Class 12 Hindi Antra -Barahmasa मलिक मोहम्मद जायसी
संकलन :- महेश कुमार बैरवा ( उप प्राचार्य )
जन्म
- 1492 ई.
में अमेठी (उत्तर प्रदेश) के निकट 'जायस' नामक कस्बे में। अपने समय के पहुँचे
हुए सूफी फकीर। सैयद अशरफ और शेख बुरहान का उल्लेख उन्होंने अपने गुरुओं के रूप
में किया है। हिन्दू संस्कृति और लोक-कथाओं के ज्ञाता। निधन - 1542 ई.।
साहित्यिक परिचय -
भाव-पक्ष-जायसी सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। भक्तिकाल की निर्गुणधारा काव्यधारा को प्रेमाख्यानक काव्य
परम्परा या प्रेममार्गी काव्यधारा' भी कहा जाता है। जायसी का 'पद्मावत' इसी काव्यधारा के अन्तर्गत आने वाला
श्रेष्ठतम महाकाव्य है। लौकिक कथा के माध्यम से जायसी ने अलौकिक प्रेम का आभास इस
काव्य-ग्रन्थ में कराया है। रत्नसेन जीवात्मा का तथा. द्मावती परमात्मा का प्रतीक
है अतः रत्नसेन का पद्मावती के प्रति प्रेम वस्तुतः जीवात्मा का परमात्मा के प्रति
प्रेम प्रतीत होने लगा है।
कला-पक्ष
- फारसी की मसनवी शैली में रचित 'पदमावत' की
रचना दोहा चौपाई शैली में तथा अवधी भाषा में हुई है। इस कथा का पूर्वार्द्ध
काल्पनिक और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक घटनाओं से युक्त है। उनकी काव्य शैली प्रौढ़ और
गम्भीर है। 'पद्मावत' में वस्तु वर्णन की प्रधानता है, लोकजीवन का व्यापक चित्रण है। अलंकारों
का सुन्दर प्रयोग है। जायसी हिन्दी काव्य में अपने वियोग वर्णन के लिए विख्यात
हैं।
कृतियाँ
- (1) पद्मावत, (2) अखरावट, (3) आखिरी कलाम।
सप्रसंग
व्याख्याएँ
बारहमासा
(Barahmasa )
1.
अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती।।
कॉपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।।
घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग लै गा नाहू।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै फिर रँग सोई।।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।।
यह दुख दगध न जाने कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू।।
पिय सौं कहेहु संदेसा, ऐ भंवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।
शब्दार्थ
:
- देवस = दिवस।
- घटा = छोटा
हो गया।
- निसि = रात।
- बाढ़ी =
लम्बी हो गई।
- दूभर = कठिन
(जिसे काटना कठिन हो)।
- किमि = किस
प्रकार।
- काढ़ी =
व्यवीत करना।
- धनिस्त्री
(नागमती)।
- भा हो गया।
- राती = रात
की तरह चा।
- बाती =
बत्ती।
- सीऊ = शीत।
- जमावा =
प्रतीत हुआ (अनुभव हुआ)।
- पीङ =
प्रियतम।
- चीर =
वस्त्र।
- नाहू = नाथ
(पति)।
- पलटि न बहुरा
= लौटकर नहीं आया।
- बिछोई =
बिछुड़ना।
- रंग-रूप-रं =
शीतल।
- विरहिनि =
विरहिणी (नागमती)।
- दगः = दग्ध
हो रही है।
- छारा = राख।
- कंतू = कंत
(प्रिय)।
- भसमंतूं =
भस्म।
- संदेसड़ा =
छोटा-सा सन्देश।
- भंवरा =
भ्रमर,।
- कारा = कौ।
- तेहिक =
उसका।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत नामंक महाकाव्य के 'नागमती वियोग खण्ड' से ली गई हैं। ये हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'बारहमासा' शीर्षक से संकलित हैं।
प्रसंग
: चित्तौड़ का राजा रत्नसेन सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती से विवाह करने
सिंहलद्वीप चला गया है। उसके । वियोग में उसकी रानी नागमती जिम विरह वेदना का
अनुभव कर रही है, उसका
मार्मिक वर्णन कवि ने 'बारहमासे' के मा. यम से किया है। इन पंक्तियों
में अगहन के महीने में विरहिणी नागमती की विरह-व्यथा का वर्णन किया गया है।
व्याघ्या
: अगहन का महीना लग गया है। अब शीत ऋतु आ गई है इसलिए दिन छोटे हो गए हैं और रातें
बड़ी होने लगी हैं। विरहिणी नागमती इन लाबी रातों को प्रिय के वियोग में भला किस
प्रकार व्यतीत करे? वियोग
व्यथा के कारण अब यह स्त्री (नागमती) तो दिन की भाँति छोटी अर्थात् दुर्बल हो गई
है और विरह रात की भाँति लम्बा हो गया है। वियोग वेदना में नागमती इस प्रकार जल रही है जैसे दीपक.में बत्ती जलती है।
अब हृदय कांपने लगा है और शीत का अनुभव होने लगा है। नागमती कहती है कि यह शीत की
ठिठुरन तभी जा सकती है जब.प्रियतम मेरे साथ हो।
हर
घर में सर्वत्र उत्साह और आनन्द है, सभी ने अपने अपने प्रिय को रिझाने के
लिए रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किए हैं, पर मेरा रूप-रंग तो प्रियतम अपने साथ
ही ले गया। मुझे अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता, साज-सिंगार, सजना-संवरना अब मुझे भाता नहीं। मेरा
प्रिय तो ऐसां गया कि लौटकर आया ही नहीं। यदि वह अब भी लौटकर आ जाए तो मेरा
रूप-रंग भी वापस आ जाएगा। विरह, की इस शीतल आग में विरहिणी (नागमती) का हृदयं जल रहा है और सुलग-सुलग कर
मैं छार (राख) हुई जा रही हूँ।
मेर
इस दुःख को और ताप को भला प्रियतम क्यों जानेगा, उसने मुझे ऐसा दुःख दिया है कि इस विरह
की आग में मेरा यौवन और जीवन दोनों ही जलकर भस्म हो रहे हैं। तत्पश्चात् विरहिणी
नागमती अमर और कौए को अपना सन्देशवाहक बनाकर प्रिय के पास अपना संदेश भेजती है और.
कहती है कि. हे भौरे, हे
कौए, तुम
तो उड़कर सर्वत्र जाते रहते हो, मेरा एक छोटा-सा सन्देश.मेरे प्रियतम तक अवश्य पहुँचा . देना। उनसे कहना कि
तुम्हारी वह स्त्री (नागमती) तुम्हारे विरह की आग में जलकर मर गई और उससे जो धुआँ
निकला उसी से तो हम दोनों (भ्रमर और कौआ) काले हो गए हैं।
विशेष
:
1. नागमती की विरह वेदना का मार्मिक
चित्रण है।
2. वियोग श्रृंगार रस है।
3. सन्देश प्रेषणीयता से विरह वर्णन में
मार्मिकता आ गई है।
4. अवधी भाषा का प्रयोग है।
5. सियरि अगिनि में विरोधाभास अलंकार है।
अब धनि राती में क्रमालंकार है।
2. पूस जाड थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ
लंक दिसि तापा।।
बिरह
बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कपि कपि मरौं लेहि हरि जीऊ।।
कंत
कहाँ हौं लागों हिवरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।।
सौर
सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज. हिवंचल बढ़ी।।
चकई
निसि बिछुरै दिन मिला। हाँ निसि बासर बिरह कोकिला।।
रैनि
अलि साथ नहिं सखी। कैसें जिऔं बिछोही पंखी।।
बिरह
सधान भँवै वन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं. छोड़ा।।
रकत
ढरा माँसू गरा, हाड़ भए. सब संख।
धनि
सारस होई ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।
शब्दार्थ
:
- पूस = पौष का
माह।
- सुरुज =
सूर्य।
- जड़ाइ = शीत
से काँपकर।
- लंक दिसि =
लंका की दिशा में (दक्षिणायन)।
- तापा = गरम
होने लगा।
- सीऊ = शीत।
- हरि = हरण
करना।
- जीऊ = प्राण।
- कंत = पति
राजा रत्नसेन।
- हौं = मैं।
- हियरें =
हृदय से।
- पंथ =
रास्ता।
- सूझ नहिं
नियरें = पास में नहीं दिखाई देना।
- सौर = रजाई।
- सुपेती =
सहित।
- सौर सुपेती =
रजाई ओढ़ने पर भी।
- जड़ी =
मलेरिया बुखार की तेज सर्दी, कंपकंपी।
- हिवंचल बढी =
हिमालय की बर्फ में डूबी हुई।
- चकई = चकवी।
- निसि बिछुरै
= रात में बिछुड़ती है।
- निसि-बासर =
रात-दिन।
- बिछोही पँखी
= जोड़े से विमुक्त पक्षी।
- सचान = बाज।
- भँवै = हो
गया है।
- चाँड़ा =
भोजन।
- मुएँ = मरने
पर भी।
- ढरा = बह
गया।
- गरा = गल
गया।
- संख - खोखले।
- ररि = बोलते
हुए।
- मुई = मर गई।
- समेटहु =
एकत्र करो।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत नामक महाकाव्य के 'नागमती वियोग खण्ड' से ली गई हैं जिन्हें हमारी, पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'बारहमासा' शीर्षक से संकलित किया।
प्रसंग
: कविवर जायसी ने प्रस्तुत पद्यांश में पौष के महीने में बढ़ती सर्दी से प्रभावित
नागमती की विरह वेदना का. वर्णन किया है।
व्याख्या
: विरहिणी नागमती अपने पति राजा रत्नसेन को सम्बोधित करते हुए कहती है - हे प्रिय!
अब तो पौष (पूस) माह लग गया है। इतनी सर्दी पड़ने लगी है कि शरीर थर-थर काँपने लगा
है। सूर्य भी इस शीत में घबराकर लंका की दिशा में जाकंर (दक्षिणायन होकर) तप रहा
है। इस ऋतु में मेरी विरह वेदना बढ़ गई है। भयंकर सर्दी पड़ रही है। मैं
काँप-काँपकर मरी जा रही हूँ। ऐसा लगता है कि यह शीत मेरे प्राण हरण कर लेगा। न
जाने मेरे प्रियतम तुम कहाँ हो, जिसके हृदय से लगकर मैं अपनी विरह वेदना को शान्त करूँ? तुम तक पहुँचने का रास्ता बहुत दुर्गम
एवं अपार है और पास (निकट) भी नहीं है।
सर्दी
इतनी भयंकर है कि रजाई ओढ़ लेने पर भी जूड़ी बुखार की-सी तेज सर्दी लगती रहती है।
ऐसा लगता है जैसे मेरी सेज हिमालय पर्वत पर जमी बर्फ में डूबी हुई हो। चकवी रात को
अपने प्रिय से बिछुड़ती है, किन्तु
दिन में तो अपने प्रिय से मिल जाती है, किन्तु मैं तो विरह की ऐसी कोयल हूँ जो
रात-दिन अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई व्यथित रहती हूँ। रात मुझे अकेले ही काटनी है, क्योंकि मेरे साथ कोई संखी भी नहीं है।
प्रियतम
से जिसकी जोड़ी बिछुड़ चुकी है, वह वियोगी पक्षी (नागमती) भला कैसे जीवित रहे? यह विरह शीतकाल में मेरे लिए बाज
(शिकारी पक्षी) बन गया है और मेरा शरीर उसका भोजन (पक्षी, शिकार) बन चुका है। वह मेरे शरीर
(शिकार, पक्षी)
को जीवित रहते ही पकड़कर खाने लगता है और मरने पर भी नहीं छोड़ता। भाव यह है कि
नागमती को ऐसा लगता है कि यह विरह की वेदना जीते जी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी और
मरने के बाद भी मुझे व्यथित करेगी।
विरहिणी
नागमती अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि इस विरह में मेरे शरीर का सारा रक्त
निचुड़ गया है, मांस
गल गया है और हड्डियाँ शंख की तरह पोली (खोखली) हो गई हैं। यह स्त्री (नागमती) उस
सारस पक्षी की भाँति अब चीख-चीखकर प्राण दे रही है जो अपनी जोड़ी से बिछुड़ने के
बाद जीवित नहीं रहती है। हे प्रियतम! अब आप ही आकर इस मरी हुई स्त्री की मिट्टी
समेटना।
विशेष :
1. शीत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन हो जाता
है। कवि ने यहाँ पर परिकल्पना की है कि सूर्य भी सर्दी से बचने के लिए दक्षिण दिशा
में चला गया है।
2. 'जानहु सेज हिवंचल बूढ़ी' में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
3. 'विरह सचान' और 'विरह कोकिला' में रूपक अलंकार, धनि सारस होइ ररि मुई में उपमा अलंकार
है। विरह बाढ़ि, सौर
सुपेती, कंत
कहाँ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
4. विरह वर्णन में फारसी प्रभाव परिलक्षित
हो रहा है, क्योंकि
फारसी पद्धति में रक्त, मांस, हाड़ का प्रयोग होता है। भारतीय पद्धति
में नहीं।
5. वियोग श्रृंगार रस, अवधी भाषा और दोहा-चौपाई छन्द का
प्रयोग हुआ है।
3. लागेउ माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ
जड़काला।।
पहल-पहल
तन रुई जो आँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।।
आई
सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।।
एहि
मास उपजै रस मूलू। तू सो भंवर मोर जोबन फूलू।।
नैन
चुवहिं जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।।
टूटहि
बुंद परहिं. जस ओला। बिरह पवन शेड मारै झोला।।
केहिक
सिंगार को पहिर पटोरा। गियँ नहिं हार रही होइ डोरा।।
तुम्ह
बिनु कंता धनि हरुई तनातिनुवर भा डोल।
तेहि
पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल।।
शब्दार्थ
:
- माँह = माघ
का महीना।
- पाला = बर्फ
जमना।
- काल =
मृत्यु।
- जड़काला =
जाड़े की ऋतु में।
- पहल-पहल =
प्रहर, हर समय।
- झाँपै =
ढकना।
- हहलि-हहलि =
थरथराते हुए।
- सूर = सूर्य।
- तपु = तप्त
हो।
- नाहाँ = नाथ
(स्वामी)।
- माहाँ = माघ
में।
- रस मूलू =
काम-भावना, आम के वृक्ष पर बौर (फूल)। भँवर =
भ्रमर।
- फूलू =
पुष्प।
- चुवहिं = टपक
रहे हैं।
- माँहट नीरू =
महावट का जल (शीत ऋतु की वर्षा को महावट कहते हैं)।
- सर = बाण।
- चीरू =
वस्त्र।
- सर चीरू =
बाण लगने से शरीर में चीरा लगना।
- झोला =
झकोरा।
- केहिक =
किसके लिए।
- पहिर =
पहनें।
- पटोरा =
रेशमी वस्त्र।
- गियँ =
गर्दन।
- डोरा = डोरे
के समान पतली।
- धनि = स्त्री
(नागमती)।
- तिनुवर =
तिनका।
- झोल = भस्म
(राख)।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ जायसी द्वारा रचित पद्मावत के 'नागमती वियोग खण्ड' से ली गई हैं, पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में 'बारहमासा' शीर्षक से संकलित किया गया है।
प्रसंग
: माघ का महीना लग जाने पर विरहिणी नागमती की विरह वेदना और भी बढ़ गई है। वह
प्रिय मिलन की आकांक्षा करती है, क्योंकि अब कामोन्माद सहा नहीं जा रहा। इन पंक्तियों में जायसी ने नागमती
की इसी विरह वेदना और प्रिय मिलन की आकांक्षा का वर्णन किया है।
व्याख्या
- नागमती कहती है - अब माघ का महीना लग गया है। अब तो पाला पड़ने लगा है। इस शीत
ऋतु में विरह मेरे लिए साक्षात् काल बन गया है। जैसे-जैसे मैं रुई के वस्त्रों से
अपने शरीर को ढंकती हूँ वैसे-वैसे शरीर और भी शीत का अनुभव करते हुए काँपने लगता
है। प्रियतम अब तुम्हीं मुझे इस शीत से मुक्त कर सकते हो। आप सूर्य की तरह तपते
हुए आयें तभी इस शीन से मुझे मुक्ति मिल सकेगी। माघ के इस महीने में तुम्हारे
संसर्ग के बिना शीत से मुक्ति मिलनी सम्भव नहीं है।
इस
मास में आम के वृक्ष पर लगने वाले बौर (पुष्पों) के समान स्त्री-पुरुषों के मन में
काम भावना पैदा होती है। मेरा यौवन पुष्प है और तूं इस पुष्प का रसपान करने वाला
भ्रमर, फिर
भला तू क्यों नहीं आकर अपना प्राप्य ले लेता? माघ के इस महीने में शीत ऋतु में होने
वाली वर्षा (महावट) हो रही है, जिससे सर्दी और भी बढ़ गई है। वर्षा से गीले हुए वस्त्र मेरे अंगों को बाण
के समान काट रहे हैं। ओले बरस रहे हैं ठीक उसी तरह जैसे नेत्रों से आँसू टपकते
हैं। विरह पवन बनकर मेरे अंग-अंग को झकझोर रही है।
हे
प्रियतम! मैं किसके लिए शृंगार करूँ, किसके लिए रेशमी वस्त्र पहनूँ? क्योंकि जिसे आकर्षित करने के लिए मैं
यह सब करती वह प्रियतम तो परेदश में है। आभूषण धारण करने की इच्छा नहीं करती, क्योंकि मेरी गर्दन सूखकर डोरे-सी रह
गई है, अब
उस गर्दन में हार का बोझ सहन करने की शक्ति नहीं रही है।
हे
प्रियतम ! तुम्हारे वियोग में इस विरहणी स्त्री नागमती का हृदय काँपता रहता है और
शरीरं तिनके के समान (क्षीण होकर) इधर-उधर उड़ता फिरता है। ऊपर से विरह इसे जलाकर
पूरी तरह राख बनाकर उड़ा देना चाहती है।
विशेष
:
1. विरह का मानवीकरण किया गया है।
2. माघ के महीने में वसन्त पंचमी होती है।
वसन्त ऋतु में काम भावना उद्दीप्त हो जाती है। इस काम भावना को ही यहाँ कवि ने 'रस मूलू' कहा है।
3. अलंकार-नैन चुवहिं जस माँहुट
नीरू-उदाहरण अलंकार, विरह
पवन में रूपक अलंकार है, गीउ
न हार रही होइ डोरा में अतिशयोक्ति अलंकार है, केहिक सिंगार को पहिर पटोरा में
वक्रोक्ति का सौन्दर्य है।
4. वियोग श्रृंगार रस है।
5. अवधी भाषा है तथा दोहा और चौपाई छन्द
है।
4. फागुन पवन झंकोरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।।
तन
जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रहै पवन होइ झोरा।।
तरिवर
झर झरै बन ढाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।।
करिन्ह
बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहें भा जग दून उदासू।।
फाग
करहि सब चाँचरि जोरी। मोहि जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।।
जौं
पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा।।
रातिहु
देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार जेऊँ तोरें।।
यह
तन जारौं छार कै, कहौं किं पवन उड़ाउ।
मकु
तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।।
शब्दार्थ
:
- फागुन =
फाल्गुन का महीना।
- ऑकोरै =
झोंके देकर चलने वाली हवा।
- चौगुन =
चौगुना।
- सीउ = शीत।
- पियरपात =
पीला पत्ता।
- भा = हो गया।
- तरिवर =
वृक्ष।
- ढाँखा =
पलाश।
- अनपत्त =
बिना पत्तों वाली।
- फर = फलकर
(फलों से लदकर)।
- हुलासू =
प्रसन्नता व्यक्त करना।
- दून = दुगना।
- फाग = होली
के गीत।
- चाँचरि जोरी
= होली पर समूह बनाकर किया जाने वाला नृत्य।
- लाइ दीन्हि =
आग लगा दी है।
- जौंपै = यदि।
- पियहि =
प्रियतम।
- जरत-मरत =
जलकर मरने में।
- रोस = क्रोध।
- छार कै = राख
कर दूं।
- मकु = शायद।
- तेहि = उस।
- पाउ = पैर।
सन्दर्भ
: प्रस्तुत पंक्तियाँ जायसी द्वारा रचित 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग खण्ड' से ली गई हैं जिन्हें 'बारहमासा' शीर्षक के अन्तर्गत हमारी पाठ्य-पुस्तक
'अन्तरा
भाग-2' में
संकलित किया गया है।
प्रसंग
: विरहिणी नागमती की व्यथा फागुन के महीने में और भी बढ़ गई है। होली का त्यौहार
इस महीने में मनाया जाता है, किन्तु नागमती को सारी दुनिया उदासी से भरी लगती है।
व्याख्या
: नागमती कहती है - फागुन के महीने में हवा के तेज झोंके चलने लगे हैं। शीत चौगुना
बढ़ गया है जिसे सहन करना कठिन हो रहा है। इस माह में पतझड़ होने लगा है। इधर मेरा
शरीर भी पतझड़ के पीले पत्ते की तरह नीरस, शुष्क एवं पीला पड़ गया है। ऊपर से
विरह उसे झकझोर रहा है। ढाक के वन में वृक्षों से पत्ते झड़ रहे हैं। पतझड़ में
वृक्षों की जो डालियाँ पत्तों के झड़ने से पत्तों से रहित हो गई थीं, उन पर अब नये पत्ते, फूल और फल आने लगे हैं। अब वनस्पतियाँ
इस मौसम में उल्लास से भर गई हैं, किन्तु मेरे लिए तो यह संसार दुगुना उदास हो गया है।
मेरी
सभी सखियाँ समूह बनाकर होली का चाँचरि नृत्य नाच-गा रही हैं, फाग खेल रही हैं और इस प्रकार होली का
त्यौहार मना रही हैं, किन्तु
मुझे तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने मेरे शरीर में ही होली की ज्वाला जला दी है। भाव
यह है कि विरह ज्वाला मेरे शरीर को जला रही है। यदि इस प्रकार मेरे जलने से
प्रियतम को प्रसन्नता हो तो जलकर मर जाने में मुझे तनिक भी आक्रोश या क्षोभ नहीं
होगा। अब तो रात-दिन मेरे प्राणों में एक ही रट लगी हुई है कि मैं राख बनकर
प्रियतम के शरीर से लग जाऊँ, उनसे मेरा मिलन हो जाये।
विरहिणी
नागमती अपनी आकांक्षा व्यक्त करते हुए कहती है कि मैं अपने शरीर को जलाकर राख बना
हूँ और फिर पवन से यह अनुरोध करूँ कि तू इस राख को उड़ा दे। सम्भव है यह राख उस
मार्ग पर जाकर गिर पड़े जहाँ मेरे प्रियतम उस पर अपने चरण रखें।
विशेष
:
1. आचार्य शुक्ल ने नागमती की इस आकांक्षा
को प्रिय के प्रति सात्विक प्रेम की व्यंजना बताया है और इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा
की है।
2. अलंकार-तन जस पियर पात भा मोरा में
उपमा अलंकार तथा मोहिं तन लाइ दीन्हि जस होरी में उदाहरण अलंकार है। पियर पात में
अनुप्रास अलंकार है।
3. वियोग शृंगार है।
4. अवधी भाषा है दोहा-चौपाई छन्द का
प्रयोग हुआ है।
5. 'अभिलाषा' नामक काम-दशा का चित्रण इस छन्द में
है।
बारहमासा कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी
(नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर : अगहन के महीने में शीत (ठण्ड) बढ़ गई
है, नागमती
दिन की तरह छोटी (दुर्बल) हो गई और विरह वेदना रात की तरह बड़ी हो गयी है। प्रिय
के वियोग में ये रातें काटे नहीं कटतीं। नागमती का रूप-सौन्दर्य तो प्रिंय अपने
साथ ले गया। यदि वह अब भी लौट आवे तो उसका रूप-रंग भी वापस आ जाएगा। अपने प्रियं
के पास सन्देश भिजवाती हुई वह कौए-भौरे से अनुरोध करती है कि तुम जाकर उनसे कह
देना कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे विरह की आग में जलकर मर गई और उसके शरीर से जो
धुआँ निकला उसी से हम काले हो गए।
प्रश्न 2.'जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा' पंक्ति के सन्दर्भ में नायिका की
विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
अथवा
'बारहमासा' के आधार पर नागमती की बिरह-व्यथा का
चित्रण कीजिए।
उत्तर : विरह बाज पक्षी की तरह अपने शिकार को
घेरे हुए है; उसी
के चारों ओर मँडरा रहा है। जीते जी वह पक्षी उस शिकारी (बाज) के डर से तो सूख ही
रहा है जब वह उसे अपना शिकार बनाकर मार डालेगा उसके बाद भी उसकी दुर्दशा करेगा
(चीर-फाड़कर खा जाएगा)। ठीक इसी प्रकार नागमती को लगता है कि विरह बाज पक्षी की
तरह उसे चारों ओर से घेरे हुए है, जीते जी उसे खा रहा है अर्थात् विरह के कारण वह रात दिन दुर्बल होती जा रही
है। उसे लगता है कि यह विरह अवश्य ही उसे मार डालेगा और शायद मरने के बाद भी उसका
पीछा नहीं छोड़ेगा। इस पंक्ति से विरहिणी नागमती की निराशा झलक रही है।
प्रश्न 3. माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति
होती है?
उत्तर : माघ के महीने में शीत और भी बढ़ गया
है। प्रिय के बिना इस शीत से छुटकारा मिलना उस विरहिणी को संभव नहीं लगता। जाड़े
की इस ऋतु में होने वाली वर्षा (महावट) उसकी आँखों से बहने वाले आँसुओं की तरह है।
अर्थात् वह रात-दिन प्रिय के वियोग में रोती रहती है। उसने सजना-संवरना छोड़ दिया
है, किसके
लिए श्रंगार करे, प्रिय
तो यहाँ है नहीं। विरह की पीड़ा उसे जलाकर मार डालना चाहती है।
प्रश्न 4. वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से
ढाँखें किस माह में गिरते हैं? इससे विरहिणी का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर : फागुन का महीना आ गया है। इस महीने में
वसन्त ऋतु और होली का त्यौहार होता है। वसन्त ऋतु में ही पतझड़ शुरू हो जाता है, वृक्षों से पत्ते झड़ने लगते हैं और
वनों में ढाक (पलाश) के पत्ते झड़ते हैं। वृक्षों की शाखाएँ पत्तों से रहित हो गई
हैं। यहाँ पतझड़ निराशा का प्रतीक है। विरहिणी भी इसी तरह निराश है, उसका शरीर दुर्बल हो गया है। उसके मन
में न तो उल्लास है और न आशा। वह पूरी तरह हताश है और सोचती है कि अब प्रिय
(रत्नसेन) वापस ही नहीं आएगा। इसलिए जहाँ. और सब लोग होली एवं वसन्त के उल्लास में
भरे हुए हैं वहाँ विरहिणी नागमती का हृदय विरह की आग में जल रहा है। उसे लगता है
कि मैं अपने शरीर को जला कर राख कर दूँ और पवन से प्रार्थना करूँ कि इस राख को
उड़ाकर उस मार्ग पर बिखेर दे जहाँ मेरा प्रियतम अपने चरण रखेगा। इससे नागमती की
प्रिय-मिलन की उत्कट इच्छा व्यक्त हुई है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या
कीजिए -
(क) पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।।
(ख) रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।
(ग) तुम्ह बिनु कता धनि
हरुई, तन
तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराई कै, चहै उड़ावा झोल।।
(घ) यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरै जहँ पाउ।।
उत्तर :
(क) विरहिणी नागमती भौरे और
कौए को अपना सन्देशवाहक बनाकर प्रिय के पास भेजना चाहती है अतः उनसे अनुरोध करती
है कि तुम तो उड़कर कहीं भी जा सकते हो। मेरा यह छोटा-सा सन्देश मेरे प्रिय तक
पहुँचा देना। उनसे कहना कि तुम्हारी वह पत्नी विरह में जलकर मर गई है। उसके शरीर
के जलने से जो धुआँ निकला उसी से हम काले पड़ गए हैं। नागमती के विरह का
अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण है।
(ख) विरहिणी नागमती के शरीर का सारा
रक्त निचुड़ गया, माँस
गल गया और हड्डियाँ शंख की तरह खोखली ह्ये गईं। जैसे सारस की जोड़ी जब बिछुड़ती है
तो दूसरा पक्षी जो शेष बचा है वह प्रिय की याद में रोते-रोते मर जाता है, उसी प्रकार यह नागमती भी अपनी जोड़ी
बिछुड़ने से दुखी है और अब मर रही है। प्रिय आकर इसकी मिट्टी समेट ले अर्थात् इसकी
अन्तिम क्रिया कर जाए। इस विरह वर्णन पर फारसी प्रभाव है।
(ग) हे प्रियतम! तुम्हारे वियोग में यह
नागमती इतनी दुर्बल हो गई है कि उसका शरीर तिनके की तरह हवा में उड़ जाता है। ऊपर
से विरह उसे जलाकर राख बना रहा है और हवा उस राख को उड़ाना चाहती है।
(घ) विरहिणी नागमती अपनी आकांक्षा
व्यक्त करती हुई कहती है कि मैं अपने शरीर को जलाकर राख कर दूँ और फिर पवन से
प्रार्थना करूँ कि तुम इस राख को उड़ाकर उस मार्ग पर बिखेर दो जहाँ मेरा प्रियतम
पैर रखेगा अर्थात् विरहिणी नागमती मरने के बाद भी प्रिय के मिलन की आकांक्षिणी है।
प्रश्न 6. प्रथम दो छन्दों में से अलंकार छाँटकर
लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौन्दर्य पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
1. दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी में
वक्रोक्ति अलंकार।
2. अब धनि देवस बिरह भा राती में
क्रमालंकार।
3. जरै बिरह ज्यों दीपक बाती में उदाहरण
अलंकार।
4. घर-घर में पुनरुक्तिप्रकाश।
5. सियरि अगिनि में विरोधाभास।
6. जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी में
उत्प्रेक्षा।
7. बिरह सचान में रूपक।
8. कपि-काँप में पुनरुक्तिप्रकाश।
अलंकारों के कारण कथ्य में स्पष्टता आई
है तथा नागमती की विरह वेदना का चित्र आँखों के सामने प्रत्यक्ष हुआ है। पक्षी तो
मरे हुए का माँस खाता है पर विरह रूपी सचान (बाज) तो इस जीवित नागमती का माँस खा
रहा है। इसे जीते जी दुर्बल कर रहा है।
अतिलयूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. रानी नागमती किसके वियोग में व्याकुल थी?
उत्तर : रानी नागमती
राजा रत्नसेन के वियोग में व्याकुल थी।
प्रश्न 2. 'बारहमासा' में नागमती का वियोग-वर्णन किस माह से
प्रारंभ हुआ है?
उत्तर : 'बारहमासा' में नागमती का वियोग-वर्णन अगहन माह से
प्रारंभ हुआ है।
प्रश्न 3. अगहन मास में नागमती अपने प्रिय को संदेश
किसके माध्यम से भिजवाती है?
उत्तर : अगहन मास में नागमती अपने प्रिय को
संदेश भौरे और कौए के माध्यम से भिजवाती है।
प्रश्न 4. नागमती रूपी. वियोगी पक्षी के लिए
शीतकाल कैसा बन गया है?
उत्तर : नागमती रूपी वियोगी पक्षी के लिए
शीतकाल शिकारी पक्षी बाज बन गया है।
प्रश्न 5.फागुन महीने में सखियाँ क्या कर रही
हैं?
उत्तर : फागुन महीने में सखियाँ चाँचरि नृत्य
कर रही हैं।
प्रश्न 6.कविता 'बारहमासा' में नागमती के कितने माह के वियोग का
वर्णन है?
उत्तर : कविता 'बारहमासा' में नागमती के चार माह के वियोग का
वर्णन किया गया है।
प्रश्न 7. बारहमासा कविता कहाँ से ली गई है?
उत्तर : 'बारहमासा' कविता मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित
महाकाव्य 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग खंड' से ली गयी है।
प्रश्न 8. इस कविता में किसका वर्णन किया गया है?
उत्तर : इस कविता में राजा रत्नसेन के वियोग
में संतृप्त रानी नागमती की विरह व्यथा का वर्णन किया गया है। 'नागमती वियोग खंड' में साल के विभिन्न महीनों के वियोग का
वर्णन किया गया है।
प्रश्न 9. कविता 'बारहमासा' में नागमती के जिन चार महीनों के वियोग
का वर्णन है, उनके
नाम लिखो।
उत्तर : अगहन, पूस, माघ और फागुन आदि चार माह का वर्णन है।
प्रश्न 10. "ज्यों दीपक बाती" से कवि का क्या
अभिप्राय है?
उत्तर : कवि नागमती के वियोग को बताते हुए कहता
है कि नागमती विरह के आग में दीपक की भाँति जल रही है, अर्थात् उसका वियोग उसको पल-पल. जला
रहा है।
प्रश्न 11. 'बारहमासा' कविता में विशेष क्या है?
उत्तर : इस कविता में रानी नागमती की वेदना का
वर्णन किया गया है। इसमें वियोग रस है। इस कविता में कवि की काव्यात्मक, लयात्मक तथा भावानुरूपता का वर्णन है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. 'अब धनि देवस बिरह भा राती' का क्या तात्पर्य है?
उत्तर : शीत ऋतु में दिन छोटे हो जाते हैं और
रातें लम्बी हो जाती हैं। अगहन का महीना आ जाने से शीत ऋतु का प्रारम्भ हो गया है
और दिन छोटे तथा रातें बड़ी होने लगी हैं। विरहिणी नागमती भी विरह के कारण दुर्बल
होती जा रही है किन्तु उसका विरह बढ़ता जा रहा है। इसीलिए वह कहती है कि अब यह
स्त्री (नागमती) तो दिन की तरह छोटी (अर्थात् दुर्बल) होती जा रही है किन्तु इसका
विरह सर्दी की रातों की तरह लम्बा हो रहा है अर्थात् बढ़ता जा रहा है।
प्रश्न 2. अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई' का कथ्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : विरहिणी नागमती का रूप-रंग तो प्रियतम
राजा रत्नसेन के चले जाने से उसके साथ ही चला गया किन्तु उसे पूरा विश्वास है कि
प्रिय के लौट आने पर वह पहले की तरह खिल उठेगी और उसका रूप-रंग भी वापस आ जाएगा।
पत्नी अपने पति के लिए ही सजती-संवरती है और उसके वियोग में उसका रूप-रंग भी जाता
रहता है। यही कवि कहना चाहता है।
प्रश्न 3. 'रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत
छार जेउँ तोरें' का
अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
अथवा
'बारहमासा' की नायिका 'छार' क्यों बन जाना चाहती है? पवन से वह क्या प्रार्थना करती है और
क्यों?
उत्तर :
विरहिणी नागमती के मन में
केवल एक ही इच्छा है कि वह विरह में भले ही जलकर नष्ट हो जाए पर मरने के बाद भी
उसे प्रिय के हृदय से लगने का अवसर मिल जाए। उसका शरीर तो विरह की आग में जलकर राख
हो जायेगा। उस राख के रूप में भी वह पति के वक्षस्थल से लगने की आकांक्षी है।
विरहिणी नागमती का पति प्रेम यहाँ साफ झलकता है।
प्रश्न 4. 'यह तन जारौं......जहँ पाऊ' में विरहिणी नागमती क्या आकांक्षा
व्यक्त करती है?
उत्तर : विरहिणी नागमती की आकांक्षा है कि मैं
अपने शरीर को जलाकर राख कर दूँ और फिर पवन से यह अनुरोध करूँ कि हे पवन! तू इस राख
को उड़ाकर इधर-उधर बिखेर दे। शायद यह राख उस मार्ग पर उड़कर जा गिरे जहाँ मेरा
प्रियतम अपने चरण रखेगा। मरकर भी नागमती प्रिय के चरणों में राख बनकर गिरना चाहती
है। यह आकांक्षा उसके प्रबल पति-प्रेम की परिचायक है।
प्रश्न 5. जायसी द्वारा रचित 'बारहमासा' के काव्य-सौन्दर्य पर संक्षिप्त
टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : जायसी ने अपने महाकाव्य 'पद्मावत' में रानी नागमती के विरह का वर्णन किया
है। उसके विरह की प्रबलता तथा व्यापकता को प्रकट करने के लिए कवि ने वर्ष के बारह
महीनों में उसका वर्णन किया है। श्रृंगार रस के वर्णन में वर्ष के बारह महीनों के
वर्णन को बारहमासा कहते हैं। इस अंश में कवि ने नागमती के विरह के वर्णन के लिए
अतिशयोक्ति .. अलंकार की सहायता ली है। यत्र-तत्र यह वर्णन ऊहात्मक भी है। कवि ने
दोहा तथा चौपाई छन्दों को अपनाया है और अवधी भाषा का प्रयोग किया है। प्रस्तुत अंश
'पद्मावत' के प्रभावशाली भागों में गिना जाता है।
प्रश्न 6. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो
जाड़ मिमि काढ़ी।। - पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : कवि नागमती के वियोग का वर्णन करते हुए
कह रहे हैं कि अगहन आते ही दिन छोटा होने लगता है, जिसके कारण रात और भी लंबी हो जाती है।
यह लंबी रात काटना और भी मुश्किल हो जाता है और नागमती को बहुत कष्ट देता है।
प्रश्न 7.
अब धनि देवस बिरह भा राती।
जरै
बिरह ज्यों दीपक बाती।।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर : कवि नागमती के वियोग के कष्ट को बता
रहे हैं और कहते हैं कि रात बड़ी होने की वजह से उसे काटना मुश्किल हो गया था।
लेकिन ऐसा लगता है कि अब यह छोटा दिन भी काटना मुश्किल हो जायेगा। नागमती के विरह
की अग्नि अब भी दीपक की भाँति जल रही है।
प्रश्न 8. काँपा हिया जनावा सीऊ।
तौ
पै जाइ होई सँग पीऊ।।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर : इस पंक्ति
में कवि कहते हैं कि इस दर्द-भरी सर्दी में नागमती का हृदय भी पति के वियोग में
काँपने लगा है। यह सर्दी भी उन पर असर नहीं करती जो अपने प्रियतम के साथ हैं
अर्थात जिनके जीवनसाथी उनके साथ हैं।
प्रश्न 9. घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग
लै गा नाहू।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै
फिरै रंग सोई।।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर :कवि कहते हैं कि
पूरे घर में सर्दी की तैयारी हो रही है लेकिन नागमती कहती है कि मेरा पूरा
सौन्दर्य तो सके प्रिय अपने साथ ले गए हैं। वह कहती है कि जबसे वे गए हैं तब से
वापस नहीं आए, लेकिन
जब वह वापस आएँगे तो मेरा
सौन्दर्य भी आ जायेगा।
प्रश्न 10. पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो
धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक
धुआँ हम लाग।।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।।
उत्तर : कवि कहते हैं कि नागमती इतनी ज्यादा
दुखी हो गई है कि वह भँवरे और काग (कौवा) के माध्यम से अपने प्रिय को संदेश देना
चाहती है। संदेश देते हुए वह कहती है कि जाओ कह दो, तुम्हारी विरह के अग्नि में तुम्हारी
पत्नी जल रही है। उसकी अग्नि से उठते धुएँ से ही हम काले हो गए हैं।
प्रश्न 11."जीयत खाइ मएँ नहिं छाँडा' पंक्ति के संदर्भ से नायिका की
विरह-दशा का वर्णन करो।
उत्तर : नागमती के पति वियोग की तुलना इस
पंक्ति में बाज़ से की गयी है। जिस तरह से बाज़ अपने भोजन को कुरेदता है और उसे
खाता है, उसी
तरह यह वियोग भी नागमती को खुरच कर खा रहा है। जिस प्रकार चील अपने शिकार पर नजर
गड़ाए बैठी है, उसी
प्रकार वियोग भी उन पर बैठा है। यह वियोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं
दे रहा है लेकिन आंतरिक रूप से उसे खा रहा है।
प्रश्न 12. माघ के महीने में विरहिणी को क्या लगता
है?
उत्तर : माघ महीने में ठंड अपने चरम पर रहती
है। चारों तरफ कोहरा फैलने लगता है। यह स्थिति बिरहिणी के लिए कष्टप्रद है। इसमें
विरह की पीड़ा मृत्यु के समान है। अगर पति वापस नहीं आया, तो यह ठंड उसे खा जाएगी। माघ में प्रिय
से मिलने की उसकी व्याकुलता बढ़ती है। बारिश में भीगे हुए गीले कपड़े और आभूषण तीर
की तरह चुभते हैं। उसे पता चलता है कि इस आग में जलने से उसका शरीर राख की तरह उड़
जाएगा।
प्रश्न 13. रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होई ररि मुई, आइ समेटहु पंख।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर : इन पंक्तियों में नागमती अपने प्रेमी
से अपनी स्थिति का वर्णन कर रही है। वह कहती है कि मेरी स्थिति आपके वियोग में
बिगड़ गई है। मैं इतना रोती हूँ कि मेरी आँखों से आँसुओं की जगह खून बहता है। वह
कहती है कि तुम्हारे वियाग में मैं सारसों के जोड़ी की तरह मर रही हूँ, तुम आओ और मेरे पंखों को समेट लो।
प्रश्न 14. तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई तन तिनुवर भा
डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल।।
पंक्तियों का आशय स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर : प्रस्तुत पंक्तियों में नागमती कहती है
कि प्रियतम! मैं आपके वियोग में सूखकर तिनके की भाँति हो गई हूँ। दुर्बलता के कारण
मेरा शरीर वृक्ष की भाँति हिलता है। इस विरह की अग्नि में जलकर मैं राख बन जाऊँगी
और ये हवा मेरी राख को उड़ा ले जाएगी। तुम जल्दी से मेरे पास चले आओ।
प्रश्न 15. यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परों,कत धरै जहं पाउ।।
पंक्तियों का भावार्थ
लिखिए।
उत्तर :नागमती अपने शरीर
को विरहाग्नि में जलाना चाहती है। जलने के बाद उसका शरीर राख में बदल जाएगा। उसके
बाद यह हवा उसकी राख्न को फैलाएगी और इस तरह फैलाएगी कि उसे उसके प्रिय के मार्ग
तक ले जायेगी ताकि वह अपने प्रिय को छू सके।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. 'बारहमासा' कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर : बारहमासा-जायसी द्वारा रचित महाकाव्य
पद्मावत के 'नागमती
वियोग खण्ड' में
राजा रत्नसेन की रानी नागमती. की विरह-वेदना का चित्रण 'बारहमासा' के अन्तर्गत किया गया है। चित्तौड़ का
राजा रत्नसेन सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती से विवाह करने हेतु सिहलद्वीप चला
गया। उसकी रानी नागमती अपने पति के वियोग में जिस विरह विकलता का अनुभव कर रही है
उसका वर्णन जायसी ने 'बारहमासे' के माध्यम से किया है। बारहमासे का
प्रारम्भ उन्होंने आषाढ़ मास से और समापन ज्येष्ठ मास से किया है। यहाँ चार महीनों
(अगहन, पूस, माह तथा फागुन) का वर्णन है। इन चार
महीनों में से प्रत्येक में उस विरहिणी की जो मनोदशा हो रही है उसका अत्यन्त
मार्मिक वर्णन कवि ने किया है।
अगहन के महीने में शीत ऋतु प्रारम्भ हो
गई है। दिन छोटा और रात बड़ी हो गई है। नागमती भ्रमर और कौए के माध्यम से अपने
प्रिय को सन्देश भिजवाती है कि तुम्हारी विरहिणी विरह में जलकर मर गई और उसी के
धुएँ से हम (भ्रमर और कौआ) काले पड़ गए हैं। पूस के महीने में सर्दी और बढ़ गई है, प्रिय परदेश में है और विरहिणी दुर्बल
हो गई है। माघ के महीने में विरह और भी बढ़ गया है। उसके नेत्रों से आँस 'महावट' (जाड़ों की वर्षा) की तरह टपक रहे हैं।
फागुन मास में शीत चौगुना बढ़ गया है। सभी फाग खेल रहे हैं किन्तु वह विरह के ताप
से जल रही है। उसकी अभिलाषा है कि मैं अपने शरीर को जलाकर राख कर दूं और उस मार्ग
में बिखेर दूँ जहाँ मेरा प्रिय पैर रखेगा।
प्रश्न 2. 'यह तन जारौं छार कै..... जहँ पाउ' के भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष के
काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भाव-पक्ष-जायसी द्वारा रचित 'बारहमासा' से लिए गए इस दोहे में विरहिणी नागमती
की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। वह चाहती है कि मैं अपने शरीर को जलाकर राख कर दूँ
और फिर.पवन से यह प्रार्थना करूँ कि तू इस राख को उड़ाकर उस मार्ग पर डाल दे, जहाँ मेरा प्रियतम अपने चरण स्खेगा
अर्थात् मरकर भी वह प्रियतम के चरणों की धूल बनना . पसन्द करेगी। पति के प्रति
उसके उत्कट प्रेम की अभिव्यक्ति इस दोहे में हुई है।
कला-पक्ष प्रस्तत पंक्तियों की रचना
दोहा छन्द में हई है। इनमें अवधी भाषा का प्रयोग है। वियोग अंगार रस की मार्मिक
विवेचना है। नागमती की प्रिय-मिलन की उत्कट आकांक्षा का चित्रण है। अनुप्रास
अलंकार का विधान भी इस दोहे में है।
प्रश्न 3. 'चकई निसि बिछुरै दिन मिला' हौँ निसि बासर विरह कोकिला।' के काव्य-सौन्दर्य (भाव-पक्ष तथा
कला-पक्ष) पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :भाव-पक्ष-नागमती
अपने प्रियतम राजा रत्नसेन के वियोग में अत्यन्त व्याकुल है। वह कहती है कि चकवी
अपने चकवे से केवल रात को बिछुड़ती है पर दिन में तो मिल जाती है लेकिन मैं तो ऐसी
वियोगिनी हूँ जो रात-दिन अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई है।
इस पंक्ति से नागमती की वेदना की
तीव्रता और अतिशयता का पता चलता है कि वह रात-दिन की वियोगिनी है। चकवी उससे बेहतर
है क्योंकि चकवी केवल रात का वियोग सहन करती है, दिन में तो अपने चकवे से मिल जाती है
पर वह तो रात-दिन वियोग पीड़ा से व्यथित रहती है।
कला-पक्ष - प्रस्तुत काव्यांश की रचना
अवधी भाषा में हुई है। इसमें वियोग शृंगार रस का वर्णन है। यहाँ कवि ने चौपाई छन्द
का प्रयोग किया है। कवि ने 'मैं' के
लिए ब्रजभाषा में प्रयुक्त होने वाले हौं' शब्द का प्रयोग किया है।
प्रश्न 4. 'रकत ढ़रा.... आइ समेटहु पंख' के काव्य सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भाव-पक्ष-विरहिणी नागमती कहती है कि
प्रिय के विरह में मेरे शरीर का सारा रक्त ढर (निचड) गया है, माँस, गल गया है और हड्डियाँ शंख की भाँति
पोली हो गई हैं। अब यह स्त्री (नागमती) सारस की भाँति करुण क्रंदन करके मर जाएगी
अतः हे प्रिय तुम आकर इसकी मृतदेह को समेट लेना। भाव यह है कि जैसे सारस अपनी
जोड़ी से जब बिछुड़ जाता है तो उसकी याद में अपने प्राण त्याग देता है उसी प्रकार
मैं भी प्रिय के विरह में अब प्राण त्यागने के कगार पर पहुँच गई हूँ। नागमती के
विरह की भाव-प्रधान व्यंजना हुई है।
कला-पक्ष इस काव्यांश में वियोग
श्रृंगार रस की व्यंजना है। नायिका विरह में अत्यन्त दुर्बल हो गई है। इस विरह वर्णन पर फारसी पद्धति का
प्रभाव है। रक्त का निचुड़ना, माँस का गलना, हड्डियों
का खोखला होना आदि वर्णन फारसी पद्धति से प्रभावित है। कवि ने अवधी. भाषा को
अपनाया है। इस अंश में दोहा छन्द है। 'धनि सारस ....... मुई' में उपमा अलंकार है। 'सब संख' में अनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न 5. 'फाग करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहि जिय
लाइ दीन्ह जसि होरी।'के
भाव सौन्दर्य एवं शिल्प सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा
पाल्गुन मास में जायसी की
विरहिणी नायिका की वेदना अनुभूति का वर्णन कीजिए।
उत्तर : भाव-पक्ष - फागुन का महीना लग गया है।
होली का त्यौहार इसी महीने में मनाया जाता है। मेरी सभी सखियाँ होली के त्यौहार का
आनन्द ले रही हैं, मिल-जुलकर
फाग गा रही हैं पर मैं विरह में ऐसी जल रही हूँ जैसे किसी. ने मेरे शरीर में ही
होली की आग प्रज्वलित कर दी हो। भाव यह है कि प्रिय के वियोग में उसे कुछ भी अच्छा
नहीं लगता। विरह वेदना में शरीर तप रहा है और आनन्द उत्सव उसे सुहाते नहीं हैं।
कला-पक्ष - मोहि जिय लाइ दीन्ह जस होरी
में उदाहरण अलंकार है। इसमें विरह वेदना का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। यह पंक्ति
चौपाई छन्द में रची गई है। वियोग शृंगार रस है। अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न 6. 'बारहमासा' से उदाहरण अलंकार के दो अंश छाँटकर
लिखिए तथा बताइए कि उनसे वर्णन में क्या विशेषता आई है ?
उत्तर :'बारहमासा' से उदाहरण अलंकार के दो अंश निम्नलिखित
हैं (1) नैन
चुवहिं जस माँहुट नीरू। (2) तन
जस पियर पात भा मोरा।
कवि ने नागमती के वर्णन की
तीव्रता दर्शाने के लिए उपयुक्त. अंशों में उदाहरण अलंकार का प्रयोग किया है। जिस
प्रकार माघ के महीने में वर्षा (महावट) होती है और उसकी बूंदें टपकती हैं, उसी प्रकार विरहिणी नागमती की आँखों से
प्रियतम की याद में निरन्तर आँसू टपक रहे हैं। 'पतझड़' आने पर पेड़ों के पत्ते पीले होकर गिर
जाते हैं, उसी
प्रकार विरह वेदना के कारण नागमती का शरीर पीला पड़ गया है।
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