन-आंख। नासा-नाक। कोप-क्रोध। सीस-सिर।
प्रसंग
- प्रस्तुत पद्यांश कवि सूर द्वारा रचित “सूरसागर”
से लिया गया है। इस पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण की मुरली के प्रति सौतिया डाह प्रकट करती है।
इससे उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम व
मुरली के प्रति द्वेष भाव झलकता है।
गोपियाँ
मुरली अर्थात् बाँसुरी की करतूतों का वर्णन करती हुई एक दूसरे से कहती हैं कि वे
मुरली कृष्ण के साथ ऐसा बर्ताव करती है
फिर भी यह श्रीकृष्ण को इतना भाती है
अर्थात अच्दी लगती है। पता नहीं इस मूरली
में श्रीकृष्ण को क्या गुण नजर आते हैं,यह मुरली कृष्ण को इतना परेशान करती है फिर भी उन्हें यह प्रिय लगती है।
गोपियाँ कहती है कि ये मुरली श्रीकृष्ण को
तरह तरह से नाच नचवाती है अर्थात तंग करती है कि कभी उन्हें एक पैर खडा रखती है और
अपना अधिकार जताती है अर्थात् अपनी आज्ञा का पालन करवाती है। बेचारे श्रीकृष्ण का शरीर अत्यन्त कोमल है लेकिन मूरली की आज्ञा
का पालन करते करते करते उनकी कमर टेढी हो जाती है। यहाँ गोपियाँ श्री कृष्ण के एक पैर पर खडे होकर मुरली बजाने ,कमर टेढी कर
नृत्य मुद्रा में खडे होने को मुरली की आज्ञा का पालन व उसका श्रीकृष्ण पर पूर्ण अधिकार मानती है। गोपियाँ आगे कहती है
कि ये मुरली तो चतुर कृष्ण को भी अपना
कृतज्ञ बना देती है और गिरिधर अर्थात पर्वत को उठाने वाले कृष्ण की गर्दन तक झुकवा देती है। गर्दन झुकाकर बाँसुरी बजाना एक मुद्रा है लेकिन
गोपियाँ उसे भी मुरली का श्रीकृष्ण पर
अधिकार मानती है। यह मुरली स्वयं तो श्रीकृष्ण के होठों रूपी षैया पर लेटी रहती है और उनके
हाथेां अपने पैर दबवाती है। बाँसुरी बजाते समय कृष्ण उसे अपने होठों पर रखकर उसके
छिद्रों पर अपनी अंगुलियों को रखते हैं तो गोपियाँ इसे चरण दबाना कहती हैं।
अंत
में गोपियाँ कहती हैं कि यह मुरली हम पर तो क्रोध करवाती है अर्थात् मुरली
बजाते-बजाते कृष्ण की भृकुटियाँ (भौंहे) टेडी हो जाती हैं और नाक के नथुने फूल
जाते है। उससे गोपियों को ऐसा लगता है कि श्रीकृष्ण मुरली पर क्रोध न कर हम पर क्रोध कर रहे हैं। यह
सब मुरली के कारण ही तो हो रहा है। सूरदास गोपियों की बात बताते हुए कहते हैं कि
जब मुरली प्रसन्न होती हैं तो श्रीकृष्ण चाहे एक क्षण के लिए ही सही, अपने
सिर को हिलाने लगते हैं, अर्थात् आनंद में झूमने लगते हैं।
विशेष :-
1.मुरली
बजाते हुए श्रीकृष्ण की विभिन्न मुद्राओं
का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
2.अधर
सज्जा और कर पल्लव में रूपक तथा नार मे श्लेष अलंकार है। इसमें अनुप्रास और उत्प्रेक्षा
अलंकार भी है।
3.श्रृंगार
रस का चित्रण व ब्रजभाषा का प्रयोग है।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:'खेलन में को काको गुसैयाँ'
पद में कृष्ण और सुदामा के बीच किस बात पर तकरार हुई?
उत्तर:- पद में
कृष्ण और सुदामा के मध्यम हार-जीत को लेकर तकरार हुई है। सुदामा खेल में जीत गए
हैं और कृष्ण हार गए हैं। अपनी हार पर कृष्ण नाराज़ होकर बैठ जाते हैं। उनकी इस
बात से सुदामा और अन्य साथी भी नाराज़ हो जाते हैं।
प्रश्न 2: खेल में रूठनेवाले साथी के साथ सब क्यों नहीं
खेलना चाहते?
उत्तर:- खेल
में रूठनेवाले साथी से सभी परेशान हो जाते हैं। खेल में सभी बराबर होते हैं। अतः
जो हारता है,
उसे दूसरों को बारी देनी होती है। जो अपनी बारी नहीं देता है और
रूठा रहता है, उसे कोई पसंद नहीं करता है। सभी खेलना चाहते
हैं। अतः ऐसे साथी से सभी दूर रहते हैं।
प्रश्न 3: खेल में कृष्ण के रूठने पर उनके साथियों ने उन्हें
डाँटते हुए क्या-क्या तर्क दिए?
उत्तर:- खेल में कृष्ण के रूठने पर
उनके साथियों ने डाँटते हुए ये तर्क दिए-
(क) तुम्हारी हार हुई है और तुम नाराज़ हो रहे हो। यह गलत
है।
(ख) तुम्हारी और हमारी जाति सबकी समान है। खेल में सभी समान
होते हैं।
(ग) तुम हमारे पालक नहीं हो। अतः तुम्हें हमें यह अकड़ नहीं
दिखानी चाहिए।
(घ) तुम यदि खेलते समय बेईमानी करोगे, तो कोई
तुम्हारे साथ नहीं खेलेगा।
प्रश्न 4: कृष्ण ने नंद बाबा की दुहाई देकर दाँव क्यों दिया?
उत्तर :- कृष्ण ने नंद बाबी की दुहाई देकर यह निश्चित
किया कि वह अपनी बारी देंगे और सबको हारकर ही रहेंगे। नंद उनके पिता है। अतः पिता
का नाम लेकर वह झूठ नहीं बोलेंगे और सब उनकी बात मान जाएँगे। इसलिए उन्होंने नंद
बाबा की दुहाई दी।
प्रश्न 5: इस पद से बाल-मनोविज्ञान पर क्या प्रकाश पड़ता है?
उत्तर:- इस पद
से बाल-मनोविज्ञान पर प्रकाश पड़ता है कि बच्चे बहुत समझदार होते हैं। वे हर बात
का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं। सही और गलत की उन्हें पहचान होती है। वह ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा,
अच्छा-बुरा सब समझते है। उदाहरण के लिए नाराज़ कृष्ण को समझाने के
लिए वे बताते हैं कि कृष्ण अपनी जाति, धन, पिता के नाम का अनुचित लाभ नहीं उठा सकते हैं। वे भी इस मामले में कृष्ण
के समान हैं। इसके अतिरिक्त वे जानते हैं कि कौन उनके साथ खेलने योग्य है और कौन
नहीं। वे कृष्ण की हरकतों के लिए उन्हें चेतावनी देते हैं कि यदि वह अपना स्वभाव
नहीं बदलेंगे, तो वे उनके साथ नहीं खेलेंगे। इस तरह पता चलता
है कि बच्चे हर बात का बारीकी से अध्ययन करते हैं। नाराज़ होते हैं तो फिर एक हो
जाते हैं।
प्रश्न 6: 'गिरिधर नार नवावति? से सखी का क्या आशय है?
उत्तर :- प्रस्तुत पंक्ति में गोपियाँ कृष्ण पर
व्यंग्य कसती हैं। वे कहती हैं कि कृष्ण प्रेम के वशीभूत होकर एक साधारण बाँसुरी
को बजाते समय अपनी गर्दन झुका देते हैं। भाव यह है कि कृष्ण बाँसुरी बजाते समय
गर्दन को हल्का झुका लेते हैं। गोपियाँ चूंकि बाँसुरी से सौत के समान डाह रखती
हैं। अतः वे बाँसुरी को औरत के रूप में देखते हुए उन पर व्यंग्य कसती हैं। वे नहीं
चाहती कि कृष्ण बाँसुरी को इस प्रकार अपने होटों से लगाए। बाँसुरी को कृष्ण का
सामिप्य मिल रहा है, गोपियों को यह भाता नहीं है।
प्रश्न 7: कृष्ण के अधरों की तुलना सेज से क्यों की गई है?
उत्तर :- कृष्ण के अधरों की तुलना निम्नलिखित कारणों से
की गई हैं।-
(क) कृष्ण के अधर सेज के समान कोमल हैं।
(ख) जिस प्रकार सेज सोने के काम आती है, वैसे ही
कृष्ण बाँसुरी को बजाने के लिए अपने अधर रूपी सेज में रखते हैं। ऐसा लगता है मानो
बाँसुरी सो रही है।
इन दोनों से कारणों से अधरों की तुलना सेज से करना उचित जान
पड़ा है।
प्रश्न 8: पठित पदों के आधार पर सूरदास के काव्य की
विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:- सूरदास के काव्यों की
विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) वात्सल्य रस में सर्वश्रेष्ठ हैं। बाल-लीलाओं का सुंदर
चित्रण है।
(ख) बाल मनोविज्ञान में बेज़ोड़ हैं। बालकों के स्वभाव का
सजीव चित्रण है।
(ग) स्त्रियों की मनोदशा को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।
(घ) श्रृंगार रस का वर्णन अद्भुत है।
(ङ) पदों में उत्प्रेक्षा, उपमा तथा अनुप्रास अलंकार का
सुंदर चित्रण है।
(च) ब्रजभाषा का साहित्य रूप बहुत सुंदर बन पड़ा है।
(छ) पदों में गेयता का गुण विद्यमान है।
प्रश्न 9: निम्नलिखित पद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या
कीजिए-
(क) जाति-पाँति ...................... तुम्हारै गैयाँ।
(ख) सुनि री ............... नवावति।
उत्तर :-(क) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्ति सूरदास द्वारा
लिखित ग्रंथ सूरसागर से ली गई हैं। इस पंक्ति में कृष्ण द्वारा बारी न दिए जाने पर
ग्वाले कृष्ण को नाना प्रकार से समझाते हुए अपनी बारी देने के लिए विवश करते हैं।
व्याख्या- 'कृष्ण' गोपियों से
हारने पर नाराज़ होकर बैठ जाते हैं। उनके मित्र उन्हें उदाहरण देकर समझाते हैं। वे
कहते हैं कि तुम जाति-पाति में हमसे बड़े नहीं हो, तुम हमारा
पालन-पोषण भी नहीं करते हो। अर्थात तुम हमारे समान ही हो। इसके अतिरिक्त यदि
तुम्हारे पास हमसे अधिक गाएँ हैं और तुम इस अधिकार से हम पर अपनी चला रहे हो,
तो यह उचित नहीं कहा जाएगा। अर्थात खेल में सभी समान होते हैं। जाति,
धन आदि के कारण किसी को खेल में विशेष अधिकार नहीं मिलता है।
खेलभावना को इन सब बातों से अलग रखकर खेलना चाहिए।
(ख) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्ति सूरदास द्वारा लिखित ग्रंथ
सूरसागर से ली गई हैं। इस पंक्ति में गोपियों की जलन का पता चलता है। वह कृष्ण
द्वारा बजाई जाने वाली बाँसुरी से सौत की सी डाह रखती हैं।
व्याख्या- एक गोपी अन्य गोपी से कहती है कि हे सखी! सुन यह
बाँसुरी कृष्ण को विभिन्न प्रकार से परेशान करती है। कृष्ण को एक पैर पर खड़ा करके
अपना अधिकार व्यक्त करती है। कृष्ण तो बहुत ही कोमल हैं। वह उन्हें इस प्रकार अपनी
आज्ञा का पालन करवाती है कि कृष्ण की कमर भी टेढ़ी हो जाती है। यह बाँसुरी ऐसे
कृष्ण को अपना कृतज्ञ बना देती है, जो स्वयं चतुर हैं। इसने
गोर्वधन पर्वत उठाने वाले कृष्ण तक को अपने सम्मुख झुक जाने पर विवश कर दिया है।
भाव यह है कि गोपियाँ कृष्ण की बाँसुरी से जलती हैं। अतः बाँसुरी बजाते वक्त कृष्ण
की प्रत्येक शारीरिक मुद्रा पर गोपियाँ कटाक्ष करती हैं। बाँसुरी बचाते समय कृष्ण
एक पैर पर खड़े होते हैं। जब बाँसुरी बजाते हैं, तो थोड़े
टेढ़े खड़े होते हैं, जिससे उनकी कमर भी टेढ़ी हो जाती है।
उसे बजाते समय वे आगे की ओर थोड़े से झुक जाते हैं। ये सारी मुद्राओं को देखकर
गोपियों को ऐसा लगता है कि कृष्ण हमारी कुछ नहीं सुनते हैं। जब बाँसुरी बजाने की
बारी आती है, तो कृष्ण इसके कारण हमें भूल जाते हैं।
प्रश्न 10: खेल में हारकर भी हार न माननेवाले साथी के साथ आप
क्या करेंगे? अपने अनुभव कक्षा में सुनाइए।
उत्तर :- खेल में हारकर भी हार न मानने वाले साथी को
हम झूठा और चालाक कहेंगे।
मेरा एक मित्र था। हम सब साथी मिलकर खेलते थे। वह तब तक आराम
से खेलता था,
जब तक उसकी खेलने की बारी होती थी। जैसे ही हमारी खेलने की बारी आती
थी या वह हारने लगता था, वह बहाना बनाकर भाग जाता था। ऐसे
उसने कई बार किया। हम हर बार यही सोचकर उसे फिर अपने साथ खेलने को कहते कि अब वह
इस प्रकार से नहीं करेगा। वह नहीं सुधरा। आखिरकार हम सबने तय किया कि उसे सबक
सिखाना पड़ेगा। अतः हम लोग सभी ऐसा करते। जब तक हमारी बारी आती हम खेलते रहते,
जैसे ही उसकी बारी आती हम खेलने से मना कर देते। आखिर उसे समझ में
आया कि वह जो करता था गलत करता था। फिर वह सुधर गया।
प्रश्न 11: पुस्तक में संकलित 'मुरली तऊ
गुपालहिं भावति' पद में गोपियों का मुरली के प्रति ईर्ष्या-भाव
व्यक्त हुआ है। गोपियाँ और किस-किस के प्रति ईर्ष्या-भाव रखती थीं, कुछ नाम गिनाइए।
उत्तर:- गोपियाँ
राधा के प्रति ईर्ष्या भाव रखती थीं, कृष्ण की पत्नियों के प्रति
ईर्ष्या भाव रखती थीं तथा कुब्जा के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखती थीं।
0 comments:
Post a Comment