कक्षा -10 हिंदी “क्षितिज” अध्याय-01 “सूरदास के पद”
SURDAS KE PAD "KSHITIJ" |
सूरदास जीवनी – Biography of Surdas in Hindi “Jivani”
वात्सल्य
रस के सम्राट महाकवि सूरदास का जन्म 1478 ईसवी में रुनकता नामक गांव में हुआ था।
हालांकि कुछ लोग सीही को सूरदास की जन्मस्थली मानते है। इनके पिता का नाम पण्डित
रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे और इनकी माता का नाम जमुनादास था। सूरदास जी को
पुराणों और उपनिषदों का विशेष ज्ञान था।
सूरदास जी जन्म से अंधे थे या नहीं। इस बारे में
कोई प्रमाणित सबूत नहीं है। लेकिन माना जाता है कि श्री कृष्ण बाल मनोवृत्तियों और
मानव स्वभाव का जैसा वर्णन सूरदास जी ने किया था। ऐसा कोई जन्म से अंधा व्यक्ति
कभी कर ही नहीं सकता। इसलिए माना जाता है कि वह अपने जन्म के बाद अंधे हुए होंगे।
SURDAS |
सूरदास के गुरु
अपने
परिवार से विरक्त होने के पश्चात् सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे। तभी सूरदास
के मुख से भक्ति का एक पद सुनकर श्री वल्लभाचार्य़ ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया।
जिसके बाद वह कृष्ण भगवान का स्मरण और उनकी लीलाओं का वर्णन करने लगे। साथ ही वह
आचार्य वल्लभाचार्य के साथ मथुरा के गऊघाट पर स्थित श्रीनाथ के मंदिर में भजन
कीर्तन किया करते थे। महान् कवि सूरदास आचार्य़ वल्लभाचार्य़ के प्रमुख शिष्यों
में से एक थे। और यह अष्टछाप कवियों में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान रखते थे।
श्रीकृष्ण
गीतावली- कहा जाता है कि कवि सूरदास से प्रभावित होकर ही तुलसीदास जी ने महान्
ग्रंथ श्री कृष्णगीतावली की रचना की थी। और इन दोनों के बीच तबसे ही प्रेम और
मित्रता का भाव बढ़ने लगा था।
सूरदास का
राजघरानों से संबंध- महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीतों की गूंज चारों तरफ फैल रही
थी। जिसे सुनकर स्वंय महान् शासक अकबर भी सूरदास की रचनाओं पर मुग्ध हो गए थे।
जिसने उनके काव्य से प्रभावित होकर अपने यहां रख लिया था। आपको बता दें कि सूरदास
के काव्य की ख्याति बढ़ने के बाद हर कोई सूरदास को पहचानने लगा। ऐसे में अपने जीवन
के अंतिम दिनों को सूरदास ने ब्रज में व्यतीत किया, जहां रचनाओं के बदले उन्हें जो भी प्राप्त होता। उसी से सूरदास अपना
जीवन बसर किया करते थे।
सूरदास की रचनाएं
माना
जाता है कि सूरदास जी ने हिन्दी काव्य में लगभग सवा लाख पदों की रचना की। साथ ही
सूरदास जी द्वारा लिखे पांच ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं, सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती, सूर पच्चीसी, गोवर्धन लीला, नाग लीला, पद संग्रह और ब्याहलो।
तो वहीं दूसरी ओर सूरदास जी अपनी कृति सूर सागर के लिए काफी प्रसिद्ध हैं, जिनमें उनके द्वारा लिखे गए 100000
गीतों में से 8000 ही मौजूद हैं। उनका मानना था कि कृष्ण भक्ति से ही मनुष्य जीवन
को सद्गति प्राप्त हो सकती है।
इस
प्रकार सूरदास जी ने भगवान कृष्ण की भक्ति कर बेहद ही खूबसूरती से उनकी लीलाओं का
व्याख्यान किया है। जिसके लिए उन्होंने अपने काव्य में श्रृंगार, शांत और वात्सल्य तीनों ही रसों को
अपनाया है। इसके अलावा काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में सूरदास जी
द्वारा रचित 25 ग्रंथों की उपस्थिति मिलती है। साथ ही सूरदास जी के काव्य में
भावपद और कलापक्ष दोनों ही समान अवस्था में मिलते है। इसलिए इन्हें सगुण कृष्ण
भक्ति काव्य धारा का प्रतिनिधि कवि कहा जाता है।
सूरदास की भाषा शैली
सूरदास जी ने
अपनी काव्यगत रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। साथ ही उन्होंने अपनी
रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। तो वहीं सभी पद गेय हैं और उनमें माधुर्य
गुण की प्रधानता है। इसके अलावा सूरदास जी ने सरल और प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग
किया है।
सूरदास की काव्यगत विशेषताएं
सूरदास जी को
हिंदी काव्य का श्रेष्ठता माना जाता है। उनकी काव्य रचनाओं की प्रशंसा करते हुए डॉ
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते
हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। और उपमाओं
की बाढ़ आ जाती है और रूपकों की बारिश होने लगती है। साथ ही सूरदास ने भगवान कृष्ण
के बाल्य रूप का अत्यंत सरस और सजीव चित्रण किया है। सूरदास जी ने भक्ति को
श्रृगांर रस से जोड़कर काव्य को एक अद्भुत दिशा की ओर मोड़ दिया था। साथ ही सूरदास
जी के काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य़ का भी जीवांत उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं
सूरदास जी ने काव्य और कृष्ण भक्ति का जो मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया, वह अन्य किसी कवि की रचनाओं में नहीं
मिलता।
प्रथम अध्याय :
सूरदास के पद Surdas Ke Pad
Class -10
कठिन शब्दार्थ :-
बड़भागी-भाग्यवान • अपटस-अछूता
• तगा-धागा • पुरइन पात-कमल का पत्ता •
माहँ- में • पाऊँ - पैट • बोटयौ- डुबोया • पटागी-मुग्ध होना • अधाट-आधार • आवन-आगमन • बिरहिनि-वियोग
में जीने वाली। • हुती-थीं • जीतहिं
तें-जहाँ से • उत-उधर • मरजादा-मर्यादा
• न लही- नहीं रही •जक टी-रटती रहती
हैं • सु- वह • ब्याधि-टोग • कटी-भोगा • तिनहिं- उनको • मन
चकटी-जिनका मन स्थिर नही रहता। • मधुकर- भौंटा •हते-थे • पठाए- भेजा • आगे के-
पहले के • पर हित- दूसरों के कल्याण के लिए • डोलत धाए-घूमते-फिरते थे • पाइहैं - पा लेंगी।
सूरदास के पदों की व्याख्या
(पद - 1)
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला
हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।
प्रसंग
: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की
पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज (भाग-2)' में संकलित
सूरसागर के भ्रमरगीत संबंधी पदों से लिया गया है। इसके रचयिता अनन्य कृष्ण भक्त
कवि सूरदास जी हैं। इस पद में गोपियां कृष्ण-सखा उद्धव को व्यंग करते हुए कहती हैं
कि वह बड़ा भाग्यवान है ,जो प्रेम के फेर में नहीं पड़ा अन्यथा
उसे भी प्रेम की व्यथा को उन्हीं की भांति सहना पड़ता।
व्याख्या: इन छंदों में गोपियाँ ऊधव से अपनी व्यथा कह रही
हैं। वे ऊधव पर कटाक्ष कर रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ऊधव तो
कृष्ण के निकट रहते हुए भी उनके प्रेम में नहीं बँधे हैं। गोपियाँ कहती हैं कि ऊधव
बड़े ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उन्हें कृष्ण से जरा भी मोह नहीं है। ऊधव के मन में
किसी भी प्रकार का बंधन या अनुराग नहीं है बल्कि वे तो कृष्ण के प्रेम रस से जैसे
अछूते हैं। वे उस कमल के पत्ते की तरह हैं जो जल के भीतर रहकर भी गीला नहीं होता
है। जैसे तेल से चुपड़े हुए गागर पर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती है, ऊधव
पर कृष्ण के प्रेम का कोई असर नहीं हुआ है। ऊधव तो प्रेम की नदी के पास होकर भी
उसमें डुबकी नहीं लगाते हैं और उनका मन पराग को देखकर भी मोहित नहीं होता है।
गोपियाँ कहती हैं कि वे तो अबला और भोली हैं। वे तो कृष्ण के प्रेम में इस तरह से
लिपट गईं हैं जैसे गुड़ में चींटियाँ लिपट जाती हैं।
(पद - 2)
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।
प्रसंग
: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज
(भाग-2)' में संकलित सूरसागर के भ्रमरगीत संबंधी पदों से लिया गया है। इसके
रचयिता अनन्य कृष्ण भक्त कवि सूरदास जी हैं। इस पद में गोपियां कृष्ण-सखा उद्धव के
समक्ष यह स्वीकार करके कि उनके मन की अभिलाषाए मन में ही रह गई, कृष्ण
के प्रति अपने प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त करती हैं।
व्याख्या: इस
छंद में गोपियाँ अपने मन की व्यथा का वर्णन ऊधव से कर रहीं हैं। वे कहती हैं कि वे
अपने मन का दर्द व्यक्त करना चाहती हैं लेकिन किसी के सामने कह नहीं पातीं,
बल्कि
उसे मन में ही दबाने की कोशिश करती हैं। पहले तो कृष्ण के आने के इंतजार में
उन्होंने अपना दर्द सहा था लेकिन अब कृष्ण के स्थान पर जब ऊधव आए हैं तो वे तो
अपने मन की व्यथा में किसी योगिनी की तरह जल रहीं हैं। वे तो जहाँ और जब चाहती हैं,
कृष्ण
के वियोग में उनकी आँखों से प्रबल अश्रुधारा बहने लगती है। गोपियाँ कहती हैं कि जब
कृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का पालन ही नहीं किया तो फिर गोपियों क्यों धीरज धरें।
(पद - 3)
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।
प्रसंग
: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज
(भाग-2)' में संकलित सूरसागर के भ्रमरगीत संबंधी पदों से लिया गया है। इसके
रचयिता अनन्य कृष्ण भक्त कवि सूरदास जी हैं। इस पद में गोपियां कृष्ण के प्रति
अपने एकनिष्ठ प्रेम की तुलना हारिल पक्षी के लकड़ी प्रेम से करते हुए उद्धव से
अपने योग संदेश को वापस ले जाने को कहती हैं।
व्याख्या:
गोपियाँ कहती हैं कि उनके लिए कृष्ण तो हारिल चिड़िया की लकड़ी के समान हो गये हैं।
जैसे हारिल चिड़िया किसी लकड़ी को सदैव पकड़े ही रहता है उसी तरह उन्होंने नंद के
नंदन को अपने हृदय से लगाकर पकड़ा हुआ है। वे जागते और सोते हुए, सपने
में भी दिन-रात केवल कान्हा कान्हा करती रहती हैं। जब भी वे कोई अन्य बात सुनती
हैं तो वह बात उन्हें किसी कड़वी ककड़ी की तरह लगती है। कृष्ण तो उनकी सुध लेने कभी
नहीं आए बल्कि उन्हें प्रेम का रोग लगा के चले गये। वे कहती हैं कि उद्धव अपने
उपदेश उन्हें दें जिनका मन कभी स्थिर नहीं रहता है। गोपियों का मन तो कृष्ण के
प्रेम में हमेशा से अचल है।
(पद - 4)
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो
प्रजा न जाहिं सताए।
प्रसंग
: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज
(भाग-2)' में संकलित सूरसागर के भ्रमरगीत संबंधी पदों से लिया गया है। इसके
रचयिता अनन्य कृष्ण भक्त कवि सूरदास जी हैं। इस पद में गोपियां उद्धव के माध्यम से
श्री कृष्ण के योग संदेश को सुनकर भगवान श्री कृष्ण को राजनीतिज्ञ होने का उलाहना
देते हुए अब उन पर और अन्याय न करके राजधर्म निभाने की सलाह दे रही हैं।
व्याख्या: गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण तो किसी राजनीतिज्ञ
की तरह हो गये हैं। स्वयं न आकर ऊधव को भेज दिया है ताकि वहाँ बैठे-बैठे ही
गोपियों का सारा हाल जान जाएँ। एक तो वे पहले से ही चतुर थे और अब तो लगता है कि
गुरु ग्रंथ पढ़ लिया है। कृष्ण ने बहुत अधिक बुद्धि लगाकर गोपियों के लिए प्रेम का
संदेश भेजा है। इससे गोपियों का मन और भी फिर गया है और वह डोलने लगा है। गोपियों
को लगता है कि अब उन्हें कृष्ण से अपना मन फेर लेना चाहिए, क्योंकि कृष्ण
अब उनसे मिलना ही नहीं चाहते हैं। गोपियाँ कहती हैं, कि कृष्ण उनपर
अन्याय कर रहे हैं। जबकि कृष्ण को तो राजधर्म पता होना चाहिए जो ये कहता है कि
प्रजा को कभी भी सताना नहीं चाहिए।
सूरदास के पद की भाषागत
विशेषताएं:
· भाषा
माधुर्य गुण युक्त साहित्यिक बृज है।
· तत्सम,
तद्भव
शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
· अनुप्रास,
रूपक,
उपमा
व पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
· वार्तालाप
शैली का प्रयोग है।
· वियोग
श्रृंगार का सफल चित्रण हुआ है।
सूरदास के पदों का
शिल्प-सौंदर्य:
सूरदास
के पदों में गोपियों के श्री कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम की ओर संकेत किया गया है।
उनका प्रेम एकनिष्ठ और सुदृढ़ है, जिसे वे कदापि नहीं छोड़ सकती। इस पद
में कवि ने तत्सम, तद्भव शब्दावली युक्त साहित्यिक बृज भाषा का
प्रयोग किया है। भाषा माधुर्य गुण युक्त सरल, सहज, मार्मिक
है । वार्तालाप एवं तर्क शैली से भाषा में रोचकता उत्पन्न हुई है। पद छंद का
प्रयोग सफलता पूर्ण किया गया है। संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता का गुण
विद्यमान है।
अभ्यास के प्रश्न:
प्रश्न:
गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या वयंग्य निहित है?
उत्तर:
गोपियों को पता है कि उद्धव भी कृष्ण से असीम प्रेम करते हैं। वे तो बस उद्धव से
इसलिए जलती हैं कि उद्धव कृष्ण के पास रहते हैं। कृष्ण के पास रहने के कारण उद्धव
को शायद विदाई की वह पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती जो गोपियों को झेलनी पड़ती है। उन्हें
भाग्यवान कहकर गोपियाँ इसी बात की ओर इशारा कर रही हैं।
प्रश्न:
उद्धव के व्यवहार की तुलना किस किस से की गई है?
उत्तर:
उद्धव की तुलना कमल के पत्ते तथा तेल चुपड़े गागर से की गई है। कमल का पत्त जल में
रहकर भी गीला नहीं होता। तेल चुपड़े गागर पर पानी की एक भी बूँद ठहर नहीं पाती।
गोपियों के अनुसार, उद्धव तो कृष्ण के समीप रह कर भी उनके प्रेम के दंश से वंचित हैं।
प्रश्न:
गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिये हैं?
उत्तर:
गोपियों ने कई तरह से उद्धव को उलाहने दिये हैं। उदाहरण के लिए, वे
उद्धव पर यह आक्षेप लगा रही हैं कि उद्धव तो श्याम के रंग से अनछुए ही रह गये हैं।
एक अन्य पद में यह कहा गया है कि उद्धव तो योगी हो गए हैं जिनपर विरक्ति सवार है।
प्रश्न:
उद्धव द्वारा दिए गए योग के संदेश ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम कैसे
किया?
उत्तर:
गोपियाँ कृष्ण के जाने के बाद विरह की अग्नि में जल रही हैं। वे कृष्ण के आने का
इंतजार कर रही थीं कि उनके बदले में उद्धव आ गए। उद्धव उनके पास अपने मन पर
नियंत्रण रखने की सलाह लेकर पहुँचे हैं। कृष्ण के बदले में उद्धव का आना और उनके
द्वारा मन पर नियंत्रण रखने की बात ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम किया
है।
प्रश्न:
‘मरजादा न लही’ के माध्यम से कौन सी
मर्यादा न रहने की बात की जा रही है?
उत्तर:
यहाँ पर कृष्ण पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने प्रेम की मर्यादा का पालन
नहीं किया।
प्रश्न:
कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है?
उत्तर:
कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करने में गोपियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
वे उद्धव के सामने अपना सारा दर्द बयान करती हैं। वे तरह तरह के उदाहरणों से बताती
हैं कि कृष्ण के प्रेम से वे किस तरह से सराबोर हैं।
प्रश्न:
गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?
उत्तर:
वे कहती हैं कि उद्धव अपने उपदेश उन्हें दें जिनका मन कभी स्थिर नहीं रहता है।
गोपियों का मन तो कृष्ण के प्रेम में हमेशा से अचल है।
प्रश्न:
प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।
उत्तर:
गोपियों को योग साधना की बात बेकार लगती है। उनकी हालत ऐसे ही है जैसे किसी बच्चे
को उसके मनपसंद खिलौने की जगह कोई झुनझुना पकड़ा दिया गया हो। उनके लिए तो साधना का
मतलब है कृष्ण के प्रति प्रेम। ऐसे में कोई अन्य योग साधना भला उनका क्या लाभ कर
पाएगी।
प्रश्न:
गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए?
उत्तर:
गोपियों के अनुसार राजा का धर्म होता है कि प्रजा की सुध ले और प्रजा पर कोई आँच न
आने दे।
प्रश्न:
गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन से परिवर्तन दिखाई दिए जिनके कारण वे अपना मन वापस
लेने की बात कहती हैं?
उत्तर:
गोपियों को लगता है कि मथुरा जाने के बाद कृष्ण वृंदावन को भूल गए हैं। उन्हें
वृंदावन की जरा भी याद नहीं आती। उनमें इतनी भी मर्यादा नहीं बची है कि स्वयं आकर
गोपियों की सुध लें। इसलिए गोपियाँ अब कृष्ण से अपना मन वापस लेने की बात करती
हैं।
प्रश्न:
गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
गोपियाँ अत्यंत ही वाक चतुर हैं। उन्हें सही तरीके से व्यंग्य करना आता है। वे
बिल्कुल सटीक उपमाएँ इस्तेमाल करके अपनी बात रखना जानती हैं। उन्हें ये भी पता है
कि कृष्ण को धमकी कैसे दी जाए। उद्धव इन वाक चतुर गोपियों के सामने मूक से हो जाते
हैं।
प्रश्न:
संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भ्रमरगीत ब्रजभाषा में लिखे गए हैं। यह सामान्य जनों की बोलचाल की भाषा हुआ करती
थी। आज भी वृंदावन और मथुरा के लोग इससे मिलती जुलती भाषा बोलते हैं। सामान्य
लोगों की बोलचाल की भाषा में होने के कारण सूरदास की रचनाएँ काफी लोकप्रिय हुई
थीं। भ्रमरगीत को छंदों में लिखा गया है ताकि लोग इन्हें आसानी से याद कर सकें। इन
छंदों को आसानी से संगीत बद्ध किया जा सकता है। सूरदास ने अपने छंदों में उपमाओं
और अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग किया है। इन छंदों के माध्यम से सूरदास ने
भक्ति जैसे गूढ़ विषय को बड़ा ही रोचक बनाया है।
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