कक्षा-11 हिंदी साहित्य “अंतरा”
अध्याय – पद्माकर
जीवन परिचय व् साहित्यिक परिचय
श्री पद्माकर का जन्म 1733 में सागर में हुआ था लेकिन कुछ इतिहासकार इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में बताते है। इनके पिता श्री मोहन लाल भट्ट थे। इनके पिता व अन्य वशंज कवि थे इसलिए इनके वंश का नाम कविश्वर पड़ा। बूंदी नरेश, पन्ना के राजा जयपुर से इन्हें विशेष सम्मान मिला। इनका निधन सन् 1833 में हुआ।
रीतिकाल के
कवियों में पद्माकर का महत्वपूर्ण स्थान है। वे बाँदा, उत्तरप्रदेश के निवासी थे। उनके
परिवार का वातावरण कवित्वमय था। उनके पिता के साथ-साथ उनके कुल के अन्य लोग भी कवि
थे, अतः उनके वंश का नाम
ही कविश्वर पड गया था। वे अनेक
राज-दरबारों में रहे। बूँदी दरबार की ओर से उन्हें बहुत सम्मान ,दान आदि मिला। पन्ना महाराज ने उन्हें बहुत से गाँव दिए। जयपुर नरेश ने उन्हें कविराज शिरोमणि की उपाधी दी और साथ
में जागीर भी। उनकी रचनाओं में हिम्मतबहादुर
विरूदावली, पद्माभरण,जगद्विनोद,रामरसायन, गंगा
लहरी आदि प्रमुख है।
पद्माकर ने
सजीव मूर्त विद्यान करने वाली कल्पना के द्वारा प्रेम और सौंदर्य का मार्मिक
चित्रण किया है। जगह-जगह लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा वे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म
भावानुभूतियों को सहज ही मूर्तिमान कर देते हैं। उनके ऋतु वर्णन में भी इसी
जीवतंता और चित्रात्मकता के दर्शन होते
हैं। उनके आलंकारिक वर्णन का प्रभाव सरस, सुव्यवस्थित
और प्रवाहपूर्ण हैं। काव्य-गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। गतिमयता
और प्रवाहपूर्णता की दृष्टि से सवैया और कवित्व
पर जैसा अधिकार पद्माकर का था, वैसा अन्य किसी कवि का नहीं दिखाई
पडता। भाषा पर पद्माकर का अद्भूत अधिकार
था। अनुप्रास द्वारा ध्वनिचित्र खडा करने में वे अद्वितीय हैं।
पद्माकर की रचनाएं:-
पदमाभरण, रामरसायन, गंगा लहरी, हिम्मत बहादुर, विरुदावली, प्रताप सिंह विरुदावली, प्रबोध पचासा इनकी कुछ प्रमुख रचनाएं हैं। कवि राज शिरोमणि की उपाधि से इन्हें सम्मानित किया गया।
पद्माकर की काव्यगत विशेषताएं:-
पद्माकर ने अपना काव्य ब्रजभाषा में रचा है जिसमें अलंकारों की विविधता है। अनुप्रास अलंकार, यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा इनके प्रिय अलंकार हैं। भाषा भावानुकूल और शब्द चयन विष्यनुकूल है। भाषा में प्रवाह और गति है। मुहावरे और लोकोक्तियों का सुंदर प्रयोग किया है। सवैया और कवित्त छंद का सुंदर प्रयोग किया है।
पद्माकर रीतिकालीन कवि है। अपनी अधिकतर रचनाओं में प्रेम और सौंदर्य का सजीव चित्रण किया है।
पाठ परिचय
पाठ्यपुस्तक में संकलित पहले कवित्व में कवि ने
प्रकृति-सौंदर्य का वर्णन किया है। प्रकृति का सबंध विभिन्न ऋतुओं से है। वसंत
ऋतुओं का राजा है। वसंत के आगमन पर प्रकृति,
विहग और मनुष्यों की दुनिया में जो सौंदर्य सबंधी परिवर्तन आते
हैं, कवि ने इसमें उसी को लक्षित किया है।
दूसरे कवित्व में गोपियाँ लोक-निंदा और सखी-समाज की कोई परवाह किए
बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे रहना चाहती
हैं। अंतिम कवित्व में कवि ने वर्शा ऋतु के सौंदर्य को भौंरो के गुंजार ,मोरों
के शोर और सावन के झूलों में देखा हैं।
मेघ के बरसने में कवि नेह को बरसते देखता है।
कवित्व -1
औरै भाँति कुंजन में गुंजरत
औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौंर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के ह्वै गए।
कहैं पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।
औरै भाँति बिहग-समाज में अवाज होति,
ऐसे रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै बन ह्वै गए।।
कठिन शब्दार्थ
औरें- अन्य ही प्रकार का । कुंजन- बाग-बगीचों । भीर- भीड, समूह।
भौंर -भँवरा। डौर-डाली।
छबीले छैल- सुंदर नवयुवक। बिहग-पक्षी। रितुराज-बसंत। तन –शरीर
।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश रीतिकालीन कवि पद्माकर द्वारा रचित है। इसमें
कवि ने प्रकृति-सौंदर्य का वर्णन किया है। बसंत ऋतुओं का राजा है। बसंत के आगमन पर
प्रकृति, विहग और मनुष्यों की दुनिया में जो सौन्दर्य सबंधी
परिवर्तन आते हैं, कवि ने उन्हीं का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि बसंत ऋतु के आगमन का वर्णन करते
हुए कहता है कि बाग-बगीचों में भँवरों की भीड बढ गई है, क्योंकि
वहाँ तरह-तरह के फूल खिल गए हैं। पेडों की डालों पर बौंरें या पुष्पों के गुच्छे
भी आ गये हैं। उन पर भँवरे गुंजार करते हुए मँडरा रहे हैं। इस बसंत ऋतु की मादकता
का प्रभाव नवयुवकों पर भी पडा हैं।
उनकी चमक -दमक भी बढ गई हैं वे अब गलियों में मस्ती
में घूमते नजर आते हैं अर्थात् उनके मन मे प्रेम की भावना हिलोरें लेने लगी है।
पक्षियों के समूहों में भी और ही प्रकार की आवाज आने लगी है अर्थात् उनकी चहचहाट
बढ गई है।
कवि कहता है कि अभी ऋतुराज बसंत को आए हुए दो दिन भी
नहीं बीते है, अर्थात् यह हाल तो बसंत आगमन प्रारंभ का ही है। जब
बसंत अपने पूरे यौवन पर होगा तब यह शोभा कितनी बढ जाएगी, इसका अनुमान सहज
ही लगाया जा सकता है। बसंत के राग-रंग,
रस-रीति आदि में
परिवर्तन आ जाता है तथा हमारा शरीर और मन अलग ही प्रकार का हो जाता है। अर्थात्
तन-मन में आनंद, स्फूर्ति,ताजगी और उत्साह का संचार होने लगता है।यह
ऋतुराज बसंत प्रकृति और मनुष्यों में अनोखा परिवर्तन ला देता है।
विशेष
1-ऋतुराज बसंत का मनमोहक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
2-बसंत आगमन पर प्रकृति पक्षी-समूह और मनुश्यों की दुनिया में आए
सौंदर्य सम्बन्धी परिवर्तन को व्यक्त किया गया है।
3-औंरें शब्द की बार बार आवृति करके चमत्कार उत्पन्न किया गया है।
4- “भीर भौर”,”छलिया छबीले छैल छवि” है में वर्नावृति होने से अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
कवित्त-2
गोकुल के कुल के गली के गोप
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहैं पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनैं नहीं।
तौ लौं चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके कै निचौरे ताहि करत मनै नहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत तौं बोर्यौ पै निचोरत बनै नहीं।।
कठिन शब्दार्थ –
गाउन -गाँवों । भाखत भनै नहीं - कहा नहीं जा सकता। पिछवारन- पिछवाडे।
द्वारन -दरवाजो। दौंरि- दौडकर। औगुन- अवगुण । गनैं नहीं- गिनते नहीं। निचैरे-
निचोडना। स्याम रंग - काला रंग, कृष्ण प्रेम का प्रभाव। चित्त - हद्य। बोरत- डूबोना, निमग्न
होना।
प्रसंग- इस कवित्व में कवि ने गोकुल
गाँव में होली के हुडदंग का यथार्थ चित्रण किया है, जिसमें गोपियाँ व गोप लोक निंदा और सखी समाज की परवाह
किये बिना कृष्ण प्रेम में डूबे रहना
चाहती है।
व्याख्या-कवि पद्माकर कहते हैं कि बसन्त ऋतु के आगमन से होली के
अवसर पर गोकुल के गाँवों में विभिन्न परिवारों (कुलों) की गलियों के ग्वाले होली
की मस्ती में सराबोर हैं। उनको जैसा कुछ लगता है अर्थात् जो मुँह में आता है वही
बोलते हैं, मनमानी करते हैं,
जिसका वर्णन नहीं किया
जा सकता । पद्माकर कहते हैं कि वे होली की मस्ती में किसी गुण-अवगुण की परवाह किए
बिना पडौस और पिछवाडे के दरवाजों पर भाग-भाग कर जा रहें हैं। वे किसी की बात मानने
को तैयार नहीं है उन्हें तो बस होली खेलने की धुन सवार है। इस होली में एक गोपी पर
स्याम रंग पड गया है, जिसमें वह पूरी तरह भीगी हुई है। उसकी सखी उससे अपने कपउे
निचोड लेने के लिए कहती है तो वह बात नहीं मानती है कि मैं तो स्याम रंग अर्थात्
श्रीकृश्ण के प्रेम रंग में डूब गई हूँ। इस प्रेम रंग ने मेरे हृदय को चुपचाप ही
चुरा लिया है। मैं तो इसमें सराबोर हो गई हूँ कि अब यह मुझसे निचोडा ही नहीं जाता।
भाव यह है कि गोपिका को डर है कि इसको निचोडते ही वह कृष्ण प्रेम से वंचित हो जाएगी।
विशेष
(1) बसन्तागमन पर होली के दृश्य का प्रभावी अंकन हुआ है।
2.चित्रात्मक शैली का अनुसरण किया गया है। वसंत ऋतु की मादकता, नायक कृष्ण की रसिकता और श्रृंगार रस की व्यंजना हुई है।
3.स्याम रंग में श्लेष अलंकार है तथा गली के गोप गाउन चलित
चतुर चुराई चित चोराचोरी बोरत तौं बौर्यों में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
ब्रज
भाषा और कवित्व छंद है।
कवित्त -3
भौंरन को गुंजन बिहार
भौंरन को गुंजन बिहार बन कुंजन में,
मंजुल मलारन को गावनो लगत है।
कहैं पद्माकर गुमानहूँ तें मानहुँ तैं,
प्रानहूँ तैं प्यारो मनभावनो लगत है।
मोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृंद छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलिबो सुहावनो लगत है।।
कठिन शब्दार्थ –
भौंरन- भौंरों का । कुजंन- बाग बगीचों। मंजुल - सुदंर। गावनो- गाना।
मलारन-मल्हार राग। मनभावनो - मन को अच्छा लगना। सोर-शोर। हिंडोरन-झूले। नेह-प्रेम।
मेह-वर्षा।
प्रसंग -इसमें
कवि ने वर्षा ऋतु के सौंदर्य को भँवरों के गुंजार, मोरों के शोर और सावन के झूलों के साथ मेघ के बरसने में स्नेह को बरसते देखा है।
व्याख्या- कवि पद्माकर वर्षा ऋतु के मोहक वातावरण
का चित्रण करते हुए कहते हैं की इस ऋतु
में भौंरें वनों के झुरमुटों एवं बाग बगीचों में गुंजार करते रहते हैं। उनकी गुंजार
के साथ ही नारियाँ सावन में गाये जाने
वाले मल्हार राग को मधुरता से गाने लगती हैं, जो कि अतीव
मनभावन लगता है। वर्षा ऋतु में नायिका को अपना प्रियतम सबसे प्यारा लगता है। वह
चाहे रूठे, घमंड करे तब भी वह प्राणों से भी ज्यादा प्यारा लगता
है। चारों ओर मोरों का घनघोर शोर हो रहा है। अर्थात् मोर वर्षा ऋतु में शोर करते
हुए बाग बगीचों में नाचते रहते हैं। इस दृश्य में हिंडोलों की छवि अर्थात् झूलों
का सौंदर्य छाया हुआ प्रतीत होता है। इस ऋतु में मेह बरसता है अर्थात् वर्षा होती
है तो साथ ही प्रेम भी सरस हो जाता है अर्थात् यह ऋतु मन में प्रेम भावना उत्पन्न
करती है। कवि कहता है कि यही कारण है कि वर्षा ऋतु के सावन महीने में झूला झूलना
बहुत ही अच्छा लगता है, क्योंकि ऐसा लगता है जैसे मेह (वर्षा) के
स्थान पर नेह (प्रेम) बरस रहा है।
विशेष
1- प्रभावी प्रकृति चित्रण के साथ वर्शा ऋतु का मनोहारी चित्रण हुआ है।
2- श्रृंगार रस और माधुर्य गुण का समावेश है।
3-बिहार बन, मंजुल मलारन, प्रानहूँ तैं यारौं, छवि छावनो आदि शब्दों में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
4-भाषा ब्रज तथा कवित्व छंद
का प्रयोग हुआ है।
महेश कुमार बैरवा
रा.उ.मा.वि.डीडवाना ,दौसा, राजस्थान
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