class-11-hindi-bhaag-namak-ka-daaroga-MUNSI-PREM-CHAND संकलन-महेश कुमार बैरवा ,लालसोट {दौसा } |
लेखक परिचय
● जीवन
परिचय- प्रेमचंद का जन्म 1880 ई. में उत्तर प्रदेश के लमही गाँव
में हुआ। इनका मूल नाम धनपतराय था। इनका बचपन अभावों में बीता। इन्होंने स्कूली
शिक्षा पूरी करने के बाद पारिवारिक समस्याओं के कारण बी.ए. तक की पढ़ाई मुश्किल से
पूरी की। ये अंग्रेजी में एम.ए. करना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए नौकरी
करनी पड़ी। गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय होने के कारण उन्होंने सरकारी
नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने के बाद भी उनका लेखन
कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। ये अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ अंग्रेजों के
खिलाफ आदोलनों में हिस्सा लेते रहे। इनके जीवन का राजनीतिक संघर्ष इनकी रचनाओं में
– सामाजिक संघर्ष बनकर सामने आया
जिसमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों थे। इनका निधन 1936 ई. में हुआ।
● रचनाएँ-
प्रेमचंद का साहित्य संसार अत्यंत विस्तृत है। ये हिंदी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष
माने जाते हैं। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
उपन्यास- सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान।
कहानी-संग्रह-सोजे-वतन, मानसरोवर (आठ खंड में), गुप्त धन।
नाटक- कर्बला, संग्राम, प्रेम की देवी।
निबंध-संग्रह-कुछ विचार, विविध प्रसंग।
● साहित्यिक विशेषताएँ- हिंदी साहित्य के इतिहास में कहानी और उपन्यास की विधा के
विकास का काल-विभाजन प्रेमचंद को ही केंद्र में रखकर किया जाता रहा है। वस्तुत:
प्रेमचंद ही पहले रचनाकार हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास की विधा को कल्पना और
रुमानियत के धुंधलके से निकालकर यथार्थ की ठोस जमीन पर प्रतिष्ठित किया। यथार्थ की
जमीन से जुड़कर कहानी किस्सागोई तक सीमित न रहकर पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा से भी
जुड़ी। इसमें उनकी हिंदुस्तानी । भाषा अपने पूरे ठाट-बाट और जातीय स्वरूप के साथ
आई है।
उनका
आरंभिक कथा-साहित्य कल्पना, संयोग
और रुमानियत के ताने-बाने से बुना गया है, लेकिन एक कथाकार के रूप में उन्होंने लगातार विकास किया और
पंच परमेश्वर जैसी कहानी तथा सेवासदन जैसे उपन्यास के साथ सामाजिक जीवन को कहानी
का आधार बनाने वाली यथार्थवादी कला के अग्रदूत के रूप में सामने आए। यथार्थवाद के
भीतर भी आदर्शान्मुख यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद तक की विकास-यात्रा
प्रेमचंद ने की। आदशो आदर्शोन्मुख यथार्थवाद स्वयं उन्हीं की गढ़ी हुई संज्ञा है।
यह कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में उनके रचनात्मक प्रयासों पर लागू होती है जो
कटु यथार्थ का चित्रण करते हुए भी समस्याओं और अंतर्विरोधों को अंतत: एक आदर्शवादी
और मनोवांछित समाधान तक पहुँचा देती है। सेवासदन, प्रेमाश्रम आदि उपन्यास और पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, नमक का दरोगा आदि कहानियाँ ऐसी ही हैं। बाद की रचनाओं में
वे कटु यथार्थ को भी प्रस्तुत करने में किसी तरह का समझौता नहीं करते। गोदान
उपन्यास और पूस की रात, कफ़न
आदि कहानियाँ इसके उदाहरण हैं। साहित्य के बारे में प्रेमचंद का कहना है-
‘‘ साहित्य वह जादू की लकड़ी है जो पशुओं में ईंट-पत्थरों में
पेड़-पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है। ”
STORY -START ❤❤
जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर प्रदत्त
वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे.
अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई
चालाकी से. अधिकारियों के पौ-बारह थे. पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर
लोग इस विभाग की बरकंदाज़ी करते थे. इसके दारोगा पद के लिए तो वक़ीलों का भी जी
ललचाता था.
यह वह समय था जब अंगरेज़ी शिक्षा और ईसाई
मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे. फ़ारसी का प्राबल्य था. प्रेम की कथाएं और शृंगार
रस के काव्य पढ़कर फ़ारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे.
मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा
समाप्त करके सीरी और फ़रहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका
के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोज़गार की खोज में निकले.
उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे. समझाने लगे,‘बेटा! घर
की दुर्दशा देख रहे हो. ऋण के बोझ से दबे हुए हैं. लड़कियां हैं, वे
घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं. मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूं, न मालूम
कब गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख़्तार हो.
‘नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो
पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए. ऐसा काम ढूंढ़ना जहां कुछ
ऊपरी आय हो. मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते
लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है. वेतन
मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती. ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से
उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊं.
‘इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है.
मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो.
गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है. लेकिन बेगरज को दांव पर पाना
ज़रा कठिन है. इन बातों को निगाह में बांध लो यह मेरी जन्मभर की कमाई है.’
इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया.
वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे. ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खड़े हुए. इस
विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही
अपना सहायक था. लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर
प्रतिष्ठित हो गए. वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था. वृद्ध मुंशीजी को
सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए. महाजन कुछ नरम पड़े, कलवार की आशालता लहलहाई. पड़ोसियों के
हृदय में शूल उठने लगे.
*****
जाड़े के दिन
थे और रात का समय. नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे. मुंशी वंशीधर को यहां आए अभी छह महीनों से
अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार
से अफ़सरों को मोहित कर लिया था. अफ़सर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे.
नमक के दफ़्तर से एक मील पूर्व की ओर
जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था. दारोगाजी किवाड़ बंद किए मीठी नींद
सो रहे थे. अचानक आंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा
मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया. उठ बैठे.
इतनी रात गए गाड़ियां क्यों नदी के पार
जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है. तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया. वरदी पहनी, तमंचा
जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढ़ाए हुए पुल पर आ पहुंचे. गाड़ियों की एक
लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी. डांटकर पूछा,‘किसकी गाड़ियां हैं?’
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा. आदमियों में
कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा,‘पंडित अलोपीदीन की.’
‘कौन पंडित अलोपीदीन?’
‘दातागंज के.’
मुंशी वंशीधर चौंके. पंडित अलोपीदीन इस
इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे. लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे
से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न हों. व्यापार भी बड़ा लम्बा-चौड़ा था. बड़े
चलते-पुरजे आदमी थे. अंगरेज़ अफ़सर उनके इलाक़े में शिकार खेलने आते और उनके
मेहमान होते. बारहों मास सदाव्रत चलता था.
मुंशी ने पूछा,‘गाड़ियां
कहां जाएंगी?’
उत्तर मिला,‘कानपुर.’
लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा
छा गया. दारोगा साहब का संदेह और भी बढ़ा. कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह ज़ोर
से बोले,‘क्या तुम सब गूंगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?’
जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो
उन्होंने घोड़े को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला. भ्रम दूर हो गया. यह नमक के
ड़ेले थे.
*****
पंडित
अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे. अचानक कई गाड़ीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और
बोले,‘महाराज!
दारोगा ने गाड़ियां रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं.’
पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड
विश्वास था. वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग
में भी लक्ष्मी का ही राज्य है. उनका यह कहना यथार्थ ही था. न्याय और नीति सब
लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं. लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम
आते हैं. यह कहकर पंडितजी ने बड़ी निश्चिंतता से पान के बीड़े लगाकर खाए. फिर
लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले,‘बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा
कौन सा अपराध हुआ कि गाड़ियां रोक दी गईं. हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि
रहनी चाहिए.’
वंशीधर रुखाई से बोले,‘सरकारी
हुक़्म.’
पंडित अलोपीदीन ने हंसकर कहा,‘हम
सरकारी हुक़्म को नहीं जानते और न सरकार को. हमारे सरकार तो आप ही हैं. हमारा और
आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया. यह हो नहीं
सकता कि इधर से जाएं और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें. मैं तो आपकी सेवा में
स्वयं ही आ रहा था.’
वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ
प्रभाव न पड़ा. ईमानदारी की नई उमंग थी. कड़डककर बोले,‘हम उन
नमकहरामों में नहीं हैं, जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं. आप इस समय हिरासत में हैं.
आपको क़ायदे के अनुसार चालान होगा. बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है.
जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक़्म देता हूं.’’
पंडित अलोपीदीन स्तम्भित हो गए.
गाड़ीवानों में हलचल मच गई. पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि
पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं. बदलूसिंह आगे बढ़ा, किन्तु
रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके. पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा
निरादर करते कभी न देखा था. विचार किया कि यह अभी उद्दंड लड़का है. माया-मोह के
जाल में अभी नहीं पड़ा. अल्हड़ है, झिझकता है. बहुत दीनभाव से बोले,‘बाबू
साहब, ऐसा न
कीजिए, हम मिट
जाएंगे. इज़्ज़त धूल में मिल जाएगी. हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा? हम किसी
तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं.’
वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा,‘हम ऐसी बातें
नहीं सुनना चाहते.’
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा
था, वह पैरों
के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ. स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कड़ी चोट लगी. किन्तु
अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था. अपने मुख़्तार से बोले,‘लालाजी, एक हज़ार
के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं.’
वंशीधर ने गरम होकर कहा,‘एक हज़ार
नहीं, एक लाख
भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते.’
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और
देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया. अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा.
धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए. एक से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हज़ार तक
नौबत पहुंची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला
पर्वत की भांति अटल, अविचलित खड़ा था.
अलोपीदीन निराश होकर बोले,‘अब इससे
अधिक मेरा साहस नहीं. आगे आपको अधिकार है.’
वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा.
बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियां देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा. पंडितजी
घबड़ाकर दो-तीन क़दम पीछे हट गए. अत्यंत दीनता से बोले,‘बाबू
साहब, ईश्वर के
लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हज़ार पर निपटारा करने को तैयार हूं.’
‘असम्भव बात है.’
‘तीस हज़ार पर?
‘किसी तरह भी सम्भव नहीं.’
‘क्या चालीस हज़ार पर भी नहीं.’
‘चालीस हज़ार नहीं, चालीस
लाख पर भी असम्भव है. बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो. अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता.’
धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला.
अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियां लिए हुए अपनी तरफ आते देखा. चारों
ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे. इसके बाद मूर्छित होकर गिर पड़े.
*****
दुनिया सोती थी
पर दुनिया की जीभ जागती थी. सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुंह से यही बात सुनाई
देती थी. जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की
बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया.
पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित
रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करने वाले बाबू लोग, जाली
दस्तावेज़ बनाने वाले सेठ और साहुकार यह सब के सब देवताओं की भांति गर्दनें चला
रहे थे.
जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त
होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियां, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ़ चले
तो सारे शहर में हलचल मच गई. मेलों में कदाचित आंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी.
भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा.
किंतु अदालत में पहुंचने की देर थी. पंडित
अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे. अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले
उनके सेवक, वकील-मुख़्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी
तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के ग़ुलाम थे.
उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ़ से दौड़े.
सभी लोग विस्मित हो रहे थे. इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि
इसलिए कि वह क़ानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने
वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों क़ानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट
करता था.
बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के
निमित्त वक़ीलों की एक सेना तैयार की गई. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध
ठन गया. वंशीधर चुपचाप खड़े थे. उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट
भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र. गवाह थे, किंतु लोभ से डांवाडोल.
यहां तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर
कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था. वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा
छाया हुआ था. किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहां पक्षपात हो, वहां
न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती. मुक़दमा शीघ्र ही समाप्त हो गया.
डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पंडित
अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं. वह एक बड़े भारी
आदमी हैं. यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस
किया हो. यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह
बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट
झेलना पड़ा. हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु
नमक के मुक़दमे की बढ़ी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर
दिया. भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए.
वक़ीलों ने यह नमक का दारोगा सुना और उछल
पड़े. पंडित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले. स्वजन बांधवों ने रुपए की लूट
की. उदारता का सागर उमड़ पड़ा. उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी.
जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके
ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी. चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए. किंतु इस
समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था.
कदाचित इस मुक़दमे में सफल होकर वह इस तरह
अकड़ते हुए न चलते. आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ. न्याय और
विद्वत्ता, लंबी-चौड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है.
*****
वंशीधर ने धन
से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था. कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि
मुअत्तली का परवाना आ पहुंचा. कार्य-परायणता का दंड मिला. बेचारे भग्न हृदय, शोक और
खेद से व्यथित घर को चले. बूढ़े मुंशीजी तो पहले ही से कुड़बुड़ा रहे थे कि
चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी. सब मनमानी करता है. हम तो कलवार और कसाई के
तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहां बस वही सूखी तनख़्वाह! हमने भी तो
नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे. लेकिन काम किया, दिल
खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं. घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद
में अवश्य दिया जलाएंगे. खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया.
इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी
वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुंचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट
लिया. बोले,‘जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूं.’ बहुत देर
तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे. क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर
वहां से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता. वृद्ध माता को भी
दु:ख हुआ. जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएं मिट्टी में मिल गईं. पत्नी ने कई
दिनों तक सीधे मुंह बात तक नहीं की.
इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया. सांध्य का
समय था. बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे. इसी समय उनके द्वार पर
सजा हुआ रथ आकर रुका. हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोड़ी, उनकी
गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जड़े हुए. कई नौकर लाठियां कंधों पर रखे साथ थे.
मुंशीजी अगवानी को दौड़े देखा तो पंडित
अलोपीदीन हैं. झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे,‘हमारा
भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए. आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन
सा मुंह दिखावें, मुंह में तो कालिख लगी हुई है. किंतु क्या करें, लड़का
अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुंह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान
न दे.’
अलोपीदीन ने कहा,‘नहीं भाई
साहब, ऐसा न
कहिए.’
मुंशीजी ने चकित होकर कहा,‘ऐसी
संतान को और क्या कहूं?’
अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा,‘कुलतिलक
और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं
जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!’
पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा,‘दरोगाजी, इसे
ख़ुशामद न समझिए, ख़ुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की ज़रूरत न थी. उस रात को
आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में
आया हूं. मैंने हज़ारों रईस और अमीर देखे, हज़ारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा
किंतु परास्त किया तो आपने. मैंने सबको अपना और अपने धन का ग़ुलाम बनाकर छोड़ दिया.
मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूं.’
वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर
सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित. समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने
आए हैं. क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती
की बात असह्य सी प्रतीत हुई. पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई.
पंडितजी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा.
सद्भाव झलक रहा था. गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया. शर्माते हुए बोले,‘यह आपकी
उदारता है जो ऐसा कहते हैं. मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे
क्षमा कीजिए. मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूं. जो आज्ञा
होगी वह मेरे सिर-माथे पर.’
अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा,‘नदी तट
पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पड़ेगी.’
वंशीधर बोले,‘मैं किस
योग्य हूं, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी.’
अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र
निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले,‘इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर
कर दीजिए. मैं ब्राह्मण हूं, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूंगा.’
मुंशी वंशीधर ने उस काग़ज़ को पढ़ा तो
कृतज्ञता से आंखों में आंसू भर आए. पंडित अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी ज़ायदाद का
स्थायी मैनेजर नियत किया था. छह हज़ार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोज़ाना ख़र्च अलग, सवारी के
लिए घोड़ा, रहने को बंगला, नौकर-चाकर मुफ़्त. कम्पित स्वर में बोले,‘पंडितजी
मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूं! किंतु ऐसे उच्च
पद के योग्य नहीं हूं.’
अलोपीदीन हंसकर बोले,‘मुझे इस
समय एक अयोग्य मनुष्य की ही ज़रूरत है.’
वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा,‘यों मैं
आपका दास हूं. आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है. किंतु मुझमें न
विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है. ऐसे महान कार्य के
लिए एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की ज़रूरत है.’
अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे
वंशीधर के हाथ में देकर बोले,‘न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न
कार्यकुशलता की. इन गुणों के महत्व को ख़ूब पा चुका हूं. अब सौभाग्य और सुअवसर ने
मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड़ जाती है.
यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तख़त कर दीजिए. परमात्मा से यही
प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर
परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे.’
वंशीधर की आंखें डबडबा आईं. हृदय के
संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका. एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और
श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी के काग़ज़ पर हस्ताक्षर
कर दिए.
अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले
लगा लिया.
शब्दार्थ
पृष्ठ संख्या 6
दरोगा-थानेदार। प्रदत्त-दिया हुआ।
निषेध-मनाही। छल-प्रपंच-धोखाधड़ी। सूत्रपात-आरंभ। घूस-रिश्वत। पौ-बारह होना-ऐश
होना, अत्यधिक
लाभ होना। सर्वसम्मानित-जिसका सबके द्वारा सम्मान किया गया हो। बरकंदाजी-बंदूक
लेकर चलने वाला सिपाही या चौकीदार। जी ललचाना-आकर्षित होना। प्राबल्य-जोर।
श्रृंगार-प्रेम। फारसीदां-फारसी जानने वाला। सर्वोच्च-सबसे ऊँचा। विरहकथा-वियोग की
कहानी। मजनू-एक प्रसिद्ध प्रेम-कथा का प्रेमी नायक। फ़रहाद-सीरी की प्रेमिका।
वृत्तांत-कथा। आविष्कार-ईजाद। दुर्दशा-खराब दशा। ऋण-कर्ज कगारे का वृक्ष-जिसका अंत
समीप हो, किनारे खड़ा पेड़। मालिक-मुख्तार-बड़े आदमी। ओहदा-पदवी। पीर का
मज़ार-देवता का ठौर-ठिकाना। निगाह-दृष्टि। चढ़ावा-भेंट। ऊपरी आय-गैरकानूनी आय।
स्त्रोत-उद्गम।
पृष्ठ संख्या 7
बरकत-वृद्ध। उपरांत-उसके बाद।
गरज़वाला-जरूरतमंद। बेगरज़-जिसे जरूरत न हो। दाँव पर पाना-स्वार्थ सिद्ध करना।
निगाह में बाँधना-मन में धारण करना। विस्तृत-विशाल। पथप्रदर्शक-रास्ता दिखाने
वाला। आत्मावलंबन-अपना सहारा। शकुन-लक्षण। प्रतिष्ठित-प्रसिद्ध, स्थापित।
ठिकाना न होना-सीमा न होना, अधिक मात्रा में मिलना। सुख-संवाद-शुभ समाचार। फूला न समाना-बहुत
प्रसन्न होना। महाजन-उधार देने वाले साहूकार। नरम पड़ना-शांत होना। कलवार-शराब
बनाने और बेचने का धंधा करने वाला। शूल उठना-पीड़ा होना। आचार-व्यवहार। मोहित
करना-प्रसन्न करना। मल्लाह-नाविक। कोलाहल-शोर। गोलमाल-गड़बड़। भ्रम-संदेह। पुष्ट
किया-बढ़ाया। तमंचा-बंदूक।
पृष्ठ सख्या 8
सन्नाटा-चुप्पी। कानाफूसी होना-चुगली
होना। चलता-पुरज़ा-चालाक। सदात्रत-हमेशा भोजन बाँटना। बाट देखना-इंतजार करना।
टटोला-खोजा। ढेले-मिट्टी के मोटे टुकड़े। घाट-नदी का पक्का चबूतरा। अखंड-पक्का।
यथार्थ-सच। निश्चितता-बेफिक्री। लिहाफ़-रजाई। अपराध-दोष। रुखाई-कठोरता। घर का
मामला-आपस की बात। बाहर होना-नियंत्रण से परे। भेंट चढ़ाना-रिश्वत देना।
ऐश्वर्य-धन-वैभव। उमंग-उत्साह। नमकहराम होना-किए हुए उपकार को न मानना। कौड़ियों
पर ईमान बेचना-धन के लिए बेईमानी करना। हिरासत-गिरफ्तारी। कायदा-नियम। चालान
होना-दोष लगाना। फुरसत-खाली समय। हुक्म-आज्ञा।
पृष्ठ संख्या 1o
स्तंभित-हैरान। हलचल मचना-अशांत माहौल।
कदाचित-शायद रोब-प्रभाव। निरादर-अपमान। उददड-शरारती। माया-मोह-संसार का आकर्षण।
जाल-चक्कर। अल्हड़-मस्त। धूल में मिलना-नष्ट होना। हाथ आना-उपलब्ध होना। सांख्यिक शक्ति-धन की अधिकता की कीमत।
मुख्तार-सहायक कर्मचारी। नौबत पहुँचना-मौका आना। अलौकिक-अद्भुत। सम्मुख-सामने।
अटल-जो न टले। अविचलित-बिना डगमगाए।
पृष्ठ संख्या 11
दीनता-बेचारगी। निपटारा-हल करना। असंभव-जो
संभव न हो। कातर-घबराया हुआ। मूर्चिछत-बेहोश। जीभ जागना-इधर-उधर की बातें कहना।
टीका-टिप्पणी करना-अपनी प्रतिक्रिया देना। निदा-बुराई। पाप कटना-समाप्त होना। कल्पित-कल्पना
से। रोज़नामचा-हर रोज की कार्यवाही लिखने वाला रजिस्टर। जाली-नकली। दस्तावेज-तहरीर, सनद।
गरदनें चलाना-बढ़-चढ़कर बुराई करना। अभियुक्त-दोषी। ग्लानि-पाप-बोध। क्षोभ-गुस्सा।
व्यग्र-परेशान। अगाध-अथाह, अपार। अमले-कचहरी के छोटे कर्मचारी। अरदली-अफसर का निजी चपरासी। बिना
माल के गुलाम-न्योछावर होना।
पृष्ठ संख्या 12
विस्मित-हैरान। पंजे में आना-नियंत्रण में
आना। असाध्य-जिसका इलाज न हो। अनन्य-बहुत अधिक। वाचालता-अधिक बोलना।
तत्परता-चुस्ती। निमित्त-के वास्ते। युद्ध ठनना-लड़ाई होना। डाँवाडोल-अस्थिर।
तजवीज़-राय, निर्णय। निर्मूल-आधारहीन। भ्रमात्मक-धोखे में डालने वाला।
दुस्साहस-अधिक खतरा। नमक हलाली-किए गए उपकार को मानना। उछल पड़ना-प्रसन्नता व्यक्त
करना। स्वजन-बाँधव-अपने भाई-दोस्त। सागर उमड़ना-भावों का वेग से प्रकट होना।
व्यंग्यबाण-चुभती हुई बातें। कटु-कठोर, कड़वे। गर्वाग्नि-गर्व की आग।
पृष्ठ संख्या 13
प्रज्वलित करना-जलाना। विचित्र-अद्भुत।
चोंगा-वकील और जज का ढीला वस्त्र। बैर मोल लेना-शत्रु बनाना। मुअत्तली-नौकरी से
निकालना। परवाना आना-संदेश मिलना। भग्न-टूटा हुआ। व्यथित-दुखी।
कुड़-बुड़ाना-असंतोष जताना। एक न सुनना-ध्यान न देना। तगादा-कर्ज वापसी के लिए
जल्दी करना। सूखी तनख्वाह-वेतन मात्र पाना। ओहदेदार-ऊँचे पद वाला। अकारथ
जाना-व्यर्थ होना। दुरवस्था-बुरी दशा। सिर पीटना-असंतोष व्यक्त करना। हाथ
मलना-पछताना। विकट-भयानक। कामनाएँ-इच्छाएँ। मिट्टी में मिलना-नष्ट होना। सीधे मुँह
बात न करना-ढंग से बात न करना। पछहिएँ-पश्चिमी। अगवानी-स्वागत करना। दंडवत
करना-लेटकर प्रणाम करना।
पृष्ठ संख्या 14
लल्लो-चण्यो करना-खुशामद वाली बातें करना।
भाग्य उदय होना-किस्मत जागना। कालिख लगना-बदनाम होना। अभागा-दुर्भाग्यपूर्ण।
निस्संतान-बिना संतान के। कुलतिलक-परिवार का श्रेष्ठ व्यक्ति। कीर्ति-यश।
धर्मपरायण-धर्म की राह पर दृढ़ता से चलने वाले। अर्पण-न्योछावर। स्वेच्छा-अपनी
इच्छा। परास्त करना-हराना। ट्रकुर-सुहाती-स्वामी को अच्छी लगने वाली बातें।
असहय-असहनीय। मैल मिटना-द्वेष समाप्त होना। उड़ती हुई दृष्टि-उपेक्षा-भाव से
देखना। सदभाव-शुभ भावना। अविनय-धृष्टता। बेड़ी-जंजीर। सिर-माथे पर होना-विनयपूर्वक
स्वीकार करना।
पृष्ठ संख्या 15
त्रुटि-दोष। कृतज्ञता-किए गए उपकार को
मानना। जायदाद-संपत्ति। नियत-तय। कंपित-काँपता हुआ। सामथ्र्य-शक्ति।
कीर्तिवान-यशस्वी। मर्मज्ञ-जानकर। फीकी पड़ना-कम प्रभावी होना। दस्तखत-हस्ताक्षर।
बेमुरौवत-बिना लिहाज़। उददड-ढीठ। धर्मनिष्ठ-धर्म में दृढ़ विश्वास रखने वाला।
पृष्ठ संख्या 16
आँखें डबडबाना-भावुकता के कारण आँखों से
आँसू आना। संकुचित-तंग। पात्र-बर्तन। एहसान-कृपा। न समाना-न आ पाना। दृष्टि-नज़र, निगाह।
प्रफुल्लित-प्रसन्न।
पाठ्यपुस्तक से
हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1: कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और
क्यों?
उत्तर- इस कहानी में मुंशी वंशीधर मुझे सर्वाधिक प्रभावित करते हैं, क्योंकि वे ईमानदार, कर्तव्य परायण, कठोर, बेमुरौवत और धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। उनके घर की आर्थिक दशा बहुत खराब
थी पर फिर भी उनका ईमान नहीं डगमगाया। उनके पिता ने उन्हें ऊपरी आय पर नजर रखने की
नसीहत दी, पर वे सत्य के मार्ग पर अडिग खड़े रहे। आज देश
को ऐसे कर्मियों की जरूरत है जो बिना लालच के सत्य के मार्ग पर अडिग खड़े रहें जो
परिणाम का बेखौफ़ होकर सामना कर सकें।
प्रश्न 2:
‘नमक का दरोगा’ कहानी
में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन-से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं?
उत्तर- पंडित अलोपीदीन के दो पहलू सामने आते हैं-
(क) लक्ष्मी के
उपासक-पंडित अलोपीदीन लक्ष्मी के उपासक हैं। वे लक्ष्मी को सर्वोच्च मानते हैं।
उन्होंने अदालत में सबको खरीद रखा है। वे कुशल वक्ता भी हैं। वाणी व धन से
उन्होंने सबको वश में कर रखा है। इसी कारण वे नमक का अवैध धंधा करते हैं। वंशीधर
द्वारा पकड़े जाने पर वे अदालत में धन के बल पर स्वयं को रिहा करवा लेते हैं और
वंशीधर को नौकरी से हटवा देते हैं।
(ख) ईमानदारी के
कायल-कहानी के अंत में इनका उज्ज्वल रूप सामने आता है। वे वंशीधर की ईमानदारी के
कायल हैं। ऐसा व्यक्ति उन्हें सरलता से नहीं मिल सकता था। वे स्वयं उनके घर पहुँचे
और उसे अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर बना दिया। उन्हें अच्छा वेतन व सुविधाएँ
देकर मान-सम्मान बढ़ाया। उनके स्थान पर आम व्यक्ति तो सदा बदला लेने की बात ही
सोचता रहता।c
प्रश्न 3: कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी-न-किसी सच्चाई को
उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से उस अंश को उदधृत करते
हुए बताइए कि यह समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं-
(क) वृदध मुंशी
(ख) वकील
(ग) शहर की भीड़
उत्तर-
(क) वृद्ध मुंशी
– “बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ
हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा
हूँ, न मालूम कब गिर पड़े। अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में
ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर
रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद
है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ
स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं
विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय में विवेक की बड़ी
आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले
आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज़ को दाँव पर पाना जरा
कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो। यह मेरी जन्मभर की कमाई है।
यह संदर्भ समाज
की इस सच्चाई को उजागर करता है कि कमजोर आर्थिक दशा के कारण लोग धन के लिए अपने
बच्चों को भी गलत राह पर चलने की सलाह दे डालते हैं।
(ख) वकील – वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुसकुराते हुए
बाहर निकले। स्वजनबांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी
लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर से उनके ऊपर
व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय
एक-एक कटुवाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्वलित कर रहा
था। कदाचित् इस मुकदमे में सफ़ल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें
संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वता, लंबी-चौड़ी उपाधियाँ, बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ और ढीले चोंगे एक भी सच्चे
आदर के पात्र नहीं हैं।
इस संदर्भ में
ज्ञात होता है कि वकील समाज में झूठ और फ़रेब का व्यापार करके सच्चे लोगों को सजा
और झूठों के पक्ष में न्याय दिलवाते हैं।
(ग) शहर की भीड़
– दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो
बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से
अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना
टिकट सफ़र करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनानेवाले सेठ और साहूकार, यह सब-के-सब देवताओं की भाँति गरदने चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित
अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में
हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभभरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ़ चले, तो सारे शहर
में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे
छत और दीवार में कोई भेद न रहा। शहर की भीड़ निंदा करने में बड़ी तेज़ होती है।
अपने भीतर झाँक कर न देखने वाले दूसरों के विषय में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।
दूसरों पर टीका-टिप्पणी करना बहुत ही आसान काम है।
प्रश्न 4: निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए-
नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह
तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ
ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता हैं और
घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत हैं जिससे सदैव प्यास बुझती
हैं। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्ध नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी
से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वय विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊ।
(क) यह किसकी उक्ति है?
(ख) मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद क्यों कहा गया है?
(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं?
उत्तर- (क) यह उक्ति वंशीधर के पिता की है।
(ख) मासिक वेतन
को पूर्णमासी का चाँद कहा गया है, क्योंकि यह भी महीने में एक बार ही दिखाई देता
है। इसके बाद यह घटता चला जाता है और अंत में वह समाप्त हो जाता है। वेतन भी एक
बार पूरा आता है और खर्च होते-होते महीने के अंत तक समाप्त हो जाता है।
(ग) मैं पिता के
इस वक्तव्य से सहमत नहीं हूँ। पिता का कर्तव्य पुत्र को सही रास्ते पर चलाना होता
है, परंतु यहाँ पिता स्वयं ही भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलने की सलाह दे
रहा है।
प्रश्न 5:
‘नमक का दरोगा’ कहानी
के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
1. धर्म की जीत/सत्य की विजय
2. कर्तव्यनिष्ठ दारोगा
आधार – धर्म की जीत/सत्य की विजय शीर्षक का आधार है कि धन के आगे धर्म झुका
नहीं और अंत में पंडित अलोपीदीन ने भी धर्म के द्वार पर जाकर माथा टेक दिया।
2. कर्तव्यनिष्ठ दारोगा-वंशीधर जैसा सत्यव्रत लेने वाले युवक जो पिता के
कहने और घर की दशा को देखकर भी धन के लालच में नहीं आया। उसी के चारों ओर पूरी
कहानी घूमती है।
प्रश्न 6: कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर को मैनेजर नियुक्त
करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? तर्क सहित- उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अंत किस प्रकार
करते?
उत्तर- कहानी के अंत में अलोपीदीन ने वंशीधर को मैनेजर नियुक्त कर दिया। इसके
निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-
(क) अलोपीदीन
स्वयं भ्रष्ट था, परंतु उसे अपनी जायदाद को सँभालने के लिए
ईमानदार व्यक्ति की जरूरत थी। वंशीधर उसकी दृष्टि में योग्य व्यक्ति था।
(ख) अलोपीदीन
आत्मग्लानि से भी पीड़ित था। उसे ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति की नौकरी छिनने
का दुख था। मैं इस कहानी का अंत इस प्रकार करता-ग्लानि से भरे अलोपीदीन वंशीधर के
पास गए और वंशीधर के समक्ष ऊँचे वेतन के साथ मैनेजर पद देने का प्रस्ताव रखा। यह
सुन वंशीधर ने कहा-यदि आपको अपने किए पर ग्लानि हो रही है तो अपना जुर्म अदालत में
कबूल कर लीजिए। अलोपीदीन ने वंशीधर की शर्त मान ली। अदालत ने सारी सच्चाई जानकर
वंशीधर को नौकरी पर रखने का आदेश दिया। वंशीधर सेवानिवृत्ति तक ईमानदारीपूर्वक
नौकरी करते रहे। सेवानिवृत्ति के उपरांत अलोपीदीन ने वंशीधर को अपने समस्त
कार्यभार के लिए मैनेजर नियुक्त कर लिया।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1: दारोगा वंशीधर गैरकानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन
को गिरफ्तार करता है, लेकिन कहानी के अंत में इसी पंडित अलोपीदीन की सहृदयता पर
मुग्ध होकर उसके यहाँ मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है। आपके विचार से वंशीधर
का ऐसा करना उचित था? आप उसकी जगह होते तो क्या करते?
उत्तर- वंशीधर स्वयं सत्यनिष्ठ था, वह कहीं भी
नौकरी करे अपने काम को निष्ठा से करेगा यह उसका प्रण था। अलोपीदीन या पुलिस विभाग
कितना भ्रष्ट है, उससे उसे कोई मतलब नहीं था। यह उचित भी है, हम स्वयं को नियंत्रण में रखकर कहीं भी नौकरी करें हमारा मन पवित्र हो, हमें अपने कर्तव्य का ध्यान हो यही सबसे ज्यादा जरूरी है। यदि हम उसकी
जगह होते तो वही करते जो उसने किया। कीचड़ में ही कमल रहता है।
प्रश्न 2: नमक विभाग के दारोगा पद के लिए बड़ों-बड़ों का जी ललचाता
था। वर्तमान समाज में ऐसा कौन-सा पद होगा जिसे पाने के लिए लोग लालायित रहते होंगे
और क्यों?
उत्तर- आज समाज में आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस., आयकर, बिक्री कर आदि
की नौकरियों के लिए लोग लालायित रहते हैं, क्योंकि इन सभी
पदों पर ऊपर की आमदनी के साथ-साथ पद का रोब भी मिलता है। ये देश के नीति निर्धारक
भी होते हैं।
प्रश्न 3: अपने अनुभवों के आधार पर बताइए कि जब आपके तकों ने आपके
भ्रम को पुष्ट किया हो।
उत्तर- विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 4:
‘पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया।’ वृद्ध
मुंशी जी दवारा यह बात एक विशिष्ट संदर्भ में कही गई थी। अपने निजी अनुभवों के
आधार पर बताइए-
(क) जब आपको पढ़ना-लिखना व्यर्थ लगा हो।
(ख) जब आपको पढ़ना-लिखना सार्थक लगा हो।
(ग) ‘पढ़ना’-लिखना’ को किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया होगा साक्षरता अथवा
शिक्षा? (क्या आप इन दोनों को समान मानते हैं?)
उत्तर- (क) मेरा एक साथी अनपढ़ था। उसने व्यापार करना प्रारंभ किया और शीघ्र
ही बहुत धनी और समाज का प्रतिष्ठित आदमी बन गया। मैंने पढ़ाई में ध्यान दिया तथा
प्रथम श्रेणी में डिग्रियाँ लेने के बावजूद आज भी बेरोजगार हूँ। नौकरी के लिए मुझे
उसकी सिफारिश करवानी पड़ी तो मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई व्यर्थ लगी।
(ख) पढ़ने-लिखने
के बाद जब मैं कॉलेज में प्रोफेसर हो गया तो बड़े-बड़े अधिकारी, व्यापारी अपने बच्चों के दाखिले के लिए मेरे पास प्रार्थना करने आए।
उन्हें देखकर मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई सार्थक लगी।
(ग) ‘पढ़ना-लिखना’ को शिक्षा के अर्थ में प्रयुक्त किया था, क्योंकि साक्षरता का अर्थ अक्षरज्ञान से लिया जाता – है। शिक्षा विषय के मर्म को समझाती है।
प्रश्न 5:
‘लड़कियाँ हैं, वह
घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं।’ वाक्य समाज में लड़कियों की स्थिति की किस वास्तविकता को
प्रकट करता है?
उत्तर- इस कथन से तत्कालीन समाज में लड़कियों के प्रति उपेक्षा का भाव प्रकट
होता है। जिस प्रकार खेत में उगी व्यर्थ घास फूस को उखाड़ने में बेकार की मेहनत
लगती है, उसी प्रकार तत्कालीन समाज में लड़कियों को
पाल-पोसकर ब्याह करना बेकार की बेगार मानी जाती थी, पर आज हमारे
समाज में ऐसा नहीं है।
प्रश्न 6:
‘इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह
कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य
जिसके पास असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह
क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।’ अपने
आस-पास अलोपीदीन जैसे व्यक्तियों को देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? उपर्युक्त
टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए लिखें।
उत्तर- अलोपीदीन जैसे व्यक्ति को देखकर मुझे कुढ़न-सी महसूस होगी। ऐसे
व्यक्ति कानून को मखौल बनाते हैं। इन्हें सजा अवश्य मिलनी चाहिए। मुझे उन लोगों पर
भी गुस्सा आता है जो उनके प्रति सहानुभूति जताते हैं।
प्रश्न 7: समझाइए तो ज़रा-
1. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी
चाहिए।
2. इस विस्तृत ससार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्ध अपनी पथ-प्रदर्शक और आत्मावलबन ही अपना सहायक था।
3. तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया।
4. न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं।
5. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी।
6. खद एंसी समझ पर पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया।
7. धम ने धन को पैरों तल कुचल डाला।
8. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया।
उत्तर-
1. नौकरी में पद को महत्व न देकर उस से होने वाली ऊपर की कमाई पर ध्यान
देना चाहिए।
2. इस संसार में व्यक्ति के जीवन संघर्ष में धैर्य, बुद्ध, आत्मावलंबन ही क्रमश: मित्र, पथप्रदर्शक व सहायक का काम करते हैं। हर व्यक्ति अकेला होता है। उसे
स्वयं ही कुछ पाना होता है।
3. मनुष्य के मन में भ्रम रहता है। अनेक स्थितियों में फैंसे होने पर जब
व्यक्ति तर्क करता है तो सारे भ्रम दूर हो जाते हैं या संदेह पुष्टि हो जाती है।
4. इसका अर्थ है कि धन से न्याय व नीति को भी प्रभावित किया जाता है। धन
से मर्जी का न्याय लिया जा सकता है तथा नीतियाँ भी अपने हक की बनवाई जा सकती हैं।
ये सब धन के संकेतों पर नाचने वाली कठपुतलियाँ हैं।
5. यह संसार के स्वभाव पर तीखी टिप्पणी है। संसार में लोग कुछ करें या न
करें, दूसरे की निंदा करते हैं। हालाँकि निंदा करने वाले को अपनी कमी का
ध्यान नहीं रहता।
6. यह बात बूढ़े मुंशी ने कही थी। उन्हें वंशीधर द्वारा रिश्वत के मौके
को ठुकराने का दुख है। इस नासमझी के कारण वह उसकी पढ़ाई-लिखाई को निरर्थक मानता
है।
7. धर्म मानव की दिशा निर्धारित करता है। सत्यनिष्ठा के कारण वंशीधर ने
अलोपीदीन द्वारा चालीस हजार रुपये की पेशकश को ठुकरा दिया। उसके धर्म ने धन को
कुचल दिया।
8. यहाँ अदालतों की कार्य शैली पर व्यंग्य है। अदालतें न्याय का मंदिर
कही जाती हैं, परंतु यहाँ भी सब कुछ बिकाऊ था। धन के कारण
न्याय के सभी शस्त्र सत्य को असत्य सिद्ध करने में जुट गए। सत्य की तरफ अकेला
वंशीधर था। अत: वहाँ धन व धर्म में युद्ध-सा हो रहा था।
भाषा की बात
प्रश्न 1: भाषा की चित्रात्मकता, लोकोक्तियों और मुहावरों का जानदार उपयोग तथा हिंदी-उर्दू
के साझा रूप एवं बोलचाल की भाषा के लिहाज़ से यह कहानी अदभुत है। कहानी में से ऐसे
उदाहरण छाँट कर लिखिए और यह भी बताइए कि इनके प्रयोग से किस तरह कहानी का कथ्य
अधिक असरदार बना है?
उत्तर- इस कहानी में ऐसे अनेक उदाहरण हैं –
दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी।
वेतन तो
पूर्णमासी का चाँद है…
ऊपरी आय तो
बहता स्रोत है।
पीर का मज़ार
है… आदि।
प्रश्न 2: कहानी में मासिक वेतन के लिए किन-किन विशेषणों का प्रयोग
किया गया है? इसके
लिए आप अपनी ओर से दो-दो विशेषण और बताइए। साथ ही विशेषणों के आधार को तर्क सहित
पुष्ट कीजिए।
उत्तर- कहानी में मासिक वेतन के लिए निम्नलिखित विशेषणों का प्रयोग किया गया
है-पूर्णमासी का चाँद। हमारी तरफ से विशेषण हो सकते हैं-एक दिन का सुख या
खून-पसीने की कमाई।
प्रश्न 3:
(क) बाबू जी अशीवाद!
(ख) सरकारी हुक्म!
(ग) दातागंज के।
(घ) कानपुर
दी गई विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ एक निश्चित संदर्भ में
निश्चित अर्थ देती हैं। संदर्भ बदलते ही अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। अब आप किसी
अन्य संदर्भ में इन भाषिक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हुए समझाइए।
उत्तर-
(क) बाबूजी, आशीर्वाद! – अलोपीदीन को अपने धन और मान पर इतना घमंड था कि
वे किसी पदाधिकारी को भी कुछ नहीं मानते थे। नमस्कार कहने के बजाए आशीर्वाद कह रहे
थे।
(ख) सरकारी
हुक्म! – वंशीधर हुक्म का पालन करने में किसी भी स्थिति
में पीछे हटना या ज्यादा बात करना नहीं चाहते थे।
(ग) दातागंज
के!-अलोपीदीन जैसे प्रतिष्ठित के लिए इतना परिचय काफ़ी था।
(घ) कानपुर!-जब
चोरी पकड़ी जा रही थी तो यथा संभव संक्षिप्त उत्तर ही देना उचित
था। इन सभी अभिव्यक्तियों
को बोलने के लहजे से बदला जा सकता है। अतः मौखिक अभ्यास करें।
चर्चा करें
इस कहानी को
पढ़कर बड़ी-बड़ी डिग्रियों, न्याय और विदवता के बारे में आपकी क्या धारणा
बनती है? वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर
शिक्षकों के साथ एक परिचर्चा आयोजित करें।
उत्तर- छात्र स्वयं करें।
अन्य हल प्रश्न
● बोधात्मक
प्रश्न
प्रश्न 1:
‘नमक का दरोगा’ पाठ
का प्रतिपाद्य बताइए।
उत्तर- ‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी है, जिसमें आदर्शान्मुख यथार्थवाद का एक मुकम्मल उदाहरण है। यह कहानी धन
के ऊपर धर्म की जीत है। ‘धन’ और ‘धर्म’ को क्रमश: सद्वृत्ति और असद्वृत्ति, बुराई और अच्छाई, असत्य और सत्य कहा जा सकता है। कहानी में इनका
प्रतिनिधित्व क्रमश: पंडित अलोपीदीन और मुंशी वंशीधर नामक पात्रों ने किया है।
ईमानदार, कर्मयोगी मुंशी वंशीधर को खरीदने में असफल रहने
के बाद पंडित अलोपीदीन अपने धन की महिमा का उपयोग कर उन्हें नौकरी से हटवा देते
हैं, लेकिन अंत में सत्य के आगे उनका सिर झुक जाता है। वे सरकारी विभाग से
बखास्त वंशीधर को बहुत ऊँचे वेतन और भत्ते के साथ अपनी सारी जायदाद का स्थायी
मैनेजर नियुक्त करते हैं और गहरे अपराध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हैं- ‘परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला
बेमुरौवत, उद्दंड, किंतु
धर्मनिष्ठ दरोगा बनाए रखे।’
प्रश्न 2. वंशीधर के पिता ने उसे कौन-कौन-सी नसीहतें दीं?
उत्तर- वंशीधर के पिता ने उसे निम्नलिखित बातों की नसीहतें दीं-
(क) ओहदे पर पीर
की मज़ार की तरह नज़र रखनी चाहिए।
(ख) मज़ार पर
आने वाले चढ़ावे पर ध्यान रखो।
(ग) जरूरतमंद
व्यक्ति से कठोरता से पेश आओ ताकि धन मिल सके।
(घ) बेगरज आदमी
से विनम्रता से पेश आना चाहिए, क्योंकि वे तुम्हारे किसी काम के नहीं।
(ङ) ऊपर की कमाई
से समृद्ध आती है।
प्रश्न 3.‘नमक का दरोगा’ कहानी ‘धन पर धर्म की विजय’ की कहानी है। प्रमाण दवारा स्पष्ट’कीजिए।
उत्तर- पडित अलोपीदीन धन का उपासक था। उसने हमेशा रिश्वत देकर अपने कार्य
करवाए। उसे लगता था कि धन के आगे सब कमज़ोर हैं। वंशीधर ने गैरकानूनी ढंग से नमक
ले जा रही गाड़ियों को पकड़ लिया। अलोपीदीन ने उसे भी मोटी रिश्वत देकर मामला खत्म
करना चाहा, परंतु वंशीधर ने उसकी हर पेशकश को ठुकराकर उसे
गिरफ्तार करने का आदेश दिया। अलोपीदीन के जीवन में पहली बार ऐसा हुआ जब धर्म ने धन
पर विजय पाई।
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न
1. जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का
निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों
का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह
थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे।
इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था, जब अंग्रेज़ी शिक्षा
और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फ़ारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ
और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया
करते थे। (पृष्ठ-6)
प्रश्न
1. ईश्वर प्रदत्त
वस्तु क्या हैं? उसके निषेध से क्या परिणाम हुआ?
2. नमक विभाग की नौकरी के आकर्षण का क्या
कारण था?
3. फ़ारसी का क्या प्रभाव था?
उत्तर-
1. ईश्वर प्रदत्त
वस्तु नमक है। सरकार ने नमक विभाग बनाकर उसके निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया।
प्रतिबंध के कारण लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। इससे रिश्वतखोरी और
भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला।
2. लोग पटवारीगिरी के पद को छोड़कर नमक
विभाग की नौकरी करना चाहते थे,
क्योंकि इसमें ऊपर की कमाई होती थी।
लोग इनकों घूस देकर अपना काम निकलवाते थे।
3. इस समय फ़ारसी का प्रभाव था। फ़ारसी
पढ़े लोगों को अच्छी नौकरियाँ मिल जाती थीं। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य
पढ़कर फ़ारसी जानने वाले सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।
2. उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे-बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे
हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली
जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ न मालूम कब गिर पड़ें अब तुम्हीं घर
के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार
है। निगाह चढ़ावै और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो।
मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता
है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्ध
नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।
इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो
और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरज़वाले आदमी के साथ कठोरता करने
में लाभ ही लाभ है, लेकिन बेगरज़ को दाँव पर पाना ज़रा कठिन है। इन बातों को निगाह में
बाँध लो। यह मेरी जन्मभर की कमाई है। (पृष्ठ 6-7)
प्रश्न
1.
ओहद को पीर की
मज़ार क्यों कहा गया है?
2.
वेतन को पूर्णमासी
का चाँद क्यों कहा गया है?
3.
तन व ऊपरी आय में
क्या अतर हैं?
उत्तर-
1.
हदे को पीर की
मज़ार कहा गया है। जिस तरह पीर की मज़ार पर लोग चढ़ावा चढ़ाते हैं, उसी तरह नौकरी में
ऊपर की कमाई के रूप में चढ़ावा मिलता है।
2.
वेतन को पूर्णमासी
का चाँद कहा गया है, क्योंकि यह महीने में एक बार मिलता है। पूर्णमासी का चाँद भी महीने
में एक ही बार दिखाई देता है। उसके बाद वह घटता जाता है और एक दिन लुप्त हो जाता
है। यही स्थिति वेतन की होती है।
3.
वेतन पूर्णमासी के
चाँद की तरह है जो एक दिन दिखता है और अंत में लुप्त हो जाता है, जबकि ऊपरी आय बहता
हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है। इसलिए उसमें
बढ़ोतरी नहीं होती, जबकि ऊपर की कमाई ईश्वर देता है इसलिए उसमें बरकत होती है।
3. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि
संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था।
न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं। लेटे-ही-लेटे गर्व से बोले-चलो, हम आते हैं। यह कहकर
पंडित जी ने बड़ी निश्चिंतता से पान के बीड़े लगाकर खाए, फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए
दारोगा के पास आकर बोले-बाबू जी, आशीर्वाद कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि
गाड़ियाँ रोक दी गई। हम ब्राहमणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।
वंशीधर रुखाई से बोले-सरकारी हुक्म! (पृष्ठ–9)
प्रश्न
1.
लक्ष्मी जी के बारे
में पडित जी का क्या विश्वास था?
2.
गाड़ी पकड़ जाने की
खबर पर उनकी क्या प्रतिक्रिया थी और क्यों?
3.
वशीधर की स्खाई का
क्या कारण था?
उत्तर-
1.
पंडित अलोपीदीन का
लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वे कहते थे कि संसार और स्वर्ग में लक्ष्मी का राज
है।न्याय और नीति लक्ष्मी के इशारे पर नाचते हैं अर्थात् धन से दीन, ईमान और धर्म सब
कुछ खरीदा जा सकता है।
2.
गाड़ी पकड़े जाने
पर वे शांत थे। वे इसे सामान्य बात मानते थे। वे बेफिक्री से पान चबाते रहे और फिर
लिहाफ ओढ़कर सामान्य रूप से दरोगा के पास पहुँचे। वे समझते थे कि पैसों के बल पर
अपना हर काम निकलवा लेंगे।
3.
वंशीधर की रुखाई का
कारण नमक का गैर-कानूनी व्यापार था। वे ईमानदार, कठोर व दृढ़ अफसर थे। इसलिए वे सरकारी
आदेश का पालन करना और करवाना अपना प्रथम उत्तरदायित्व समझते थे।
4. पंडित अलोपीदीन ने हँसकर कहा-हम सरकारी हुक्म को
नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का
मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं
सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में
स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा।
ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले-हम उन नमकहरामों में
नहीं हैं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं।
आपका कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुरसत नहीं है।
जमादार बदलू सिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ। (पृष्ठ-9)
प्रश्न
1. पडित अलोपीदीन का व्यवहार केसा है?
2. ‘घाट के देवता को भेंट चढ़ाने’ से क्या तात्पर्य
हैं?
3. वशीधर का व्यवहार कैसा था?
उत्तर-
1. पंडित अलोपीदीन चालाक व्यापारी है। वह चापलूसी, रिश्वत आदि से अपना
काम निकलवाना जानता है। रिश्वत देने में माहिर होने के कारण वह सरकारी कर्मियों व
अदालत से नहीं घबराता।
2. इस कथन का तात्पर्य है कि इस क्षेत्र
के नमक के दरोगा को रिश्वत देना आवश्यक है अर्थात् बिना रिश्वत दिए वह मुफ्त में
घाट नहीं पार करने देंगे।
3. वंशीधर ने अलोपीदीन से कठोर व्यवहार
किया। वह ईमानदार था तथा गैरकानूनी कार्य करने वालों को सजा दिलाना चाहता था। इस
प्रकार वंशीधर का व्यवहार सरकारी गरिमा एवं पद के अनुरूप था।
5. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो
बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडित जी के इस
व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानी संसार से अब पापी
का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोज़नामचे
भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़
बनानेवाले सेठ और साहूकार, यह सब-के-सब देवताओं की भाँति
गरदनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और
क्षोभ भरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ चले, तो सारे शहर में हलचल
मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और
दीवार में कोई भेद न रहा। (पृष्ठ-II)
प्रश्न
1.
‘दुनिया सोती थी,
पर दुनिया की जीभ जगती थी।’ से क्या तात्पर्य
हैं?
2.
देवताओं की तरह गरदनें
चलाने का क्या मतलब है?
3.
कौन-कौन लोग गरदन
चला रह थे?
उत्तर-
1.
इस कथन के माध्यम
से लेखक कहना चाहता है कि संसार में परनिंदा हर समय होती रहती है। रात के समय हुई
घटना की चर्चा आग की तरह सारे शहर में फैल गई। हर आदमी मजे लेकर यह बात एक-दूसरे
बता रहा था।
2.
इसका अर्थ है-स्वयं
को निर्दोष समझना। देवता स्वयं को निर्दोष मानते हैं, अत: वे मानव पर
तरह-तरह के आरोप लगाते हैं। पंडित अलोपीदीन के पकड़े जाने पर भ्रष्ट भी उसकी निंदा
कर रहे थे।
3.
पानी को दूध के नाम
से बेचने वाला ग्वाला, नकली बही-खाते बनाने वाला अधिकारी वर्ग, रेल में बेटिकट
यात्रा करने वाले बाबू जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साहूकार-ये सभी गरदनें चला
रहे थे।
6. कितु अदालत में पहुँचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह
थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके
आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना माल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही
लोग चारों तरफ से दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने
क्यों यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास
असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के
पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस
आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में
धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई
बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से
डाँवाडोल। (पृष्ठ 11-12)
प्रश्न
1.
किस वन का सिह कहा
गया तथा क्यों?
2.
कचहरी की अगाध वन
क्यों कहा गया?
3.
लोगों के विस्मित
होने का क्या कारण था?
उत्तर-
1.
1. पंडित अलोपीदीन को अदालत रूपी वन का सिंह कहा गया, क्योंकि यहाँ उसके
खरीदे हुए अधिकारी, अमले, अरदली, चपरासी, चौकीदार आदि थे। वे उसके हुक्म के गुलाम थे।
2.
कचहरी को अगाध वन
कहा गया है, क्योंकि न्याय की व्यवस्था जटिल व बीहड़ होती है। हर व्यक्ति दूसरे
को खाने के लिए बैठा है। वहाँ पैसों से बहुत कुछ खरीदा जा सकता है, जिससे जनसाधारण
न्याय-प्रणाली का शिकार बनकर रह जाता है।
3.
लोग अलोपीदीन की
गिरफ्तारी से हैरान थे, क्योंकि उन्हें उसकी धन की ताकत व बातचीत की कुशलता का पता था।
उन्हें उसके पकड़े जाने पर हैरानी थी क्योंकि वह अपने धन के बल पर कानून की हर ताकत
से बचने में समर्थ था।
7. वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना
अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा।
कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित
घर कोचले। बूढ़े मुंशी जी तो पहले ही से कुड़-बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के
को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के
तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठे और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो
नौकरी की है, और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप
ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे औधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दीया जलाएँगे। खेद ऐसी
समझ पर। पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया। इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस
दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढ़े पिता जी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले-जी
चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लें। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते
रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाते तो अवश्य
ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृद्धा माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर
यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गई। पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह से बात
भी नहीं की। (पृष्ठ-13)
प्रश्न
1.
वशीधर को क्या
परिणाम भुगतना पड़ा?
2.
‘घर में औधरा,
मस्जिद में दीया अवश्य जलाएँगे। ‘—इस उक्ति में किस
पर क्या व्यग्य हैं?
3.
बूढ़ मुशी जी किसकी
पढ़ाई-लिखाई को व्यर्थ मानते हैं?
क्यों?
उत्तर-
1.
वंशीधर ने धनी
अलोपीदीन से दुश्मनी मोल ली थी। अत: उस टकराव का परिणाम तो मिलना ही था। एक सप्ताह
के अंदर उनकी कर्तव्यपरायणता के चलते नौकरी छीन ली गई।
2.
इस उक्ति में
वंशीधर की ईमानदारी पर व्यंग्य किया है। बूढ़े मुंशी कहते हैं कि घर की आर्थिक दशा
खराब है। उसे ठीक न करके जनसेवा करने से भला नहीं हो सकता।
3.
बूढ़े मुंशी जी
अपने बेटे वंशीधर की पढ़ाई-लिखाई को व्यर्थ मानते हैं। वे उसे अफसर बनाकर रिश्वत
की कमाई से अपनी हालत सुधारना चाहते थे। वंशीधर ने उनकी कल्पना के उलट किया।
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